दिनचर्या / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
मेरा भोजन तो चौबीस घंटे में एक ही बार होता था सो भी आम तौर से दलिया ही खाता था। यह मेरा चिरपरिचित प्रियतम खाद्य है। पानी में पके गेहूँके दलिए को मैं अत्यंत प्रेम से खाताहूँ। उसके साथ साग-तरकारी या दूध की भी जरूरत नहीं है। मीठा तो चाहिए ही नहीं। यदि कभी बिना नमक-मसाले की उबली शाक-तरकारी या गाय के दूध के साथ भी उसे खाता हूँ तो यों ही। उसकी जरूरत मुझे मालूम नहीं होती। खाने के बाददूधपी लेता हूँ। यह एक भुक्तता का नियम अब जीवन भर चलेगा। इससे मैं नीरोग और हलका रहता हूँ। एक बार भोजन,दोनों समय मिला कर 7-8 मील टहलना और रात में सात घंटे से कम सोना नहीं,इन तीनों का सम्मिलित परिणाम यह हुआ कि मैंइधरबीसियों साल से कभी बीमार न पड़ा। हाँ, दिमागी कामदूधजरूर चाहता है। इसी से रात में गौ केदूधबिना मेरा काम नहीं चलता।
हाँ, तो जेल में शाम को दूध पीकर सात ही बजे सो जाता और दो बजे रात में उठकर नित्यक्रिया, आसन और टहलना सुबह होने तक पूरा कर लेता। लोगों को आश्चर्य होगा कि हजारीबाग की सख्त सर्दी में भी मैं जाड़े में उठकर सभी कामों से फुर्सत पाने के बाद अँधेरे में ही गाय का तक्र दो गिलास पी लेता था और नीरोग रहता था। गर्मियों में तो मुझे बाहर ही सोने दिया जाता था। मगर जाड़े में भी जेलवालों का ऐसा प्रबंध था कि हमारी कोठरी (सेल) का ताला दोई बजे रात में खुलवा देते थे, ताकि मैं शौचादि से फुर्सत पा लूँ। जाड़े में एक बाल्टी में सोने के पूर्व ही पानी भर के चूल्हे पर रख देता था और दो बजे वह कुछ-न-कुछ गर्म ही मिलता था ─कम-से-कम हाथ-पाँव ठिठुरानेवाला तो नहीं ही रहता था। फलत: उससे स्नान करने में आसानी थी।