दाहिना हाथ / अलिकसान्दर इसाइविच सल्झिनीत्सिन / विनोद दास

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अलिकसान्दर इसाइविच सल्झिनीत्सिन »

इस जाड़े में जब मैं ताशकंद पहुंचा तो मेरी हालत एक लाश सी थी.मौत की आशंका से भरकर मैं वहां आया था. लेकिन मुझे ज़िन्दगी जीने का एक और मौका मिल गया.

एक महीना बीता.फिर दूसरा और तीसरा.बाहर ताशकंद के चमकीले बसंत की छटा बिखरी हुई थी और अपने पांव गर्मी की ओर बढ़ा रही थी.जब मैंने अपनी कांपती टांगों से दरवाज़े के बाहर निकलने के लिए हिम्मत जुटायी,वहां बेहद गर्मी थी और चारों तरफ ख़ूब हरियाली छाई हुई थी.

मैं अब भी अपने आप से क़ुबूल करने की हिम्मत जुटा नहीं पा रहा था कि मैं पहले से बेहतर हो रहा हूँ. अपने ख़याली सपनों में मैं अब भी अपनी ज़िन्दगी को सालों में नहीं, महीनों में नाप रहा था । अस्पताल के ब्लॉकों के बीच बने पार्कों के कंकड़ और डामर वाले रास्तों पर मैं धीरे-धीरे सम्हलकर चलता था. आराम के लिए मुझे अक्सर बीच-बीच में बैठना पड़ता था और कई दफ़ा मितली पर काबू करने के लिए मुझे यथासंभव अपना सिर नीचे करके लेटना पड़ता था.

अपने इर्द-गिर्द लोगों की तरह मैं भी बीमार था लेकिन फिर भी कुछ अलहदा था. उनकी तुलना में मेरे हक़ बेहद कम थे और मुझे खामोश रखा जाता था. उनके पास लोग आते थे, रिश्तेदार उनके लिए रोते थे. उनकी एक चिंता थी,उनकी ज़िन्दगी का एक ही मकसद था कि वे जल्दी से जल्दी फिर अच्छे हो जाएँ. लेकिन अगर मैं ठीक भी हो जाऊं तो यह लगभग बेमतलब होता. मैं पैंतीस साल का हो गया था लेकिन इस बसंत में इस समूची दुनिया में ऐसा कोई नहीं था जिसे मैं अपना कह सकूँ. मेरे पास पासपोर्ट तक भी नहीं था. और अगर मैं ठीक भी हो जाऊं तो मुझे इस हरी-भरी पृथ्वी को छोड़कर मुझे उस रेगिस्तान में जाना पड़ेगा जहाँ मैं हमेशा-हमेशा के लिए निर्वासित किया गया हूँ.वहां मैं खुली निगरानी में रहता था,जहाँ हर पखवाड़े मुझे स्थानीय पुलिस मुख्यालय में हाज़िरी देनी पड़ती थी और काफ़ी अरसे तक मुझ जैसे एक मरणासन्न आदमी को इलाज़ के लिए जाने की इज़ाज़त भी नहीं दी गई थी. अपने आसपास के खाली घूमते मरीजों से मैं यह सब बात कर भी नहीं सकता था.अगर ऐसा करता भी तो वे नहीं समझ पाते. दूसरी तरफ़ मेरे पीछे दस लंबे चिंताजनक वर्षों की परछाइयां थीं और मैं इस कहावत की सचाई को पहले से जानता था कि ज़िन्दगी का सच्चा स्वाद बड़ी चीज़ों से नहीं,छोटी छोटी चीजों से पाया जाता है-ऐसी चीज़ें मसलन अपनी कमजोर हो गयी टांगों से बिना किसी हिचकिचाहट के चलने के काबिल होना,छाती में चीरते दर्द से बचने के लिए भरपूर सांस लेना.ठण्ड से बचा सही सलामत वह एक आलू पाना जिसे अपने सूप से मैंने निकाल लिया था.

जहाँ तक इस बसंत की बात है, यह मेरी ज़िन्दगी का सबसे तकलीफ़दायक और प्यारा बसंत है.

मैं जिन चीज़ों से घिरा हूँ,उन्हें या तो मैं भूल चुका था या पहले नहीं देखा था.लिहाजा हर चीज़ मुझे दिलचस्प लगती है चाहे आइसक्रीम का ठेला हो,पानी के होज़ के साथ सड़क साफ़ करने वाला आदमी हो,लंबी मूली के गुच्छे बेचनेवाली औरत हो और ख़ासतौर से वह भटका बछेड़ा जो दीवार में बनी दरार से मुंह डालकर घास चरता हो. हर गुज़रते दिन के साथ उस पार्क से होते हुए मैं अस्पताल से दूर से दूर तक जाने की हिम्मत जुटाता जो पिछली सदी के आख़िर में बनाया गया होगा जिसके साथ ये अच्छी मजबूत इमारतें भी बनायी गयी होंगी जिनके कोने को ईंटों की चिनाई करके सुंदर बनाया गया था.भव्य सूर्योदय से लेकर पूरे लंबे दक्षिण दिशा की ओर जानेवाले दिन और पीली रोशनी भरी सांझ बेला तक वह पार्क हलचलों से गुलज़ार रहता.सेहतमंद लोग इधर-उधर सरपट दौड़ते रहते जबकि बीमार लोग इत्मीनान से अपनी सैर करते रहते.

