दारोश / एस. आर. हरनोट
कानम कभी ठीक से सोई नहीं होगी। आज भी उसने उनींदी आंखों से अखबार पढना शुरु किया था। पहले पन्ने पर एक अप्रत्याशित खबर ने उसे चौंका दिया। वह एक ही सांस में उसे पढ ग़ई। उठी और दौडी - दौडी अपने पापा के कमरे में पहुंची। वह बिस्तर पर लेटे - लेटे सुबह की चाय का इंतजार कर रहे थे। अखबार हाथ में लिये कानम का उस तरफ जाना उन्हें असमंजस में डाल गया। वह कुछ पूछते, कानम ने अखबार उनके सामने रखते हुए कहा था, छोटे पापा। छोटे पापा। देखो क्या न्यूज छपी है!
वह खबर पर कम, कानम के चेहरे पर अधिक उत्सुकता और एकाग्रता से देखने लगे। पहली बार उसकी आवाज में एक सम्पूर्णता और विश्वास महसूसा था उन्होंने। उसकी आंखों में एक तीव्रता थी। नयापन था। शायद उस खबर को पढा लेने की शीघ्रता थी। इसके पूर्व कि छोटे पापा पास पडी एेनक उठाएं कानम खुद पढने लगी थी। छोटी अम्मा के आने की आहट भी उसने नहीं सुनी। अबाध पढती रही।
तहसील के दो युवकों ने अपने कुछ साथियों के सहयोग से गांव की एक लडक़ी को, जो उसकी सहेली के साथ पास के स्कूल में टूर्नामेन्ट देखने जा रही थी, जबरन उठा लिया। उसे पास की गुफा में ले गये। बाकी युवक तो चले गये लेकिन जो उसके साथ विवाह करने का इच्छुक था वह उसके साथ वहीं रहा और लडक़ी की इच्छा के विरूध्द सहवास किया
कानम इतना पढ क़र अचानक रुक गयी। कमरे में गहरा सन्नाटा था। सुबह का सूरज धीरे धीरे ऊपर चढ रहा था। किरणें खिडक़ी के भीतर पडने लगी थीं। इस उजाले ने भीतर एक नयापन भर दिया। कानम उसे भीतर तक महसूस करने लगी थी। उसके छोटे पापा और अम्मा अभी चुपचाप थे। कानम ने उनकी आंखों में एक भय पसरा देखा। यह भय बरसों से उस घर में था। या कहीं छोटे पापा के मन के भीतर या कानम की उन उनींदी आंखों में जो उसे कभी चैन से सोने नहीं देता था। इस खबर के भीतर वह भय और भी गहराता चला गया। छोटी अम्मा दहलीज के साथ हाथ में चाय की ट्रे लिये स्तब्ध खडी थीं। कानम ने इस भय और सन्नाटे को पाटते हुए अम्मा को पास बुलाया। ट्रे हाथ में लेकर मेज पर रखी और उन्हें बिस्तर पर बिठा दिया। वह आगे पढने लगी थी -
इस आशय को लेकर लडक़ी के अभिभावकों ने अदालत में एक केस दायर कर दिया। यह पहला मौका था जब इस प्रथा के विरुध्द किसी परिवार ने चुनौती दी थी।
यह सुन कर छोटे पापा ने बिस्तर छोड दिया था और कानम के साथ खडे होकर बॉक्स में छपी इस खबर पर निगाहें टिका दी थीं। कुछ देर पहले का सन्नाटा और भय भीतर आई सूर्य किरणों के साथ बाहर जाता महसूस हुआ। एक अनूठा उजास कमरे में फैल गया था।
अब कानम आगे इस खबर को इस तरह पढने लगी थी जैसे मंच पर से कोई भाषण दे रहा हो, अदालत ने इस बात को महिला के मान सम्मान व कानून के खिलाफ करार देते हुए लडक़ी के साथ बलात्कार के आरोप में उन दोनों युवकों को सजा सुना दी। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 366, 368 और 376 के तहत दोषी करार देते हुए यह ऐतिहासिक फैसला दिया है। जिसने लडक़ी के साथ सहवास किया उसे चार साल की कैद और तीन हजार रूपए जुर्माना और सहयोगी युवकों को तीन साल की कैद और पन्द्रह सौ रूपए की सजा दी गई। अपने फैसले में अदालत ने कहा कि लडक़ी का अपहरण करके जबरन शादी का मामला दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसा रिवाज ज़िसमें लडक़ियों और महिलाओं को अपमानित किया जाये, उनसे पशुओं जैसा व्यवहार किया जाये, समाज पर कलंक है। अदालत ने राज्य सरकार को कहा कि वह इस समस्या की गंभीरता को समझते हुए इस सामाजिक कुरीति को खत्म करने के लिये उचित कार्यवाही करे।
कानम ने खबर सुना कर अखबार को छाती से भींच लिया।
सचमुच चौंका देने वाली खबर थी। शायद ही कानम और छोटे पापा ने कभी ऐसा सोचा होगा कि गांव की लडक़ी या उसके माता - पिता इस तरह अदालत में जायेंगे। दोनों के चेहरों पर प्रात: की लालिमा उग आई थी। पर छोटी अम्मा चुपचाप बिस्तर पर बैठी थी। वे दोनों जैसे भूल गये हों कि कमरे में कोई तीसरा भी है। छोटे पापा को उबासी आई तो कानम की नजर ट्रे में रखी चाय की तरफ चली गई। चाय ठण्डी हो गई थी। अम्मा को झिंझोडते हुए कानम उनके गले ही लिपट गई -
अम्मा, अब तो चाय पिला दो न। वर्तमान में लौटते हुए उन्होंने बारी - बारी दोनों को देखा। उनकी आंखों में किसी उजास या नयेपन की जगह एक आक्रोश था। जैसे वह पूरी तरह समाचार में खो गयी थीं। उठीं। मेज पर से ट्रे उठाई। वह कहने लगीं - बलात्कार की सजा महज तीन हजार रूपए? ऐसे कुकर्मी को तो चौराहे पर लटका कर शूट कर देना चाहिये था। कानम चुप रही। छोटे पापा ने ही जवाब दिया था, यह मैटर बलात्कार का नहीं है सुमी। इट इज ए लांग ट्रेडीशन। लेकिन इज्जत तो लडक़ी की दोनों तरह से गई ना। इस बार कानम बोली थी, मैं आपके दर्द को समझती हूं अम्मा। पर जहां परम्परा के नाम पर यह सबकुछ हो रहा हो, वहां किसी को पहल तो करनी ही होगी मेरे विचार से, दिस इज ए ग्रेट बिगनिंग।
