दिनेश कुशवाह की कविता: वस्तु के आयाम / रवि रंजन

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दिनेश कुशवाह हिन्दी के उन कवियों में एक हैं जिनकी कविताओं से गुज़रते हुए आम इंसान की आशा,आकांक्षा,उदारता,वांछा,अपेक्षा,सपने आदि के साथ ही उसकी सीमाओं का भी बोध होता है.सामान्यत: माना जाता है कि मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो स्वभावत: सामाजिक होता है.अकेले रहने और सारी सुख सुविधाओं का अकेले ही उपभोग कर लेने की चाह रखने वाले तथाकथित उत्तर-आधुनिक मनुष्य का आचार-व्यवहार कितना मनुष्य विरोधी हो सकता है, इसे आज उदाहरण देकर समझाने की ज़रूरत नहीं है.

वस्तुत: भौतिक समृद्धि के बल पर प्राप्त की गयी तमाम सुख-सुविधाएँ, कीमती चीज़ें और कृत्रिम मनोरंजन मनुष्य का विकल्प नहीं हैं.इतना ही नहीं,मनुष्य और मनुष्य के बीच औपचारिक प्रयोजनमूलक संबंध भी बेहद उबाऊ होता है.सच तो यह है कि हर इंसान जीवनपर्यन्त एक ऐसे समानधर्मा की खोज में लगा रहता है जिसके साथ उसका मानसिक तरंग-दैर्घ्य मेल खाता हो और वह जिससे अपना सुख-दुःख बाँट सके.जिसके साथ मिल-बैठकर एक-दूसरे के सुख से सुखी और दुःख से दुखी हुआ जा सके. ‘इसी काया में मोक्ष’ कविता का कमोबेश यही प्रतिपाद्य है:

बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
इसी से तो मिलना था
पिछले कई जन्मों से.

अंत:साक्ष्य के आधार पर हम कह सकते हैं कि कबीर को भी अपने ज़माने में ऐसा कोई आदमी नहीं मिला जिससे वे नि:शंक होकर अपने मन की बात कह सकें.दुष्टता की हद यह कि जिससे दिल खोलकर बातें करो,वही आगे चलकर उसका दुरुपयोग करने से नहीं चूकता:

ऐसा कोई ना मिला, जासू कहूं निसंक।
जासो हिरदा की कहूं, सो फिर मारे डंक।।

ठोक बजाकर देख लेने पर भी भक्त कवियों को जब कोई अपना-सा लगने वाला कोई आदमी नहीं मिलता तो वे दुनियावी अपनत्व को एक विभ्रम करार देकर प्रभु के चरणों में लौ लगाते हैं.

मध्ययुग के संत भक्त कवि के सामने जो विकल्प था वह संभवत: इक्कीसवीं सदी के हमारे संशयवादी समय के रचनाकार के पास मौजूद नहीं है.उसे ‘इसी काया में मोक्ष’ चाहिए:

बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
करोड़ों जन्मों के पाप मिट गए
कट गए सारे बंधन
कि मोक्ष मिल गया इसी काया में.

वस्तुत: मध्यकाल में भी तुलसीदास को स्वर्ग और अपवर्ग(मोक्ष) के सुख से ज्यादा सत्संग या सज्जन लोगों से मिलना- जुलना पसंद था.उनका ऐसे विचित्र प्राणियों से भी पाला पड़ा था जो मिलने पर ‘दुःख-दारुण’ देने का कोई अवसर नहीं छोड़ते थे और उन सज्जनों से भी मिलना-जुलना था जिनके बिछुड़ने से कष्ट होता था.

दिनेश कुशवाह का कवि जब ‘इसी काया में मोक्ष’ प्राप्त करने की अभिलाषा व्यक्त करता है तो याद रखना चाहिए कि भारतीय दर्शन में मोक्ष एक गंभीर भावाविष्ट एवं अर्थगर्भी शब्द है जिसे मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थों में एक माना गया है.उपनिषद में मन को ही बंधन और मोक्ष का एकमात्र कारण बताते हुए कहा गया है कि विषयों में आसक्त मन बन्धन का और कामना-संकल्प से रहित मन ही मोक्ष (मुक्ति) का कारण है :

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।
बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥

