दामुल / शैवाल
नदी के उस पार रेतीली जमीन पर थुसड़कर बैठ गयी है रजुली। आँचल के छोर से पसीना पोछने लगी है। पूरे बदन में 'टटान' सा महसूस हो रहा है। पैर लगता है कि काठ के हो गए हैं। वह समझ रही है कि ऐसा क्यों महसूस हो रहा है। यह पैदल चलने की थकान नहीं है। यह अंदर की थकान है, जो जहानाबाद कोर्ट से बाहर निकलते वक्त ही महसूस होने लगी थी उसे। जैसे देह में जान ही नहीं हो। कटघरे में बुत बना संजीवना टुकुर-टुकुर उसकी ओर देख रहा था। पुलिस ने नीचे उतरने को कहा था उससे। और उसके नीचे उतरने से पहले ही रजुली कोर्ट से बाहर आ गई थी। समझ गई थी शायद कि अब कुछ पाना संभव नहीं, संजीवना को बचाने का कोई उपाय नहीं अब। माधो पांडे मुखिया उसके करीब से भाषण देता हुआ गुजर गया था। उसके पीछे-पीछे कई लोग। रजुली सड़क के दूसरे किनारे पर चली आई थी। 'बर-तर' लाली दुकान में खड़ा हो एक ग्लास 'चाह' पिया था। आसमान में सूरज की ऊँचाई को देखकर अनुमान लगाया था कि दिन अब थोड़ा ही शेष है। घिसटते पैरों से जहानावाद डाकबंगला के पास आई। फिर बगल वाली गली में उतर गई थी। बाजार से होते हुए स्टेशन पहुँचते-पहुँचते चार बज गए थे। वहाँ से एकंगर सराय जाने बाली बस पकड़ के तेलहड़ा आई थी। तेलहड़ा में बच्चों के लिए दो आने का फड़ही' खरीदा था। फिर सोचा था, अव क्या... अब तो खाना भी मुहाल हो जाएगा। संजीवना 'बीसबरसा जेल' काटकर लौटेगा, तब तक क्या पता बच्चे...! अधूरी बात सोचकर ही सिहर उठी थी वह। लपकते हुए कच्ची सड़क की ओर बढ़ आई थी। वेजान पैरों को घसीटने लगी थी। और यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते संझौका सूरज झाई खाए आदमी की तरह गिर चुका था। करमी की झाड़ी में छिपे हुए झिंगुर बोलने लगे हैं। निःस्तब्ध बातावरण में उनकी आवाजें सुनकर रजुली को लगा है, जैसे मुखिया माधो पांडे
हँस रहा हो।... वह भी तो आ रहा होगा पीछे से। उसके पहुँचने से पहले नाव आ जाए तो अच्छा हो। तिरलोकी मल्लाह उसे देखकर ना नुकुर नहीं करेगा, उस पार पहुँचा देगा। आखिर दुखी का दुख तो दुखी ही समझता है न। उसका भी जवान बेटा चन्नर पिछले पाँच सालों से जेल में है। मुखिया के भाई बासो पांडे ने एलेक्शन के दिनों में पैसा देकर लालची बना दिया था उसे। चारों तरफ साथ लिए फिरता। एक पुटपुटिया खरीदवा दिया था। और बूथ कब्जा करने के दरम्यान बासोपट्टी में छः लाशें गिर गई थीं, चन्नर पकड़ाकर जेल चला गया था। वासो पांडे एम.एल.ए. हो गया था। लेकिन काम निकल जाने पर कौन किसकी फिक्र करता है। बेचारा तिरलोकी मल्लाह इस बुढ़ापे में भी जान देकर खटता रहता है, चन्नर की मेहरारू और दो बच्चों के लिए। रजुली की आँखें नदी के उस पार गाँव में भटकने लगी हैं। पूरव से चलकर पश्चिम तक। दुसध टोली के झोपड़ों से लेकर माधो पांडे मुखिया की इमारत, वासो पांडे एम.एल.