छोटी अम्मा रसोई में चली गयी थी। पर कानम उस खबर को गली, मोहल्ले और सडक़ पर जाकर जोर - जोर से पढना चाहती थी। सबको सुनाना चाहती थी। वह इतनी खुश उस दिन भी नहीं हुई थी जिस दिन उसका एम ए का परिणाम आया था और यूनिवर्सिटी में उसे प्रथम आने पर स्वर्णपदक मिला था। आज जैसे यह फैसला उसके अपने पक्ष में हुआ हो।
छोटी अम्मा चाय लिये पुन: कमरे में आ गई थी। सभी ने चाय ले ली और पीने लगे। काफी देर तक किसी ने कुछ नहीं कहा। कानम ने फिर चुप्पी तोडी थी - काश! बडे पिता उस समय ऐसा कर पाते।
फिर वही अतीत बाहर - भीतर टहलने लगा था। यह एक छाया की तरह कानम और छोटे पापा का पीछा करता रहा। उसके बावजूद कि वह इन परम्पराओं की परिसीमाओं से दूर शहर में रहे थे जहां ऐसा कोई भय नहीं था। पर जाने क्यों कानम यहां भी अपने भीतर वह भय बराबर महसूस करती रही थी। लडक़ियों जैसी चंचलता उसमें नहीं थी। उसका आत्मविश्वास चरमराया सा रहता। हालांकि उस घर में उसे अथाह स्नेह मिल रहा था। सुरक्षा थी। अपनापन था। पर हर वक्त कोई घटना उसके भीतर तूफान मचाये रखती। वह बौरा सी जाती। उसकी आंखों में से अनायास आंसू बहने लगते। इसमें सिसकना नहीं होता। एक विश्रान्त प्रवाह रहता। नदी जैसा अबाध। जैसे किसी बुत की आंखों से कृत्रिम जल प्रवाहित किया जा रहा हो।
वह अतीत, कानम की बडी बहिन थी। उसे बरसों पहले, उसकी आंखों के सामने, इसी तरह कुछ युवकों ने उठा लिया था। वह असहाय – सी सब कुछ देखती रही। आज भी वह पूर्वरत उसके भीतर था। उसे लगता वह जैसे कल ही घटा हो। लौट - लौट कर वह लडक़ी उसकी यादों में चली आती। भीतर कहीं डर बन कर बैठी रहती। कभी आंसू बन कर बहने लगती। कभी आंखों में इस तरह बस जाती मानो कहीं यहीं आस - पास हो और चिल्ला रही हो, दीदी। दीदी। मुझे बचा लो। कानम को उस बात का दर्द आज भी वैसा ही दुखा देता। भीतर ही भीतर काटता। वह पूरी नींद नहीं सो पाती। खुल कर किसी से बात नहीं करती। मानो चलती - फिरती एक लाश हो गयी हो। अपने छोटे से जीवन को पहाड क़ी तरह ढोये जा रही हो। रात को उठ कर रोने लगती। अंधेरे को चीरती बालकनी में खडी आते - जाते वाहनों और लोगों को कई घण्टों तक देखती रहती। छोटे पापा को उसकी आहट सुनाई दे जाये तो उठ कर उसे बांहों में भर लेते। उसके बालों को सहलाते। उसे दुलारते। हाथों के स्पर्श से ही उसे हौसला देते। उसे उस अतीत को भूल जाने की नसीहत भी। फिर उसे चुपचाप बिस्तर पर सुलाकर बच्चों सा थपथपाते रहते। कानम नहीं चाहती कि उन्हें उसकी वजह से आधी - आधी रात उठना पडे। पर उसके वश में कुछ नहीं। वह फिर नींद आने का नाटक कर देती। ताकि छोटे पापा चले जायें। पापा महसूस करते हैं, जानते हैं कि कानम कितनी भावुक है।
वह इतना कब पढ ग़ई उसे याद नहीं आता। जैसे उंगलियों पर गिनते इतने बरस गुजर गये। इतना कुछ होने के बावजूद भी कानम के भीतर एक ऊर्जा थी जिसे छोटे पापा बराबर महसूस करते थे। वह उसे उनमुक्त देखना चाहते थे। उसके भीतर एक आत्मविश्वास जगाना चाहते थे। और कानम को परिवेश और शिक्षा भी उन्होंने वैसी ही दी थी। आज उस समाचार को पढते हुए कानम के बाहर - भीतर उसकी छवि उन्होंने अवश्य देखी थी। उस ऊर्जा की तपन को महसूस किया था। आज वह मन ही मन खुश थे। जैसे यह खबर उनकी दी हुई शिक्षा का परिणाम बन कर आई हो। उन्होंने कानम के भीतर का बांध टूटते देखा था। हालांकि वह नहीं जानते थे कि इस बांध की सीमाएं कहां खत्म होंगी, फिर भी वह इस उनमुक्तता से प्रसन्न थे।
उन्होंने कानम को बांहों में ले लिया था। बरसों बाद पापा की छाती से सट कर वह खूब रोई थी। कई बार ऐनक उतारकर आंखों में भर आई बूंदों को उन्होंने पौंछा था। छोटी अम्मा ने भी दुपट्टे से अपनी आंखें ढक लीं थीं। भला इस दृश्य को देख कर वह कब तक अपने भीतर को रोक पातीं। कोई देखता तो जान लेता कि इस घर में बरसों से ठहरा बांध अनायास ही कैसे टूटा है।
काफी देर तक यह सब कुछ चलता रहा। फिर तूफान के बाद का ठहराव था। सबकुछ सहज सा होता गया। कानम को छाती से हटा अपने सामने ले आए छोटे पापा। उसका चेहरा अपने हाथों में भर लिया। अंगूठे से आंसू पौंछे। उसे जी भर के देखा और देखते ही रहे। पहली बार उसकी आंखों के दर्द को बहुत नजदीक से जाना था। दर्द के अंबार। उसमें छुपे हुए भविष्य के कई सपने। उसका अपना गांव। अकेली, असहाय मां। और पता नहीं क्या - क्या। वे कहने लगे थे - बेटे, समाज, अदालत या उसके फैसले से बदलने वाला नहीं है। उसके रीति - रिवाजों की सीमाएं कहीं ऊंची हैं। भले ही उनमें दोष ज्यादा हैं। इनको दूर करने के लिये लोगों के बीच जाकर उनके विश्वास को जीतना होता है ताकि वे इनके अच्छे - बुरे नतीजों को समझ पायें। मुझे विश्वास है हम ऐसा कर पायेंगे।
कानम चुपचाप सुनती रही।
कानम छ: बरस की रही होगी जब मां ने कई दबावों के बीच उसे शहर भेज दिया था। क्योंकि जबसे उसकी बडी बहन को जबरदस्ती उसके पास से उठा कर ले गये थे; उसी दिन से उसका बचपन कहीं खो गया था वह सहमी - सहमी रहती। जरा - सी आहट से भी कांप जाती। घर के भीतर मां के पास दुबकी रहती। वह कुछ नहीं खाती। रात को सोई - सोई जाग जाती। चिल्लाती - मेरी दीदी को उठा कर ले गये हैं। उसे कोई बचाओ। वह फिर घंटों कांपती रहती। उसका पूरा बदन तप जाता। वह अब गांव खेलने भी नहीं जाती। जहां मां रहती, वहां कानम भी चली जाती। घर में उसके बडे पिता उसके लिये भय हो गये थे।