एक ऐसी जगह पर जहाँ सभी रास्ते मिलकर मुख्य द्वार की ओर जाते थे,वहां स्टालिन की एक बड़ी संगमरमर की मूर्ति खड़ी थी जो अपने पथरीले मूंछों के पीछे से व्यग्यांत्मक मुस्कान बिखेर रही थी. दूसरी छोटी मूर्तियाँ मुख्य द्वार तक जाने की राह में बराबर दूरी पर लगायी गयी थीं.

उसके बाद वहां एक स्टेशनरी की दुकान थी.यहाँ प्लास्टिक की पेंसिलें और लुभावने नोटबुक बिकते थे.लेकिन मैंने स्टेशनरी के बिना रहने का फैसला कर लिया था क्योंकि एक तो मुझे अपने खर्चों पर कड़ी निगरानी रखनी पड़ती थी, दूसरे इसलिए भी कि मेरी पिछले नोटबुक गलत हाथों में पड़ गयी थी.

द्वार के दाहिनी तरफ़ फल का एक स्टाल और चाय की दुकान थी.धारीदार पैजामा पहने हम मरीजों को चाय की दुकान में जाने की इज़ाजत नहीं थी लेकिन खुले बाड़ के जरिये हम वहां की गतिविधियों को देख सकते थे.मैंने अपनी ज़िन्दगी में हकीकत में चाय की ऐसी दुकान नहीं देखी थी जहाँ हर आदमी के लिए हरी या काली चाय के निजी पॉट हों.चाय की दुकान में जहाँ छोटी मेजोंवाला एक यूरोपीय सेक्शन था,वहीं बड़ी डायस वाला उज़बेक सेक्शन भी था.मेजों पर बैठे लोग ख़ामोशी से खाते-पीते थे,एक छोटे से खाली कटोरे में छोटी रकम अदा करके निकल जाते थे.लेकिन डायस पर बैठे या उसके आसपास छितरे हुए लोग घंटों और उनमें कुछ तो कई दिनों तक बैठे रहते थे.गर्मी के मौसम के शुरू में ताने गये शामियाने के नीचे की रेलपेल में टाट पट्टी पर बैठकर पासा खेलने के दौरान वे चाय के प्याले दर प्याले पीते रहते थे गोया उनका पूरा लंबा दिन चिंतामुक्त हो .

फल स्टाल मरीजों को जरूर फल बेचते थे लेकिन अपने निर्वासन काल में कमाए कुछ कोपेक उनकी कीमतों से शर्माते हुए दुबके रहते थे.सूखे अखरोट,किशमिश और ताज़ी चेरी के ढेर को दुखी मन से घूरकर मैं आगे बढ़ गया. इसके आगे एक ऊँची दीवाल थी,मरीज़ों को उसके दरवाज़े के आगे जाने की इजाज़त नहीं थी.जनाज़े के लिए बंद बजाने वालों की धुन की गूँज दिन में दो या तीन बार इस दीवार को पारकर अस्पताल के मैदान में पहुंच जाती थी. इस शहर में लाखों बाशिंदे थे.लेकिन कब्रिस्तान हमारे दरवाज़े के पास था.धीरे चलनेवाले जनाज़े की आवाज़ लगभग हमें दस मिनट तक सुनायी देती थी जबतक कि वे लोग मैदान पार नहीं कर लेते थे.ड्रम एक अजूबी आवाज़ पैदा करता था.इसकी झटकेदार लय की गति उसके ताल से हमेशा कुछ ज्यादा तेज़ होती थी जो मातम मनानेवाली भीड़ पर कोई असर नहीं डालती थी.किनारे खड़े सेहतमंद लोग तेजी से गंतव्य की ओर जाने के पहले बामुश्किल रूककर उस पर नज़र डालते और उन्हें पता रहता कि उन्हें कहाँ जाना है लेकिन मरीज़ इन जनाजों की आवाज़ सुनकर ठहर जाते,अपने वार्ड की खिड़कियों से अपने सिर निकालकर देर तक उसे सुनते रहते.

मुझे जैसे जैसे यह साफ़ लग रहा था कि मैं बीमारी से उबर रहा हूँ और यह पक्का यकीन हो चला था कि मैं अब ज़िन्दा रहूँगा,मैं अपने आसपास को उत्साह से देख रहा था.मुझे अफ़सोस हो रहा था कि मुझे यह सब छोड़कर जाना पड़ेगा.

