दावत-ए-इश्क के साथ जायकेदार कथाएं / जयप्रकाश चौकसे

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दावत-ए-इश्क के साथ जायकेदार कथाएं
प्रकाशन तिथि : 08 सितम्बर 2014


हबीब फैजल की 'दावत-ए-इश्क' का प्रदर्शन होने जा रहा है। भोजन से प्रेम सारे विश्व के लोग करते हैं आैर प्रचलित कहावत बन गई है कि पुरुष के हृदय का रास्ता उसके पेट से होकर जाता है। अत: बॉक्स ऑफिस पर यह फिल्म एक अच्छा जायका अर्थात स्वाद सिद्ध हो सकती है। हबीब फैजल समाज में होते परिवर्तन आैर उसमें कुछ बदलने वाले शाश्वत मूल्योंं से बखूबी परिचित हैं। उन्होंने शादी व्यवस्था के व्यवसाय की पृष्ठभूमि पर सफल 'बैंड बाजा बारात' लिखी थी आैर परिणिति चोपड़ा तथा अर्जुन कपूर को अपनी 'इश्कजादे' में प्रस्तुत किया था। उनकी 'दो दूनी चार' एक गणित के निष्ठावान शिक्षक के भीतरी द्वन्द की कथा थी। वह अपने परिवार को सारी सहूलियतें देना चाहता है परंतु कमाई सीमित है। पूरा जीवन निष्ठावान रहा शिक्षक किस तरह एक बार प्रलोभन में फंसता है आैर जिन बच्चों को सहूलियत देने के लिए किया जा रहा है, वे ही बच्चे अपने पिता से आग्रह करते हैं कि वह प्रलोभन ठुकरा दे। इस फिल्म में हबीब फैजल ने मारुति कार को उभरते मध्यम वर्ग के सपनों का प्रतीक बनाया आैर मारुति ही भारत की पहली तथा संभवत: आखिरी सफल कार है। बाद के प्रयास विफल हो चुके हैं आैर मध्यम आय वर्ग में मूल्यों का परिवर्तन लाने वाले इसी उद्योग को भारत में लाने से रोकने के कितने प्रयास हुए थे।

हबीब फैजल ने 'दावत-ए-इश्क' में भोजन आैर प्रेम को जोड़ा है तो अनेक मजेदार संभावनाएं जागती हैं। याद आता है अंग्रेजी का लेखक पी.जी. वोडहाउस जो शायद निर्मल आनंद को रचने वाला एक मात्र कथाकार है जिसके सौ वर्ष पूर्व गढ़े पात्र आज भी अनगिनत लोगों के अवचेतन में अंकित हैं। यह साहित्य की शक्ति है कि कल्पना से गढ़े पात्र यथार्थ जीवन पर सदियों तक छाए रहते हैं, मसलन आज खेत भले ही कम हो गए हो परंतु मुंशी प्रेमचंद का होरी आज भी जीवित है। मन की खिड़की में आज भी धनिया चलायमान पात्र की तरह जड़ी है। पी.जी.वोडहाउस के पात्र बर्टी वूस्टर आैर जीव्स तो अमर हैं ही परंतु जिक्रे 'दावत-ए-इश्क' हमें अनातोले की याद दिलाता है। लार्ड एल्सवर्थ आैर लेडी अगाथा के भवन का बावर्ची अनातोले जबान पर रखते ही विलय हो जाने वाली अत्यंत लजीज डिशे बनाता है आैर बर्टी वूस्टर अपनी चाची अगाथा को नफरत करता है परंतु अनातोले के भोजन की खातिर अपमान सहते हुए बार बार उनके घर आता है। इसी श्रृंखला के एक उपन्यास में अनातोले को अपहरण करके ले जाने के मजेदार षड्यंत्र का विवरण भी है।