घर में मां के अतिरिक्त बडे पिता थे। छोटे पिता दसवीं के बाद घर से भाग कर शहर आ गये थे। मंझले पिता दोघरी में रहते। उनके साथ कानम का बडा भाई भी रहा करता था। दोघरी में उसके जिम्मे भेड - बकरियों का पालन - पोषण था। दस - बारह घोडे भी थे। जब वह दोघरी में रहते तो दूसरे दिन घर आ जाते थे। सर्दियों के आने से पहले वह और उसका भाई कुछ नौकरों के साथ भेड - बकरियों और घोडों को लेकर मैदानों में चले जाते थे या वहां, जहां बर्फ नहीं गिरती थी। फिर गर्मियां पडते ही वापस लौट आते थे।
वे तीन भाई थे। कानम के बडे पिता ने ही शादी की थी। इसीलिये वही अब तीनों की पत्नी थी। सबसे छोटे भाई को शायद यह बात अच्छी नहीं लगी थी, इसलिये वह शहर चला आया था और वहीं किसी रिश्तेदार के यहां रहकर उनका काम भी करता रहा और पढता भी गया। बाद में वहीं नौकरी से लग गया। शादी भी वहीं कर ली। उसके बाद कभी लौटकर गांव नहीं आया। मंझले ने उसी परिवेश को स्वीकार करते हुए भेड - बकरियों के साथ ही अपना जीवन बांध लिया। उन दोनों के कुल दो बेटियां और एक बेटा हुआ था। कानम उनमें से सबसे छोटी थी। मां ने लडक़े को मंझले पति का नाम दिया। दोनों बेटियां बडे पति के नाम रहीं। हालांकि बडे पति को इस बात का गिला बराबर रहा था कि लडक़े का हक सबसे पहले उसी का बनता था।
कानम के पिता गांव के जाने - माने व्यक्ति थे। वह पहले गांव के मुखिया और बाद में लगातार प्रधान बने रहे। घर में भी उनका उसी तरह दबदबा था। लेकिन कानम की मां ने अपने को उनके दबदबे में पूरी तरह नहीं दबाया।
कानम को उस समय मां के बारे में बहुत कम पता होगा लेकिन वह आज मां की पीडा भी बराबर अपने भीतर महसूस करने लगी थी। उसे इतना अवश्य याद था कि जो युवक उसकी बहन को उठा कर ले गये थे, मां उस घर में रिश्ता करने को कतई राजी नहीं थी। परन्तु पहला सवाल लडक़ी का था। दूसरा बडे पति की इच्छा का। उन्हें सब कुछ मानना पडता था। कानम को उसके बाद की सारी घटना याद थी।
जिस दिन यह सब कुछ हुआ उसके एक सप्ताह बाद कुछ लोग उनके घर आये थे। कानम के लिये यह आश्चर्य था कि उनमें से दो युवक वही थे जिन्होंने उसकी बहन को जबरदस्ती उठाया था। उनके बीच एक अधेड आदमी भी था। कानम ने उन्हें देखते ही शोर मचा दिया था। बडे पिता ने चांटा मार कर उसका मुंह बन्द कर दिया था। कानम के गालों पर आज भी वह दर्द बरकरार है। जिसके मायने इस उम्र में ही वह समझ पायी थी। उसके भीतर का भय और दुख इस चांटे से और भी गहरा गये थे। बडे पिता के साथ वे लोग काफी देर तक बातें करते रहे। कानम दरवाजे की ओट से सबकुछ देखती रही थी। अधेड व्यक्ति माजोमी था - यानि मध्यस्थता करने वाला। रिश्ते में उस युवक का मामा भी, जिसके घर में लडक़ी रखी गयी थी। वह बातें करते - करते कभी बडे पिता के पांव छू लेता, कभी उनकी दाढी में हाथ लगाता तो कभी अपनी टोपी उतार कर उनके पांव में डाल देता। काफी देर तक ऐसा ही चलता रहा। फिर माजोमी ने झोले से शराब की बोतल निकाली उसके साथ एक डिब्बा मक्खन और पांच रूपए भी थे। उन्हें बडे पिता के पास रख दिया। उन्होंने इस भेंट को स्वीकार कर लिया था। नहीं करते तो यह तय था कि लडक़ी का विवाह उस घर में करने के लिये राजी नहीं हैं। कानम की मां ने उन्हें एक बार ऐसा करने के लिये कहा भी था।
इसके बाद माजोमी ने उठकर उन्हें गले लगा लिया। दोनों प्रसन्न थे। युवकों ने उनके पांव छुए। जिसके साथ शादी तय थी यानि जिसने लडक़ी को उठवाया था उसे उन्होंने अपने गले लगा लिया
' माजोमी ने इज्जत का रुपया न केवल कानम के बडे पिता को दे दिया था बल्कि गांव के देवता को भी चढाया था। दूसरे दिन देवता के मंदिर में पूरे गांव के लोग इकट्ठे हुए। खूब शराब पी गई। नाच - गाना हुआ। देवता की शादी के लिये स्वीकृति भी मिल गई थी। कई बार ऐसे मामलों में देवता की स्वीकृति भी कठिन हो जाती है, कानम के बडे पिता जानते हैं। भले ही शराब की बोतल और मक्खन के साथ इज्जत का रुपया वधु पक्ष ने ले लिया हो पर वह स्वयं तो गांव के मुखिया थे। उसके ऊपर देवता कमेटी के सरपंच। उसके बाद वे लौट गये।
कुछ दिनों बाद कानम के मंझले पिता उनके घर गये थे। वे जब लौट कर आये तो उनके साथ कानम की बहन भी थी। यह क्षण कानम के लिये अतीव प्रसन्नता के थे। बहन को देख कर उसकी खुशियों की सीमा न रही। वह दौड क़र उसकी बांहों में चली गई। छाती से लिपट गई। रोती भी रही और हंसती भी। पर उसकी बहन खामोश रही। कानम ने उसे मायूस देखा था। उसकी आंखें लाल थीं।होंठों पर शिकन थी। सूखे हुए होंठ। सूजी हुई आंखें बता रही थीं कि वह कई रातों से सोई नहीं है, रोती रही है। कानम आज समझती है कि वह बहुत कुछ उससे कहना चाहती थी, जो कुछ उसके साथ घटा उसे बताना चाहती थी, पर उम्र के पडाव आडे आते रहे। कानम बच्ची थी। उसे बताती भी क्या - क्या?
