दिग्वलय / जगदीश मोहंती / दिनेश कुमार माली
“दिल्ली के लोग बहुत बडे ठग होते हैं न, अंकल ?” पिंकी ने पूछा, काश! मैं उसको कह पाता कि ऐसी बात नहीं है बेटी। मनुष्य सब जगह समान होते हैं। दिल्ली के हो या भुवनेश्वर के। न्यूयार्क के हो या कोलंबो के। मेरी स्कूल मास्टर वाली बुद्धि से पिंकी को समझाना उचित था, वास्तविक चीज होती है विश्वास। मनुष्य के ऊपर मनुष्य का विश्वास रहने की बात। जब मनुष्य के ऊपर मनुष्य का विश्वास टूट जाता है, इस धरती सही मायने में धरती नहीं रह जाती है।
मगर मैं कह नहीं पाया. पिंकी के अंकल वाली आवाज के पास ही अटक गया।अंकल। जैसे मैं उसका बड़ा पिताजी नहीं हूँ। उसका पिता प्रकाश मेरा छोटा भाई होता है। वह मेरा कुछ नहीं है। यह बात सही है, पिंकी के साथ मेरी घनिष्ठता केवल दो दिन की थी।गांव की मिट्टी को कभी उसने छुआ नहीं। उसे मूल रूप से ओडिया नहीं कह सकते। उसकी ग्यारह वर्ष की यादों में मेरा कोई स्थान नहीं। शायद उसके सामने मैं बड़े पिताजी की जगह अंकल के रूप में ग्रहणीय था।
कल मैं और पिंकी आगरा गए थे। प्रकाश ने ही सारी व्यवस्था कर दी थी। गरमी के दिनों की वजह से एअरकंडीशनर बस की व्यवस्था की। बात हुई थी आगरा, मथुरा और वृन्दावन जाने की। मगर बस को दिल्ली छोड़ते - छोड़ते ग्यारह बज गए थे। हमें कहा गया था निर्दिष्ट चौक के पास बस स्टैण्ड पर छः बजे खड़े होने को। बस आकर ले लेगी। आई सात बजे। उसके बाद विभिन्न चौक, विभिन्न होटल घूमते- घूमते दिल्ली छोड़ते समय ग्यारह हो गए थे। दो बजे आगरा पहुंचे थे। खाना खाकर ताजमहल देखकर लौटते समय सध्या हो गई। बस के गाइड ने घोषणा कर दी कि समय की कमी के कारण वृंदावन जाना संभव नहीं है। लौटते समय मथुरा देख लेंगे। मथुरा में सात बज गए थे। शहर में अंधेरा होने लगा था। कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। केवल जगन्नाथ पुरी रास्ते का नाम दिखाई पडा था। कृष्ण जन्म मंदिर में लंबी लाइन लगी। मथुरा नाम से जहां देखा केवल अंधेरा, धुंआ, संकीर्ण रास्ते। दिल्ली लौटते-लौटते रात के बारह बज गए।
आज फिर सुबह नौ बजे की बस थी दिल्ली भ्रमण की। मेरे साथ पिंकी थी। प्रकाश ने सारा प्रबंध कर दिया था। एयर कंडीशनर बस। बात हुई पास वाले बस स्टैंड से बस पकड़ने की। कल दिन की अभिज्ञता से ही पिंकी ने प्रश्न किया, “दिल्ली के लोग बहुत ठग होते हैं न, अंकल?”
“नहीं। ऐसी बात नहीं है।”
“मम्मी तो कहती हैं। वह किसी पर विश्वास नहीं करती हैं।”
पिंकी की मम्मी ने कभी भी मेरे साथ दुर्व्यवहार नहीं किया। भले ही मुझे देखकर सिर नहीं ढकती, आड लेकर नहीं चलती थी। सीधे मुँह वह मेरे साथ बात करती थी, परंतु कभी दुर्व्यवहार नहीं करती थी। उसका व्यवहार हर समय भद्र था, बातचीत हर समय मधुर। मगर पता नहीं क्यों, मैं उसके सामने सहज नहीं हो पाता था? उसके फैशन के लिए? स्टायल के लिए? बाहर जाते समय वह सलवार कुर्ती पहनती थी। घर रहते समय पेंट और लंबी गंजी। शायद प्रतिभा को ये सारी बातें पसंद नहीं आ रही थी। इन सब में वह व्यवहार कुशलता का अभाव देखती। मगर मुझे ये सारी बातें जरा भी खराब नहीं लग रही थी। बहू अगर फेशन करना चाहती है, करें। शायद हमारी प्रज्ञा भी बाहर रहने से ऐसे फेशन करे।
फिर भी प्रकाश की पत्नी के सामने मैं सहज नहीं हो पाया। अपने आप को छोटा महसूस करने लगा. मेरा देहातीपन मुझे संकुचित करने लगा। अब मैं देख रहा था, प्रकाश के पास भी मुझे सहज नहीं लग रहा था। कहां गया वह प्रकाश, जो मेरे सामने मुंह खोलकर बात नहीं कर पाता था। कटक जाने के पूर्व कितने रूपयों की जरूरत पडेगी, वह सीधा मुझे नहीं कहकर भाभी के माध्यम से कहलवाता था। वही प्रकाश अब किस आत्म-विश्वास के साथ मेरे सामने खड़ा हो पाता है जबकि मेरा उसके सामने जाने का साहस नहीं हो पाता है। मगर क्यों?
