दान की महिमा, दान की साजिश / जयप्रकाश चौकसे

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दान की महिमा, दान की साजिश
प्रकाशन तिथि : 20 नवम्बर 2012


मारियो पुजो और फ्रांसिस फोर्ड कपोला की फिल्म 'द गॉडफादर' में संगठित अपराध जगत की बारीक बुनावट के विवरण में बताया गया है कि सरगना डॉन कोटलीन अनेक लोगों की मदद करता है और इस दया के कारण उसके अनेक समर्थक सरकारी महकमों की गुप्त सूचनाएं उसे देना अपना कर्तव्य समझते हैं। डॉन अपनी 'दया' की 'वसूली' इस ढंग से करता है। अनेक डाकुओं ने भी 'दया' का इस्तेमाल किया है। राजनीतिक दल भी सरकारी धन बांटकर अपना वोट बैंक बनाते हैं और सत्ता में रहने के दिनों में अपनी विचारधारा के लोगों को ऊंचे पदों पर नियुक्त कराते हैं, ताकि उनके विपक्ष में बैठने के दिनों में वे सरकारी सूचनाएं उन्हें देते रहें। भारत में एकता का आधार निष्पक्ष प्रशासकीय एवं पुलिस विभाग रहे हैं, परंतु विगत वर्षों में विभिन्न दलों के कट्टर समर्थक घुसपैठ कर चुके हैं। दरअसल राजनीति में 'वफादारी' अर्जित दया या उपकार के आधार पर ही होती है तथा ये 'वफादारी' मनुष्य से उसके स्वतंत्र सोच का अधिकार छीन लेती है। वफादार बंदा अपने 'दाता' की हां में हां मिलाता है। वफादारों के हुजूम को भेड़ों की तरह हांका जाता है और संसदीय गणतंत्र व्यवस्था में ये 'भेड़ें' ही राष्ट्रीय चारा खा जाती हैं।

सामाजिक जीवन में भी दया का चक्र इसी ढंग से चलाया जाता है और मजबूत लोग अपनी 'भेड़ें' रचते हैं। हर सरकारी और गैरसरकारी दफ्तर में भेड़ें होती हैं, यहां तक कि परिवार में भी मुखिया की अपनी भेड़ें होती हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि संगठित अपराध को भी 'परिवार' ही कहा जाता है। धार्मिक संगठन भी इसी तरह कार्य करते हैं और 'भेड़ों' का परिवार होता है। आज पूरा देश ही एक चरागाह बन गया है, जहां मनुष्य को भेड़ों की तरह हांका जा रहा है और चरवाहे ही 'चारा' खा रहे हैं। भेड़ बनने की प्रक्रिया में आम आदमी की भी मौन सहमति रही है या कहें कि विरोध के अभाव को सहमति माना गया है।

इस पूरे प्रकरण में चिंता की बात यह है कि ऐसे हालात ही क्यों बनते हैं, जब एक मनुष्य दूसरे की सहायता लेने के लिए बाध्य होता है। डॉ. विजयपत सिंघानिया ने खाड़ी देश के एक दानवीर हुक्मरान को कहा कि आप अपने देश के लोगों को अवसर उपलब्ध कराएं कि वे खुद रोजी-रोटी आत्मसम्मान के साथ अर्जित करें। यह आपका प्रतिदिन खैरात देना समस्या का हल नहीं है। हमारी सरकारी व्यवस्था में भी सब्सिडी देने से आम आदमी के कष्ट कम नहीं हुए हैं। ग्रामीण क्षेत्र में सस्ते में उपलब्ध बीज व अन्य सुविधाएं बड़े किसानों ने हड़प ली हैं। यहां तक कि शिक्षा में जनजातियों के लिए आरक्षित सीटें भी जाली कागजात प्रस्तुत करके कुछ लोगों ने हड़प ली हैं।

दरअसल दान देने की प्रक्रिया में ही अवसरों की असमानता के साथ मनुष्य के आत्मसम्मान को छीन लेने की साजिश शामिल है। कोई मनुष्य भिखमंगे के रूप में पैदा नहीं होता। 'भिखमंगे' रचे जाते हैं। यही खेल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाकर इस तरह सामने आता है कि समर्थ देश कमजोर और गरीब देश को 'दान' देता है और अपने ढंग से 'वसूली' भी करता है। पाकिस्तान अमेरिका से सहायता लेते-लेते उनका उपनिवेश-सा हो गया है और उनके देश में अमेरिकी सेना घुसकर ओसामा बिन लादेन को मार देती है। यह लादेन का बचाव नहीं, वरन पाकिस्तान के निरीह हो जाने की बात है। भारत की स्वतंत्रता के प्रारंभिक दशकों में मजबूत प्रधानमंत्रियों ने ही भारत को उपनिवेश होने से बचाया है।

दान को धर्म और संस्कृति से भी जोड़ दिया गया है, क्योंकि ऐसा करने से मनुष्य की स्वतंत्रता का हरण पवित्र लगता है। असमानता और अन्याय आधारित व्यवस्था रचने में 'दान' की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। इस दान को महिमा-मंडित किया गया है, कर्ण के पात्र के द्वारा। उसका रक्षा कवच दान के माध्यम से छीना गया। युद्धस्थल पर घायल कर्ण से उसके सोने का दांत भी मांग लिया गया और फिर कहा गया कि अपने खाते में जमा पुण्य भी दान कर दो। दूसरी ओर दान लेने वाले सुदामा का पात्र भी रचा गया है और बेचारे एकलव्य से अंगूठा ले लिया गया। सदियों से महाजन अपने बहीखातों में अंगूठा ही लगवाते रहे हैं।

टीएस इलियट की 'द वेस्ट लैंड' का विष्णु खरे ने हिंदी में दशकों पूर्व अनुवाद किया है। एक प्रसंग है कि दिशाहीन दानव, मानव और देवता हिमवत में प्रार्थना करते हैं। घटाएं घिरती हैं और 'दा-दा-दा' की ध्वनि का अर्थ देवता धर्म लेते हैं, दानव के लिए संदेश मनुष्य पर दया करने का है और मनुष्य के लिए अपने भीतर के असुर को दमन करने का है। निरंुश तानाशाही ताकतें 'दा-दा-दा' को 'धांय-धांय-धांय' गोलियों से भूनना मानती रही है।