बहरहाल हबीब फैजल ने हैदराबाद आैर लखनऊ की पृष्ठभूमि पर फिल्म रची है आैर इन शहरों में बनने वाले पकवान उसी तरह प्रसिद्ध है जैसे मालवे के बाफले आैर राजस्थान के घेवर आैर गट्टे। हर शहर की पहचान में वहां की पाक विधा की भी महत्वपूर्ण भूमिका है आैर टेलीविजन पर भोजन बनाने से जुड़े अनेक कार्यक्रम होते हैं। खाने पीने के ठियों का विवरण कई किताबों में मौजूद हैं। दिल्ली में पराठा गली नामक जगह आपको इंदौर के सराफा की याद दिलाता है। पंजाब में सरसों के साग को बनाना कला का दर्जा पा चुका है। मुंबई में मुत्थुस्वामी अपने दक्षिण भारतीय पकवान के लिए इतने प्रसिद्ध है कि उनसे समय पाना सितारे से समय पाने से अधिक कठिन है। बंगाल में रसगुल्ला आैर मिष्ठी उसी निष्ठा से बनाए जाते हैं जिस निष्ठा से रवींद्र संगीत गाया या सुना जाता है। बुरहानपुर में एक भोजन बनाने वाले का नाम ही लजीज पड़ गया था आैर जब उनके गांव का आदमी उनका असली नाम से उन्हें खोजने आया तो मिल ही नहीं पाया।

भोजन महज पेट भरना नहीं है, यह अपने आप में एक संस्कृति है, एक संसार है आैर इसकी माया विचित्र है। जो चीनी भोजन भारत की होटलों में पक रहा है वो चीन में उपलब्ध ही नहीं। हम हर विदेशी पकवान में तड़का लगाकर उसे भारतीय कर देते हैं आैर इसी तरह दुनिया भर से आए लोग जिनमें आक्रामक भी शामिल हैं, उन्हें भारतीय समाज के रंग में ढाल देते हैं आैर विश्व को एक कुटुम्ब मानने की धारणा का जन्म भी भारत में ही हुआ था। पाक विद्या भी अनगिनत किताबें हैं। राजे रजवाड़ों के दौर के तौर पर किताबें हैं। नवाब वाजिद अली शाह के युग की पाक विधा पर किताबें है। शेक्सपीयर की यह पंक्ति बहुत जगह दोहराई गई है कि अगर संगीत प्रेम का भोजन है तो बजाते रहो। मुंबई के डब्बे वाले जग प्रसिद्ध रहे हैं जो अनगिनत दफ्तरों में लोगों की टिफिन पहुंचाते रहे हैं आैर आतंकवाद के भय से इस व्यवसाय पर आंच आई है। याद कीजिए इरफान अभिनीत'लंच-बॉक्स' जो अकेलेपन पर एक कविता की तरह रची फिल्म थी।

भोजन के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन की पहल भी होती है, मसलन इंदौर के बोहरा समाज ने विगत वर्ष से परम्परा जारी की है शाम का भोजन हर घर में समाज भेजता है आैर अपनी हैसियत के अनुरूप धन समाज में जमा किया जाता है। अत: अमीर गरीब सभी के घर एक सा स्वादिष्ट भोजन पहुंचाया जाता है आैर इसे पकाने में लगी समाज के गरीब घर की औरतों को अच्छा खासा मेहनताना भी मिलता है। दरअसल इस पहल का मूल यह है कि महिलाओं को दोपहर के भोजन के बाद आराम मिले आैर वे चाहे तो इस समय का उपयोग अपने परिवार के व्यवसाय में हाथ बंटाकर भी कर सकती है। दरअसल यह किचन नामक पिंजड़े से महिला को स्वतंत्र करने का प्रयास है। जिया सरहदी की "हमलोग' में एक पात्र केवल नींबू लेकर आता है आैर दफ्तर के भोजन अवकाश में सब मिल बांटकर खाते हैं तो उसका योगदान महज नींबू है। दरअसल देश में अनेक लोग चापलूसी के नींबू के सहारे ही सारा जीवन काटते हैं। चंद्रकांत देवताले की कविता 'एक नींबू के पीछे जरूर पढ़िए'।