प्रकाश मुझसे आठ वर्ष छोटा है। उसके और मेरे बीच दो बहिनें हैं। मैं घर में बड़ा बेटा था। छोटे समय मैं प्रकाश को बहुत चिढ़ाता था। तब वह रो-रोकर खटिया के नीचे सो जाता था। उस दिन मां ने मुझे इतना डांटा था कि सारा दिन डर के मारे बाहर आम बगीचे में घूमता रहा।
बचपन की मीठी-मीठी यादें। प्रकाश मछली पकड़ने का शौक़ीन था। नहाते समय कांटे में मछली पकड़कर वह आता था। हमारे गांव में एक नाला था। नाले से हमारे घर के पास में पानी बहता था। उस तालाब में चिंगुडी, गडिशा आदि मछलियां उछलती कूदती थी। खेल-खेल में प्रकाश दौड़कर तालाब की घास के अंदर दोनो हाथ डालकर मुट्ठी भर मछलियां पकड़ लेता था। सभी कहते थे, पिछले जन्म में वह जलमुर्गी रहा होगा।
प्रकाश बचपन से ही बहुत फैशन करता था। वह माँ का अति प्रिय था। मेरे मैट्रिक पास करने तक मेरा अपना कोई पैसा नहीं था। पाकेट मनी, हाथ खर्च का तो सवाल ही नहीं उठता। मगर बचपन से ही प्रकाश का अपना ठणा था। उस ठणे में कहीं से भी पैसे लेकर वह रखता था। जरूरत पड़ने पर वह माँ को उनमें से उधार देता था।
प्रकाश के साथ मेरी कई बातें मेल नहीं खाती थी। वह बचपन से ही अपनी पोशाक, चेहरा, सिर के बाल, इन सभी के प्रति बहुत जागरूक था। मैं नहीं था। उसकी अपनी कुछ चीजें थी और वह उन सबको बहुत यत्न से संभाल-संवारकर रखता था। उसका अपना बिस्तर, चादर, तकिया यहां तक कि एक छोटा रेडियो भी था। मेरा कुछ भी अपना नहीं था। मैं किसी भी चीज केलिए कोशिश भी नहीं करता था। मैं अपने कपडे भी खुद पसंद नहं करता था कि अपना बिछौना भी। कई बार तो मेरा कोई निश्चित खटिया भी नहीं था।
एक बार गांव के पास शहर में ऑपेरा आया, मैं जाते समय टिकिट के पैसों से एक पैसा भी ज्यादा नहीं माँगा था। मगर प्रकाश जाते समय हाथ खर्च भी मांगा था और मां ने दिया भी था। कई बार प्रकाश के पैसे मांगने में माँ समर्थन कर बाप के साथ झगड़ा भी करती थी। प्रकाश माँ का लाड़ला था। मैं पिता का लाड़ला था। “डैडी कह रहे थे आप बहुत अच्छे पढ़ते थे। मैट्रिक परीक्षा में डिस्ट्रिक्ट के भीतर फर्स्ट आप थे। आप डैडी की तरह आई.ए.एस न बनकर गांव के स्कूल में टीचर बन गए।”
प्रश्न के इस प्रश्न से मैं फिर लौट आया दिल्ली शहर के सरोजिनी नगर के पास इस बसस्टॉप की ओर। यहाँ वह बस नहीं देखी। हमारी बस का नाम शाहजहान। पक्का मुसलमान मालिक की बस होगी। टिकट पर अरबी अक्षरों में 786 लिखा होगा। दिन के नौ बज गए थे। प्रचंड गरमी पड़ रही थी। पिंकी ने वाटर बोटल अपने साथ रखा था। एक जगह रूककर पानी पीने से होता। नहीं, बेटी को प्यास लगेगी।
प्रकाश की पत्नी बहुत ही होशियार और हिसाबी थी। दोपहर के लिए लंच पैकेट, रास्ते के लिए पानी। प्रकाश की तरह वह भी बहुत साफ सुथरी, घर को अच्छे से सजा कर रखा था। हर दिन घर में झाड़ू -पोंछा करती और घर को सजाकर रखती। मैने पहले कभी ध्यान दिया नहीं, कि हमारे गांव मे मेरी पत्नी भी इस तरह से सफाई रखती है या नहीं। हां, मार्गशिष महीने के पहले गुरुवार को लक्ष्मी पूजा के दिन घर धोकर साफ करती। ये मैं हर बार देखता आया हूँ।
“आप गांव के स्कूल में टीचर क्यों हुए?”
प्रकाश की तुलना में मैं एक अच्छा विद्यार्थी था। उस समय आब्जेक्टिव टाइप के प्रश्न नहीं होते थे। आजकल के बच्चों की तरह 100 में से 80 नंबर देखे नहीं थे। सौ में से 60-65 नंबर लाना भी कठिन काम होता था। उस समय मैने सौ में से पचहत्तर मार्क रखे थे। मगर किसी ने सोचा नहीं था कि मैं किसी बड़े कॉलेज में पढूँ। मेरे मन में कभी यह बात नहीं आई कि कभी रेवेन्सा, बीजेबी कॉलेज में पढूं। गांव के पास के कॉलेज में पढ़ा था। आई.एस.सी. के बाद कॉलेज में बी.एस.सी. नहीं थी। कभी किसी ने मुझे मेडिकल पढ़ना पड़ेगा, भी नहीं बताया था। मैने बी.एस.सी. भी नहीं की। किसी ने कहा था विज्ञान लेकर ग्रेजुएट होने में कोई फायदा नहीं। वास्तव में मेरे घर में इंजिनियर या डॉक्टर होने के बारे में सोचा तक नहीं था। किसी को भी इतना पढ़ाने के लिए जितने पैसों की जरूरत पडेगी, उतने पैसे देने का सामर्थ्य माँ-पिताजी में नहीं था।
हमारा गांव एक निपट कस्बे की तरह था। हमारे पास में कोई भी कल कारखाना तक नहीं थी। लोगों का प्रमुख धंधा खेती-बाडी करना था। गांव में बहुत दिनों तक नौकरी कहने से लोग समझते थे, स्कूलमास्टरी। नहीं होने पर कलकत्ता में कुलीगिरी। बडे लोग कुशल मंगल पूछते समय कहते थे “तुम आजकल कौनसी स्कूल में हो?”