मोक्ष को कैवल्य,अपवर्ग,मुक्ति आदि के साथ ही बौद्ध दर्शन की शब्दावली में निर्वाण भी कहा गया है.स्पष्ट ही मोक्ष एक दार्शनिक अवधारणात्मक निर्मिति है.शास्त्रों के अनुसार मोक्ष प्राप्ति के लिए जीव की मृत्यु अनिवार्य नहीं है. हिन्दू धर्मशास्त्र में तो वैदिक,तांत्रिक एवं शाबर मन्त्रों के साथ ही अनेकानेक बीज मन्त्रों का भी विधान है जिनके बारे में कहा जाता है कि विधिपूर्वक उनका जप करने से मनुष्य को सशरीर मोक्ष प्राप्त हो सकता है.बौद्ध दर्शन की पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो ‘बोधिसत्त्व’ बनने के मार्ग पर अग्रसर हुआ मनुष्य अंतत: ‘अर्हत’ हो जाता है.

उपर्युक्त दार्शनिक प्रतिपत्तियों को तत्काल बरतरफ़ करके सवाल किया जा सकता है कि क्या कोई आधुनिक कवि जड़भरत ऋषि या राजा जनक की तरह विदेह होना चाहेगा ?क्या वह जैन धर्माचार्यों द्वारा कथित रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि के संयोग से निर्मित ‘पुदगल’ के विनाश से प्राप्त ‘कैवल्य’ की कामना करेगा?जाहिर है कि ऐसा वह हरगिज़ नहीं चाहेगा.सच तो यह कि किसी सुकवि द्वारा किया गया सृजन ही उसे उसे मुक्त करता है. भारतीय काव्यशास्त्र के आचार्यों ने इसे संभव माना है. आचार्य भामह ने काव्य-प्रयोजन के प्रसंग में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति और कलाओं में निपुणता के साथ-साथ उत्तम काव्य से कीर्ति और प्रीति (आनन्द) की भी प्राप्ति की बात की है:

धर्मार्थकाम मोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च।
प्रीतिं करोति कीर्तिम् च साधुकाव्य निबंधनम्।।

इतना ही नहीं, गोस्वामी तुलसीदास जब कहते हैं कि वे अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष आदि के बजाय जन्म जन्मान्तर तक सीताराम के चरण-शरण में प्रेम से विलग और कुछ नहीं चाहते,तो प्रकारांतर से वे पुरुषार्थ चतुष्टय की तुलना में सतत रचनारत रहना बेहतर मानते हैं,क्योंकि उनकी अनुभूति की संरचना का रग-रेशा भक्ति की संवेदना से निर्मित है:

अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम-जनम रति राम पद यह बरदानु न आन॥

कुलमिलाकर कहना यह है कि सतत सृजनरत कवि को उसका लेखन ही मुक्त करता है.दूसरे शब्दों में, कवि के लिए उसका सृजन ही मोक्षदायक होता है और सच्चा सृजन वस्तुत: मनुष्यता की अनवरत तलाश है जो हमें पहले से बेहतर मनुष्य बनने की दिशा में अग्रसर करता है.

‘इसी काया में मोक्ष’ कविता से गुजरते हुए याद आते हैं अरुण कमल जिन्होंने ‘दोस्त’ कविता में लिखा है:

कोई है जिसके मुँह पर झूठ न बोलूँ
कोई है जिसके आगे गलत सुनते डरूं
जिसकी नज़र से गिरने का मतलब चौबीसवीं मंजिल से गिरना
वो क्या है जो आदमी को खींच ले जाता है आदमी के पास
क्या है वो रिश्ता खून से परे
वो शहद का ओस का रिश्ता
वो काँटों भरी बबूल की देह से छूटी गोंद का रिश्ता
वो बंट रही रस्सी के सूतों धागों का रिश्ता

परस्पर अखण्ड विश्वास पर आधारित जो नि:स्वार्थ गहन मानवीय संबंध ‘दोस्त’ कविता का नाभिकीय बिंदु है, उसी की चाह दिनेश कुशवाह से ये पंक्तियाँ लिखवा ले जाती हैं :

बहुत दिनों से मैं
जानना चाहता हूँ
कैसा होता है मन की सुन्दरता का मानसरोवर
छूना चाहता हूँ तन की सुन्दरता का शिखर
मैं चाहता हूँ मिले कोई ऐसा
जिससे मन हज़ार बहानों से मिलना चाहे.