मेडिकल के छात्रों के खेल मैदान में सफ़ेद आकृतियाँ एक दूसरे को सफेद टेनिस बाल मार रही थीं.पूरी ज़िन्दगी मैं टेनिस खेलने के लिए बेकरार रहा लेकिन मुझे कभी मौका नहीं मिला.नीचे सालार नदी के ढलुये तट पर मटमैले पीले पानी की तेज गड़गड़ाहट की आवाज़ आ रही थी.पार्क में फ़ैली टहनियों वाले ओक के पेड़ थे.छायादार मैपल थे.कोमल जापानी बबूल थे.आठ मुंह वाले फव्वारे की चांदी सी पतली धार खूब ऊँची उठ रही थी.और लॉन में क्या सुंदर घास थी-मुलायम और सौभाग्य से उपेक्षित-कैदियों के शिविरों की घास की तरह नहीं जिसे प्रशासन एक दुश्मन की तरह उखाड़ने के लिए हुक्म देता रहता है और उधर मेरे निर्वासन के जगह पर घास तो बिलकुल ही नहीं उगती.इस घास पर मुंह औंधेकर लेटकर शान्ति से घास की सुवास में और धूप से गरमाई हवा में सांस लेते हुए जन्नत का मज़ा मिल रहा था.

सिर्फ़ मैं ही अकेला घास में नहीं लेटा हुआ था.मेडिकल इंस्टिट्यूट के छात्र इधर-उधर छितरे हुए थे और अपने पाठ्यक्रम की किताबों में डूबे हुए थे.किंतु उनमें से कुछ छोटी कहानियाँ पढ़ रहे थे जो उनकी परीक्षा पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं थीं.जबकि दूसरे,खासतौर से चेंजिंग रूम से निकलते हुए खिलाड़ी अपने स्पोर्ट्स बैग को झुला रहे थे.शाम को लड़कियाँ कम दिखती थीं और इसलिए तीन गुणा आकर्षक दिखती थीं,वे क्रीज़वाली या आयरन की गयी फ्रॉक पहने फव्वारे के चारों ओर घूम रही थीं और रास्ते पर पड़ी हुई बजरियों पर उनके पांव पड़ने से चरमर-चरमर सी आवाज़ निकल रही थी.

मेरा दिल किसी के लिए दया से फटा पड़ रहा था.यह मेरे लिए और मेरे समकालीनों के लिए था जो देमिंस्क के निकट जमकर मर गये थे.ऑस्च्वित्ज़ में ज़िन्दा जला दिए गये थे.द्जेज्कज़न में थकान से परेशान होकर या साइबेरिया के निर्जन में मर रहे थे क्योंकि ये लड़कियां कभी भी हमारा हिस्सा नहीं रही थीं.या यूँ कहें कि ये बातें इन लड़कियों पर भी लागू थीं जो मैं उनसे नहीं कह सकता था और जिसे वे कभी भी नहीं पा सकती थीं.

बजरी और डामर के रास्ते पर पूरे दिन लंबी लंबी औरतें चलती हुई दिखती थीं जिनमे जवान डॉक्टर,नर्स,लैब असिस्टेंट,क्लर्क,हाउस कीपर,डिस्पेंसर और मरीज़ को देखने आये रिश्तेदार होते थे.कड़क सफ़ेद कोट और चमकीले दक्षिणी इलाके के उन कपड़ों में वे मेरे पास से गुजरती थीं जो अमूमन आधे पारदर्शी होते थे.अमीर लड़कियाँ चमकीले नीले या गुलाबी और थोड़ा घुमावदार फैशनवाले लिबास में होती थीं और उनके सिर पर बॉस की मूठवाली चीनी छतरी तनी होती थी.उनमें से हर एक जब मेरे पास से तेजी से गुज़रकर जाती थी,एक क्षण के लिए किसी उपन्यास का एक सम्पूर्ण कथानक लगती थी.उसका अतीत-उसको जानने का मेरे लिए एक मौका (जिसका कोई अस्तित्व नहीं ) होता था.

मैं एक दयनीय मरीज़ था.मेरे दुर्बल चेहरे पर उस ज़िन्दगी की छाप थी जिससे मैं गुज़र रहा था.शिविर ज़िन्दगी को ढोती विषाद की झुर्रियां थीं,मेरी कड़ी त्वचा पर मौत की पीली छाया तिरती रहती थी,हाल ही में विषाक्त रोग से जहर फ़ैल गया था और नशीली दवाइयां खाने से गालों पर हरे रंग की परत और चढ़ गयी थी.आत्मरक्षा में झुकने की आदत और आत्मसमर्पण के कारण मेरी पीठ पर कूबड़ निकल आया था.मसखरे जैसी धारीदार जैकेट बामुश्किल मेरे पेट तक पहुंचती थी जबकि मेरी धारीदार पैंट घुटनों पर खत्म हो जाती थी और मेरे लंबे मोज़े कैदी शिविर के भोथरे पंजों वाले बूटों के ऊपरी कैनवस से बाहर लटके रहते थे.