प्रकाश उस समय आई.ए.एस. हो गया था, हमारे अंचल में यह एक नई बात थी। हाकिम होने के लिए कौनसी परीक्षा पास करनी पड़ती है, लोगों को पता न था। कई आश्चर्य से पूछते थे, “हाकिम की पढ़ाई कहां होती है, बेटे?”
प्रकाश बचपन से ही स्मार्ट थ। साथ ही साथ उत्तर दिया “देहरादून में”।
“क्या- क्या पढ़ाते हैं?”
“पहला पाठ होता है, आप हाकिम हो। दूसरे लोगों की तरह नहीं हो। कैसे बैठोगे, कैसे खांसोगे। किस तरह बात में पालिटिक्स मिलाकर कहोगे।”
प्रकाश के व्यंग्य भी गांव वालों को बहुत सुखद लग रहे थे। प्रकाश ऐसा आदमी है। मेरे से अलग। मैं लोगों के सामने सहज नहीं हो पाता था। मगर उसे कोई शर्म नहीं आती थी।
प्रकाश ने हायर सैकंड डिवीजन मे मैट्रिक पास की थी। फर्स्ट डिवीजन के लिए केवल पांच-छ नंबर बाकी थे। मैने उस समय गांव के स्कूल में ज्वाइन कर लिया था। प्रकाश ने जिद्द की। वह पास वाले कॉलेज में नहीं पढेगा, वह बड़े कॉलेज में पढाई करेगा। पिताजी आग बबूला हो गए थे। उस समय बाहर पढ़ने में महीने का एक सौ अस्सी रूपए खर्च आता था। इतना पैसा देगा कौन? आज से बीस साल पुरानी बात है। मुझे दौ सौ- तीन सौ रुपए वेतन मिलता था। पिताजी को कहा, कम पड़ने पर मेरी तनख्वाह में से प्रकाश को देंगे।
उसे जाने दो, बाहर हॉस्टल में रह जाएगा। प्रकाश कटक गया। रेवेन्सा में पढाई करने लगा। नंबर कम होने की वजह से साइंस में एडमिशन नहीं मिला। कॉलेज चौक में उस समय “उडीसा हॉटल” नामक एक होटल था। हॉटल नहीं होकर वह मेस था। पचीस रूपए हर महीने का भाड़ा। खाने का खर्च साठ सत्तर रूपए हर महीने का। नाश्ते तथा कॉलेज की फीस मिलाकर सौ रूपए। मैं एक सौ रूपए उसको भेजता।
मगर प्रकाश का एक सौ बीस रूपए में नहीं चलता था। प्राय डेढ़ सौ से दो सौ रूपए मांगता था। माँ भी चावल बेचकर कुछ भेज देती थी। कटक रहते समय प्रकाश की उधारी ज्यादा हो गई थी। उस उधारी को चुकाने के लिए ट्यूशन भी करने लगता था।
प्रकाश के ट्यूशन करने की बात सुनकर पिताजी बहुत दुखी हुए थे। पिताजी को बहुत सारी बातें मैने नहीं बताई थी, जैसे प्रकाश कटक जाकर सिगरेट पीना सीखा था। बीच- बीच में शराब भी पीता था और एक बार मैने उसके पढ़ाई के टेबल के ड्रावर में सिगरेट भी देखी। उस समय तक वह दायित्व संपन्न नहीं हुआ था। प्रकाश का वह सब रूप-ढंग देखकर चुप रहना ही उचित समझा।
प्रकाश जान रहा था, उसको नौकरी नहीं मिलेगी। उसका अनिश्चित भविष्य उसको निराश करने लगा था। और उसने कविता लिखना आरंभ किया, दो- तीन लड़कियों को प्यार करने लगा। जब मन करता था उनसे शारीरिक संबंध भी बना लेता था। एकाध बार वह कलकत्ता में वैश्यालय भी गया था। वह जान नहीं पाया था कि उसके प्रत्येक काम की मुझे जानकारी है। मैं कैसे जानता? कभी किसी दोस्त से, कभी प्रकाश के पास आने वाली चिट्ठियों से, कभी प्रकाश के जाने-अनजाने उसके सामानों से। मगर प्रकाश के ऊपर मेरी निगरानी हमेशा थी, जैसे कि वह मेरा छोटा भाई न होकर मेरा बेटा हो।
मगर माँ यह बात मानने को तैयार नहीं थी। वह सोचती थी, मैं प्रकाश से ईर्ष्या करता हूँ इसलिए मैं बार-बार उसके बारे में झूठी-मूठी बातें करता हूँ। पिताजी को कहना मेरे लिए संभव नहीं था। वे गुस्से में आकर प्रकाश को सीधा चार्ज कर देते। आखिरकर नीरवता में सारी चीजों को छोड़कर और कोई उपाय नहीं था।