‘पिता की चिता जलाते हुए’ इस संग्रह जी एक विलक्षण कविता है. ‘दाह-संस्कार’ की प्रक्रिया को चित्रित करती यह रचना संभवत: हिन्दी में रचित अकेली कविता है जिससे गुज़रते हुए जहाँ एक ओर बगैर किसी कर्मकाण्ड का उल्लेख किए कवि पूरी निस्संगता के साथ श्मशान में पिता के शव जलने की पूरी प्रक्रिया का ब्योरेवार चित्रण करता है.किन्तु, उसके पहले वह विस्तार से उन जीवन-मूल्यों और संदेशों को याद करता है जो समय-समय पर पिता से उसने प्राप्त किए हैं. इस क्रम में पिता वसुदेव का कृष्ण को लेकर उफनती हुई यमुना नदी पार करने के मिथकीय उल्लेख से इस कविता में वज़न पैदा हुआ है. इससे यदि एक ओर पिता के अपने जीवन-संघर्ष का अंदाज़ा लगता है तो दूसरी ओर पुत्र के प्रति उनके मोह की झलक भी मिलती है.कविता में पुत्र को ‘बतरस के रसिया’ पिता द्वारा पुत्र को ‘अघाए हुए और रिरियाते आदमी की हँसी में फ़र्क़ करना’ सीखने की ज़रूरी सलाह के बाद व्यवस्था का नरक भोगते निचले तबके की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने के लिए पिता द्वारा श्रम का सौन्दर्य वर्णित करते हुए कहलवाया गया है :

इसलिए जनता को शास्त्र नहीं
कविता से शिक्षित करो
भिक्षा से मुक्त करो
साधुता वहाँ बसती है
जहाँ जूता गाँठते हैं रैदास
चादर बुनते हैं कबीर.

यह कविता यदि एक ओर मानव जीवन की नश्वरता से हमें रूबरू कराती है वहीं दूसरी ओर अपने सामाजिक दायित्व की भी याद दिलाती है.

‘खजुराहो में मूर्तियों के पयोधर’ कविता पढ़कर संभव है कुछ पुराने प्रगतिशील या जनवादी मिजाज़ के पाठक को इसमें रीतिवाद दिखाई पड़े.किन्तु, हिन्दी समेत दुनिया-भर के परिवर्तनकामी कला और साहित्य का इतिहास इस बात का साक्षी है कि तमाम बड़े कवियों-कलाकारों ने एक से बढ़कर एक ऐन्द्रियगोचर प्रेम एवं सौन्दर्य की कविता रची है और पेंटिंग बनाई है.खजुराहो की प्रस्तर प्रतिमाओं को कुछ लोग बेतुका बताते हैं जबकि अधिकतर कला-प्रेमी इन्हें उत्कृष्ट कला का एक नमूना मानते हैं। मशहूर है कि एक ज़माने में महात्मा गांधी इन मंदिरों की दीवारों को तोड़ना चाहते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि ये अभद्र और शर्मनाक हैं और इसलिए ये ‘भारतीय संस्कृति’ के अनुकूल नहीं हैं.कहा जाता है कि इस मुद्दे पर रवींद्रनाथ टैगोर ने हस्तक्षेप किया और यह कहकर उनकी रक्षा की कि ये हमारे पूर्वजों द्वारा छोड़ी गई असली राष्ट्रीय धरोहर हैं और इन्हें सिर्फ़ इसलिए नहीं तोड़ा जाना चाहिए क्योंकि कुछ लोगों को यह असहज लगता है कि उनके पूर्वज कामुक प्राणी थे।

हिन्दी में नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल,त्रिलोचन एवं शमशेर जैसे प्रगतिशील कवियों की ऐसी अनेक कविताएँ हैं जिनमें स्त्री देह की सौंदर्यबोधात्मक अनुभूति सशक्त रूप में अभिव्यक्त हुई है. दिनेश कुशवाह जब अपनी इस कविता में ‘सद्यःस्नाता की देह से उठती हो नि:शब्द कामनाओं की लौ’ का उल्लेख करते हैं तो इसमें पाठक को महाकवि विद्यापति की ‘सद्यःस्नाता’ की रचनात्मक प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है.