ए. का फ्लैटनुमा चकमक घर और दोनों के भाई ठेकेदार राधो पांडे की पनचक्की और दो मंजिले मकान तक। फिर उसके करीब अपनी छप्पर विहीन झोपड़ी के अंशतः दर्शित होते आकार को देखकर उसका मन भर आया है। रुकना और दुल्ली घुटनों में मुँह दिए दरवाजे पर लेटे होंगे। हर पल सोच रहे होंगे कि माई आ रही होगी अब। रजुली का हाथ एकाएक आँचल पर बाँधे फड़ही पर चला गया है।... सुरक्षित है, गिरा नहीं है। दोनों को फड़ही खिलाकर पानी पिला देगी। खाना बनाने की हिम्मत नहीं है आज । फिर घर में चावल-दाल भी तो नहीं है। खोसी साव से उधार माँगने गई थी तो बेपानी कर दिया था उसने। उसकी समझ में आ गया था कि यह भी माधो पांडे का करतब है। सारा गाँव इन तीनों घरों का गुलाम है। जो कहेंगे वे, वही होगा। हालांकि इन तीनों पांडे में बराबर लड़ाई- झगड़ा होता रहता है। लेकिन यह सब ऊपरी दिखावा है। तीनों एक दूसरे के जासूस हैं। गाँव का कोई आदमी इन तीनों में से किसी के खिलाफ होना है और माधो, बासो या राधो पांडे को मालूम हो जाता है तो चुपचाप उसे किसी केस में फंसबा देते हे या उसकी फसल लुटवा देते हैं। पास के झकरहवा पीपल पर
कचवचिया चिड़िया एकाएक आर्त स्वर में चीखने लगी है। रजुली'ने चौंककर उस तरफ देखा है। फिर अपने अतीत के अंधकार में छाती तक डूब गई है...। जिस दिन रजुली व्याह कर संजीवना के घर में आई थी, संजीवना ने दरवाजे पर पहुँचते-पहुँचते कहा था, "चलो, पांडेजी लोगों को गोड़ लग लो!" घोघा ताने रजुली संजीवना के साथ तीनों के घर बारी-बारी से गई थी, जमीन पर सिर टिकाकर प्रणाम किया था। बदले में कोई आशीर्वाद सुनाई नहीं दिया था। उन तीनों के घर से लांटने के बाद संजीवना 'सिरा-घर' में ले गया था, देवी-देवताओं के पास गोड़ लगने के लिए। रात को सोते वक्त रजुली ने पूछा था, "पांडे लोग देवी-देवता से बड़ा है क्या?" "काहे ?" "पहले उनके इहाँ ही गोड़ लगने ले गए थे...।" रजुली की बात अधूरी रह गई थी। संजीवना ने झल्लाकर उसे भारी- भरकम गालियों से साज दिया था। फिर अपनी कायरता पर ठिसुआया हुआ या चिढ़ा हुआ दूसरी ओर मुँह करके सो गया था। दूसरे दिन, दोपहर के वक्त काफी हो-हल्ला सुनकर दरवाजे के पास आई थी रजुली। किवार भेड़कर 'फांट' (वीच की जगह) से बाहर देखने लगी थी। मुखिया जी के घर पर भीड़ लगी थी। भीड़ के बीच संजीवना भैंसी का पगहा हाथ में पकड़े खड़ा था। मुखिया जी बराहिल से कह रहे थे, "रुनू बाबू ! भैंसी को गोहाल में बांधिए और ई ससुरा को मोगली देकर पार दीजिए।" पास खड़ा एक बूढ़ा आदमी बार-बार मुखिया जी के पैर छू रहा था। सिफारिश कर रहा था, "छोड़ देहु, बाबू ! बिना माय-बाप के हई।" "की हो लछमन, लीडर बनने लगा बुढौती में। ई ससुर बिना सजाय के सुधरने वाला है। बिना माय-बाप का है तो क्या नालायक हो जाएगा? हम मर
गए हैं क्या? ई सब छाँड़ा- छपाट को ठीक करना तो हमारे लिए एक मिनट का काम है।" माधो पांडे की बातें सुनकर ऐसा लग रहा था, जैसे वे पूरे गाँव के माई- बाप हों, सबको सुधारने का अधिकार उन्हें मिला हो। “बस अबकी बेर, मालिक!" बूढ़े ने तीन बार झुककर पैर छुआ। उसकी बेतरतीब दाढ़ी काँप रही थी। माधो पांडे ने पैर हटा लिए थे। बूढ़ा झुकी हुई कमर के कारण हिलता हुआ संजीवना के पास आया था, "साला! बेहया ऐसा खड़ा है, मालिक का गोड़ नहीं पकड़ा जाता?" और दूसरे ही क्षण रजुली ने पूरा का पूरा किवाड़ भेड़ दिया था। संजीवना को मुखिया जी के