शायद माँ की बात ही सही थी। वह कहती थी मिलावट के बिना कोई सोने के गहने नहीं बना सकता है। इसलिए मनुष्य के चरित्र में कुछ अच्छे संस्कार और कुछ खराब संस्कार रहना जरूरी है। प्रकाश के चरित्र के सारे स्खलन स्वतः धुल गए, उसके आई.ए.एस. पास करने की खबर सुनकर। पिताजी खुश हुए, माँ भी बहुत खुश हुई। मेरा तो गर्व से सीना फूल गया। रातों- रात गांव वालों की आंखों में हमारा सम्मान बढ़ गया। लोग हमें बड़े आदमी का दर्जा देने लगे। गांव के हाईस्कूल का सेक्रेटरी दिखाई पड़ने पर पहले मुझे नमस्कार कर चला गया। प्रकाश नीचे गिरते-गिरते एक ही छलांग में सभी को कूदकर अचानक ऊपर उठ गया।
लाल किले पर बस रूकी। पिंकी के लिए लाल किला नया नहीं था। मैं उम्र के उस ढलान तक पहुँच गया था जहाँ पहुंचने के बाद किसी भी नई चीज में आकर्षण अनुभव नहीं होता था। कोल्ड ड्रिंक्स, खिलौने वालों, फोटो वालों को पार करके हम भीतर गए। गाइड, बस के यात्रियों को खड़ा करके लाल किले के विषय में अपना व्यक्तव्य दे रहा था। पिंकी की नजर उसकी तरफ नहीं थी। वह पूछने लगी
“अंकल, जानते हो शाहजहाँ का क्या नाम था?”
“नहीं जानता हूँ बेटी।”
“आपको कुछ मालूम नहीं है। कैसे टीचरशिप करते हैं? इतना भी नहीं जानते हैं शाहजहाँ का नाम था खुर्रम।”
मैं हँसने लगा। एक असहाय हंसी। एक अवहेलना की हंसी। पिंकी दिल्ली में पली-बड़ी, इंगलिश मीडियम में पढ़कर खूब स्मार्ट हो गई थी। प्रज्ञा इतनी स्मार्ट नहीं थी। गांव के स्कूल में पढती थी, उड़िया मीडियम में। अब साइकिल लेकर पास के शहर के पुराने कॉलेज में पढ़ने जाती है। मगर पिंकी के चेहरे पर जो अभिजात्य की झलक दिख रही थी प्रज्ञा के चेहरे पर कभी नहीं।
मेरी शादी बहुत ही सामान्य तरीके से हुई थी। जन्मपत्री देखकर संबंधियों द्वारा। शादी से पहले गांव में एक पंचायत बुलाई थी। मैं शादी से पहले भले ही लड़की देखने गया था, मगर संकोचवश उसे अच्छी तरह नहीं देख सका। कुछ भी प्रश्न नहीं पूछ पाया था। घर वाले कई बार जाकर देखकर आ गए थे लड़की को। सभी ने अपनी राय दी। मेरी राय किसी ने भी नहीं ली थी। विधि सम्मत मेरी शादी हो गई थी।
बी.एड. करते समय विजयलक्ष्मी नाम की लडकी के साथ मेरी घनिष्ठता बढ़ी थी। नहीं, हमने कभी भी एक दूसरे का चुंबन नहीं किया। केवल एक बार प्रभात सिनेमा में मेटनी शो देखने गए थे। लेडीज हॉस्टल के गेट के सामने चार बजे तक गपशप करते रहे। बस यही हमारा रोमांस था। किसी ने भी मुँह खोलकर शादी की बात नहीं की थी। ट्रेनिंग के बाद एक दूसरे को चिट्ठी दने का मौका भी नहीं मिला। मगर सुहागरात को स्त्री का मुँह देखने के बाद मन में ख्याल आया था, विजयलक्ष्मी के साथ अगर शादी होती तो अच्छा होता।
मगर विजयलक्ष्मी को नहीं पाने का गम धीरे-धीरे मैं भूल गया था। पहले प्यार को केवल रोमांटिक उपन्यास के नायक ही भूल नहीं पाते हैं। मैं तो बहुत कुछ भूल चुका था। कभी भी विजयलक्ष्मी को खोने के गम ने मुझे नहीं तडपाया। जबकि प्रकाश की शादी अलग ढंग से हुई थी। उसके आई.ए.एस होने के बाद लड़कियों के पिताओं का घर पर जमघट लगा रहता था। हमे विश्वास नहीं हो रहा था कि बड़े - बड़े स्टेटस वाले लोग हमारे घर के बरामदे में जूता खोलकर पांव धोकर घर के भीतर चूडा- दही और केले खाकर तृप्त होने की जम्हाई लेने का स्वांग भरेंगे। पिताजी प्रफुल्लित होकर प्रत्येक प्रस्ताव के बाद मिलने वाले दहेज के सामानों की लिस्ट बनाने लगे। माँ सुंदर पढ़ी - लिखी बहू के पैर दबाने की कल्पना में खुश थी। मैं उस समय उनकी उन कल्पनाओं से उम्मीद नहीं करने के लिए समझा रहा था। प्रकाश के प्रेम संबंधों के बारे में मुझे जानकारी थी और जैसे मैं विजयलक्ष्मी की बात किसी को कह नहीं पाया था उसी तरह यह भूल प्रकाश न करें मैं चाह रहा था। आखिरकर वह अपनी प्रेमिकाओं में से किसी के साथ शादी कर ले। माँ और पिताजी के सारे गुणा-भाग को झूठा साबित कर प्रकाश जिसके साथ शादी करेगा, यह सुनकर मैं भी आश्चर्य चकित हो गया था। क्योंकि उसने अपने कॉलेज जमाने की किसी भी प्रेमिका के साथ शादी करने का प्रस्ताव नहीं रखा था। वरन् एक सीनियर आई .