वस्तुत: यह कविता काव्यकला और मूर्तिकला के बीच रचनात्मक सम्बन्ध का नायाब नमूना है.जाहिर है कि दुनिया में ऐसी अनेक कला-प्रतिमाएं एवं चित्र हैं जिनसे प्रेरित और प्रभावित होकर श्रेष्ठ कविताएँ रची गयी हैं. यदि सिर्फ़ एक उदाहरण के माध्यम से बात कहनी हो तो पिकासो की वह कविता देखी जा सकती है जिसकी शुरुवात एक महिला के शरीर के अंगों की गिनती से होती है। पिकासो ने महिला को एक आदर्श के रूप में विखंडित किया है, जिसमें महिला के 'निर्माण खंडों' को सूचीबद्ध किया गया है, न कि अधिक अस्पष्ट अपील को। यह विखंडन उनके ‘लेस डेमोइसेल्स डी'एविग्नन , द ड्रीम’ सरीखे चित्र में देखे गए विखंडन से अलग नहीं है. हालाँकि, उनके कुछ चित्रों की तरह काम एक ऐसे इरादे को छुपाता है जो सौंदर्यशास्त्र से कहीं अधिक पूर्ण हो सकता है।

भोजपुरी का शेक्सपीयर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर की स्मृति में रचित ‘कलकत्ता’ कविता की अंतर्वस्तु अनेकस्तरीय है. एक लम्बे समय तक हिन्दी क्षेत्र में काम के अवसर तथा उचित पारिश्रमिक के अभाव में बहुत सारे कामगारों के पलायन की मंजिल माने जाने वाले कलकत्ता शहर का मतलब बताते हुए कवि लिखता है :

कलकत्ता माने था पिता के लिए
अपने हाथ से बर्तन माँजना
चूल्हा फूँकना, भात पकाना
कलकत्ता माने था हमारे लिए
नये कपड़े, गट्टा-बताशा
छौ-छौ पइसा चल कलकत्ता.

बस सुनता था
कि वहाँ एक रिक्शा होता है
और खींचनेवाला जब पड़ता है बीमार
तो उसे घोड़ों के अस्पताल में
भरती किया जाता है.
छ: छ: पइसा ! छी: छी: एत्ता जंजाल !

तब मैं नहीं जानता था ‘नरसिंहा’ अवतार
पर मेरे सपनों में पिता आते थे बार-बार
आधे घोड़े और आधे आदमी के रूप में हाँफते हुए
तब से अब तक मेरे खून में दौड़ता है कलकत्ता.
कलकत्ता मात्र एक शहर नहीं है हमारे लिए.

गौरतलब है कि भारत में एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रवास मुख्यत: आर्थिक कारणों से होता रहा है. भारत की पिछली जनगणना रपटों से पता चलता है कि रोजगार-प्रेरित पलायन बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्यों की एक आम विशेषता रही है. एक ज़माने में कोलकाता में अनौपचारिक श्रमिकों के पास शहर के बड़े व्यापारिक केंद्रों और छोटी विनिर्माण इकाइयों में रोजगार के अपार अवसर थे । विद्वानों द्वारा वर्ष 1961 से लेकर 2011 तक के डी-सीरीज़ जनगणना डेटा की मदद से कोलकाता में प्रवास के कारणों पर गंभीर अध्ययन किया गया है. बावजूद इसके, शोध क्रम में प्राप्त आंकड़े के तहत कोलकाता महानगर में गैर-बंगाली अनौपचारिक श्रमिकों के प्रवासन पैटर्न के बारे में कोई ठोस निष्कर्ष तक पहुँचा नहीं जा सका. गहन क्षेत्र-सर्वेक्षण के माध्यम से किया गया अध्ययन गैर-बंगाली एकल (परिवार के बिना) पुरुष श्रमिक प्रवासन के प्रभुत्व की पहचान करने और कोलकाता के अनौपचारिक क्षेत्रों में प्रवासन का पता लगाने के लिए बहुत सारे शोध किए गए हैं और विभिन्न दशकों में प्रवासन पर द्वितीयक डेटा और प्राथमिक डेटा का उपयोग करके विद्वानों ने तर्क दिया है कि जो गैर-बंगाली प्रवासी कोलकाता में अनौपचारिक श्रमिक समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं वे विशेष रूप से अविभाजित बिहार और उत्तर प्रदेश के हैं.