पैर पर माथा रगड़ते देखना... असह्य हो गया था। अकथ व्यथा और अपमान की तीव्रतम अनुभूति के साथ उसने आँखें मूंद ली थीं, जैसे हर दीवार पर वही दृश्य उगने लगा हो। दूसरे ही क्षण मुखिया जी की आवाज उसकी छाती बींध गई थी, "हरामी! सादी करना जरूरी था कोनो! परियार बाढ़ में पैसा देकर भूखों मरने से बचाया था, लेकिन तुझे उस पैसे का देन याद नहीं आया... पेट भरा नहीं कि ऐश-मौज की तलब लगने लगी..." मुखिया जी की आवाज में विचित्र माधुर्य था, ऐसे जैसे बेटे को दुलार रहे हों, सही रास्ता दिखा रहे हों... लेकिन भावनाओं में गजब की कड़वाहट थी। "पैसा चुकाया पार नहीं लगता तो भैंसी दे दे या घर बंधक रख दे। दोनों में से कुछ नहीं होता तो ऊभी कह... आंय रे छौंड़ा! एनना जवानी चढ़ गया तुमको कि मेहरारू के बिना जान-परान निकलने लगा।" आवाजों के मारक संघात से बचने के लिए रजुली कान बंदकर आंगन में चली गई थी। कलेजा हॉल रहा था। मन कह रहा था कि जरूर कुछ होगा। ...संजीवना दिन भर घर नहीं लौटा। रात में भी नहीं आया। दूसरे दिन सुबह पुलिस उसे ढूंढ़ती फिर रही थी। गाँव में हल्ला हो गया था कि कल रात संजीवना कड़रा गाँव के बाबू साहब लोगों के गोहाल से एक जोड़ा मैना वैला चुरा लाया है।
पुलिस झोपड़े में संजीवना को ढूँढ़ने आई थी। हांड़ी-कोठला को बूट मार- मारकर तोड़ दिया था। रजुली चुप बैठी रही थी। यह सोचते हुए कि आदमी क्या हांड़ी और छोटे से कोठला में छिपा रहेगा। पुलिस बाहर निकल गई थी तो माधो पांडे उसके पास आए थे। फुसफुसाकर कहने लगे थे, "घबरइहें मत। हम जिन्दा हैं अभी। पुलिस ऐसहइंचे दिखाया कर रही है।" फिर कान में कुछ कहने का वहाना करते हुए उसके गाल से अपनी ठुड्डी सटाकर फुसफुसाए थे, "संजीवना हमरा इहां है, अन्दर ड्योढ़ी में। पुलिस को कुछ माल- फाल चाहिए, सो हम दे देंगे।" रजुली चिहुंक गई थी। लाज-शरम छोड़कर पांडे जी का मुंह तकने लगी थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि यह सब क्या हो रहा है। सब कुछ बाद में समझ आया। संजीवना उस रात वारह बजे घर आया। उसके बदन पर जगह-जगह जख्म थे। एक मिनट के लिए दोनों एक दूसरे को देखते रहे थे। फिर रजुली उसके सीने में सिमटकर रोने लगी थी। संजीवना ने बेरुखी से उसे परे कर दिया था। ढिबरी की रोशनी में रजुली ने देखा था कि संजीवना के लहू का छाप उसकी साड़ी पर बगवगा कर उग आया है। पानी गर्म करने के लिए कहकर संजीवना खाट पर लेट गया था। धोती के फेंटा से मलहम का ट्यूब और रूई निकालकर खाट पर रख दिया था। जख्मों को साफ कर, मलहम लगाकर और फूले हुए भाग की सिलाई करके उसके बगल में लेटी ही थी रजुली कि कौआ वोलने लगा था। संजीवना कुछ नहीं बोल रहा था, जैसे काठ मार गया हो। चेहरा एकदम बुझा हुआ था। आँखों में दहशत थी, जैसे कहीं भूत दिख गया हो। रजुली ने उसे अपनी कसम देकर पूछा था, "इतने घबराए हुए क्यों हो कुछ कहोगे नहीं?" संजीबना ने उसकी ओर करवट लेकर आंखों को मूंद लिया था। फिर कहने लगा था, "मुखीवा चोर का सरदार है। जनाना हाता में एक ठो तहखाना है। वहीं चोरी के बैल रखे जाते हैं। गाँव में तीस आदमी मुखीवा के इशारे पर बैल चुराते