ए.एस ऑफिसर की बेटी के साथ शादी करने का प्रस्ताव रखा था। उसके निर्णय को सभी ने स्वीकार कर लिया था।कटक के बारबाटी स्टेडियम के क्लब हाऊस में शादी हुई थी। सारी व्यवस्था प्रकाश के ससुर ने ही की थी। हम सब केवल दर्शक थे। अच्छे कपड़े पहनकर गांव से जाकर कटक के एक होटल में रूके थे। शादी के दिन क्लब हाऊस के सामने हंसमुख बनकर खड़े हुए थे और अनजान अतिथि- अभ्यागत को नमस्कार करते- करते हीन मान्यता साफ झलक रही थी। शादी के बाद, सुहागरात भी गांव में नहीं मनाई गई थी। हम सभी सुहागरात के पहले ही गांव को लौट आए थे। दावत खाने की गांवों की आशा अधूरी रह गई थी। वे बाद में कानाफूसी कर रहे थे, भरोसे के साथ कह नहीं सकते। प्रकाश उस समय हमारे अंचल का सबसे उज्ज्वल रत्न के रूप में गिना जाता था।
प्रकाश शादी के बाद दो- तीन बार गांव आया था। पहली बार अपनी पत्नी के साथ फिर अकेले-अकेले। पहली बार उसकी पत्नी को लेकर हम सब चिंतित थे। बहू आएगी, रसोई करके खिलाएगी,पाँव दबाएगी, साथ में ले जाकर पास- पड़ोस में घुमायेंगे, ये सारी आशा माँ ने पहले से ही छोड़ रखी थी। बल्कि नई बहू को किसी तरह की दिक्कत न आएँ, उसके लिए तैयारी की जाने लगी। यह देखकर मेरी पत्नी ईर्ष्या में जलने लगी थी।
प्रकाश कार में आया। शायद एक रात गांव में रूका। सुबह वे लोग भुवनेश्वर चले गए थे। प्रकाश की पत्नी को मैदान जाने में असुविधा न हो, उसके लिए बरपाली पैखाना तैयार किया गया था। बांस की पट्टी से अस्थायी स्थान पर कुँए के पास बनाया गया था। प्रकाश की पत्नी ने उन दोनों का उपयोग तक नहीं किया। सुबह के नित्यकर्म करे बिना ही वे चले गए। प्रकाश ने कहा था, दो तीन घंटे में भुवनेश्वर पहुंच जाएंगे। वहां सर्किट हाऊस में रिजर्वेशन की हुई है। नित्यकर्म वहीं पर कर लेंगे।
राजघाट, विजयघाट, शक्तिस्थल इत्यादि देखने के बाद फिर हम बस में बैठ गए। बस का गाइड कहने लगा, अब हम जंतर मंतर देखने जाएंगे, वहां से एक नंबर सफदरगंज के ऐतिहासिक जगहों पर देखेंगे। वहां से 1984 मसीहा में इंदिरागांधी को उनके दो अंगरक्षकों ने गोली मार दी थी।
पिंकी पूछने लगी, सिंहासन के लिए एक आदमी दूसरे आदमी का खून क्यों करता है, अंकल ? इतिहास की किताब में केवल सत्ता को लेकर संघर्ष। एक आदमी दूसरे को मारकर उसकी जगह पर बैठता है।
“इसलिए बेटी, मुझे इतिहास अच्छा नहीं लगता है। मनुष्यों की अवहेलना, गणित की संख्या, अंक ये सारी चीजें अपने भीतर देखने से लगता है कि इनकी भी एक दुनिया है। मनुष्यों की तरह उनको भी बहुत दुख, शोक, प्राप्ति- अप्राप्ति का चक्कर रहता है। मगर उनके जीवन में एक नियम है,एक श्रृंखला है। वे अपने स्वार्थ के खातिर कोई नियम तोड़ते नहीं है।”
“सही में अंकल? मैथेमेटिक्स इतना इंटरेस्टिंग है ?”
“तुम प्राइम नंबर पढ़ती हो? इंटिजर? अलजेबरा में इंटिजर?”
“प्राइम नंबर पढ़ी हूँ। मगर अभी तक अलजेबरा नहीं पढी।
“देख, प्राइम नंबर सबसे अकेली संख्या है, कहो? एक को यदि हम ईश्वर या पिता कहकर पुकारेंगे तब उसको छोड़कर और कोई गुणनांक या फेक्टर नहीं। तुम बड़ी होकर पढ़ोगी इंटिजर के बारे में। वहां देखोगी जन्म से ही अनेक संख्याएं निःस्व होती है। केवल निःस्व ही नहीं, उनके पास यथेष्ट कोई वजूद भी नहीं। यह सब सोचने से मुझे कितना असहाय लगता है।”
“रियली अंकल! मैथ में इतना चार्म है?”