कितनी सुन्दर थी, कितनी चंचल थी। शायद ही गांव में दूसरी कोई लडक़ी ऐसी हो। उसकी गहरी काली आंखों में झीलें बसतीं। होंठों की मुस्कान में गुलाब बिखरते। हंसी में गज़ब का मीठापन था। छातियों का उम्दा उभार उसके यौवन को और भी संवार देता था। वह हमेशा गुनगुनाया करती। नाटियों के बोल उसकी जुबान पर हमेशा रहते। हर समय छेडछाड। छोटा हो या बडा सब उसके लिये बराबर थे। पर आज उसके लिये वह बुत के समान है। न कुछ कहती है। न गुनगुनाती है उसके साथ खेलती भी नहीं। उसे छेडती भी नहीं। कानम मन में सोचती है पता नहीं गुण्डों ने दीदी के साथ क्या कुछ किया होगा। कानम के मन में वह बुत बस गया था।
उसके बाद विवाह की रस्में शुरु हुईं। बारात में वही युवक दूल्हा बन कर आया था। कानम उसे छुप - छुप कर देखती रही। कई दिनों तक घर में एक उत्सव - सा रहा। लोग रात - दिन नाचते गाते रहे। शराब के नशे में धुत्त। दुनिया की कोई खबर नहीं। मर्दों और औरतों के लिये सब कुछ एक - सा था। पर कानम इस भीड में निपट अकेली हो गई। मां कभी उसे ढूंढ लेती थी। उसे जबरदस्ती कुछ खिला - पिला देती थी। अन्यथा दूसरा कौन था जिसे उसकी परवाह थी। उसकी दीदी फिर चली गयी। उससे जुदा हो गयी। इस बार वह रोई भी नहीं। घर के ऊपर खेत की मुंडेर पर बैठी बारात देखती रही। सांझ ढलते मां न आती तो वह वहीं बैठी रहती। वह मां के साथ घर चली आई। अब वह न रोती थी। न रात को डरती थी। मां उसे कभी देख लेती। जी भर देख लेती। और उनकी आंखें छलछला जातीं। कानम का चुप रहना शायद उनके भीतर बैठ गया था। यही कारण था कि अपने बडे पिता की इजाजत के बगैर कानम शहर चली आई थी। उसके बाद मां को क्या - कुछ सहना पडा होगा, वह नहीं जानती। पर आज सोचकर भी वह सिहर जाती थी।
इतने बरस कैसे गुजर गये कानम को पता ही नहीं चला। वह पढती भी रही और अतीत को ढोती भी रही। शायद ही कोई गांव में आज कानम के बराबर पढी - लिखी लडक़ी होगी। गांव में ही क्यों दूर - पार परगने तक भी नहीं। मां ने सोचा था, शहर रह कर सब कुछ भूल जायेगी। पढ - लिख कर या तो नौकरी कर लेगी या अपनी मनपसन्द की शादी कर लेगी। लौटकर उस अतीत में नहीं आएगी। उसे वह सब कुछ न झेलना पडेग़ा, जो उन्होंने खुद झेला है या गांव की दूसरी लडक़ियां झेल रही हैं। हालांकि धीरे - धीरे यह सब कुछ पीछे छूटता चला जा रहा था, लेकिन अभी भी कई परिवार थे जो इन परम्पराओं से बाहर नहीं आ पा रहे थे। उनका संसार वही था। यहां तक कि गांव - परगने से कई लडक़े बडे अफसर भी बन चुके थे लेकिन उन्हें झेलना ऐसा ही पड रहा था। किसी ने अगर अपनी मर्जी से शादी कर भी ली तो उसे लौटकर आना न मिलता। घर परिवार उसे नहीं मानते। गांव का देवता भी रूठ जाता। पर कानम की मां के लिये अतीत और वर्तमान में कोई फर्क न था। उसके लिये आज भी वैसा ही था, जैसा बरसों पहले रहा था।
एक दिन मां के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब कानम की चिट्ठी मिली थी। लिखा था - अम्मा, मैं तुम्हारे पास आ रही हूं। मां पढना नहीं जानती थी। चिट्ठी गांव के एक लडक़े से पढवाई थी। यह सुनकर एक पल के लिये मां की खुशी का पारावार न रहा। परन्तु दूसरे ही पल सिहर उठी थी। जिन परिसीमाओं और बन्दिशों से कानम को दूर किया था, वह लौट कर उसी में चली आयेगी, मां ने कभी सोचा भी न होगा। लडक़े से कई बार निवेदन भी किया कि यह बात किसी को न बताये पर गांव में कब तक छुपती। मां के दो मन हो गये। जहां वह जवान हुई कानम को देखने के लिये लालायित थी वहीं गांव की परम्पराएं, रिवाज डराने लगे थे। मन ही मन मां खीज उठती। बौरा गई है कानम। बेअक्ल है। यहां का प्रपंची माहौल उसे कैसे रास आएगा? निगल जायेगा यह समाज। उसके पढने लिखने का क्या लाभ हुआ? कोई अपना होता उसे कहती कि उस बौराई लडक़ी को यहां आने से रोके। उसे समझाए। पर मां भीतर की बात किसे बताती!
गांव में सभी को पता लग गया। कानम के बडे पिता ने सुना तो आगबबूला हो गए। घर आकर कानम की मां से तीखी नोंक - झौंक हुई। सारा दोष मां के सिर पर मढ दिया गया था।
उस कलमुंही को तूने ही बुलाया होगा। वहीं मर खप जाती। पहले क्या कम किया था जो अब होगा। बिरादरी क्या कहेगी। कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहूंगा। - और पता नहीं क्या - क्या बकते रहे थे। मां चुपचाप सुनती रही थी। क्या कहती। उनकी नींद उड ग़ई। जैसे मन में हज़ारों जख्म हो गये हों। सांस भी लेती तो लगता कलेजा जल रहा है। किसी अप्रत्यासित और अघट घटना की कल्पना मात्र से सिहर उठती।
मां की अझर आंखें अब बाट निहारने लगी थीं। कब आएगी। किसके साथ आएगी। उसे इतने बरस बाद पहचान पाऊंगी भी कि नहीं। हज़ारों कोशिशें करती कि आज का कानम का चेहरा आंखों में बस जाए, पर वही डरी - सहमी कानम बार बार उनकी आंखों में बस जाती और मां घबरा जाती। कितनी बार कुलदेवी को याद किया था।
