दिखते नहीं निशान / गरिमा सक्सेना / सत्यम भारती
"दोहा छंद" छंदशास्त्र का सबसे पुराना छंद है, हिन्दी साहित्य की काव्यभाषा जब अपभ्रंश थी तब से यह छंद प्रभावी है इसे अपभ्रंश में 'दूहा' भी कहा जाता था। सर्वप्रथम इसका उल्लेख 'श्रावकाचार' नामक जैन ग्रंथ में मिलता है और आगे हिन्दी साहित्य में इसकी एक लंबी परंपरा देखने को मिलती है। 'दूहा' से 'सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर' तक के सफ़र में बहुत से सहयात्री आए और इसे अपने भावों से सुशोभित करते गये। विषयों की विस्तृत समाहार शक्ति, कल्पना और यथार्थ का अद्भुत संयोग, व्यंग एवं मारक क्षमता, कहन शैली, शब्दों की लयात्मकता आदि इस छंद की प्रमुख विशेषता है। दोहा दो पंक्तियों का वह मात्रिक छंद है जो अपने आप में मुकम्मल होता है ग़ज़लों के शेर की तरह, बस अंतर इतना होता है कि दोहे के अपने कलात्मक आवरण में भावों का प्रभाव दीर्घकालिक रहता है लेकिन शेर का प्रभाव क्षणिक भी हो सकता है और दीर्घ भी। आदिकाल में दोहों का प्रयोग चरितकाव्य लिखने में, भक्तिकाल में दोहा-चौपाई क्रम की सहायता से पद्मावत और रामचरितमानस जैसे महाकाव्य लिखे गए, रीतिकाल में दोहा राज प्रशस्ति में 'वाह-वाह' के लिए लिखा गया और अब आधुनिक काल में सामाजिक सरोकारों एवं सवालों को प्रभावशाली ढंग से पूछने के लिए इस्तेमाल हो रहा है; इस प्रकार हम देखते हैं कि दोहा छंद की हिन्दी साहित्य में सुदृढ़, पुरातन एवं निरंतर चलायमान परंपरा रही है।
संस्कृत में दोहा छंद की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-'दोग्धिचित्तमिति दोग्धकम्' अर्थात चित का दोहन करने वाला मत दोहा है, ऐसा मत जो अपने भाव व्यापार से मनुष्य के चित को प्रभावित कर उसे अपनी ओर बाहर ले जाए दोहा कहलाता है। पुस्तक "दिखते नहीं निशान" गरिमा सक्सेना द्वारा लिखित दोहों का संकलन है, कवयित्री ने इस पुस्तक में भारतीय परंपराओं का निर्वहन करते हुए सामाजिक सरोकारों, मुद्दों, सवालों, नारी समस्याएँ लोकतंत्र एवं सिस्टम का भ्रष्ट आचरण, पर्यावरण आदि जैसे मुद्दों को समाहित कर कुशल शाब्दिक रूप दिया है। वर्तमान युग में कोई पूछे कि दोहा कि आज क्या प्रासंगिकता है या दोहा क्या है? उसे गरिमा सक्सेना का यह दोहा देखना चाहिए-
मथा विचारों का दही, ले मथनी जब मीत।
निकला तब अनमोल-सा दोहा बन नवनीत॥
अर्थात मन में उमड़ने वाले विचारों की कूची से सारगर्भित भाव का रंग भरना ही दोहा है।
आज जब पूरा हिन्दी साहित्य मुक्त छंद की ओर जा रहा है और छंद विधा हाशिये पर जा रही है तब हमें छंदों की राह पर कैसे आना चाहिए यह बात गरिमा सक्सेना कि यह पुस्तक बताती है। मुक्त छंद की ही तरह मानव मुक्त रहना चाहता है-समाज से, परिवार से, घर से, एकांत में जहाँ मानवीय जीवन उत्सव विहीन एवं सारहीन हो गया है। जीवन के प्रवाह को लयात्मकता प्रदान करने के लिए तथा पुरानी परंपराओं को जीवंत रखने के लिए हमें छंदों की ओर भी लौटना चाहिए। छंद हमें एक सूत्र में बाँधना सिखाता है; लय, यति, तुक, मात्रा, वर्ण आदि का संतुलित मात्रा में संयोजन से ही छंद का निर्माण होता है ठीक उसी प्रकार पवन, वायु, आग, आकाश और मिट्टी के सहयोग से जीवन का निर्माण। छंद साहित्य और जीवन दोनों का प्राण तत्व है, यह बात पुस्तक कहती नजर आती है।