हैं। दस आदमी दलाल हैं। पनहा मांगकर लाते हैं... वेल लौटाने के बदले पैसा उगाहते हैं।" जैसे अपने आप से बोल रहा था संजीवना, जैसे अंदर की बातों को कहे बिना चैन नहीं मिल रहा हो। रजुली हल्के- हल्के उसके माथे पर हथेली फिराने लगी थी। " मुखीवा बोला था कि कड़रा से वैल चुरा के ला दो तो उधार पट जाएगा। हम ला दिए। मुदा हम नहीं जानते थे कि...।" आगे संजीवना कुछ बोल नहीं पाया। आँखों से टप- टप आंसू वहने लगे। खिड़की से भुल्कवा तारा को देखते हुए रजुली की आंखें जलने लगी थीं। घर के पास से पंडुकों का एक झुंड 'विसुन जी एके तुम-विसुन जी एके तुम' की टेर लगाता हुआ गुजर गया था। तीन दिनों के बाद संजीवना कुछ ठीक हुआ तो फिर मुखिया जी के यहाँ से बुलाहटा आ गया। वहाँ से लौटा तो हाथ में पेपिन पाढ़ की साड़ी और एक धोती लिए। काठ के बाक्स पर साड़ी-धोती रखकर निदाल पड़ गया था वैसे ही बुत की तरह। कौन वात सोच रहे हो? कुछ नहीं। तो फिर ऐसे काहे पड़े हो? उसकी बात सुनकर संजीवना बिगड़ उठा था। चेहरे पर एक तरफ क्रोथ और दूसरी तरफ कातरता का भाव लिए हुए बोला था, "बोल क्या कहती है हरामजादी! क्या करू हंसू... नांचू, गाऊं... इसकी मां की... सूझता नहीं कि मेरे गले में दामुल का फंदा पड़ा हुआ है...।" और भी बहुत सारी वातें बकता रहा था संजीवना। रजुली ने टोका नहीं। सोचा, घाव से मवाद का निकल जाना ही बेहतर है।... थोड़ा चैन मिलेगा !
अधरात के वक्त रजुली ने देखा कि संजीवना उठकर बाहर जा रहा है... प्रेत की तरह... टगता हुआ, खोया-खोया सा! रजुली ने अपना चेहरा दोनों हथेलियों के बीच समो लिया था... रोने लगी थी बेआवाज ढंग से। पता नहीं चल रहा था कि कैसे इस जाल से मुक्त करे संजीवना को... अपने आप को ! यह जाल धीरे-धीरे कसता गया था। भर अंधेरिया संजीवना गाय-बैलों की चोरी पर जाता रहा था। एक दिन रजुली ने हिम्मत करके पूछा था, "इस काम को छोड़ नहीं सकते? मुखिया जी से कह नहीं सकते कि हमने आपका कर्जा चुका दिया, अब हमको रिहा कर दीजिए?" "तुम क्या समझती हो कि हम यह सब शौक से कर रहे हैं?" महुआ की बदबू मुँह से निकालता हुआ संजीवना बुदबुदाया था, "मुखीवा रिहा कर देगा तो पुलिस पकड़ के ले जाएगी। जब तक मुखीवा का काम कर रहा हूँ, बचा रहा है। छोड़ दूँगा तो पुलिस से कह के जेल भिजवा देगा।" दोनों के बीच गेंहुंवन सांप की तरह सन्नाटा फन काढ़कर बैठ गया था। और हवा के झोंके से ढिवरी के बुझते ही एक दहशत भरे माहौल ने उन्हें अपनी गिरफ्त में जकड़ लिया था। हलफा की 'हुआफ-हुआफ' करती आवाज, पानी में फेंकी जाती लग्गी से पैदा हुई 'गड़प-गड़प' की आवाज, लग्गी और बांस की टकराहट से पैदा हुई 'खटर-खट' की आवाज और चौपाई गाते हुए तिरलोकी की फटी-फटी आवाज सुनकर रजुली उठ बैठी है। दो-चार क्षणों के बाद लालटेन की मद्धिम रोशनी के जरिए रेत पर कांपती छायाएं बनाती नाब किनारे पर आकर लग गई है।
रजुली नाब की ओर
लपककर बढ़ आई है। तिरलोकी की यूकी आँखों ने उसे पहचानने की कोशिक की है, "के हऽ बावू?" "हम रुकना के माय।" रजुली ने नाव पर पेरों को साधते हुए कहा है। "जहानाबाद गेलऽ हल?"