कानम को छोटी मां और छोटे पापा ने सजल आंखों से विदा किया था। दोनों के पांव छूकर आर्शीवाद लिये कानम बस में बैठ गई थी। गांव के लिये अब बसें चलने लगी थीं। कानम को वहां पहुंचने के लिये दो बसे बदलनी थीं। शहर पीछे छूटता चला गया। आंखों से भी, मन से भी। अब गांव शेष था, मां थी। अतीत की यादें थीं। कानम के लिये यह खुशी की बात थी कि अब गांव तक बसें चलने लगी थीं। दूर - दूर पहाडों में सडक़ें पहुंच गई हैं। उसने पहले की बनिस्बत अपने गांव को काफी आधुनिक होने की परिकल्पनाएं भी की थीं। शहर की सीमाओं से बाहर जब कानम पहाडों के बीच पहुंची तो उसने अपने भीतर एक नई दुनिया को महसूस किया। जहां प्राकृतिक छटाएं मन को लुभाए रहतीं। शहर की भीड - भाड, अंधा - धुंध वाहनों का शोर और दो कमरों के घर तक सिमटी दुनिया के बजाय नदियों - झरनों की मीठी - मीठी आवाजें, घने जंगलों के मध्य से आती ताजी हवा की सरसराहटें और परिवेश में अनोखी - सी उनमुक्तता कानम के मन में एक नया उजास भर रही थी। लेकिन सडक़ के नाम पर पहाडों का भीतर तक काटना उसे भाया नहीं था। गांव के भीतर ही कंकरीट के घर लगने लगे थे। उनकी बस जगह - जगह घण्टों खडी रहती। बरसाती वर्षा से लगातार भूस्खलन हो रहा था। कहीं पहाडों से पत्थर गिर रहे थे। कई जगह कानम ने बडे - बडे बोर्ड भी पढे ज़िन पर पत्थर गिरने से सावधान रहने की हिदायतें दी गई थीं। इन जानलेवा खतरों के बीच भी पहाड क़े मजदूर जिस आत्मविश्वास और मन लगाकर काम कर रहे थे, उसने कानम के आत्मविश्वास को दृढ क़र दिया था। कानम को यह समझते देर न लगी थी कि यह सब कुछ अंधाधुंध डायनामाइटों की वजह से है। हमारी अव्यवस्थित और बेढंगी तकनीक के कारण है।
हल्का अंधेरा हो गया था, जब कानम की बस गांव पहुंची थी। कुछ लोग जो आस - पास के स्टेशनों से बस में बैठे थे उस अनजान लडक़ी को आश्चर्य से देख रहे थे। एक दो युवा लडक़ों ने उससे शरारत करने की कोशिश भी की थी, लेकिन कानम ऐसे बैठी रही जैसे उसे कुछ पता ही न हो। गांव पास ही था। घर पहुंची तो कुत्ते ने भौंक कर उसके आने की सूचना घरवालों को दे दी। बडे पिता ने ही दरवाजा खोला था। मां उस वक्त चूल्हे के पास रोटियां सेंक रही थी। दरवाजे पर नजर पडी तो खुशी का ठिकाना न रहा। कितनी जवान हो गयी है मेरी कानम। बरसों से सहमी - डरी वह छोटी सी लडक़ी आंखों से चली गयी। कुत्ते को झाड देकर मां ने ही चुप करवाया था। बडे पापा भी एक बार तो हैरान रह गये, फिर विश्वास हो गया कि वही लडक़ी है। तनिक भी न रुके, जैसे उनकी बेटी नहीं कोई अडौस - पडौस की लडक़ी उधार मांगने आयी हो। मां सामने खडी थी। पहले जी भर कर देखती रही उसे। फिर बांहों में भर लिया। यह भी होश नहीं रहा कि आटे से सने हाथ उसके नये कपडों को खराब कर देंगे। छाती में समेट लिया। जैसे कानम एक नन्हीं दुनिया की बांहों में समा गयी हो। अझर आंखें अचानक सावन हो गयीं। भीग गयी थी कानम। यह स्नेह उसे कहां मिला था। कबसे तरस रही होगी। छाती से हटाया तो फिर उसके चेहरे को हाथों में भर लिया। देखती रही। आंखों ही आंखों में पता नहीं कितना कुछ बोल गयी मां। बडे पिता जानबूझ कर कमरे से नहीं आए। कानम की बांहें, हृदय और आंखें तरसती रहीं। चाहती थी वह उसे मां की तरह छाती से लगायें। प्यार करें। बस भीतर जाकर पांव छूने भर की एक औपचारिकता। मंझले पिता भी वहीं थे। उन्होंने गले जरूर लगाया था, लेकिन कानम ने उनकी बांहों में वह स्नेह नहीं जाना जो मां ने दिया था।
कानम ने बूट उतारे और नीचे पडा अटैचीकेस उठाकर भीतर ले जाने लगी तो देखा कुछ दूर दरवाजे की ओट में बैठा कुत्ता एकटक उसी की तरफ देखे जा रहा था। वह मंझले पिता के ही साथ रहता था। वह तगडा भी इतना था कि कानम की कमर तक आता। उसने उसे एक स्नेह भरी नजर दी। उसकी आंखों में भी कानम ने स्नेह की तीव्रता देखी। उसे तत्काल पास बुला लिया। शायद वह यही चाहता होगा। क्षण भर में घेर लिया कानम को। मां भी हैरान थी। उन्होंने ही डांट कर दूर भगाया था। बडे पिता इसलिये हैरान थे कि उसके लिये अपरिचिता कानम क्षण भर में अपनी कैसे हो गयी! अन्यथा आंगन में चिडिया भी उसके डर से नहीं बैठ पाती।
कानम की दिनचर्या अनोखी थी। पूर्व परिवेश से भिन्न। उसने गांव - बेड क़ी सीमाओं में अपने आप को नहीं बांधा। वह सुबह दूसरे दिन गांव के प्रख्यात मंदिर में अवश्य गई थी। वह देवी चंडिका का मंदिर था। जिसके आंगन में जाने - अनजाने पता नहीं कितना बचपन गुजरा होगा। मां भी उसके साथ थी। मंदिर की दीवार के बाहर गंभीर सी कई पल खडी रही। पुजारी विस्मयी आंखों से उसे निहार रहा था। मां ने उसकी शंका दूर की थी।
पहचाना नहीं पुजारी जी। मेरी कानम है कानम। आंखों से विस्मयता जाती रही। कानम ने उसके चेहरे पर वात्सल्य के भाव देखे। लेकिन वह क्षण भर में जाते रहे। पुजारी को अपनी अस्मिता का ख्याल आ गया होगा। जब तक अन्दर जाकर उनके पांव छूती पुजारी भीतर खिसक लिया था। मां को यह अच्छा नहीं लगा। पर कानम के होंठों पर हल्की मुस्कुराहट देख कर मां झेंप गयी।
कानम ने मंदिर की दहलीज पर जाकर हृदय से देवी मां को प्रणाम किया। कुछ पैसे और पुष्प चढाए और लौट आई। पुजारी की समस्या का समाधान भी हो गया था। पुजारी यही सोच रहा था कि इस कुलच्छणी को कैसे आशीर्वाद दे।
मां गंभीर थी। कई तरह के विचार मन में कौंध रहे थे। मंदिर से थोडा दूर आकर कानम ने मां को खेत में अपने साथ बिठा लिया। अम्मा जानती हो न कितना पुराना मंदिर है? चुपचाप सिर हिला कर मां ने कुछ कहा था। कानम ने इसका अर्थ जानने का कोई प्रयास भी नहीं किया। कहती रही - हमारे यहां इलाके की सबसे धनी और चालाक देवी है। और सबसे ताकतवर भी। जानती हो न मां, वह क्यों इतनी मानी - पूजी जाती है? मां ने फिर कुछ नहीं कहा। विस्मय से उसकी तरफ देखा भर था। बताते हैं अम्मा कि ये अठारह भाई - बहन थे। बाणासुर इनके पिता हुए। उन्होंने हिरमा से जबरदस्ती विवाह किया था और कई दिनों तक एक गुफा में रहे। जब बेटे - बेटियां बडे हुए तो यहां के सारे देश को उनमें बांटना था। बडे भाई चालाक थे। उन्होंने अपने लिये बढिया क्षेत्र लेने की बात कही। इस पर चंडिका छोटी होते हुए भी न मानी। विद्रोह किया और अपना मनपसन्द क्षेत्र ले लिया। मां अब भी चुचाप सुन रही थी। - और अम्मा उस क्षेत्र में पहले ही एक बडा शक्ति वाला राक्षस राज्य करता था। चंडिका ने उससे घोर युध्द किया। उसे मार दिया। यही नहीं उसके कई दूसरे सहयोगियों को भी नहीं छोडा। इस तरह बडा क्षेत्र अपने अधीन कर लिया और राज्य करने लगी। आज इसलिये यह देवी हमारी सरताज है।