अभियंत्रिकी की पढ़ाई करने वाली लेखिका के लिए यह राह कतई आसान नहीं रही होगी, मशीनों के साथ-साथ शब्दों के साथ सुंदर संयोजन बिठाने की कला ही कवयित्री के व्यक्तित्व और कृतित्व को गरिमामय बनाती है।
दोहा वही लिख सकता है जिसके पास व्यापक जीवन अनुभव तथा यथार्थ के सत्य रूप में टकराने की ताकत हो, जीवन के अनेक मार्मिक पक्षों को ईमानदारी पूर्वक वर्णन करना ही दोहा को खास बनाता है। दोहकार ने अपने जीवन के अनुभव को व्यक्त करने के लिए पूरी पुस्तक को 29 भागों में बांटी है, दोहा लिखने के लिए विषयों का यह बंटवारा नवीन, तर्कसम्मत तथा तथ्य सम्मत है। इस पुस्तक को पढ़ने से पुराने महाकाव्यों की भारतीय लेखन परंपरा कि याद आती है, मंगलाचरण से शुरुआत होकर धीरे-धीरे गुरु, माँ, बाप, नारी और सामाजिक सरोकारों से जुड़कर परिपक्व होती है। भारतीय परंपरा कि समृद्ध एवं गौरवशाली आवेगों को आधुनिक परिदृश्य में प्रदर्शित कर यह पुस्तक निश्चय ही व्यक्ति एवं समाज के मनोविज्ञान को पकड़ने तथा जागरूक करने की कोशिश करती है। लेखिका हिन्दी भाषा कि बुरी स्थिति के कारणों को ढूँढने की कोशिश करती है, साहित्य की समृद्धि के लिए में हम हर साल सम्मेलन करते हैं, हिन्दी पखवारा मनाते हैं, कवि सम्मेलन के मंच से ऊपर खूब लिफाफा उठाते हैं, कार्यक्रमों में फीता काटते हैं लेकिन हिन्दी आज भी निर्वासित है अपने देश में। दोहाकार की चिंता जायज भी है और प्रासांगिक भी है-
हिंदी के उत्थान को नित हो सतत प्रयास।
तब हिन्दी का विश्व में होगा नवल उजास॥
कवयित्री ने दोहों में नवीन प्रयोग भावनात्मक और शिल्पगत दोनों में किए हैं, दोहे जो पहले नीति, शृंगार, उपदेश तथा भक्ति जैसे विषयों पर लिखे जाते रहे थे, लेखिका ने सामाजिक सरोकार, सवाल, मुद्दे तथा विसंगतियों को स्थान दिया है-मरते रोज किसान, चढ़ा स्वार्थ का भूत, भटकते बाल अनाथ हो, कहाँ है विकास, अजब आज का दौर, मिट्टी की जज्बात, जलती रही मसाला, आदि इसी तरह की कविता है।
गरिमाजी ने दोहा छंद में स्त्री मनोभाव, स्त्री चेतना, अस्मिता, मुक्ति, समानता, शिक्षा अधिकार, पुरुषवादी मानसिकता आदि का समावेश करती है। गरिमा जी के दोहे में स्त्री के तीन स्वरूप हमें दिखाई पड़ते हैं-एक वह स्त्री जो भारतीय परंपरा का अनुसरण करके मर्यादित जीवन बिताती है, दूसरी वह जो यौन शोषण, भ्रूण हत्या, सती प्रथा, बाल विवाह, विधवा आदि समस्याओं से ग्रसित है; तीसरी वह जो शिक्षित है, स्वावलम्बी हैं तथा अपने अधिकारों के प्रति सशक्त हैं-लेखिका ने तीनों स्त्रियों के स्वर को प्रबल आवेग दिया है। वह स्वपोषी महिलाओं से सवाल भी करती है कि अगर उन्होंने यथार्थ में स्त्रियों की सहायता कि होती, विमर्शों पर बहस करने के अलावा यथार्थ के धरातल पर, उनके लिए काम किया होता तो आज समाज में स्त्रियों की स्थिति इतनी दयनीय नहीं हुई होती-
नारी नारी का नहीं, देती आयी साथ।
शायद उसका इसलिए, रिक्त रहा है हाथ॥