कहना न होगा कि इस मुद्दे पर हुए गंभीर अध्ययन में जहाँ आंकड़े महत्त्वपूर्ण होते हैं वहीं बलराज साहनी अभिनीत ‘दो बीघा ज़मीन’ जैसी फ़िल्म और दिनेश कुशवाह की ‘कलकत्ता’ कविता आप्रवासन के संवेदनात्मक पक्ष को सामने लाती है.याद आ सकती है त्रिलोचन की काले काले अच्छर नहीं चीन्हने वाली चम्पा, जिसे अपने पति का कलकत्ता जाना नापसंद है.वह कहती है:

मैं अपने बालम को संग साथ रखूँगी
कलकत्ता मैं कभी न जाने दूंगी
कलकत्ते पर बजर गिरे.

अमूमन हमारे समय के कवियों की रचनाओं में में छंद-तुक-लय को दरकिनार करके कविता के नाम पर विचार परोसने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है.सवाल है कि यदि पाठक तो विचार-प्रधान गद्य ही पढ़ना होगा तो वह इतिहास,राजनीतिशास्त्र,समाजशास्त्र आदि अनुशासनों के तहत बड़े विचारकों द्वारा लिखित अनेकानेक ग्रंथों को छोड़कर कविता क्यों पढ़ेगा.इस बात को शिद्दत के साथ महसूस करते हुए जिन गिने चुने कवियों ने अपनी कृतियों में वैचारिकता को अवबोध में तत्त्वान्तरित करने के बाद उसे काव्य-रूप में ढाला है उनमें दिनेश कुशवाह भी एक हैं. इतना ही नहीं, उनकी कई कविताओं में छंद-तुक-लय का सफलता के साथ निर्वाह करते हुए मानवीय संवेदना के गहनतम तन्तुओं को पुनर्रचित किया गया है.निराला की ‘पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है’ की रचना-परम्परा में उपस्थिति दर्ज़ करती उनकी ‘सुख का बँटवारा’ कविता की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं :

यह मन कहाँ कहाँ भटका है
जीवन ज़हर बहुत गटका है
कोई तो ऐसा भी आता
सपने साझीदार बनाता.

बचपन से दुःख से नाता है
घुमा फिरा घर आ जाता है
उससे लड़ते और झगड़ते
सारा समय चला जाता है.

सबको सुखी देखने का सुख
सबकी हँसी देखने का सुख
इन आँखों में आँज लिया है
काजल जैसा धरती का दुःख.

भयानक जनविरोधी सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थिति में भी आशावाद का बिगुल बजाते रूमानी क्रांतिकारियों से विलग दिनेश कुशवाह का कवि ज़मीनी हक़ीक़त को नज़रंदाज़ किये बगैर यह स्वीकार करने से नहीं हिचकता कि मौजूदा तेज़ाबी यथार्थ ने उन परिवर्तनकामी सपनों को लगभग तार-तार कर दिया है जिसे साकार करने की तमन्ना लिए कई पीढ़ियाँ संघर्षरत रही हैं:

वो भी सपना टूट रहा है
जाने क्या-क्या छूट रहा है
अब तो साथी एक अन्धेरा
सूरज से भी फूट रहा है.

अब भी जग में दुखियारे हैं
कितने क़िस्मत के मारे हैं
सच्चे और मनस्वी लोगों
ने भी कई युद्ध हारे हैं.

दिनकर ने बहुत पहले ‘कुरुक्षेत्र’ में लिखा था कि दुनिया में सुख के साधनों का जब तक समान बँटवारा नहीं होता, तब तक शान्ति संभव नहीं है. इसलिए जनपक्षधर रचनाकारों द्वारा समाज में सुख-शान्ति क़ायम होने की अभिलाषा को मूर्त करने के लिए सपने देखना और उसे क्रियान्वित करने के लिए संघर्ष करना स्वाभाविक है. इस संघर्ष में फ़ौरी कामयाबी हासिल हो,यह ज़रूरी नहीं. पर व्यापक जन समुदाय की बेहतरी के लिए सपना देखना कभी स्थगित नहीं होता.याद आ सकते हैं पाश जिन्होंने कहा है कि “सबसे ख़तरनाक होता है/हमारे सपनों का मर जाना.” पाश समेत दुनिया के तमाम बड़े कवियों की तरह दिनेश कुशवाह भी कवि यह मानता है कि आज न कल यह अँधेरा भी ज़रूर छंटेगा और सुख के साधनों का समानुपातिक बँटवारा होकर रहेगा, जिसके परिणामस्वरूप लोग मारे-मारे नहीं फिरेंगे :

फिर भी है विश्वास कि प्यारे
एक दिन जीतेंगे दुखियारे
फिर सुख का बँटवारा होगा
नहीं फिरेंगे मारे मारे.