मां ने मंदिर की तरफ हाथ जोद क़र पुन: माथा टेका था। मैं भी इसी मां की बेटी हूँ अम्मा। मां चौंकी थी। तुम्हारी आंखों में जो बरसों पहले की कानम है उसे भूल जाओ। मैं आज की कानम हूँ। मुझे तुम्हारा आर्शीवाद मिले और साथ देवी मां का भी। मां सहज हुई थी। आंखें फिर भर आईं। कानम ने उनमें एक विश्वास देखा था। मां मैं नौकरी के लिये नहीं पढी हूँ। मैं तुम्हारे साथ रहूंगी। तुम्हारे काम में हाथ बटाऊंगी। मुझमें जो हिम्मत है, विश्वास है, उसे तुमने ही दिया है। मां ने कानम को अपने गले लगा लिया था। रुंआसे स्वर में कहा था उन्होंने, बरसों जियो मेरी बेटी। बरसों जियो।
कानम ऐन तडक़े उठ जाती। दांत साफ करती। नहाती और दूर - पार दौड लगा कर लौटती। फिर आंगन में आकर कुछ देर व्यायाम करती। मां के मन में अब उसके लिये कोई डर नहीं रहा था। वह कानम की तरफ से निश्चिन्त - सी हो गयी थी। कानम अधिक समय मां के काम - काज में हाथ बंटाने लगी थी। वह जानती थी, मां इस घर में मशीन की तरह काम करती रही है। उसके काम में कोई हाथ तक नहीं बंटाता। मां सुबह साढे तीन - चार के आस - पास उठ जाती। सबको चाय पिलाती। गोशाला में जाकर गाय - भैंसें दुहती। बकरियां दुहती और उन्हें घास - पत्ती डाल कर फिर घर का काम निबटाती। उसके बाद घास और पत्तियों की पांच - छ: गड्डियां जंगल से लाकर रख देती। फिर दोपहर का खाना पकाती। इसे निपटा कर पशुओं को जंगल चराने भी ले जाती। शाम ढले लौटती तो पशुओं का काम निपटा कर फिर घर के भीतर काम शुरु हो जाता। कानम इस बात से अवश्य हैरान थी कि रोज शाम को बडे पिता के साथ कई दूसरे गांव के लोग चले आते थे। खूब शराब पी जाती और आधी रात तक मां उनकी आवभगत में बैठी रहती। जब सभी खा पीकर निपट जाते तो मां रोटी खाती। उस पर मां को दो - दो पतियों का ख्याल रखना पडता। इसके अलावा मौसमी फलों को पेडों से निकालना, उन्हें सुखाना और सर्दियों के लिये जमा करना। इनमें बेमी - चूली और सेब प्रमुख होते।
दूर पार कण्डे से अनाज और आटा पिसा कर लाने का जिम्मा भी मां का ही था। फिर उत्सवों - त्यौहारों में भाग लेना। गांव की औरतों के साथ रात - रात में नाटी में नाचना और गाना। मां काफी कमजोर हो गयी थी। उस पर इतना काम करना आश्चर्य था। कानम सोचती मां पर अवश्य देवी मां की कृपा रही होगी जो इतना सब कुछ झेल पाती हैं। यही नहीं मां को सप्ताह में दो बार अंगूर की शराब भी निकालनी पडती। पर उनकी आंखों में कानम ने कभी गुस्सा नहीं देखा। चेहरे पर शिकन नहीं देखी। उन्हें कभी थका हुआ महसूस नहीं किया।
बडे पिता के कानम जी का जंजाल बन गई थी। वह उसकी परछांई तक से नफरत करते। कानम की आदतें उनके मन में सुई जैसी चुभती जा रही थीं। एक लडक़ी का ऐसे उनमुक्त घूमना, व्यायाम करना, सबके घर जाकर हंसना - बतियाना उनके लिये शर्म की बात थी। शराब पीकर गांव के लोगों ने उनसे इस बारे में बातें भी की थीं। वह अपना गुस्सा उस समय मां पर उतारते जब कानम सो जाती या घर से बाहर होती।
कानम अब गांव की लडक़ियों और औरतों से काफी घुलमिल गई थी। गांव - परगने में वह अब चर्चा का विषय थी। पर खुलकर बातें करने में सभी सकुचाते थे, इसलिये भी कि वह परधान की बेटी है। बरसों से उनका ही बोलबाला है।
कानम सादे सलवार कुर्ते पर उन की सदरी पहने रखती। यहां आकर उसने हरी पट्टी की टोपी पहननी भी शुरु कर दी थी जो उस पर गज़ब की फबती। वैसे भी उसकी प्रतिभा विलक्षण थी। उसका सौंदर्य बेजोड, अनुपम और अतुल्य था। जब वह गांव से आती - जाती तो सभी उसको देख कर सन्न रह जाते। गांव - परगने के कई लडक़ों की निगाहें उस पर लग गई थीं ।
एक दिन वह सुबह बिना बताये उस गांव में चली गयी जहां की लडक़ी और अभिभावकों ने अदालत में केस किया था। वहां कोई भी कानम को नहीं पहचानता था। वह पूछती हुई उसी घर में पहुंची। उसे देखकर परिवार के लोग हैरान थे। जब उसने अपना परिचय दिया तो उसे प्यार से भीतर बिठाया और खूब बातें भी कीं। कानम जब उस लडक़ी को मिली तो परेशान हो गयी। वह सूख कर कांटा हो गयी थी। न किसी से बोलती न पेट भर खाना खाती।
कानम ने उसी के पिता से पूछा था, आपने तो अदालत में केस करके हमारी इज्जत बख्शी है। मैं उसी के लिये आप लोगों का आभार करने आई थी। लडक़ी के पिता ने गहरी सांस ली। जैसे भीतर ही भीतर वह टूट गये हों। बोले, बेटी! आज लगता है हमने बहुत बडी भूल की थी। उसकी सजा खुद भी भुगत रहे हैं और बेटी को भी मिल रही है। कानम एक पल के लिये चुप हो गई। उसे नहीं मालूम था कि उसे ऐसा उत्तर मिलेगा। अपने को सहज करते हुए कहने लगी, आप ऐसा क्यों सोचते हैं। यह तो हमारे लिये गौरव की बात थी। बेटी तुम पहली लडक़ी हो जिसने ऐसा सोचा या कहा है। तुम नहीं जानती उसके बाद ग्म पर क्या - कुछ गुजरा है। भाईचारे से हमारा परिवार बेदखल कर दिया। कई जगह रिश्ते की बात की तो सभी ने मुंह छुपा लिया। अकेले रह कर समाज से कैसे लडा जा सकता है? हमारी यह परम्परायें भीतर तक घुसी हैं। हमने तो बेटी की जिन्दगी तबाह कर दी। देख कैसी हो गयी है इसकी शक्ल। जैसे बोलना भूल गयी है। न कहीं आती है न जाती है। चूल्हे के पास सिर घुटनों में डालकर रोया करती है।
कानम सारी स्थिति जान चुकी थी। उसने स्नेह से पास बुलाया, बिठाया। उसका नाम पूछ लिया। उसे दिलासा दिया। उसे देखती रही। मन ही मन सोचा - कैसे हैं ये रिवाज। चुपचाप मान जाती तो पत्नी हो जाती। अन्यथा बलात्कार का कलंक माथे पर लिये घुट - घुट कर मर रही है। उसे अपने समाज पर घिन आई। जैसे यह सब कुछ उसी के साथ हो रहा हो।