"हूँ।" आगे तिरलोकी ने कुछ नहीं पूछा है। और पूछना क्या है! वह नहीं जानता की माथो पांडे जैसे लोगों के सामने खड़ा होने वाला हर छोटी औकात का आदमी जिन्दा प्रेत हो जाएगा ! दाई ओर से एक ओर छाया निकलकर आई है। उसके करीब आने पर रजुली ने पहचाना है, कि वह दाहु वीड़ी वाला है। एकंगसराय से बीड़ी का पत्ता लेकर लौट रहा होगा। " हमको जल्दी है तनी, लड़कन सब भूखा पड़ा होगा।" रजुली ने मद्धिम आवाज में इसरार किया है। तिरलोकी ने नाव को खोल दिया है। दाहु से रामायण-चर्चा करने लगा है, "हनुमान जी को सराप था कि जब तक कोई याद नहीं दिलाएगा, तब तक वे अपनी शक्ति नहीं पांएगे। और जब समुद्दर पार करने का वखत आया तो उन्हें चुप बैठा देखकर जामवंत ने कहा कि हे भाई ! तुम्हारे पास तो इतनी शक्ति है, फिर चुप क्यों बैठे हो। यह समुदर तुम्हारे लिये क्या है!" रजुली कुछ और सोचने लगी है। माधो, वासो और राघव पांडे की बात। केसे तीनों भाई सारे गांव के लोगों का मांस नोचकर खा रहे हैं। और कोई आदमी प्रतिरोध नहीं करता। सारे लोग सिर झुकाकर गुलामी करते हैं। पेरे छूकर सलाम करते हैं... देवता से बड़ा मानते हैं। ... कि कहीं ये छोटी आंकाल वाले लोग भी हनुमान जी की तरह शापग्रस्त तो नहीं?" अपने सवाल का कोई जवाब रजुली को नहीं मिला है। जैसे हलफा के साथ सवाल भी उठकर एक तरफ वह गया हो...? लेकिन बीते दिनों की स्मृति कहाँ हलफे के साथ बहकर जाएगी। वह तो वर्तमान में प्रतिफल बनकर जिन्दा है और भविष्य में बाढ़ की शक्ल अख्तियार कर लेगी! रजुली के तन-बदन में एक सिहरन-सा व्याप्त गया है। सर से पैर तक झुनझुनी की लकीर तेर गई है। और दूसरे ही क्षण फिर काली रातों के अहसास जहन में गुजरने लगे हैं।
... जैसे-जैसे संजीवना पुराना हो गया था चोरी के क्षेत्र में, वैसे-वैसे आत्मदंश से छुटकारा पाता चला गया था। शायद वह सोचने लगा था कि जो हो रहा है उससे लड़ने की ताकत उसके अंदर नहीं है, तो फिर व्यर्थ चिंता क्यों करें। वह एकदम लाफिक हो गया था। उसके अंदर रजुली की चाह भी मर गई थी। रजुली ही क्यों, किसी भी इच्छा से उसका कोई जुड़ाव नहीं रह गया था। जो मिल जाता, खा लेता। पीकर आता। मरे हुए आदमी की तरह बगल में सो रहता। रजुली को ऐसा लगने लगा था, जैसे वह संजीवना के साथ नहीं, किसी पराए मर्द के साथ सोई हुई है। आदमी इतना तो बदल नहीं सकता कि वह एकदम दूसरा आदमी बन जाए। लेकिन सच तो यही था। मुखिया के कुचक ने संजीवना को अंदर से मार दिया था। और उसकी बाहरी दुनिया में जो कुछ शेष बचा था, वे सब उसकी अपनी चीजें नहीं थीं। पराई चीजों ने ही उसे संज्ञाशून्य बना दिया था... अपने आप से अजनवी या अथपागल ! इसी अर्द्ध पागलपन में एक रात संजीवना उसका हाथ पकड़कर बाहर आया था। माधो पांडे के ठाकुर जी की कोठरी में छोड़ गया था, "सुबह तक ठाकुर जी को भजना, सोना मत !" संजीवना चला गया था। ओर ठाकुर जी की घंटी की जगह माधो पांडे की आवाज बजने लगी थी उसके कानों के पास, "अंदर कहीं जगह नहीं है... दालान में बुढ़वा वाप सोया है... तू फिकर मत कर लेकिन... ठाकुर जी सब समझते हैं... सबका तकलीफ, सवका दुख..." ...और एक नए दुख के सांचे में रजुली की मिट्टी डालकर माधो पांडे ने एक दूसरी मूर्ति गढ़ ली थी उस रात ! फिर कुछ दिनों तक सब कुछ एकरस चला था, न दुख था, न सुख, और न आत्मग्लानि ही। मिट्टी की मूरत को भी कुछ महसूस हो सकता है क्या ! लेकिन उस दिन जब दुल्ली पैदा हुई थी, संजीवना पता नहीं कैसे मिट्टी से फिर आदमी बन गया था। उसकी खाट के पास बैठकर रोने लगा था। "अब क्या हुआ?" रजुली ने इस तरह पूछा था जैसे रुकना से विगड़कर कह रही हो, "अब क्या खायेगा, रे जरलहवा... ले हमरे चिबा जो..."