इन औरतों में से कोई भी मेरे बगल में चलने की हिम्मत करेगा.लेकिन मैं खुद को और अपनी चेतना पर पड़नेवाले दुनियावी प्रभावों को अपनी उन आँखों से नहीं देख सकता जो उतनी ही संवेदनशील हैं जितनी उनकी ऑंखें. एक गहराती शाम को मैं मुख्य द्वार पर खड़ा था और लोगों की आम भीड़ को अपने आसपास से गुज़रते हुए देख रहा था.छाता लटकाये,मखमली लिबासों और चमकीले कमरबंदवाले तसर मखमल की पतलून और कढ़ाईदार कमीज़ पहने और झिलमिल करती गोल टोपियाँ लगाये लोग जा रहे थे.आवाज़ें गूँज रही थीं.लोग फल बेच रहे थे.बाड़ के पीछे कुछ लोग चाय पीते हुए चौसर फेंक रहे थे.उसी समय एक बाड़ पर झुका हुआ भिखारी सा लगता एक भद्दा सा आदमी भीड़ को थोड़ी-थोड़ी देर पर हांफती आवाज़ में बुला रहा था.

“कॉमरेड कॉमरेड “

व्यस्त और भद्दी भीड़ उसे सुन नहीं रही थी.मैं उसके पास गया.

“क्या बात है भाई?"

उस आदमी का बड़ा पेट किसी गर्भवती महिला के पेट से बड़ा था जो एक बोरे की तरह लटका हुआ था.यह पेट उसके गंदे खाकी अंगरखे और पैंट से बाहर निकला हुआ था.उसके गंदे धूल भरे जूतों के तलवे घिसकर फट गये थे.गंदी कॉलर और घिसी कलाई वाला खुले बटनवाला मोटा ओवरकोट इस मौसम के मुताबिक़ नहीं था और उसके कंधों पर बोझ सा बना हुआ था.उसने अपने सिर पर फटी-पुरानी तिरछी टोपी पहन रखी थे जो बाग़ में चिड़ियों को डराने के काबिल थी.जलोधर से सूजी हुई उसकी आँखें चमक रही थीं.

बड़ी कोशिश के बाद उसने एक बंधी हुई मुठ्ठी ऊपर उठाई और मैंने उससे पसीने से लथपथ मुड़ा-तुड़ा कागज़ का एक टुकड़ा बाहर खींचा.पेन से नुकीली हाथ से कागज़ पर टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में लिखी नागरिक बोब्रोव की यह एक अर्जी थी जिसमें अस्पताल में दाखिले के लिए दरख्वास्त की गयी थी.अर्जी के आड़े हिस्से में दो मुहरें लगी हुई थीं.एक नीले रंग की मोहर थी और दूसरी लाल.नीले रंग की मोहर नगर स्वास्थ्य समिति की थी जिसमें उसे अस्पताल में दाखिला नामंज़ूर करने का आधार बताया गया था.लाल स्याहीवाले में मरीज़ के तौर पर उस आदमी को मेडिकल इंस्टिट्यूट में स्वीकार करने का आदेश दिया गया था.नीले मोहर में कल की तारीख़ पड़ी थी और लालवाली पर आज का तारीख़ थी.

“देखिए ! आपको वार्ड एक के रिसेप्शन पर जाना होगा, लिहाज़ा इन मूर्तियों को पार करते हुए सीधे जाइए” मैंने उसे जोर आवाज़ में समझाया गोया वह बहरा हो.

फिर मैंने गौर किया कि उसके सफ़र के मुक़ाम पर पहुंचने के पल में उसकी ताकत ने उसका साथ छोड़ दिया.वह केवल कुछ और सवाल पूछने के ही नहीं,समतल डामर के रास्ते पर अपने पाँव खींच कर चलने के भी काबिल नहीं था.वह इस क़दर कमज़ोर था कि वह अपना गंदा झोला भी ले जा नहीं पा रहा था जिसका वज़न तीन या चार पौंड से अधिक नहीं था.ऐसे मैं मैंने मन बना लिया और कहा.

“ठीक है मेरे बुज़ुर्ग दोस्त ! मैं आपको ले चलता हूँ.आइए चलें,अपना थैला मुझे दे दीजिए."

वह समझ गया.अपना थैला थमाकर उसे राहत महसूस हुई.मेरे आगे बढ़ी बाहों पर वह झुक गया और डामर के रास्ते पर जमीन से बामुश्किल पाँव उठाये अपने जूते घसीटता हुआ आगे चलने लगा.मैं उसके उस कोट को पकड़कर उसकी कोहनी से राह दिखा रहा था जो धूल से लाल भूरा हो गया था.उसका फूला हुआ पेट उस बुज़ुर्ग को आगे पीछे खींचता हुआ लगता था.वह बार-बार गहरी सांस लेता था.

इस तरह हम दो मैले -कुचैले शख़्स उस रास्ते पर आगे बढ़े जहाँ मैंने पहले अपने ख़यालों में ताशकंद की दो सबसे खूबसूरत लड़कियों को अपने बाहों में घेरा था. हमने धीरे-धीरे अपने को घसीटते हुए संगमरमर की मूर्ति को पार करने में काफ़ी समय लगा दिया.

आख़िरकार हम रुक गये.हमारे रास्ते के बगल में एक बेंच थी जिसमें पीठ टेकने का सहारा भी था.मेरे साथी ने कुछ देर उस पर बैठने के लिए कहा.लंबे समय से खड़े रहने के कारण मुझे भी थकान लग रही थी.हम बैठ गये.हम यहां से फव्वारा देख सकते थे.