मैं इसे अपने साथ ले जाती हूँ। आप इसकी फिक्र मत करें। यह ठीक हो जायेगी। पहले जैसी। कानम ने बिना स्वीकृति लिये जैसे अपना फैसला सुनाया हो। कोई इंकार भी न कर सका।
कानम के साथ जब उस लडक़ी को बडे पिता ने देखा तो आग - बबूला हो गये। उन्हें पता चल गया कि यह वही लडक़ी है। कानम से कुछ नहीं कहा। उसी के सामने मां से झगड ग़ये। मां ने कुछ नहीं कहा था। इस बात की चर्चा दूर - दूर तक होने लगी थी। वह लडक़ी थी भी निचली बिरादरी की। घर में जैसे तूफान मच गया हो। कानम के बडे पिता को अब आते - जाते सभी टोकने लगे थे। आज तक किसी ने उनके आगे कहने की हिम्मत नहीं जुटाई। और आज अपनी बेटी के कारण इज्जत जाती रही। उनका मन करता कि कानम की बांह - टांग तोड देते। उनके लिये वह आफत हो गयी थी। पर इसके बावजूद उनकी कभी हिम्मत नहीं हुई कि अपनी बेटी से आंख मिला कर बात कर लें। कानम ने कई बार प्रयास भी किया पर वह सफल नहीं हुई।
कानम ने उस लडक़ी को समझा कर उसका खोया आत्मविश्वास वापस लाने का जो प्रयास किया उसमें वह कामयाब हो गयी। कानम को अब लगता कि वह लडक़ी उसकी अपनी बहन है जो बरसों पहले उसने खो दी थी।
कुछ दिनों बाद फूलों का त्यौहार शुरु हो गया। कानम मां के साथ दिन भर घर की सफाई में व्यस्त रहती। घर का काम निपटा कर गांव की लडक़ियां और औरतें टोलियों में कण्डे जाया करतीं। फूलों को तोडतीं और हार बनातीं। अब उन्हें फूल लाने का ही ज्यादा काम रहता।
एक दिन कई झुण्डों में लडक़ियां और औरतें फूल तोडने जा रही थीं। कानम कुछ लडक़ियों के साथ बहुत पीछे रह गई थी। गांव के नीचे से सडक़ थी। वे सभी जैसे ही सडक़ पर पहुंची कानम की नजर दूर सफेद मारुति पर गई। पर किसी ने उस तरफ अधिक ध्यान नहीं दिया। लेकिन पल भर में तीन - चार युवकों ने उनकी टोली को घेर लिया। साथ की लडक़ियां निकल गईं और उन्हें किसी ने नहीं छेडा। स्पष्ट था कि वे सभी कानम के लिये आए हैं। कानम को समझते देर नहीं लगी। शायद कानम के घर रह रही लडक़ी ने युवकों की मंशा भांप ली थी। वह कानम से लिपट गई। पर एक लडक़े ने उसे बांह से खींच कर अलग कर दिया। फिर उनमें से एक ने कानम का बाजू पकडा और देखते - देखते सभी ने कानम को मारुति रक घसीटना शुरु कर दिया। जिसने सबसे पहले कानम का बाजू पकडा था शायद वही कानम को अगुवा करना चाहता था।
कानम किस तरह उनकी गिरफ्त से अलग हुई किसी को पता नहीं चला। उसके बाद लातों, घूंसो और सिर से कानम ने उनकी जिस तरह पिटाई की, वह किसी के लिये भी हैरत में डाल देने वाली बात थी। शोर सुन कर दूर - पार गईं लडक़ियां और औरतें भी सडक़ के किनारे पहुंच गईं थीं। कानम उनसे लड रही थी। उसने अब उस लडक़े को गले से पकडा था जिसने सबसे पहले उसे छुआ था। किसी को यह पता नहीं चला कि कानम ने उठाकर उसे कैसे कई फुट दूर फेंक दिया था। वह अधमरा - सा उठने की कोशिश करता और फिर वहीं गिर जाता। कानम ने दूर से ही उसकी तरफ थूक दिया। इससे पहले की दूसरों की यह हालत होती, सभी मारुति में भाग लिये। अब वही अकेला वहां पडा था। दूसरी औरतों ने कानम को न पकडा होता तो क्या पता वह उसे जान से ही मार देती।
कानम में इतनी ताकत कहां से आई, यह लडक़ियों और औरतों के लिये हैरानी की बात थी। इस झगडे में उसके एक कान की बाली अवश्य कान को चीरती हुई निकल गई थी जहां से खून बहने लगा था। उसकी छाती पर से भी कमीज़ फट गयी थी। उसी लडक़ी ने अपना शॉल कानम को ओढा दिया था। दूसरी सहेली ने उसकी दूर गिरी टोपी उठाकर उसे पहना दी। कानम पूर्वरत सहज और खुश थी जैसे कुछ भी घटा न हो। लेकिन वह झुण्ड के बीच में से उस लडख़डाते चले जा रहे युवक को कनखियों से अवश्य देख लेती। उसे जरा भी वक्त मिलता तो वह उसकी पिटाई कर देती।
कण्डे कोई भी फूल लाने नहीं गया। सभी कानम के साथ गांव लौत आईं। शाम को पूरे गांव, पंचायत और परगने में यह खबर हवा की तरह फैल गई। जब कानम के बडे पिता को यह पता चला कि उनकी बेटी ने ऐसा किया है तो वह जैसे पागल हो गये हों। कई दिनों तक का गुस्सा जहर की मानिन्द बाहर निकल गया। पहले कानम की मां से लडने लगे। जो मन में आया वह कह दिया। शराब का नशा भी था। अब बारी कानम की थी। पूरे जोर से कानम के मुंह पर चांटा जड दिया। कानम चाहती तो रोक सकती थी। पर नहीं रोका। चांटे की मार्फत बडे पिता का स्पर्श स्नेह कम नहीं लगा। चेहरे पर वही विश्वास और मुस्कान रही। कहने लगी, बडे पिता! मैं सुनम नहीं हूँ कि दो - चार गुण्डे आये, पीठ पर उठाया और खूंटे से बांध लिया।
उनकी आंखें लाल हो गईं थीं। गुस्से से कांपने लगे थे। मां दरवाजे पर सहमी, डरी हुई खामोश थी। कुलच्छणी। तू जानती है क्या किया। मैं इलाके का परधान हूँ, परधान। क्या मुंह दिखाऊंगा लोगों को। थूकेंगे मेरे पर लोग। हरामजादी पैदा होते हुए ही क्यों नहीं मर गई? और फिर कानम की मां को घसीट लिया दरवाजे पर से। देख लिया कुलटा अपनी छोकरी को। नाक कटा दी हमारी। जानती नहीं, ऊपर से लैक्शन का टाईम है। बेटी की इज्जत से प्यारे इलैक्शन हो गये बडे पिता को। कानम उनसे और अपेक्षा भी क्या करती? चुप नहीं रही बोली - अपनी रक्षा करना, नाक कटवाना नहीं है, बडे पिता। आपको तो गर्व होना चाहिये कि आपकी बेटी ने अपनी इज्जत बचाई है। इज्ज़त? उनकी टांगे लडख़डाने लगी थीं। इज्ज़त तेरी पहले ही कहां थी जो आज बच गयी। फिर भी मैं ने बाप होने का फर्ज निभाया था। तेरा अच्छी जगह रिश्ता हो जाता। वह एम एल ए का लडक़ा था जानती हो?