प्रकाश गणित में अच्छा नहीं था। इतिहास में अच्छे नंबर लाता था। किस साल, किस तारीख को किसका जन्म हुआ, किसकी मृत्यु हुई, कब कहां कौन सा युद्ध हुआ था, कम्प्यूटर की तरह वह बता सकता था। मेरा ठीक उलटा था। प्रकाश हर चीज में मुझ से उलटा था। पिताजी की मृत्यु के बाद एक बार गांव आया था, अकेले। उसकी पत्नी नहीं आई थी। श्राद्ध के समय मुंडन भी करवाया था। मगर तेरह दिन के बाद बिल्कुल नहीं रूका। विधवा बूढ़ी मां को मिले बिना ही चला गया था। हालांकि हर महीने मां के लिए तीन सौ रुपए का मनीआर्डर करना नहीं भूलता था।
सत्तर के दशक में, महीने में तीन सौ रूपए बहुत होते थे। मां पैसे पाकर कृत- कृत्य हो जाती थी जैसे पुत्र को जन्म देकर उसका जीवन सार्थक हो गया हो।
हर महीने डाकिया आता था, मां के दस्तखत लेता था और तीन सौ रूपयों के साथ एक सादा मनीआर्डर कूपन पकडाकर चला जाता था। एकदम खाली मनीआर्डर कूपन! प्रकाश, मां के नाम दो लाइन की चिट्ठी भी नहीं लिखता था। मगर मां उस खाली कूपन को देखकर संतुष्ट हो जाती थी जैसे उस खाली कूपन से मां को प्रकाश के सुख-दुख का पता चलता था।
मैं पूरी तरह से नाराज हो जाता था। मां को अपने पास रखा। उसका सारा खर्च, रोग, सारी आपत्ति अभियोग, सुख- दुख सब मैं सहन करता था। जबकि प्रकाश ने कोई बोझ न उठाकर केवल तीन सौ रुपए भेजकर मां के दिल में एक अच्छी- खासी जगह बना ली थी, मैं ऐसा नहीं कर सका। पैसा ही सब कुछ होता है क्या? मेरा मन हो रहा था, मैं गणित में अच्छे अंक पाकर सीधे मनुष्य का गणित नहीं सीख पाया जबकि प्रकाश इतिहास में अच्छे अंक पाकर मनुष्य के हिसाब- किताब में ठीक उतरता था।
मां की मृत्यु के बाद, श्राद्ध करने भी प्रकाश नहीं आया था। उसने मां का श्राद्ध मनाया या नहीं मुंडन करवाया या नहीं, यह भी पता नहीं. केवल एक चिट्ठी भेजी थी कि मां के श्राद्ध में नहीं आ पाऊँगा क्योंकि विदेश ट्रेनिंग में जा रहा हूं। उसके बाद उसने और तीन सौ रूपए नहीं भेजे। भेजने की और जरूरत भी नहीं थी।
मगर प्रकाश हर समय गांव के लोगों के बीच चर्चा का विषय बनकर रहता था। अखबारों में अक्सर उसका नाम निकलता रहता था। उसने एक निष्ठावान, आदर्शवादी ऑफिसर के रूप में अपनी इमेज बना ली थी। विभिन्न जिलों में अवस्थापित होने के समय प्रायः उसका छोटे नेताओं से लेकर मंत्री, एम.एल.ए तक सभी के साथ झगडा होता था और बार-बार उसकी बदली होती थी। वह रिश्वत नहीं लेता था, गरीब लोगों के लिए उसके प्राण क्रंदन करते थे और राजनैतिक नेताओं के सामने उसका भिड़ना - ये सारी बातें ओडीशा के सभी शिक्षित और जागरूक नागरिक जानते थे।
प्रकाश की इस इमेज की बात गांव वालों ने सुनी थी। स्कूल के शिक्षक भी बच्चों को अच्छी पढ़ाई कर प्रकाश की तरह अच्छी नौकरी करने का उपदेश देते थे। अंत में हमारी गांव की मिट्टी के लिए प्रकाश गर्व का विषय था। इस गर्व के कारण प्रकाश का उसकी मां के श्राद्ध पर नहीं आने पर भी किसी को खराब नहीं लगा था। जैसे यह बात स्वाभाविक थी। सभी ने मान लिया था, प्रकाश जैसा निष्ठावान देश सेवक ऑफिसर क्या मां की मृत्यु पर आकर अपना समय बर्बाद करेगा?
सफदरजंग से बस चलकर पहुंची थी कुतुबमीनार के पास। गाइड कुतुबमीनार का इतिहास बताने के बाद कहने लगा, “यहां हमारी बस एक घंटा रूकेगी। आधा घंटा आप कुतुबमीनार में घूमिए और आधे घंटे में पास के किसी होटल में अपना खाना खा लीजिये। उसके बाद हम चलेंगे लोट्स टेंपल और उसके बाद हमारा दिल्ली भ्रमण समाप्त।”
पिंकी कहने लगी, “यहां हम बहुत बार आए हैं। यहां अंकल एक लोहे का खंभा है। पीठ करके अगर दोनो हाथों से उस खंबे को लिपट सकते हो तो आप सबसे ज्यादा भाग्यवान आदमी होंगे। मैने और मम्मी ने बहुत कोशिश की थी। लेकिन नहीं कर पाये। डेडी ने मगर कमफर्टेबली खंबे को उलटे होकर पकड़ लिया था।”
“तुम्हारे डैडी भाग्यवान आदमी है। तुम नहीं जानती हो?