जब हम उस बुज़ुर्ग के साथ चल रहे थे तो उसने मुझे कुछ बातें बतायी थीं.अब उसकी कुछ सांस थम गई थी और उसने फिर अपनी कहानी शुरू कर दी. उसे उराल्स जाना था. उसके पासपोर्ट में घर जाने की अनुमति उराल्स के लिए थी जो संकट का असली कारण था. ताखिया-ताशेम (मुझे याद है कि वहां वे एक नहर बना रहे थे ) के निकट कहीं वह बीमार पड़ गया था.उर्गेन्च में उन्होंने उसे एक महीने तक अस्पताल में रखा.उसके पेट और पैर से पानी निकाला.उसकी हालत और खराब कर दी और फिर उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी.उसने अपना सफ़र बीच में चर्द्जाऊ रुककर छोड़ दिया.फिर वहां से उरासेव्स्काया गया लेकिन वह जहाँ भी इलाज़ के लिए गया,वहां से लौटा करके उसे उराल्स भेज दिया जाता जो उसका आधिकारिक घर था.उसे वहां ट्रेन से जाने में कमज़ोरी महसूस हो रही थी और वैसे भी उसके पास टिकट के लिए भी रकम काफी नहीं थी.दो दिन पहले अस्पताल में दाखिला मिलने की उम्मीद में वह किसी तरह ताशकंद पहुंचने में कामयाब हो गया.

मैंने उससे यह नहीं पूछा कि वह दक्षिणी इलाके में क्या कर रहा था और वह यहाँ क्यों आया है.मेडिकल सर्टिफिकेट के अनुसार उसकी बीमारी “एडवांस्ड” थी लेकिन उस पर एक नज़र डालने से लगता था कि उसका आख़िरी समय है.मैंने तमाम मरीज़ देखे हैं और मैं यह कह सकता हूँ कि उसे जीने की कोई इच्छा नहीं थी.अपने होंठों पर उसका अपना नियंत्रण नहीं था.उसकी बोली साफ़ नहीं थी.उसकी आँखें सुस्त और निष्प्राण थीं.

उसकी टोपी तक भी उसके लिए बोझ थी.बड़ी मुश्किल से उसने अपने सिर से उसे उतारकर अपने घुटनों पर रखा था.बड़ी जद्दोजहद के बाद किसी तरह उसने अपना हाथ ऊपर उठाया और अपनी गंदी आस्तीन से अपने माथे का पसीना पोंछा.वह टकला था,हालांकि कुछ छिटपुट छितरेबालों का एक घेरा वहां बना हुआ था जो धूल की परत से पीला- लाल हो गया था.उनकी यह बुरी हालत बुढ़ापे से नहीं,बीमारी से हुई थी.

उसकी गर्दन से फालतू खाल की झुर्रियां लटकी हुई थीं जो चूजे की तरह दयनीय रूप से पतली हो गयी थीं.उसका टेंटुआ आगे उभरा हुआ दिख रहा था.मैं हैरान था कि किस तरह उसने अपना सिर ऊँचा कर रखा है और हम थोड़ी ही देर ही बैठे थे कि जब वह आगे बढ़कर मेरी छाती पर अपनी ठोढी के सहारे टिक गया.

घुटनों पर टोपी रखे हुए वह वहां लुढ़क गया और उसकी आँखें बंद हो गईं.लगता था कि वह भूल गया था कि हम अपनी सांस को आराम देने के लिए कुछ पलों के लिए वहां बैठे थे और उसे रिसेप्शन पर जाना है.

हमारी आँखों के सामने फव्वारे का फुहारा लगभग नि:शब्द अपनी चांदी की धार ऊपर की ओर फेंक रहा था.उसके परे दो लड़कियाँ अगल- बगल होकर गुजरीं.मैंने उन्हें जाते हुए देखा.एक नारंगी कमीज़ पहने हुए थी और दूसरी मैरून रंग की.मुझे दोनों ही बेहद खूबसूरत लगीं.

मुझे अपनी पड़ोसी की आह सुनायी दी.उसने अपना सिर छाती की तरफ़ घुमाया और अपनी पीली-भूरी बरौनियों को ऊपर उठाकर मेरी तरफ़ तिरछा किया.

“क्या आपके पास सिगरेट होगी कामरेड़?”

मैंने भौंकते हुए उससे कहा,” शायद बुज़ुर्ग दोस्त आप यह भूल रहे हैं कि आपकी और मेरे जीवन की उम्मीद तब तक है जब तक हम धूम्रपान नहीं करेंगे.आईने में एक नजर अपने ऊपर डालो.एक सिगरेट भी.क्या सचमुच! ( मैं अभी एक महीना पहले अपनी इस आदत से छुटकारा पाने में कामयाब हुआ था)।

सांसों के लिए तड़फड़ाते हुए उसने अपनी आँखें ऊपर उठायीं और अपनी पीली बरौनियों के नीचे से कुत्ते की तरह मेरी ओर ताकने लगा.

“एक ही बात है.मुझे तीन रूबल दे दो.”

