दिखते नहीं निशान / गरिमा सक्सेना / हरिनारायण सिंह 'हरि'

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गरिमा सक्सेना वर्तमान काव्य-साहित्य की वैसी हस्ताक्षर हैं, जिन्होंने अपने गीतों, कविताओं, दोहों, गजलों आदि के मार्फत अन्य अनेक समकालीन कवयित्रियों की तरह मात्र नारी के ही इर्द-गिर्द अपनी काव्य-प्रतिभा का व्ययन नहीं किया है, अपितु उससे इतर भी वैश्विक सामाजिक, आर्थिक, नैतिक आदि से सम्बंधित समस्याओं को भी अपने रचना-संसार का विषय बनाया है।

गरिमा ने एक ओर जहाँ मीरा की तरह अपने ध्येय की प्राप्ति के रास्ते के व्यवधानों के प्रति विद्रोहिनी का रुख अख्तियार किया है, तो महीयसी महादेवी की तरह 'जो तुम आ जाते एक बार' की प्रेमिल तान भी छेड़ी है। इनका मन वर्तमान में विकसित हो रही अपसंस्कृतियों को देख-देख बेचैन है तो, हृदय मानवीय प्रेम से विगलित भी। तभी तो गरिमा ने बहुत ही कम उमर में और बहुत ही कम समय में हिन्दी साहित्य के आकाश में अपनी विशिष्ट आभा विखेर रखी है। इनकी कृतियों ने समकालीन आलोचकों व रचनाकारों का ध्यान अनायास ही अपनी ओर आकर्षित नहीं किया है, अपितु रचना कि गहराइयों और तरलता ने सुधी पाठकों को इसमें तैरने-उपलाने को विवश किया है। इनकी रचनाओं को सहृदय पाठक व आलोचक भी सोशलमीडिया के मार्फत से ही सही इनकी नयी-नयी रचनाओं को पढ़ने और गुनने को उत्सुक रहते हैं।

गरिमा गीत / नवगीत की ऐसी हस्ताक्षर हैं, जिन्हें पुरानी पीढ़ी के गीतकार भी बड़े चाव से पढ़ते हैं, क्योंकि इन गीतों में उन्हें अपने गीतों / नवगीतों के भविष्य की तारतम्यता और सततता स्पष्टतः परिलक्षित होती है, तो एकदम से नयी पीढ़ी के रचनाकार भी गुनगुनाते हैं, क्योंकि उन्हें गरिमा के गीतों से अपने गीतों की दिशा तय करने में मदद मिलती है।

विगत लंबे अरसे से जिस तरह से बंधनमुक्तता के आवरण में उच्छृंखलता कि हद तक कविता को विकसित करने का दंभ पाला गया, उससे अब ऊब-सी होने लगी है, उसकी निस्सारता का भान होने लगा है। फलस्वरूप कविता पुनः अपने पुराने मर्यादित फार्मेट की ओर कतिपय युगानुरूप संशोधनों, परिवर्द्धनों के साथ उन्मुख हुई है। छंदोबद्ध कविता कि जो धार कुंद पड़ गयी थी, उस धार को नयी पीढ़ी के अनेक सामर्थ्यवान कविता के हस्ताक्षर पिजाने में लगे हैं। राहुल शिवाय, शिवम खेरवार, अवनीश त्रिपाठी, अंकिता कुलश्रेष्ठ, गरिमा सक्सेना आदि ऐसी ही नयी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं।

ऐसी सक्षम गीतकार गरिमा सक्सेना का छंदोबद्ध कविता के आदिम शिल्प-स्वरूप की ओर भी उन्मुख होना लाजिमी था, जिस शिल्प-स्वरूप में नवीन से नवीन विचारों, उत्कंठाओं, प्रश्नों व उनके उत्तरों को सही-सही और कम-से-कम शब्दों में व्यक्त करने की क्षमता हो और काव्य के उस पुरातन शिल्प-स्वरूप को कवयित्री गरिमा ने अपने प्रथम दोहा संग्रह 'दिखते नहीं निशान' में सनातन बना दिया है। और क्यों न हो, क्योंकि दोहा छंद में श्रोताओं के चित्त का दोहन कर उसे मोह लेने की विशिष्टता जो है-दोग्धि चित्तमिति दोग्धकम्। दोहा कि लोकप्रियता पर मुहर तो तब और लग जाती है, जब फ़िल्म-निर्माण दुनिया के क्षत्रप बीआर चोपड़ा ने महाभारत सीरियल का निर्माण किया तो उसमें नीतिगत विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए इसी सनातन दोहा छंद का चयन किया।

वह इसलिए भी कि हिन्दी के अन्य छंद-रूपो की अपेक्षा दोहा छंद की मारक-क्षमता अपूर्व है-