“सभी भाग्यवान क्यों नहीं होते हैं? डैडी तो भगवान पर विश्वास नहीं करते। मम्मी का इसलिए डैडी से कई बार झगड़ा होता है। डैडी कहते है इस दुनिया को किसी ने नहीं बनाया। मनुष्य का जन्म कैसे होता है, मृत्यु कैसे होती है, विज्ञान इन सारी बातों को जानता है. मम्मी विश्वास नहीं करती हैं। अच्छा अंकल, डैडी अगर भगवान में विश्वास नहीं करते, तो भगवान ने उनको भाग्यवान कैसे बना दिया?”
पिंकी के इन सभी प्रश्नों के उत्तर क्या मेरे पास हैं? प्रकाश हमेशा से प्रेक्टिकल आदमी था। मेरी पत्नी कहती है, उसके पास इमोशन, सेंटीमेंट जैसी चीजें नहीं हैं। वह बहुत हिसाब-किताब वाला आदमी है। गणित को अच्छी तरह जानता है।
गणित का अध्यापक! मैं कैसे मान लेता कि गणित में इमोशन सेंटीमेंट का स्थान नहीं है। मैने तो खोजी थी प्राइम नंबरों की निःसंगता, खोजी थी नेगेटिव नंबरों की शून्यता। देखा था शून्य का भी गणित में स्थान है. शून्य से भी अधिक और चीजें है गणित के पास। ऋणात्मक संख्या से भी बहुत प्राप्ति होती है गणित में।
उस दिन प्रकाश की चिट्टी आई कि मां- बाप के मरने के बाद और वह गांव नहीं आएगा। इसलिए उसके हिस्से की जमीन मैं कैसे भी करके गांव के महाजन रघु साहू के पास बेच दूँ। रघु साहू के पास से पैसा ले जाने की व्यवस्था वह कर देगा।
गांव की जमीन में प्रकाश एक दिन हिस्सा मांगेगा। मेरी कल्पना के बाहर था। प्रकाश के पास तो सब कुछ है। बड़ी नौकरी, रूपए, बंगला, कार, कोठी। इन सबके अलावा वह जमीन बाड़ी में हिस्सा लेगा?
मेरी पत्नी पत्र पढ़कर गुस्सा हो गई थी। मुझे चिढ़ाते हुई कहने लगी, “जीवन का गणित करते-करते बिता दी। प्रकाश ने केवल एक ही गणित सीखा। हानि- लाभ का! बस।”
“हाँ, मानता हूँ प्रकाश बहुत प्रेक्टिकल है। किंतु मेरी पत्नी की बात भी अतिशियोक्ति नहीं थी? मानता हूँ प्रकाश से मैं ईर्ष्या करता हूँ, प्रकाश मेरे लिए कुछ काम का नहीं है। फिर भी वह मेरा भाई है। हम एक छत के नीचे खेलकर बड़े हुए हैं। बचपन में एक साथ खेले हैं। एक साथ लड़े -भिड़े हैं। जब एक मार खाता था तो दूसरा उसके प्रति सहानुभूति जताता था। आज बड़े हो गए हैं तो एक आदमी दूसरे की चिंता नहीं करेगा? इतना दूर रहने से भी वह समझ नहीं पाया कि गांव की यह जमीन मेरी दुनिया चलाने के लिए कितनी जरूरी है? वह जरूर राजी हो जाएगा अपना हिस्सा छोड़ने के लिए।
मेरा दिल्ली आने का उद्देश्य यही था। बहुत दिनों बाद, अधेड़ उम्र में मैं दिल्ली आया, प्रकाश को मिलकर कहूंगा, जमीन के इस तरह हिस्से मतकर। उसको समझाऊंगा मेरा अर्धसरकारी स्कूल का वेतन, प्रज्ञा की शादी की बात।
ट्रेन में बैठे-बैठे मेरी क्यों, क्या पता, 'माटी के मनुष्य' उपन्यास की बात दिमाग में आई। वास्तव में एक क्लासिक उपन्यास जो हर समय मनुष्य केजीवन पर खरा उतरता है, नहीं? या कहिए न, इतिहास बार-बार अपने को दोहराता है। वैसे ही उपन्यास भी अपने को बार-बार दोहराता है। क्या यही नियति है एक ‘बिरजू’ बनेगा और दूसरा ‘चकडी’।
प्रकाश मुझे देखकर न तो खुश हुआ और न ही दुखी। बल्कि मैं कितने दिन रहूंगा, किस- किस जगह घूमने जाऊँगा, कहां से क्या खरीदूंगा किस ट्रेन से कब लौटूंगा, इन बातों के लिए पूछने लगा। दिल्ली में आई.ए.एस ऑफिसरों के घर ओडिशा के ऑफिसरों की तरह बड़े नहीं है। गाडी- मोटर का बात तो सपना ही था। एक पुल कार थी- दस बजे प्रकाश को ऑफिस ले जाती और शाम को घर ले आती। प्रकाश की अपनी एक कार भी थी, किंतु उसको बहुत देख-देखकर वह चलाता था।
प्रकाश ने सारी व्यवस्था कर ली थी। कल मैं और पिंकी आगरा जाएंगे। आज दिल्ली। गर्मी के दिन होने की वजह से एअर कंडीशनर की व्यवस्था। ट्रेवल एजेंट के पास जाकर खुद टिकट करवा कर लाया था। मैं कब कौनसी ट्रेन से लौटूंगा, इसके लिए रिजर्वेशन करवाने में व्यस्त था। प्रकाश बहुत प्रेक्टीकल था। हमेशा से ऐसे ही।
पिंकी ने प्रश्न किया, “मनुष्य के इतिहास और गणित के इतिहास में कुछ अंतर है, अंकल?”