समाज में स्त्रियों की अस्मिता कि क्या स्थिति है इस पर भी कवयित्री लिखती है-
पायल की बेड़ी बनी, कैसी है तकदीर।
नारी का किरदार बस प्रेम जड़ी तस्वीर॥
स्त्रियों के प्रति समाज के नजरिए को बदलने की भी बात वे करती हैं-
अग्नि परीक्षा कब तलक, लेगा सभ्य समाज।
नारी की खातिर नहीं, बदला कल या आज॥
इसके अतिरिक्त भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा, बाल विवाह, शादी के समय निर्णय न लेने की छूट, विधवा समस्या आदि से भी कवयित्री टकराती है तथा स्त्री को मनुष्य का दर्जा देने की मांग करती है और समाज से सवाल भी करती है-
बेटी को नित कोख में मार रहा संसार।
ऐसे में कैसे मने राखी का त्यौहार॥
आधुनिक सामाजिक सरोकार, व्यक्ति के मन का प्रतिबिंबन, रिश्तों में बिखराव, पीढ़ीगत संघर्ष, आधुनिकता से उत्पन्न समस्याएँ, पर्यावरण और प्रदूषण, गिरते मानवीय नैतिक मूल्य, स्वार्थपूर्ण जिजीविषा, एकाकी जीवन, तलाक, वृद्धाश्रम तथा बाजारवाद जैसे व्यापक विषयों को भी लेखिका ने दोहे जैसे छोटे मात्रिक छंद में पिरोने की सफल कोशिश की है। भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में मानवीय मन एकाकी, छली, कपटी निर्दय और स्वार्थी हो गया है इसका सबसे बड़ा कारण-स्वार्थपन है। जब हम 'स्व' की चिंता करते हैं तथा 'वयम्' को भूल जाते हैं तब ये सारी समस्याएँ उत्पन्न होती है। लेखिका जीवन में आने वाले इन समस्याओं के तह तक पहुँचती है तथा बुनियादी सुधार की मांग करती है। टूटते बिखरते रिश्तों के बारे में वे लिखती है-
दिल से दिल का हो मिलन, कहाँ रही अब चाह।
सिर्फ लिफाफे कर रहे, रिश्तों का निर्वाह॥
आज बाजारवाद के चकाचौंध ने पूरे मानव जाति को राहु की तरह ग्रास लिया है जहाँ सिर्फ़ दिखावा है, कृत्रिमता है, प्रतिस्पर्धा है-
जहर, कोख, जीवन, धर्म, देह, अंग-व्यापार।
जाने किस-किस चीज को बेच रहा बाजार॥
सत्ता और पूंजी का गठजोड़ वर्तमान समय की विकट समस्या है, जब पावर और पैसा एक साथ हो जाए तो भाई-भतीजावाद, अवसरवाद, परिवारवाद, भ्रष्टाचार, सिस्टम की स्वार्थनीति, कानून का विक्षिप्त होना तय है। लोकतंत्र के गिरते मूल्य, मीडिया कि स्वार्थपूर्ण प्रवृत्ति तथा चाटुकारों की स्वार्थलोलुप्ता, कुर्सी का मोह आदि बुनियादी कारण हैं जो समाज में विसंगतियों को जन्म देती है। चाहे वह जातिवाद हो, हिंदू-मुस्लिम दंगे हो, भीड़ में हत्या हो, अपराधिक घटना हो आदि।
'भूख' वर्तमान समय की सबसे बड़ी समस्या है, जहाँ देश में अभी भी आधी आबादी भूखे पेट सोती है, जिन्हें रोटी देखें महीनों हो गए हो उस देश के विकास को कागजों पर उच्च दिखलाना कागजी घोड़े दौड़ाने जैसा है। लेखिका संसद से सवाल पूछती है-
चूल्हे हैं ठंडे पड़े, छप्पर है बेहाल।
संसद में होता नहीं, इन पर कभी बवाल॥
शहीदों की मृत्यु के समय बड़ी-बड़ी घोषणा करने वाले लोग ही उनके हिस्से का धन खा जा रहे हैं कवयित्री उनसे भी सवाल पूछती है-
जिन्हें सलामी दे रहा, नित्य इंडिया गेट।
उन्हीं शहीदों के स्वजन सोते भूखे पेट॥