कानम को काटो तो खून नहीं। पांव के नीचे से जमीन ही खिसक गयी। सिर पर जैसे किसी ने पानी के कई घडे उंडेल दिये हों। कभी सोचा भी न होगा उसने कि उसके अपने पिता भी ऐसा करवा सकते हैं। मां के चेहरे पर से डर गायब हो गया था और गुस्सा चेहरे पर साफ दिखाई दे रहा था। पता नहीं कब सदरी का कॉलर पकड लिया था मां ने। चिल्लाई थी, तो यह सब तुम्हारी करतूत थी। अपनी बेटी को ही दांव पर लगा दिया। धन्य हो रे ऐसे पिता। धन्य हो।
कानम न संभालती तो मां आंगन में पत्थरों पर गिर जाती। कानम को आज लगा था कि वह उनकी बेटी नहीं है। न कभी थी। होती तो ऐसा कभी नहीं करते। सोचा कि क्या पता उसके पिता बडे हैं या कि छोटे। अपने आप पर ही लजा गई।
आज किसी गहरे दर्द को महसूस करते हुए रोई थी कानम। मानो मां - बेटी आंगन को ही आंसुओं में बहा देंगी। बडे पिता अब भी ऊल - जलूल बके जा रहे थे। आस पास के घरों से भी लोग ऊपर नीचे इकठ्ठे होकर तमाशा देख रहे थे। लेकिन कानम ने अपने आप को संभाला। भीगी आंखों से एक नजर उन पर दी तो जैसे बिजली गिरी हो। सभी अपने - अपने घर चले गये।
मां रोई जरूर थी पर मन - ही - मन खुश थी कि उसने दूसरी बेटी बचा ली है। एक डर जो बराबर मन के कोने में दुबका रहता, आज चला गया।
आज कानम को छोटे पिता बहुत याद आये। मन - ही - मन उनके पांव छू लिये। छोटी मां के भी। उसे याद आया था कि किस तरह जबरदस्ती उन्होंने मार्शल आर्ट में उसे प्रवेश दिलाया था। ज़ैसे इसी दिन के लिये शिक्षा दिलाई थी।
दूर - दूर तक यह बात भी फैल गई है कि कानम ने एम एल ए साहब के लडक़े को अधमरा कर दिया। गांव - परगने के बडे - बुजुर्ग और उनकी औरतें जहां इसे अपने रीति - रिवाजों और परम्पराओं के खिलाफ समझते हैं वहां युवा लडक़े और लडक़ियां उसे मन - ही - मन शाबासी भी देने लगे हैं। कानम जिनके संपर्क में जहां - कहीं भी रही, उनके मन में उसके प्रति पहले से कहीं ज्यादा आदर हो गया है। पर कानम के लिये यह आदर और स्नेह शून्य सा है। वह इसे अपने घर के भीतर महसूस करना चाहती है। शायद अपने बडे पिता से या अपने मंझले पिता से, पर वह उसे कभी नहीं मिल सकेगा मां का अथाह स्नेह उसके साथ है। मां का साथ जैसे सभी लडक़ियों और औरतों का साथ उसके साथ है।
पंचायत के इलैक्शनों का जोर शुरु हो गया है। घर - बाहर यही बातें हैं। यही पंची हैं। कानम हैरान है कि शहर से गांव में प्रपंची राजनीति कैसे घुस गई है? अपने घर में वह देखती है कि रोज दस - बीस लोग जुड ज़ाते हैं। बडे पिता के पैसे हैं। बीडी - सिगरेट हैं, शराब - बकरे हैं दावतें ही दावतें हैं। मां रात भर आवभगत में लगी रहती है। कानम भी उनका हाथ बंटा लेती है, पर इन कामों के लिये वह कतई राजी नहीं है। मां को भी समझाने लगी है। जब मां कहती है कि वह एक मां नहीं पत्नी भी है, तो कानम निरुत्तर हो जाती है। उनका संसार यही है। पर कानम का संसार दहलीज से बाहर भी है।
नामांकन भरे जाने हैं। सबसे पहले कानम के पिता ने भरा है। उन्हें विश्वास है पहले की तरह उनके विरोध में कोई नहीं होगा। होगा तो जीतेगा नहीं। फिर वह देवता के भंडारी भी तो हैं पंचायत उनकी, लोग उनके और देवता भी उनका।
कानम के साथ वही बाहर की बिरादरी की लडक़ी है। दोनों देवी चंडिका के मंदिर जाती है। लडक़ी दूर खडी रह जाती है। जानती है बाहर के लोग देवता के आंगन नहीं जाते। और उसे साथ ले जाकर मंदिर की दहलीज पर खडी होकर श्रध्दा से मां के चरणों में प्रणाम करती है। आज न उसके पास पैसे ही हैं, न कोई पुष्प ही। वह खाली हाथ है। लौटने लगती है तो पुजारी आवाज देकर रोक देता है, बिटिया! माता के चावल और फूल तो लेती जाओ।
कानम ठिठक गई। मुडती है तो पुजारी आंगन में आकर ही दोनों के हाथों में फूल और सिन्दूर में रंगे चावल दे जाता है। कानम सहज है, पर उस लडक़ी के लिये यह आश्चर्य है। मंदिर से लौट कर पाठशाला के प्रांगण में कदम रखते ही इधर - उधर खडे लोगों के लिये कानम का आना विस्मय है। कानम चुनाव अधिकारी के पास जाती है। फार्म लेती है। भर कर चली आती है। सभी की निगाहें उसका पीछा कर रही हैं। सभी हक्के - बक्के रह गए हैं।
घर पहुंचने से पहले ही यह खबर वहां पहुंच गई है। घर ही नहीं, गांव में दूर - दूर तक। आंगन पहुंचते - पहुंचते दस - बारह लडक़ियां और औरतें कानम को घेर लेती हैं। सभी की बांहों का घेरा कानम को अकेला कर देता है। किसी लडक़ी ने नाटी के बोल गुनगुनाए हैं। सभी के चेहरों पर अप्रत्याशित प्रसन्नता झलक रही है। बांहों के घेरे को लांघती कानम की नजरें चूल्हे के पास बैठी मां के चेहरे पर पडती हैं। जलती लकडियों के प्रकाश में मां का गंभीर चेहरा - कानम के लिये भाव पढना अगम्य नहीं है। पास अभिभूत से बैठे बडे पिता को देखकर कानम अनबूझी आंखों से उन दोनों को देखने लगी है। वह हाथ में चिमटा लिये जलती लकडियों से अंगारे छेड रहे हैं। कानम ने पहली बार उन्हें मां के बगल में बैठे देखा है। मायूस। असहाय से।
नाटी के बोल बाहर - भीतर गूंज रहे हैं। लडक़ियां उसी घेरे में नाचने लगती हैं।
दारोश : हिमाचल प्रदेश के जनजातीय क्षेत्र के एक अंचल में बोला जाने वाला एक शब्द जिसका अर्थ है -बलपूर्वक या जबरदस्ती। उधर जो जबरन विवाह की रीत है उसे दारोश डबलब कहा जाता है - यानि बलपूर्वक व जबरदस्ती विवाह करना।