‘कानपुर की एक मेहतर बस्ती में रहने के दिन याद करते हुए’ कविता मनुष्य को जन्मना ऊँच-नीच बताने वाली वर्णव्यवस्था के साथ ही प्रतिदिन महानगरों का मैल धोकर उसे साफ़-सुथरा रखने के लिए जिम्मेदार तबके की जीवनस्थिति का यथार्थ चित्रण करने वाली रचना है.कहने की ज़रूरत नहीं कि ऐसा चित्रण केवल वही रचनाकार कर सकता है जिसके पास उस बस्ती में रहने का प्रत्यक्ष अनुभव हो. मेहतर बस्तियों के आसपास से रूमाल से नाक दबाकर या वातानुकूलित बंद गाड़ियों में गुजरने वाले अभिजन वहाँ रहने वाले लोगों की नारकीय जीवनस्थिति का सही अंदाजा नहीं लगा सकते.दिनेश जी की यह रचना किसी अभिजन द्वारा अपने आभिजात्य की दूरबीन से दलित बस्ती को देखकर रचित कविता नहीं है.अमृतलाल नागर रचित ‘नाच्यो बहुत गोपाल’ उपन्यास में आए मेहतर बस्ती के चित्रण से गुज़रते हुए इस सत्य का साक्षात्कार किया जा सकता है कि कैसे दूर बैठकर किसी समुदाय की कठिन जीवनस्थितियों का अंदाजा लगाने वाले लेखक की कृति दिलचस्प होने के बावजूद तथ्य से कोसों दूर हुआ करती है. डॉ.भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि “भारत में, कोई व्यक्ति अपने काम के कारण सफ़ाईकर्मी नहीं है। वह अपने जन्म के कारण मैला ढोने वाला है, चाहे वह मैला ढोने का काम करता हो या नहीं।” उन्होंने जन्म से मनुष्य को ऊँच और नीच बतानेवाली वर्णाश्रमवादी व्यवस्था को प्रश्नांकित करते हुए उसकी तुलना एक ऐसी बहुमंजिली गगनचुम्बी इमारत से की है जिसमें नीचे से ऊपर आने जाने के लिए सीढ़ियाँ नहीं हैं. स्पष्ट ही इसका स्वाभाविक दुष्परिणाम उन तमाम तबके के लोगों को भोगना पड़ता है जिन्हें ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने जन्मना नीच घोषित किया हुआ है.ब्राह्मण बुद्धिजीवियों के बारे में डॉ.आंबेडकर लिखते हैं : “ये लोग सबकी तरफ़ से बात करते हैं,लेकिन पक्ष अपनी जाति का ही लेते हैं.कुछ ब्राह्मण बुद्धिजीवी भी होते हैं,किन्तु वे अस्पृश्यता की भयानकता को मात्र दार्शनिक शब्दावली में स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि अस्पृश्यता से समाज को बड़ा ख़तरा है.”

उल्लेखनीय है कि ‘बाल्मीकि’ शब्द और मैला ढोने के काम को तथाकथित ‘पवित्रता’ का दर्जा देने की असफल कोशिश करते हुए गांधीजी ने कहा था कि ‘मुझे मैला ढोना पसंद है.’ उन्होंने इसकी तुलना एक माँ द्वारा अपने बच्चों के प्रति की गई सेवा से करके इसे महिमामंडित किया था . उनका मानना था कि “एक भंगी समाज के लिए वही करता है जो एक माँ अपने बच्चे के लिए करती है. एक माँ अपने बच्चे की गंदगी धोती है और उसके स्वास्थ्य की सुरक्षा करती है. भंगी भी पूरे समुदाय के लिए स्वच्छता बनाए रखकर उनके स्वास्थ्य की रक्षा करता है।

गांधी ने जाति-स्वीकृत मैला ढोने की प्रथा का यह कहते हुए और भी महिमामंडन करने का प्रयास किया था : “स्वच्छता का यह कार्य कितना पवित्र है! वह कार्य केवल ब्राह्मण अथवा भंगी ही कर सकता है। ब्राह्मण इसे अपनी बुद्धि से कर सकता है, भंगी अज्ञानता में।”. क्या उनका मतलब यह था कि भंगी मैला ढोने का काम इसलिए कर रहे हैं क्योंकि वे अज्ञानी हैं? सवाल यह भी उठता है कि उन्हें अज्ञानी बनाए रखने के लिए कौन जिम्मेदार है?