मैं सोचने लगा कि इसे रूबल दूँ या न दूँ.आख़िरकार मैं अब भी एक कैदी था जबकि वह एक आज़ाद आदमी था.कैदी शिविर में मैंने जितने साल मैंने काम किया था,मुझे कुछ भी भुगतान नहीं किया गया था.और जब उन्होंने मुझे भुगतान करना शुरू किया तो वे उस रकम को कटौतियों के बहाने वापस ले लेते थे.मसलन पहरा देने के लिए,परिसर में बिजली खर्च के लिए,पुलिस कुत्तों के लिए,अफ़सरों के लिए,कैदखाने में खाने के लिए.

मैंने अपने मसखरे सी जैकेट के छोटे ब्रैस्ट पॉकेट से चमड़े का बटुआ निकाला और उसमें रखे नोटों पर निगाह दौड़ायी.मैंने आह भरी और उस बुज़ुर्ग को तीन रूबल का एक नोट निकालकर उसे दे दिया.

“शुक्रिया “भर्राई आवाज़ में उसने कहा. अपने हाथ को बाहर निकालने के लिए जद्दोजहद करते हुए उसने नोट लिया और अपनी जेब में रख लिया.तुरंत उसका हाथ नीचे गिर कर उसके घुटनों पर गिर पड़ा.उसकी ठोढी झूलकर आगे हो गयी जबतक उसका सिर फिर से छाती पर नहीं टिक गया.

हम ख़ामोश हो गए । और इस बीच पहले एक औरत और बाद में दो और छात्राएं गुजरीं.मुझे तीनों बेहद खूबसूरत लगीं.सालों बाद मैंने लड़कियों की आवाज़ या उनकी एड़ियों की खटखट सुनी थी.

आप भाग्यशाली हैं जो उन्होंने आपको एडमिशन फॉर्म दे दिया,नहीं तो आपको यहाँ एक हफ़्ते से ज़्यादा लटके रहना पड़ता.अक्सर यह होता है.तमाम लोगों को ऐसी हालत का सामना करना पड़ता है.”

उसने अपनी ठोढी अपनी छाती से उठायी और मेरी ओर ताकने लगा.उसकी आँखों में चेतना की एक कौंध चमकी,उसकी आवाज़ थरथराई और उसने कुछ और साफ़ लहज़े में कहा.

“ बेटा ! वे मुझे यहाँ इसलिए रख रहे हैं क्योंकि मैं इसका हकदार हूँ.मैं क्रांति का पुराना सिपाही रहा हूँ.सेर्गेई मिरोनिच किरोव ने तसरित्स्यन लड़ाई के दौरान मुझे निजी तौर से मुझसे हाथ मिलाया था.मुझे विशेष पेंशन मिलनी चाहिए.”

उसके गाल और होंठ हल्के से हिले और बिना हजामत वाले उसके चेहरे पर गर्वीली मुस्कान की एक छाया तैर गयी.

मैंने उसके फटे पुराने कपड़ों का मुआइना किया और उसकी तरफ एक बार और देखा.

“फिर आपको पेंशन मिली क्यों नहीं?”

“यही ज़िन्दगी है.”उसने आह भरी.”वे तो अब मेरी मौजूदगी को ही नहीं मानते.कुछ रिकार्ड्स जल गये हैं.बाकी खो गये हैं.मुझे कोई गवाह भी नहीं मिला.सेर्गेई मिरोनिच की हत्या हो गयी है.यह सब मेरी गलती है कि मैंने अपने दस्तावेज़ सम्हाल कर नहीं रखे.बस मैं ही एक यहाँ बचा हुआ हूँ.”

उसने अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाया और अपनी गोल और फूली हुई अँगुलियों को अपनी जेब में डालकर टटोलने लगा लेकिन उसकी इस तेज हरकत ने जल्दी ही सांस तोड़ दी और उसने फिर अपना हाथ और सिर एकाएक गिरा दिया और बुत सा खामोश बैठ गया.

सूरज पहले ही अस्पताल की इमारत के पीछे डूबने वाला था और हमें रिसेप्शन तक जल्दी से पहुंचना था.(यह अभी भी सौ कदम दूर था) मेरा अनुभव था कि अस्पताल में दाखिले के समय हमेशा कठिनाई आती है.

मैंने उस बुज़ुर्ग का कंधा थाम लिया.

“जागिए, बुज़ुर्ग दोस्त ! देखिए, क्या वहां आपको वह दरवाज़ा दिख रहा है ? दिख रहा है न ? मैं उन्हें मनाने के लिए वहां जाता हूँ.अगर आप खुद से आ सकें तो अच्छा.लेकिन न आ सके तो मेरा इंतज़ार कीजिए. मैं आपका थैला ले चलूँगा.”

उसने ऐसे सिर हिलाया जैसे कि वह सब कुछ समझ गया हो.