संजीवना खाट की पाटी पर सिर घिसने लगा था, वक-बक करने लगा था। असंबद्ध- सी बातें करने लगा था, "वर्मा बाबू किरानी पिछले महीने मर गया। उसकी विधवा औरत शहर से यहाँ गाँव में आई है- महात्माइन ! कोई लड़का फड़का नहीं है। बोलती है, यहीं मरेगी। लेकिन कैसे मरेगी यहाँ। मुखीवा बोलता है, यह सब ढोंग है। साली किसी रिश्तेदार को घर-दुआर लिख जाएगी। और क्या पता कितने दिन में मरेगी! तब तक तो मुखीबा को तकलीफ होगा। फिर उसकी जमीन मुखीबा की जमीन से सटी हुई है। और उसके घर में मुखीवा के दलाल-चार साथी का अड्डा है... इसलिए मुखीवा बोलता है कि उससे सादा कागज पर टिप्पा लेकर बेस ढंग से उसको पार-घाट लगा दो।" "तव्य?" रजुली ने निश्चिंत भाव से पूछा था। "मुखीवा साला हमको दामुल पर चढ़ाना चाहता है। हम वेकूफ हैं कि मान जाएंगे। हम महात्माइन की तरफ से बोले तो मुखीवा से झगड़ा हो गया। हमने कह दिया कि जो मन में आए सो करो, लेकिन अब हम तुम्हारे साथ नहीं रहेंगे और महात्माइन को कुच्छो हुआ तो ठीक नहीं होगा..." “महात्माइन कौन लगती है तुम्हारी, जो उसका पच्छ ले रहे हो?" रजुली ने भरी हुई आवाज में पूष्ठा था। उसकी बात सुनकर संजीवना तमककर खड़ा हो गया था। फिर लाल-लाल आँखों से चुपचाप घूरने लगा था। नाव किनारे आकर लग गई है। रजुली ने चार आना गॅठी से खोलकर तिरलोकी की हथेली पर रख दिया है। फिर तेज-तेज कदमों से घर की ओर बढ़ गई है। खजूर के पेड़ों की कतार, महावीर जी का चबूतरा, सरवन गोसाई का गोहाल... महात्माइन के घर के पास से गुजरते हुए उसे ऐसा लगा है, जैसे किसी चिरारी के पास से गुजर रही हो... यहीं पर तो उस दिन संजीवना धोखा खा गया था।
अधरात के वक्त एकाएक तेज हल्ला उठा था "संजीवना महात्माइन को मार दिहिस रे... पकड़ो पकड़ो साला, हत्यारा ! निर्दोष औरत से कौन वर था रे ऐं! वो..." फिर संजीवना की अकबकाई चीख पंखकटे परिन्दे की तरह तड़फड़ाने लगी थी, "मइया-गे-मइया ! हम नय वावू... हम कुच्छो नहीं किए, मीरा... हम तो... हम तो.... और उसके आगे खतरनाक पूर्णविराम लग गया था। रजुली दौड़कर वहाँ पहुँची थी तो देखा था कि संजीवना निश्चेत वीच गली में पड़ा है। लालटेन की तेज रोशनी के वृत-वीच एक खजुआए कुत्ते की तरह। और उसके चारों ओर माधो पांडे, बासो पांडे, राधो पांडे, रुनु वायु और कई खतरनाक पागल कुत्ते उछलकूद कर रहे हैं। सुबह होते ही पुलिस आई थी। महात्माइन की लाश के साथ अधमरे संजीबना को भी ढोकर ले गई थी। जिस वक्त संजीवना जा रहा था, रजुली उसके पास गई थी और बिना कुछ बोले हुए उसके कंधे पर फटी हुई गमछी रखकर लोट आई थी।