चाटुकारिता, प्रतिभा का दमन, नए प्रतिभा को सम्मान न मिलना, कुर्सी से चिपके रहना तथा इन सारी समस्याओं से उत्पन्न हुए बेरोजगारी की तरफ भी लेखिका का ध्यान जाता है। गरीबों का जीवन 'घुन' की तरह होता है उसे कभी सत्ता पीस देती है तो कभी समाज के पूंजीपति और एवं दबंग। बेरोजगारी के बाद लेखिका का ध्यान 'बाल मजदूरी' पर और किसानों की तरफ जाता है। बाल मजदूर जहाँ मुक्तिबोध के 'ब्रह्मराक्षस' की तरह बर्तन नहीं अपना भविष्य घिस रहे हैं तो वहीं भारतीय किसान गोदान के होरी की तरह झूठी मरजाद एवं समाजिकता कि वजह से निरंतर शोषित हो रहे हैं और मृत्यु को प्राप्त कर रहे हैं और कुछ किसान 'गोबर' की तरह किसान से मजदूर बनने की राह पर हैं। आपदा, सत्ता, शोषण-तंत्र, गरीबी, फसलों का उचित मूल्य न मिलना, कालाबाजारी, उन्नत किस्म के बीज एवं अनाज की कमी, भंडारण की कमी, कर्ज का बोझ, आदि वह बजह है जिससे किसान आत्महत्या कर रहे हैं-
सरकारें आयी गयी, छला सिर्फ़ विश्वास।
कृषकों के हिस्से रहा, भूख और सल्फास॥
रोजगार और काम के अभाव में आज पूरा का पूरा गाँव सुनसान हो गया है, गाँव से शहर की ओर युवाओं का पलायन भी वर्तमान समय की प्रधान समस्या है। गाँव में जहाँ सिर्फ़ बूढ़े, बच्चे और महिलाएँ मिलती हैं तो वहीं शहरों में भीड़ के कारण सांस लेना तक मुश्किल हो गया है। इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी, उन्नत शिक्षा व्यवस्था का अभाव, उद्योग धंधों की कमी, तकनीक, बाजारवाद एवं प्राकृतिक आपदाएँ आदि प्रवास एवं पलायन प्रमुख कारण है। इस पलायन ने गाँव से चौपाल, लोकरंग, लोकभाषा, त्योहारों की सजीवता और उमंग, लोककला, सद्विचार सब छीन लिया है। दोहाकार ने आधुनिकता के कारण बदलते गाँव तथा पुरानी विरासत को संजोने की बात करती है-
शहरी दलदल में फंसे, ज़रूरतों के पांव।
वापस फिर लौटे नहीं, वे सपनों के गांव॥
इस पुस्तक में परंपरा एवं आधुनिकता का सुंदर संयोजन देखने को मिलता है एक तरफ जहाँ होली, दिवाली, शरद-पूर्णिमा, रक्षाबंधन, गुरु माता-पिता आदि पर भी दोहे मिल जाते हैं तो वहीं दूसरी तरफ आधुनिक मानव के मनोविज्ञान पर भी। मानव और समाज को जोड़ने वाला प्रेम, आशा, विश्वास, आत्मबल कड़ी है। परंपरागत लीक को तोड़कर खुद के लिए रास्ता बनाने वाले सिकंदरो को कवयित्री नमन करती है तथा समाज में परिवर्तन की मांग करने वाले क्रांतिवीरो को भी-
स्वयं बनाते राह जो, बन जाते हैं खास।
कोई चलकर लीक पर रचता कब इतिहास॥
इस पुस्तक का शिल्प-संयोजन भी वस्तुयोजना कि तरह सारगर्भित एवं सशक्त है, दोहा अपने कलात्मक रूप में परिपूर्ण है तथा भाषा का प्रवाह, एवं प्रांजलता लोक में प्रचलित खड़ी बोली है। उर्दू के शब्दों का इस्तेमाल भाषा को ज़्यादा मारक बनाता है तथा प्रतीक एवं बिंब इसे सजीव। प्रतीक और बिंब-परंपरागत, आधुनिक तथा वैज्ञानिक हैं, लेखिका ने विज्ञान से सम्बंध रखने वाले टूल्स जैसे-प्रिज्म, निर्वात, परखनली आदि का नवीन प्रयोग किया है। प्रतीक और बिंब तो इस पुस्तक की जान है-
फिसली जाती हाथ से अब सांसों की रेत।
उम्मीदों के हो गए, बंजर सारे खेत॥
अंततः कहा जा सकता है कि पुस्तक 'दिखते नहीं निशान' भारतीय परंपरा एवं आधुनिक सरोकारों का जीवंत दस्तावेज है।