रिसेप्शन जर्जर हॉल का एक हिस्सा था जिसे एक कच्चे पार्टीशन से बांटा गया था.एक समय में वहां एक सामूहिक स्नानगृह,एक ड्रेसिंग रूम और एक हेयरड्रेसर था.दिन के वक्त यह हमेशा मरीजों से भरा रहता था जो अस्पताल में भर्ती होने के लिए घंटों गुजारते थे.लेकिन मैं हैरान था कि इस समय एक भी आदमी वहां नहीं था.मैंने प्लाईवुड के बंद दरवाजे पर दस्तक दी.चपटी नाक वाली एक जवान नर्स ने दरवाज़ा खोला.उसके होंठ लाल रंग की नहीं,गाढ़े बैगनी रंग की लिपस्टिक से रंगे हुए थे.

“आपको क्या चाहिए ?“ वह मेज के सामने बैठी थी और जहां तक मैं देख पाया था,वह एक जासूसी कॉमिक पढ़ रही थी.

उसकी आँखें बेहद जीवंत थीं.

दो मोहरें लगी हुई अर्जी मैंने उसे दी और समझाने लगा.

“वह मुश्किल से चल सकता है.मैं उसे यहाँ लाया हूँ.”

“तुमने किसी को भीतर लाने की जुर्रत कैसे की.तुम यहाँ का रूटीन नहीं जानते.हम मरीजों को सुबह नौ बजे तक ही भर्ती करते हैं “कागज़ पर निगाह डाले बिना वह तेज़ आवाज़ में चिल्लाई.

वह ऐसी थी जो खुद भी नहीं जानती थी कि रूटीन क्या है.मैंने दरवाजे के बीच में अपना सिर अड़ा दिया ताकि वह दरवाज़ा मुझ पर बंद न कर सके.नीचे के अपने होंठों को घुमाते हुए और चेहरे को गोरिल्ला की तरह खींचते हुए मैंने डरावनी आवाज़ में फुंकार भरी.

“सुनिए, मोहतरमा ! अपने दिमाग में यह बात घर कर लीजिए कि मैं आपसे किसी तरह दबने वाला नहीं.”

“महाशय इस समय कोई भर्ती नहीं होगी. केवल सुबह नौ बजे भर्ती होगी “

“देखिए इस कागज़ के पुर्जे को पढ़िये.”मैंने उस पर भुनभुनाते हुए नाराज़ आवाज़ में कहा.

उसने पुर्जे को पढ़ा.

“ तो क्या करूं? आम रूटीन लागू है.और हो सकता है कि कल कोई जगह खाली भी न हो.आज सुबह भी कोई जगह खाली नहीं थी.”

उसने इस इत्मीनान के साथ यह ऐलान किया कि सुबह जगह खाली नहीं थी गोया इस बात से वह मुझे चित कर देगी.

“लेकिन क्या आप नहीं देख रहीं कि यह आदमी किस हाल से गुज़र रहा है .उसके पास जाने का कहीं ठिकाना नहीं है”

जैसे मैंने अपना चेहरा दरवाज़े से पीछे किया और कैदी शिविर की कर्कश सी कठोर बातचीत बंद की,उसके चेहरे पर पहले जैसे प्रसन्न निर्मम हावभाव लौट आए.

“सभी ऐसी तकलीफ़ से गुज़र रहे हैं.हम उन्हें कहाँ रखें? उन्हें इंतज़ार करना होगा.इन्हें कहीं कमरा खोजना पड़ेगा,”

“लेकिन आप आइए और एक नज़र उस पर डालिए. तब आपको उसकी हालत के बारे में पता चलेगा.

“अरे, आप क्या कह रहे हैं? क्या आप मुझसे यह उम्मीद करते हैं कि चारों तरफ़ घूमकर मैं मरीज़ जमा करूंगी? आपको पता होना चाहिए कि मैं एक अर्दली नहीं हूँ.” फिर उसने गर्व से अपनी चिपटी नाक फड़कायी.उसका जवाब घड़ी की तरह फुर्तीला और स्वचालित था.

“तो फिर आप यहाँ बैठकर क्या कर रही हैं? अच्छा होगा कि आप इस जगह पर ताला लगा दें.” मैंने प्लाईवुड की दीवार पर अपनी मुठ्ठी मारते हुए कहा जिससे चूने की एक पतली परत पराग की तरह झड़ कर गिर गयी.

“ बेअदब आदमी ! आपसे किसी ने राय नहीं माँगी” गुस्से से वह फट पड़ी.कूदी,फिर दौड़कर घूमते हुए संकरे कॉरिडोर में प्रकट हो गयी.

“वैसे तुम खुद को क्या समझते हो.मुझे मत सिखाओ कि अपना काम किस तरह करना है.एम्बुलेंस उन्हें भीतर ले आयेगी.”

केवल उसकी भद्दे नीले होंठ और उससे मेल खाती नाखून की पॉलिश को छोड़कर वह किसी तरह से दिखने में बुरी नहीं लग रही थी.उसकी नाक मोहक थी.वह अपनी भौंहों से बड़ा खेल करती थी.वहां का माहौल इतना दमघोंटू था कि उसने अपने सफ़ेद कोट के ऊपरी बटन खोल रखे थे जिससे झांकता उसका सुंदर छोटा सा गुलाबी स्कार्फ़ और सोवियत यूनियन की युवा शाखा का कोमसोमोल बैज मैं देख सकता था.