दहलीज पर पैर रखते ही दो छोटे-छोटे बच्चे उससे लिपट गए हैं। दिबरी की रोशनी में रजुली ने उनका चेहरा देखा है... सूखी हुई वलुरी जैसा चेहरा। फिर पता नहीं क्यों, एक तेज गुस्से से भर उठी है। शायद उसे अपनी अवशता पर गुस्सा आ गया है। "दूर, रे हरामी ! मर काहे नहीं जाता सब..." उसकी आवाज सन्नाटे में भाले की तरह चमक गई है। येदर्दी के साथ उन्हें परे ढकेल दिया है उसने। भुनभुनाते हुए और गालियां बकते हुए घर के भीतर चली गई है यह। वच्चे सहमकर खड़े रह गए हैं।
गुस्से से भरी हुई रजुली ने अल्यूमिनियम की छिपली को ताखे पर से उतार लिया है। आँचल खोलकर फड़ही छिपली में रखा है। फिर मिट्टी की हांड़ी से नमक निकालकर छिपली के एक कोने में रखते हुए चीख पड़ी है, "चल ठूंस!" बच्चे लपककर आगे बढ़ आए हैं। जमीन पर घुसड़कर बैठ गए हैं, विटिर- विटिर ताकते हुए। रजुली ने छिपली ठेलकर उनके आगे कर दिया है। बच्चे सहमी निगाहों से कभी उसे और कभी छिपली को देखते हुए तेजी से हाथ-मुँह चलाने लगे हैं। रजुली दीवाल से पीठ भेड़कर बैठ गई है। बच्चों ने खा लिया तो रूखी आबाज में उसने डांटा है, "अब बैठा-बैठा में क्या देख रहा है... हाथ धो, पानी पी..." बच्चे मशीन की तरह खड़े हैं। बेआबाज कदमों से कोने तक गए हैं। रुकना घबराहट में घड़ा से पानी ढारने लगा है तो ढेर सारा पानी जमीन पर गिर गया है। उसने चोर निगाहों से मां को देखा है। मां को दूसरी तरफ देखते हुए पाकर उसने तेजी के साथ कटोरा मुंह से लगा लिया है। फिर एक सांस में ढेर सारा पानी पीकर 'सरक' चुका है। खांय-खांय की आवाज करते हुए खांसने लगा है। दुल्ली ने उसके हाथ से कटोरा ले लिया है। एक-दो घंट पानी गले से नीचे उतारकर चुप खड़ी हो गई है। "अब जल्दी से आकर सुतेगा कि नहीं? वहाँ क्या कर रहा है, बाप का सराध?" बच्चे मरी हुई चाल से आकर विछावन पर चुपचाप लेट गए हैं। रजुली ने दरवाजा बंद किया है। फिर ढिबरी बुझाकर बच्चों के बगल में लेट गई है। पास-पड़ोस की आवाजें मर चुकी हैं। रात भीग आई है। निस्तब्ध वातावरण में सिर्फ पनचक्की की 'हुक्क हुक्क' करती आवाज गूंज रही है। खिड़की से आसमान का एक काला टुकड़ा दिखाई दे रहा है उसे। "हनुमान जी को सराप था कि..." त्रिलोकी मल्लाह की बात उसके जहन में एकाएक खच से काँध गई है। ऐसा महसूस हुआ है जैसे छाती पर माधो, राधो और बासो पांडे बैठकर हुमच रहे हैं।
एकाएक तीव्र आक्रोश से भरकर फट पड़ी है वह "हरामी दामुल के डर से डरता रहा... गुलामी करता रहा कायर... तू मुखीवा को मारकर दामुल पर काहे नहीं चढ़ा रे..." विलाप के आखिरी टुकड़े के साथ रजुली की छाती अलाव की तरह दहकने लगी है। और एक ठोस निर्णय से जुड़कर तेजी के साथ उठकर बैठ गई है वह। खिड़की से दिखाई देते आसमान के टुकड़े ने अब समुद्र की शक्ल अख्तियार कर ली है!