दावते-इश्क ईमानदारी के फाके / जयप्रकाश चौकसे

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दावते-इश्क ईमानदारी के फाके
प्रकाशन तिथि : 20 सितम्बर 2014


हबीब फैजल की फिल्म के आखरी हिस्से में सरकारी अफसर का संवाद है कि सारी उम्र डर के कारण कभी बेईमानी नहीं की, रिश्वत नहीं ली आैर डर इस कदर छाया रहा कि आज ईमानदारी करते समय भी डर लग रहा है। यथार्थ जीवन का सबसे भयावह सच डर है जो जीने भी नहीं देता आैर गरिमा से मरने भी नहीं देता।

गांधीजी ने भारत में आजादी के लिए आंदोलन के प्रारंभ में ही कहा था कि हमें सबसे पहले डर से ही मुक्त होना है। आज के व्यापारिक दौर में गांधीवाद की बात भी नहीं करना चाहिए। साबरमती आश्रम में गांधीजी के स्वदेशी को तज दिया गया है आैर चीन की पूंजी भारत में लगेगी, जापान आैर अमेरिका भी भारत में माल बनाएंगे, तो क्या वे मुनाफा अपने देश नहीं ले जाएंगे?

गौरतलब यह है कि अब साम्राज्यवाद फौज के दम पर नहीं आता, वह इसी तरह पूंजी निवेश के रूप में आता है। एक हास्य फिल्म के विवरण में गांधी स्मरण इसलिए भी किया जा रहा है कि दहेज की कुप्रथा पर भी पहला प्रहार उन्होंने ही किया था आैर दावते-इश्क में भी मुद्दा दहेज का ही है परंतु हबीब फैजल ने सारा प्रस्तुतीकरण हास्य के माध्यम से किया है आैर फिल्म में कोई भाषणबाजी नहीं है परंतु गंभीर संकेत अवश्य हैं। इस प्रेम कहानी में स्वादिष्ट भोजन महत्वपूर्ण सेतु है, मसलन धोखे से वसूले 80 लाख रुपए भी नायिका लौटाना चाहती हैं, क्योंकि अपने प्रेम से दूर होते ही उसे अपना खाना जायकेदार अर्थात स्वादिष्ट नहीं लगता। नायक खानदानी कबाब बनाने वाला है आैर उसके कबाब में हड्डी बने दहेज को हटाने के लिए ही अपने माता-पिता की आंख बचाकर नायिका को रकम देता है कि इसी को दहेज बनाकर दे दे।

दरअसल अच्छाई अर्थात नेकी या इरादों में नेकी भारतीय सिनेमा के बॉक्स ऑफिस भोज में महत्वपूर्ण तड़का है, जिसके बिना स्वाद ही नहीं आता। हबीब फैजल हर दृश्य को हास्य का रंग देते हैं आैर अपनी फिल्म के कुनैन के ऊपर खूब शकर लपेटते हैं कि दर्शक को कुछ कड़वा नहीं लगे परंतु अब उन्हें मिठास कम करके कड़वाहट को ज्यों का त्यों भी रखने पर विचार करना चाहिए। परिणीति चोपड़ा को उन्होंने ही 'इश्कजादे' में प्रस्तुत किया था परंतु बाद में उसने दो असफल फिल्मों में काम किया, जिनमें 'हंसी तो फंसी' निहायत ही घटिया थी।

खुशी की बात है कि इस फिल्म में उन्हें खोया हुआ तेवर वापस मिल गया है। आदित्य राज कपूर ने 'आशिकी दो' आैर 'ये जवानी है दीवानी' में शराबनोशी की परंतु इसमें वे शराब से तौबा करके जायकेदार खाने की खुशबू के नशे में मस्त नजर आते हैं। अनुपम खेर को हमने खोया नहीं है, वे भी इस फिल्म में सही ढंग से हैदराबादी बोले हैं आैर उच्चारण भी दुरुस्त है। इस मजेदार फिल्म में सभी ने अच्छा काम किया है आैर लखनऊ तथा हैदराबाद भी अपनी तहजीब के साथ प्रस्तुत हैं। साजिद-वाजिद ने अत्यंत मधुर एवं कर्णप्रिय संगीत बनाया है। उन्होंने लखनऊ के संगीत ठाठ को युवा वय की पसंद के अनुरूप आधुनिक ताल के साथ प्रस्तुत किया है।

इस सप्ताह ऋषिकेश मुखर्जी की रेखा अभिनीत 'खूबसूरत' से प्रेरित इसी नाम की सोनम अभिनीत फिल्म लगी है, जिसके क्रेडिट से मुखर्जी साहब का नाम हटाकर अच्छा ही किया क्योंकि यह फिल्म मुखर्जीनुमा नहीं वरन् मखौल हैं। कहां ऋषिकेश मुखर्जी की मध्यम वर्ग की जद्दोजहद की फिल्म आैर कहां राजा-रजवाड़े का परिवेश परंतु हबीब फैजल की दावते-इश्क पूरी तरह ऋषिकेश मुखर्जी की भावना से आेतप्रोत फिल्म है, जबकि वह उनकी किसी फिल्म से प्रेरित नहीं होते हुए भी 'मुखर्जीमय' है। फिल्म के प्रारंभ में आंकड़े दिए गए हैं कि आज भी भारत में प्रतिदिन दहेज के कारण कितनी लड़कियां त्रास भुगतती हैं आैर मर जाती हैं। फिल्म के अंत में एक लड़का दहेज ठुकराता है परंतु यथार्थ में ऐसे लोग नहीं है। बहरहाल इस जायकेदार फिल्म में सामाजिक सरोकार का तड़का भी लगा है।