“ क्या कहती हैं आप? अगर वह खुद से नहीं आता और सड़क से उसे एम्बुलेंस उसे उठाकर लाती तो आप उसे भर्ती कर लेतीं.?क्या यही आपका नियम है ?"

उसने गुरूर से मेरे बेहूदे शरीर को घूरा और पलटकर मैंने भी उसे घूरा.मैं पूरी तरह से भूल गया था कि मेरे बूटों से बाहर निकले मोज़े दिखायी दे रहे हैं.वह गुर्रायी और ठंडी निगाह से मुझे ताकते हुए अपनी बात जारी रखी.

“जी हाँ मरीज़ महाशय.यही नियम है.”

और वह फिर पार्टीशन के पीछे चली गई.

मुझे अपने पीछे कुछ फड़फड़ाने की आवाज़ आई.मैंने अपने आसपास टोहते हुए देखा.मेरा साथी पहले से ही वहां खड़ा था.वह सब कुछ सुन और समझ रहा था.दीवार को पकड़कर विजिटर के लिए रखी बड़ी बेंच की तरफ वह अपने को धकेलता हुआ चलने लगा,वह बड़ी मुश्किल से अपना दाहिना हाथ लहरा रहा था जिसमें कागज़ का एक फटा पुराना टुकड़ा दबा हुआ था.

“तुम्हारे लिए है... तुम्हारे लिए है .इसे उसे दिखाओ. वह इसे देख तो ले ”उसने कमजोर आवाज़ में चिरौरी की. मैंने किसी तरह सहारा देकर नीचे करके बेंच पर उसे बैठा दिया.अपने पर्स से अपनी असहाय अँगुलियों से वह अपना इकलौता प्रमाणपत्र निकालने की कोशिश करने लगा लेकिन कामयाब नहीं हुआ.मैंने उस कागज़ का ऊपरी हिस्सा ले लिया जो मोड़ने के कारण चिपक गया था और गिरने वाला था.मैंने उसे खोला.इस पर बैगनी स्याही से टाइप किये गये अक्षर उसके मुड़े हिस्सों पर ऊपर- नीचे नाच रहे थे.

“दुनिया के मजदूरों एक हो

यह प्रणाम पत्र कॉमरेड बोब्रोव एन.के.को विख्यात विश्व क्रांति के लिए 1921 में --राज्य के सैनिक दस्ते में सक्रिय सेवाओं के लिए दिया जा रहा है जिसमें इन्होंने निजी तौर पर क्रांति विरोधी आतंकवादियों को बड़ी संख्या में मार गिराया था.

हस्ताक्षर कामीसार ”

पीली हो गई एक बैंगनी मोहर इसके साथ संलग्न थी.

अपनी छाती को खुजलाते हुए मैंने उससे धीरे से पूछा.

“यह विशेष सैनिक दस्ता क्या है ? यह क्या करता है ?

“अहा.इसे उस लड़की को दिखा दो “उसने बड़ी मुश्किल से अपनी आँख खोलने की कोशिश करते हुए जवाब दिया.

मैंने ध्यान से उसका हाथ देखा-उसका दाहिना हाथ-भूरा और कितना छोटा है.गोल सूजी हुई नसें और फूले हुए जोड़वाला वह छोटा हाथ एक तरह से असल में अपने पर्स से प्रमाणपत्र खींच पाने के काबिल नहीं है.सहसा मुझे याद आया कि किस तरह एक घुड़सवार पैदल चलनेवाले आदमियों को एक तेज उलटे प्रहार से धूल चटा देते हैं. कितना अज़ीब है.वह दाहिना हाथ जिसमें एक समय चमचमाती कटार लहराती थी और सिरों,गर्दनों और कंधों को काट देती थी.वही हाथ अब कागज़ का एक टुकड़ा भी पकड़ नहीं पा रहा था.

एक बार और उस प्लाईवुड दरवाज़े के पास मैं गया और नर्स से बात सुनने के लिए उसे मनाने लगा.उस महिला ने अपना सिर ऊपर नहीं उठाया और अपना कॉमिक पढ़ती रही.खुले हुए पन्ने पर मैंने देखा कि वर्दी पहने एक हट्टा-कट्टा आदमी पिस्तौल लिए हुए खिड़की की देहरी पर छलांग लगा रहा है.

मैंने चुपचाप फटा हुआ प्रमाण पत्र उसकी किताब पर रखकर मुड़ा और चला आया.जब मैं दरवाज़े की तरफ़ जा रहा था तो अपनी छाती मलने लगा ताकि बीमार न पड़ जाऊं.मुझे जल्द से जल्द लेटना था.

क्रान्ति का पुराना सिपाही बेंच में सिकुड़ गया.उसका सिर और कंधा भी उसके धड़ में समा गया.उसकी असहाय अंगुलियाँ फैलकर हिल रही थीं.उसका खुले बटनवाला कोट नीचे लटक गया.उसका उभरा और गज़ब का फूला पेट उसकी जांघ की तहों में धंसा जा रहा था.