गांधीजी ने जीवन भर अपनी मांगों के लिए लड़ने के साधन के रूप में 'हड़ताल' के अहिंसक तरीके का इस्तेमाल किया, लेकिन भंगियों के लिए उनकी राय थी कि "एक भंगी एक दिन के लिए भी अपना काम नहीं छोड़ सकता।" उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि यदि भंगी हड़ताल पर चले गये तो क्या होगा. उन्होंने कहा: “मैं भांगियों को पश्चिम के रास्ते अधिकार छीनना सिखाना अपना कर्तव्य नहीं मानता. उस पद्धति से कुछ भी हासिल करना हमारा धर्म नहीं है.’ कहने की ज़रूरत नहीं कि गांधी जी को स्वच्छता के मुकाबले वर्णाश्रम धर्म की चिंता अधिक थी. उन्हें लगता था कि भंगियों को काम से एक दिन की भी छुट्टी मिल जाए तो उन्हें इस गंदे अमानवीय काम के बारे में नए सिरे से सोचने का समय मिल सकता है और हिंदू धर्म की पदानुक्रमित संरचना के लिए चुनौती खड़ी हो सकती है. इसलिए, गांधीजी ने भंगियों को सत्याग्रह में शामिल करने के बजाय इस कार्य की धार्मिक मुहावरे में प्रशंसा करके उन्हें शांत करने को प्राथमिकता दी. भंगियों के आर्थिक सशक्तिकरण के बारे में गांधी का विचार था कि एक भंगी "इससे धन इकट्ठा करने का सपना नहीं देखेगा।"

गांधी के तथाकथित सुधारवादी इरादों की अम्बेडकर ने कड़ी आलोचना करते हुए स्पष्ट कहा था कि इस पेशे के महिमामंडन के बजाए तत्काल प्रभाव से इस पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए. उन्होंने ‘भंगी, झाड़ू छोड़ो’ का नारा भी दिया था.एक लम्बी लड़ाई के परिणामस्वरूप आख़िरकार सन 2013 में संसद द्वारा मैला ढोने की प्रथा को क़ानूनन प्रतिबंधित किया गया.

इस मुद्दे पर गहन शोध करने के बाद ‘अदृश्य भारत’ पुस्तक की लेखिका भाषा सिंह ने विस्तार से बताया है कि कैसे क़ानूनन प्रतिबंधित कर दिए जाने के बावजूद पूरे भारत में हाथ से मैला साफ़ करने की प्रथा पूरी तरह समाप्त नहीं हो पायी है.उनकी पुस्तक जाति-विशेष और उसके मैला ढोने की प्रथा के संबंध को लेकर जुटाए प्रामाणिक आंकड़े पर आधारित है.इसमें एक स्त्रीवादी आख्यान भी है जो जाति और पेशे के आधार पर लोगों को हाशिये पर धकेलने की शिनाख्त करता है.

दिनेश कुशवाह का कवि इन मासूम लोगों की जीवन-स्थिति देखकर विचलित है.वह लिखता है कि अपने पेट में धरती का हैजा पचाते हुए ये लोग एक अंधे कुँए में पड़े हैं:

कुम्भीपाक का रौरव कुछ भी
नहीं होगा इतना भयानक
जिस नरक से जूझते हैं लोग
माँ-बहन–बेटी–बीवी के साथ.
सिर्फ़ इन्होंने देखा है
कैसी होती है पीब-खून-पेशाब और मैले की नदी.

इस नरक में भी अप्सराएँ तलाशते हैं कुलीन
अपनी शवसाधना के लिए.