सतसइया के दोहरे, अरु नावक के तीर।
देखन में छोटन लगे, घाव करे गंभीर।

यह छंद तो हिन्दी का आदिम छंद है ही, ऐतिहासिक भी है, क्योंकि जबतक भारतीय इतिहास का वह खंड पढ़ाया जाता रहेगा, जिसमें विदेशी आक्रांता मुहम्मद गोरी से पृथ्वीराज के संघर्ष की कथा का वर्णन है, तबतक महाकवि चन्दवरदायी के पृथ्वीराज रासो का यह दोहा शिक्षक व छात्र पढ़ते व पढ़ाते रहेंगे, -

चार बाँस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण।
ऐते पर सुलतान है, मत चूको चौहान।

हालांकि समीक्ष्य कृति 'दिखते नहीं निशान' गरिमा सक्सेना कि प्रथम प्रकाशित काव्य-कृति है, किन्तु इसमें वे कहीं से भी नहीं लगतीं कि किसी प्रौढ और स्थापित कवियों से न्यून हैं। बल्कि इस कृति के दोहे अछूते कथ्य, नवीन उद्भावना और ताजे विचार-मंथन से उद्भूत से लगते हैं। उच्च संस्कारों के साथ जब नवीन स्थापनाओं का विरल सामंजस्य होता है, तो इसी तरह की काव्य-कृति सामने आती है।

'दिखते नहीं निशान' दोहा-संग्रह में कुल उन्तीस विषय-शीर्षकों के अन्तर्गत कुल तीन सौ एक्यानवे दोहे संकलित हैं, ईश-प्रार्थना से लेकर जीवन के विभिन्न पहलुओं व पक्षों को उद्घाटित करते व उनसे संघर्ष करते-से।

तेरह, ग्यारह, तेरह, ग्यारह और दूसरे तथा चौथे चरण के अंत में गुरु-लघु क्रम वाले ये दोहे मात्र मात्राओं की गणना के गणित ही नहीं हैं, बल्कि उसकी लयात्मक अभिव्यक्ति भी। अपने कथ्य की संरक्षा करते हुए सीमित अक्षरों में उसकी लयात्मक अभिव्यक्ति गरिमा के दोहों को वैशिष्ट्य प्रदान करता है।

विचारों के दूध में शिल्प का जोड़न देकर पहले तो गरिमा ने दही जमाया, फिर उसके मंथन से जो अमृत निकले, वही दोहे इस संकलन में साकार हुए हैं। वैसे इन्होंने इसी को इस तरह से व्यक्त किया है कि:

"मथा विचारों का दही, ले मथनी जब मीत।
निकला तब अनमोल-सा, दोहा बन नवनीत।"

एक और दोहे में कवयित्री ने दोहा छंद की विषेशता को परिभाषित किया है,

"दोहों की दो पंक्तियाँ, नदिया के दो कूल।
बहते जहाँ प्रवाह सँग, भावों के मस्तूल।"

कवयित्री पहले छंदमुक्त कविताएँ लिखती थीं, किन्तु छंद की लयात्मकता ने उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया। करे भी क्यों नहीं, नारी-हृदय तो लयात्मक होता ही है। निराला ने छंद के बंधन तोड़ छंदमुक्त कविता का रास्ता साफ किया था, किन्तु अछंदी कवियों ने बंधनमुक्तता को कुछ भी, कैसे भी लिखने की उच्छृंखलता समझ ली थी, फलस्वरूप समर्थ कवियों ने फिर से पूर्व से परीक्षित काव्य-रूप की ओर रुख कर लिया। गरिमा सक्सेना जैसे युवा पीढ़ी के अनेक कवि / कवयित्रियों का छंदमुक्त कविता से छांदस कविता, वह भी दोहा छंद के रास्ते, की ओर प्रस्थान साहित्य की इसी बड़ी परिघटना को रेखांकित करता है। दोहा छंद के बारे में गरिमा ने पुस्तक के अपने आत्मकथ्य में लिखते हुए कहा है कि-"दोहा छंद मेरी प्रिय विधाओं में से एक है। यह मुझे इसलिए भी प्रिय है, क्योंकि जब मैं अतुकांत कविताओं से छंद लेखन की तरफ बढ़ी तो दोहा ही वह विधा थी, जिसमें मैंने छंद लेखन प्रारंभ किया और जिसके अभ्यास से मैंने लय का अभ्यास किया।"

फिर तो, गीत जैसी विधा को भी गरिमा ने ऐसा साधा कि शीघ्र ही उनके गीतों / नवगीतों का उल्लेखनीय संग्रह 'है छिपा सूरज कहाँ पर' प्रकाशित हो गयी।

