दास्तान-ए-वुजूद-ओ-अदम: / कुँवर दिनेश

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लाल चंद प्रार्थी 'चाँद कुल्लुवी' के उर्दू काव्य का समीक्षात्मक विवेचन


लाल चंद प्रार्थी 'चाँद' कुल्लुवी'(3 अप्रैल 1916―11 दिसम्बर 1982) हिमाचल के आसमान-ए-सियासत और अदबी उफ़ुक़ के दरख़्शाँ चाँद थे। वे मूलत: हिमाचल के नग्गर (कुल्लू) गाँव से सम्बन्ध रखते थे। उनका कलाम बीसवीं सदी, शम' आ और शायर जैसी देश की चोटी की उर्दू पत्रिकाओं में स्थान पाता था। कुल-हिन्द और हिन्द-पाक मुशायरों में भी उनके कलाम का जादू सुनने वालों के सर चढ़ कर बोलता था। वे संगीत में भी पारंगत थे और राजनीति के क्षेत्र में उन्होंने हिमाचल सरकार के कई मंत्री पदों को भी सुशोभित किया था।

प्रार्थी जी का जन्म हिमाचल प्रदेश के कुल्लू ज़िला के नग्गर ग्राम में 3 अप्रैल 1916 को हुआ था। मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् वे लाहौर चले गए थे, जहाँ से उन्होंने आयुर्वेदाचार्य की उपाधि ग्रहण की थी। लाहौर में रहते हुए उन्होंने "डोगरा सन्देश" और "काँगड़ा समाचार" इत्यादि पत्र-पत्रिकाओ.के लिए नियमित रूप से लिखना शुरू कर दिया था। आलेख एवं स्तम्भ लेखन के साथ-साथ उनकी अभिरुचि काव्य-सृजन, विशेषतया उर्दू ग़ज़लगोई में थी। यही नहीं नृत्य एवं अभिनय में भी उनकी विशेष प्रतिभा थी। उनकी पुस्तक "कुलूत देश की कहानी" पौराणिक काल से वर्तमान तक कुलूत क्षेत्र के सांस्कृतिक इतिहास को काव्यात्मक एवं भावात्मक ढंग से कहती है। इस पुस्तक की भूमिका में हिमाचल प्रदेश के प्रथम मुख्यमन्त्री एवं स्वयं विद्वान् साहित्यकार डॉ. यशवन्त सिंह परमार लिखते हैं: "कुलूत देश की कहानी कहते हुए लेखक ने लोक-जीवन के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन कर यहाँ की भाषा-बोली, वेश-भूषा, खान-पान, नाच-गाना, तीज-त्यौहार, रीति-रिवाज़, रहन-सहन तथा रूढ़ियों और मान्यताओं पर बड़े रोचक ढंग से प्रकाश डाला है।"

'चाँद कुल्लुवी' के नाम से प्रकाशित लालचन्द प्रार्थी का ग़ज़ल संग्रह "वुजूद-ओ-अदम" ― उनकी दार्शनिक सोच और मूल्यपरक चेतना का परिचायक है। संग्रह का शीर्षक स्वयं में गहन-गहन दार्शनिक संवेदना से परिपूर्ण है: इसमें "वुजूद" और "अदम" ― दोनों ही शब्द स्वयं में विशिष्ट अर्थ लिए हुए हैं। "वुजूद" के मानी हैं "मौजूदगी" और "अदम" के मानी हैं "लामौजूदगी" यानी अस्तित्व और अनस्तित्व यानी होना और न होना। इस तरह शायर चाँद कुल्लुवी के अश'आर में फ़लसफ़:-ए-वुजूदियत और लामौजूदियत के मुख़्तलिफ़ रंग और रूप देखे जा सकते हैं, जिनमें ज़िन्दगी की जद्दोज़हद और माद्द: परस्त दुनिया की कशिश-ओ-कराहत के जज़्बात, यानी वस्तुवादी अथवा भौतिकतावादी संसार से आकर्षण-विकर्षण, लगाव-अलगाव के भाव मुखर हैं। लेकिन चाँद कुल्लुवी का शायर जीवन के संघर्ष में कदाचित् निराश-हताश नहीं होता; उसका दृष्टिकोण हमेशा आशावादी है; न केवल स्वयं के लिए, अपितु मानवता के लिए धनात्मक और उत्साहवर्द्धक है। शीर्षक ग़ज़ल के इस शे' र में सकारत्मक सोच देखे बनती है:

उड़ान उसकी वुजूद-ओ-अदम की हाइल है

कहो ख़्याल से अब यूँ न लड़खड़ा के चले

मनुष्य के अपने ही ख़्याल अथवा विचार उसके वुजूद-ओ-अदम यानी अस्ति-नास्ति को सुनिश्चित करते हैं। अस्तित्व और अनस्तित्व के मध्य संघर्षरत मानव अपने विचारों के बल से, सतत आशा के सम्बल से तथा प्रबल इच्छाशक्ति से ही यथेष्ट लक्ष्य की प्राप्ति करने में सफल हो सकता है। जैसा कि संत कबीर कहते हैं ― "मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। । ।" ―यानी मन: स्थिति एवं संकल्पशक्ति के अनुसार ही अभीष्टसिद्धि मिलती है। फ़लसफ़:-ए-वुजूद-ओ-अदम के बारे में चाँद कुल्लुवी का शे'र मिर्ज़ा ग़ालिब के इस शे' र से भी इत्तिफ़ाक़ रखता है:

पूछे है क्या वुजूद-ओ-अदम अहल-ए-शौक़ का

आप अपनी आग के ख़स-ओ-ख़ाशाक़ हो गए

―यानी विषयासक्त, व्यसनी अथवा इच्छाओं के वशीभूत व्यक्ति के अपने उन्माद की अग्नि ही उसके "ख़स-ओ-ख़ाशाक़" यानी घास-फूस व कचरे जैसे अस्तित्व जलाकर भस्म कर देती है। दूसरे शब्दों में―अपनी ही इच्छा-अनिच्छा तथा अपना ही कर्म-अकर्म-विकर्म व्यक्ति के लक्ष्य-साधन की सफलता-विफलता का निर्धारण करता है; यानी सफलता अथवा सिद्धि की उद्दीपन-शक्ति अन्तरिक है, बाह्य नहीं। चाँद कुल्लुवी के एक अन्य शे' र में उनके फ़लसफ़:-ए-वुजूदियत की बारीकी और लताफ़त देखिए:

ये बेनियाज़ी-ए-फ़ित्रत का था कमाल कि हम

चराग़-ए-ज़ीस्त लिए साने हवा के चले

―यानी विषयों के प्रति नि: स्पृहता अथवा अनासक्ति के बल से व्यक्ति जीवन-दीप प्रज्वलित कर अनिल-वेग में से भी नि: शंक व निर्भय होकर गुज़र जाता है। कर्म के प्रति आसक्ति अथवा मोह के कारण ही कर्त्ता उसमें आबद्ध रहता है और विलोम परिस्थितियों में दु: ख पाता है।

चाँद कुल्लुवी का मानना है कि लक्ष्य की सिद्धि-असिद्धि व्यक्ति के आत्म-बल पर निर्भर होती है; उसके संकल्प एवं निश्चय की दृढ़ता पर निर्भर होती है; उसकी पल-पल की सजगता पर निर्भर होती है; मात्र एक पल की कोताही या ग़फ़लत सारे प्रयास को विफल कर सकती है, जैसा कि इस शे' र में ज़ाहिर है:

पल भर में ही नविश्त:-ए-क़िस्मत बदल गया

मन्ज़िल के पास पाँव हमारा फ़िसल गया

"नविश्त:-ए-क़िस्मत" यानी तक़दीर की तहरीर या भाग्य की लिखावट का आधार अपना ही कर्म होता है। इसी विश्वास से चाँद कुल्लुवी के अश'आर वुजूद-ए-ख़ुद और ख़ुदशनासी पर ज़ोर देते हैं ―यानी आत्मज्ञान अथवा आत्मबोध पर केन्द्रित हैं। ख़ुद की खोज, ख़ुद की पहचान, ख़ुद का इल्म, ख़ुद की समझ―शायर के आध्यात्मिक लक्ष्य को उजागर करती है, जैसा कि एक छोटी बह्र की ग़ज़ल के अश' आर में ज़ाहिर है:

जहाँ मैं हूँ वहाँ कोई नहीं है

मेरी आवारगी है और मैं हूँ

बढ़ा जाता हूँ ख़ुद राह-ए-अदम पर

तुम्हारी रोशनी है और मैं हूँ

शायर की आवारगी―उसके ख़ुद के वुजूद-ए-हक़ीक़ी की खोज की द्योतक है और अपने वुजूद के बारे में सतत सजगता दर्शाती है; साथ ही "राह-ए-अदम" पर बढ़ते जाने से आशय है―मौजूदगी से लामौजूदगी यानी भौतिक संसार से आध्यात्मिक प्रकाश में विलय की ओर अग्रसर होना। इसलोक के माया के अन्धकार से मायातीत, ईश्वरीय सान्निध्य अथवा परमात्मा से मिलन की ओर उन्मुख होना। वैदिक मन्त्र "असतो मा सद्गमय / तमसो मा ज्योतिर्गमय / मृत्योर्मा अमृतम् गमय" को शायर अपने अन्दाज़ में बयान करता है: "राह-ए-अदम पर / तुम्हारी रोशनी है और मैं हूँ।" एक दीगर शे' र में भी रूहानी रोशनी को अपने वुजूद की अहम वजह बताते हुए शायर कहते हैं:

मेरा वुजूद तेरे शौक़ का नतीजा है

इसीलिए तो ये साए से दूर है बाबा

शायर के शौक़-ए-तसव्वुफ़ और रूहानियत की प्यास जितनी उत्कट और तीव्र है, उतनी ही सुरूरअफ़्ज़ा यानी आनन्दवर्द्धक भी है; इस प्यास की निरन्तरता बनी रहती है, जिसमें कोई आसूदगी और तुमानियत यानी सन्तुष्टि और संपूर्ति नहीं है। जीवन के अन्तर्विरोधात्मक / द्वन्द्वात्मक अस्तित्व एवं उससे मुक्त होकर द्वन्द्वातीत आध्यात्मिक जागृति के उच्चतर एवं बृहत्तर अस्तित्व की ओर संयुत होने के शब्दातीत आभास को शायर ने विरोधालंकार का प्रयोग करते हुए इस शे' र में बयान किया है:

घटाएँ पी के भी सहरा की प्यास रखता हूँ

न जाने प्यास में कैसा सुरूर है बाबा

ज़ाहिर है सुरूर-ए-रूहानियत, "सुरूर-ए-दाइमी" यानी हमेशा रहने वाला आनन्द है। नि: सन्देह चाँद कुल्लुवी एक दार्शनिक एवं अध्यात्मवादी कवि हैं। उनके लिए धर्म का अर्थ कर्त्तव्यपरायणता है; आस्था का अर्थ अध्यात्म की जागृति है। उन्होंने आत्म-साक्षात्कार एवं आत्मज्ञान को धर्मास्था का पर्याय माना है, औपचारिक, विध्यात्मक, आनुष्ठानिक कर्मकाण्ड को नहीं। उनका आध्यात्मिक चिन्तन द्वैत / अद्वैत, सगुण / निर्गुण, साकार / निराकार के वाद-विवाद से परे है। आन्तरिक श्रद्धा को महत्त्व देते हुए और बाह्याडम्बर को नकारते हुए वे कहते हैं:

रख तू किसी के दर पर जबीं अपनी या न रख

दिल से मगर ख़ुदा का तसव्वुर जुदा न रख

इन पंक्तियों में स्पष्ट है कि जब तक हृदय में "ख़ुदा का तसव्वुर" यानी ईश्वर का ध्यान रहेगा, कुछ भी अनिष्ट नहीं होगा; जो होगा ईश्वरेच्छा से होगा। ईश्वर के नाम पर दूसरों से भेदभाव और घृणा करना मानवधर्म नहीं है; धर्मान्धता मानवता के विरुद्ध है―ऐसा ही "सेक्युलर विज़न" अथवा सर्वधर्म-समभाव-युक्त एवं परस्पर-सत्कार-भाव-युक्त दृष्टिकोण प्रार्थी जी के इस शे' र में देखा जा सकता है:

दिलों के फ़ासले कुछ कम करो ख़ुदा वालो!