“अह! फिर इतिहास। पिंकी, मेरी बेटी। मैं गणित का शिक्षक हूं, इतिहास का नहीं, हमारे विश्वविद्यालय में गणित और इतिहास के दोनों कम्बीनेशन लेना मना था। किसने ऐसा नियम बनाया, क्या पता। वह वास्तव में बहुत बड़ा दूरदर्शी रहा होगा।”
अवश्य प्रकाश...
आज लौटने का दिन। प्रकाश की पत्नी ने मेरे लिए पूड़ी - सब्जी बनाई। साथ में पानी की बोतल और टिफिन कैरियर लाया न था। उसने दोनो दुकानों से खरीद लिया। सरोजिनी नगर में टिकट नहीं मिला। प्रकाश ने किसी को भेजा था, नई दिल्ली के रेलवे स्टेशन को। वहां भी पुरुषोत्तम या नीलांचल एक्सप्रेस के टिकट नहीं मिले। उत्कल एक्सप्रेस के मिल गए।
प्रकाश कहने लगा, -उत्कल एक्सप्रेस घूमकर जाती है, समय ज्यादा लगेगा। मगर और क्या करते ? ट्रेन हजरत निजामुद्दीन स्टेशन से छूटेगी। छोटा स्टेशन है। इतनी दिक्कत नहीं आएगी। यहां से नजदीक रास्ता। टैक्सी से भी जाने से होगा। फिर भी, मैं आपको कार से ले जाकर सी- ऑफ करके आता हूँ।
पिंकी इन्हीं दो दिनों में नजदीक हो गई थी। लौटते समय जिद्द करने लगी, वह गांव जाएगी? गांव? कौन से गांव? उस गांव जहां तुम्हारी मां एक बार गई थी? उस गांव जिसकी जमीन तुम्हारे पिताजी बेचना चाहते है? मगर मैं कुछ भी नहीं कह पाया। आए हुए दो तीन दिनों के अंदर भी मैं अपने आने का उद्देश्य प्रकाश को नहीं कह पाया था। एक बार भी उसने नहीं पूछा, मैं क्यों आया हूं। सोच रहा था, वह अपनी चिट्ठी के बारे में पूछेगा। जमीन के हिस्से करने वाली बात। उस समय मैं अपनी बात रख दूंगा। मगर वह बात भी प्रकाश ने नहीं उठाई। मुझे कहना जरुरी था। अगर अभी भी यह बात नहीं कह पाया तो इतना पैसा खर्चकर इतनी दूरी तय कर यहां आया हूँ, सब व्यर्थ हो जाएगा। गांव की जमीन की मुझे बहुत जरूरत थी। प्रज्ञा की शादी नहीं हुई थी। हमारे अर्द्ध सरकारी स्कूल में वेतन छः महीनों में एक बार मिलता था। मेरी सेवानिवृत्ति का समय नजदीक आ गया था। मेरा सारा हिसाब किताब फेल हो गया था। आखिर में इस समय में मेरे पास से जमीन छुडाकर प्रकाश नहीं लेगा। उसके पास कौन सी चीज की कमी है और वह तो बहुत सारी जमीन खरीद भी चुका है।
गाड़ी चलाते चलाते प्रकाश कहने लगा, “मैने एक चिट्ठी भेजी थी मिली थी?”
अब कहना उचित होगा। इस बार बिना शर्म किए अपने अभाव और समस्याओं को सामने रखते हुए कहना जरूरी है। इस बार नहीं कहने से, बहुत कुछ मेरा खो जाएगा। मेरी सुरक्षा, हमारे परिवार की सुरक्षा, प्रज्ञा की शादी और हमारी आर्थिक अवस्था।
प्रकाश कहने लगा, “मुझे पैसों की सख्त जरूरत है। सोच रहा हूँ भुवनेश्वर में एक मकान खरीदूंगा।इधर- उधर जुगाड़ कर रहा हूँ। नहीं हो पा रहा है। यदि गांव में मेरे हिस्से की जमीन....”
मेरे आगे अस्पष्ट कोहरा दिखाई देने लगा। उस कोहरे के अंदर प्रकाश कहीं खो गया। अंधेरे और प्रकाश की छाया के बीच परदे पर दिखाई देने लगा मुझे अतीत का कैनवस। मेरे सामने ग्यारह वर्ष का प्रकाश खड़ा है। संकोच, संभ्रम, भय और आशंका से भरा हुआ। कह रहा है, भाई, कॉलेज के सारे लड़के एक्सकरसन जा रहे हैं मेरे पास पैसे नहीं। यदि तीन सौ रूपए देते.....
स्कूल में तनख्वाह नहीं मिल रही है। प्रज्ञा को टाइफायड दवाई की दुकान पर उधारी हो गई। तीन साल हो गए खप्पर बदले नहीं गए, छत में सूर्य चन्द्र दिखने लगे। मेरे पांव की चप्पलें टूट गई है। स्कूल जाने में शर्म आ रही है। मेरी पत्नी को एक वर्ष से श्वेत प्रदर हो रहा है, जिससे वह सूखकर हड्डी पसली बन गई है। डॉक्टर को दिखाने के लिए पैसे नहीं। फिर भी प्रकाश को देखकर मन प्यार से भर उठा। बेचारा, जाना चाहता है, घूम आओ।
प्रकाश ने गाड़ी रोकी। निजामुदीन आ गया था। कहने लगा, भईया, उत्तर नहीं दिया?