'दिखते नहीं निशान' में साहित्य, पर्यावरण, हिन्दी, नारी की स्थिति, गाँव की गरिमा, किसान की दुःस्थिति, बालकों के भविष्य, अंधे विकास आदि की चिन्ता कि गयी है, तो माता, पिता, बेटी, गंगा मइया आदि का गरिमा-गान भी किया गया है। एक ओर जहाँ कवयित्री ने अपने दोहों के मार्फत उत्सवजीवी ग्रामीण भारत के पर्वों-त्योहारों-होली, दिवाली, रक्षाबंधन, शरद् पूर्णिमा आदि के उल्लासों को शब्द दिया है, तो प्रेम दीवानी राधिका के बहाने ढाई आखर प्रेम की भी व्याख्या करने में पीछे नहीं रही है।

कुछ बानगी परोसता हूँ। वंदना शीर्षक के अन्तर्गत संग्रहीत दोहों में से एक दोहा में कवयित्री ने अपनी आकांक्षा जाहिर करते हुए ईश्वर से वरदान माँगती है,

"मेरे कर्मों की प्रभो, हो बस इतनी सैर।
बाँहों में आकाश हो और जमीं पर पैर।"

और, आगे के दोहों से परिलक्षित होता है कि ईश्वर ने उसकी प्रार्थना सुन ली है, तभी तो वह अपने बड़े-से-बड़े विचारों एवं ऊँचे-से-ऊँचे भावों को चार चरणों वाले द्विपदी दोहों में अभिव्यक्त करने में सफलता पायी है।

समीक्ष्य दोहा संग्रह एक नारी की कृति है। सो, उसे नारियों की दुर्स्थिति और सुस्थिति, दोनों का ज्ञान है, अनुभव है। इसीलिए सबसे अधिक दोहे इसी शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित हैं। इसलिए वह आधिकारिक रूप से कहती हैं,

"नारी कठिन परिस्थिति में, लेती खुद को ढाल,
नारी इक बहती नदी, जीवन करे निढाल। "

नारी सिर्फ़ नारी ही नहीं है, वह सबसे पहले बेटी है, तब प्रेयसी या पत्नी और फिर अपनी संपूर्णता में वह माँ है।

"गुड़िया, कंगन, मेंहदी, नेह भरी बौछार।
बेटी खुशियों से करे, घर-आँगन गुलजार।"

"प्रेम-भंग जिस पर चढ़े, भूले वह संसार।
उसको केवल दीखता, प्यार, प्यार बस प्यार।"

"माँ है मूरत प्रेम की, ममता का भंडार।
संतानों में देखती, वह अपना संसार।"

और संग्रह के अंतिम विषय-शीर्षक 'तुम्हीं दूसरा छोर' के चालीस दोहों में तो कवयित्री ने तो स्त्री के प्रेम की अनुभूति को जो गहराई दी है, वह बिल्कुल अछूती है, एकदम तरोताजा है। प्रेयसी नारी के अंतरम की आवाज को आप भी महसूसिए,

"बाहर से आवाज दे, लौट गये तुम मीत।
घर भीतर रोती रही, सिसक-सिसक कर प्रीत।"

नारी के विविध रूपों को कवयित्री ने देखा, परखा और भोगा है, तो पिता के दर्द को भी निकट से जाना है, उनको पहचाना है,

"पुनः पिताजी त्यागकर, अपना प्रिय सामान
ले आये बाज़ार से, बच्चों की मुस्कान।"

"पिता-क्रोध का अर्थ तब, समझ गया नादान।
जब ठोकर खाकर हुआ, उसे सत्य का ज्ञान।"

संग्रह के दोहों में पर्यावरण, धरती और नदी की भी चिन्ता कि गयी है,

"तपने लगी वसुंधरा, करती करुण पुकार,
यह विकास का पथ नहीं, है विनाश का द्वार।"

और,

"नदियों के पग काटकर, करने चले विकास,
जलविद्युत से कब मिटी, गाँव-शहर की प्यास।"

फिर, वर्त्तमान सदी में भारत के गाँवों की सभ्यता और संस्कृति में भी शहरों की सारी बुराइयाँ भरती जा रही हैं। गाँव अब वह गाँव कहाँ रहा?

" ताऊ, चाची, भ्रात कह, देते थे सम्मान।
कहाँ गाँव में भी बचा ऐसा हिन्दुस्तान। "

ये तो कुछ नमूने हैं। अन्य विषयाधारित शीर्षकों के अन्तर्गत समाज में व्याप्त विसंगतियों पर भी काफी दोहे लिखे गये हैं। संक्षिप्तत:, इस तरह के 391 दोहों वाला यह पुस्तक पठनीय ही नहीं संग्रहणीय भी है। कवयित्री के प्रति मंगलकामना!