नमाज़-ए-एज़िन्दगी किरदार के सिवा क्या है

इस बात में कतई सन्देह नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति से अपेक्षित है कि वह अपना "किरदार" बख़ूबी निभाए; यानी अपने कर्त्तव्य का पूरी निष्ठा से निर्वाह करे; वास्तव में कर्त्तव्य का निर्वहन ही पूजा है, "किरदार" की, फ़र्ज़ की अदायगी ही सच्ची इबादत है, "नमाज़-ए-ज़िन्दगी" है।

परमात्मा की सृष्टि इतनी बृहत् और प्रसृत है कि इसे पूर्णता में समझ पाना क्षुद्र अस्तित्व वाले मानव के वश में नहीं है। "ज़मीं" और "आसमाँ" के बिम्बों के माध्यम से मानव और ईश्वर के मध्य के रहस्यात्मक सम्बन्ध को प्रार्थी जी के भीतर का शायर मुछ इस तरह से महसूस करता है:

तब तक घुटा-घुटा-सा रहेगा ज़मीं का दिल

जब तक समझ न पाएगी ये आसमाँ की बात

X X X

जब अर्स:-ए-हयात है अहल-ए-ज़मीं पर तंग

ऐसे में क्या सुनेगा कोई आसमाँ की बात

"ज़मीं" और "आसमाँ" के मध्य, पुरुष और प्रकृति के मध्य, आत्मा और परमात्मा के मध्य, मानव और ईश्वर के मध्य के अन्तर्भूत, अन्त: सम्बद्ध, अन्तर्निर्भर, अविभाज्य, अवियोज्य, अविच्छेद्य, अपरिवर्त्य, अपरिमेय, अपरिभाषेय एवं अनन्य सम्बन्ध को उदाराशयता, उदारमनस्कता, निष्कपटता एवं निष्पक्षता से समझा जा सकता है; पूर्वाग्रह, स्वार्थ और संकीर्ण मानसिकता से नहीं।

समग्र मानवता परस्पर-निर्भर है, अत एव अन्त: सम्बद्ध है―यह बात समझ ली जाए, तो मानव-मानव के मध्य का पाटन नहीं रहेगा। इस एकात्मकता को बड़ी सहजता से प्रार्थी जी इन पंक्तियों में कहते हैं:


मुबहम बनी रहेगी यूँ ही दो जहाँ की बात

जब तक समझ न पाए कोई दर्मयाँ की बात

X X X

हैं एक ही फ़साने की कड़ियाँ जुदा-जुदा

मेरी जबीं की हो कि तेरे आस्ताँ की बात

सब चराचर, सारी कायनात ईश्वर की रचना है; अत एव सभी जीव एक ही सूत्र से बँधे हैं, सभी का मूल एक है, सभी का स्रोत एक है―चलने के मार्ग भिन्न हैं, किन्तु लक्ष्य एक ही है; मंतव्य भिन्न हैं, किन्तु गंतव्य एक ही है। प्रार्थी जी के शायर की चिन्ता का विषय यह है कि मानवीय मूल्यों का ह्रास हो रहा है, मानवता बंटी हुई है, मानव की मानव के प्रति संवेदना क्षीण / क्षुण्ण हो रही है। सबसे बड़ा कारण है अहंमन्यता व स्वार्थपरता। इस शेर में मनुष्यों के स्वार्थपूर्ण रवैये पर, कोरी ख़ुदपरस्ती पर गहरा खेद व्यक्त किया गया है:

फिरते हैं सीना चाक लिए अपना-अपना ग़म

सुनता नहीं कोई भी ग़म-ए-दोस्ताँ की बात

एक अन्य शे' र में शायर ने समाज का चित्र उकेरा है, जिसमें परस्पर भेदभाव, अनादर, अन्यमनस्कता, अवसरवाद के शूल बिखरे हुए हैं; जहाँ बुराई अच्छाई के पथ को कंटीला बनाती है। इस एक शेर में ही शायर ने समाज में व्याप्त कई द्वन्द्वों पर एक-साथ तंज़ कसा है:

मिज़ाज-ए-अहल-ए-चमन ख़ार-ख़ार लगता है

सबा को चाहिए अपनी क़बा बचा के चले

बहरहाल, शायर चाँद कुल्लुवी का रवैया सकारात्मक और समन्व्यात्मक है और उनका हृदय विशाल है, उदार है, जो फूलों के साथ-साथ काँटों के वुजूद को भी क़बूल करता है, बराबर तरजीह देता है, जैसा कि इस शे' र में अयाँ है:

इक फ़कत फूल नहीं ग़म का मुदावा ऐ चाँद,

ख़ार भी पालता हूँ पाँव के छालों की तरह

चाँद कुल्लुवी की शायरी से उनके चरित्र की एक विशेषता स्पष्ट रूप से सामने आती है: वे "आत्म" में सजग हैं, ईमानदार हैं, सत्यनिष्ठ हैं। वे अपनी ख़ूबियों और ख़ामियों, मज़बूतियों और कमज़ोरियों को भली-भान्ति समझते हैं और उन्हें झूठ के पर्दे में छिपाते नहीं हैं। उनकी अपनी त्रुटियों के विषय में पश्चातापपूर्ण स्वीकारोक्ति इस शे' र में देखिए:

रहनुमाई में कुछ ऐसी बदगुमानी भी रही

आज अपने आप से मिलकर बहुत रोया हूँ मैं

अन्तश्चेतना को जाग्रत रखने और मन / चित्त को मालिन्य से मुक्त रखने का प्रयास निरन्तर रहना चाहिए―ऐसा ही मनोभाव इस शे' र में ख़ुदअयाँ है, जिसमें राह-ए-अदम पर निर्मल मन एवं निष्कपट भाव से अग्रसर होने का आग्रह है:

मिटा तो लो अभी दामन से दाग़ हाय अपना

ये किस लिबास में तुम सामने ख़ुदा के चले

"वुजूद-ए-अदम" में इन्सान के कर्मों को याद किया जाता है और सत्कर्म ही उसे दैवी कृपा का पात्र बनाते हैं―यही फ़लसफ़: इस शे' र में कहा गया है:

हश्र में आमाल-नामे जब पढ़े जाने लगे

कुछ फ़रिश्तों की सिफ़ारिश पर पलट आया हूँ मैं

ये "फ़रिश्तों की सिफ़ारिश" और कुछ नहीं अपने ही अच्छे कर्मों का सवाब यानी सुफल है। अत: कर्म ही आत्मकल्याण का साधन है। कर्मों के कारण ही किसी व्यक्ति को उसकी मृत्यु के पश्चात् भी स्मृति में जीवित रखा जाता है। किसी को विस्मृत कर दिया जाना ही वास्तविक मृत्यु है। व्यक्ति के कर्म अच्छे हों तो वह आत्मविश्वास के साथ कह सकता है―जैसा कि शायर चाँद कुल्लुवी कहते हैं:

हम न होंगे तो चमन होगा उदास

बू-ए-ग़ुल हाथ मलेगी सुन लो

इस ख़ुशऐतमादी की वजह एक ही है: अपने सुकर्म। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार, यदि कर्म निष्काम हों यानी फल की इच्छा किए बिना किए जाएँ, तो व्यक्ति सुख-दु: ख के बन्धन से मुक्ति पा सकता है। कर्मयोग में वर्णित निष्काम कर्म से ही ज्ञानयोग में आख्यायित निष्काम बुद्धि यानी बुद्धि को कामना और परिग्रह से मुक्त बनाने का लक्ष्य सिद्ध किया जा सकता है। मन की विषयाभिमुखी प्रवृत्ति को विजित करने के लिए और सत्यार्थ में मोक्ष-प्राप्ति का एकमात्र साधन है ―अपरिग्रह। इस गूढ़ रहस्य को चाँद कुल्लुवी बड़ी सहजता से कहते हैं:

ऐ चाँद आर्ज़ुओं की तक्मील हो चुकी

रुख़्सत के वक़्त दिल में कोई मुद्दा न रख

नि: सन्देह यह सन्तुष्टि और संपूर्ति का भाव ही मोक्ष है। स्पष्ट है लाल चन्द प्रार्थी चाँद कुल्लुवी का फ़लसफ़:-ए-वुजूद-ओ-अदम गीता के निष्काम कर्मयोग पर आधारित है। अध्यात्म की सूक्ष्मतर चेतना से उपजी उनकी शायरी आत्मान्वेषण एवं आत्मपरिष्कार का बृहत्तर लक्ष्य का संधान करती है। उनकी शायरी में कहीं रहस्यवादी दृशा है तो कहीं सूफ़ियाना अन्दाज़ भी है। उनकी शायरी सामाजिक उन्नयन के विषय में गाँधीवादी आदर्शों को आत्मसात् करती है और समग्र मानवता को एकात्म दृष्टिकोण से देखते हुए उत्कृष्ट एवं उच्चतर जीवन-मूल्यों का उपस्थापन करती है। 11 दिसम्बर 1982 को प्रार्थी जी इस दुनिया को त्याग कर चले गए, लेकिन उनका हर एक शे' र उनके दर्शन को जीवन्त रखे हुए है। 

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