हिन्दी कविता में केदारनाथ अग्रवाल के यहाँ श्रम के सौन्दर्य को परत–दर-परत उकेरती अनेकानेक कविताएँ मिलती हैं.किन्तु,कुछेक अपवादों को छोड़कर वहाँ कविता में नारेबाज़ी वाला तेवर खटकने लगता है.कहना यह है कि कविता में नारेबाज़ी की औसत उम्र बहुत नहीं होती.आज हम केदार जी को ‘हथौड़े का गीत’ के बजाय ‘तेज़ धार का कर्मठ पानी’ सरीखी श्रेष्ठ कविताओं के लिए ज़्यादा याद करते हैं.

‘श्रम का सौंदर्यशास्त्र’ की कसौटी पर दिनेश कुशवाह की कविता को परखने पर प्रतीत होता है कि कवि ने इन कविताओं के माध्यम से ब्राह्मण के बजाय श्रमण संस्कृति को तरजीह देते हुए कामगार वर्ग की धर्मनिरपेक्षता को रेखांकित किया है.स्पष्ट ही धर्मनिरपेक्षता भारतीय समाज के लिए विकल्प के बजाय बाध्यता है.इसके उलट धार्मिक अंधविश्वास के राजनीतिकरण से उपजा सम्प्रदायवाद उन तमाम श्रम करनेवालों का जीना दूभर कर देता है जो रोज़ पानी पीने के लिए रोज़ कुआँ खोदने को मजबूर हैं. पहले भी और ख़ास तौर से हमारे समय में धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल को उदाहरण देकर समझाने की आवश्यकता नहीं है.इतना ही नहीं, कुम्भ में औसत साधुओं-साध्वियों के साथ ही अरबपति संतो-महंथों में से अनेक ने शास्त्रों का हवाला देते हुए भगदड़ में कुचलकर मारे गए भोलेभाले आस्थावान लोगों द्वारा मोक्ष प्राप्त कर लेने की जो मूर्खतापूर्ण घोषणा की है उसकी चाहे जितनी निंदा की जाए,कम है. ‘इसी काया में मोक्ष’ संग्रह की एक कविता में दिनेश जी ने नैतिक साहस का परिचय देते हुए सत्तासीन होने के लिए ‘व्यक्तिगत आस्थाओं को’ चुनावी राजनीति के तहत इस्तेमाल करने के लिए ‘दंगों की तरह व्यापक बनाते’ निहित स्वार्थी तत्त्वों की बखिया उधेड़ने के बाद गर्मी के मौसम में भाड़ के पास बैठकर असहनीय ताप झेलने वाले भड़भूज को पंचाग्नि तापने वाले साधुओं से श्रेष्ठ घोषित किया है :

जेठ की दुपहरी में
पंचाग्नि तापने वाले
किसी साधु-तांत्रिक–यती से
महान है भड़भूज
मुर्गा खाकर
कलमा डकारने वाले
किसी मुल्ला से महान है बुनकर

किसी साधु-साध्वी, पीर-इमाम की
जागीर नहीं है देश.

हिन्दी में कवियों की याद में कविता रचने की सुदृढ़ परम्परा रही है.इस क्रम में निराला की ‘तुलसीदास’ पर, जानकीवल्लभ शास्त्री,रामविलास शर्मा और शमशेर की निराला पर,नागार्जुन और धूमिल की राजकमल चौधरी पर, शमशेर की मुक्तिबोध पर तथा अरुण कमल की रोमांटिक कवि शेली पर रचित कविताएँ हिन्दी साहित्य की अनमोल धरोहर हैं.दिनेश कुशवाह की ‘पाश के लिए’ कविता को इसी परम्परा की एक नायाब कड़ी के रूप में रेखांकित किया जाना चाहिए जिसमें सुप्रसिद्ध पंजाबी कवि अवतार सिंह संधू उर्फ़ ‘पाश’ को भारत का वाल्टर बेंजामिन बताते हुए उनकी शहादत को याद किया गया है.यह अलग बात है कि पाश की रचनाओं पर पर बेंजामिन के बजाए ब्रेख्त और नेरुदा का असर ज्यादा माना जाता है. विदित है अमेरिका से अपने वीज़ा के नवीनीकरण के वास्ते थोड़े वक्फ़े के लिए पंजाब में जलंधर जिला स्थित अपने गाँव तलवंडी सालेम आए कवि पाश को तेईस मार्च उन्नीस सौ अठ्ठासी को सिख चरमपंथियों ने खालिस्तानी आतंकवाद के सुर में सुर न मिलाने से नाराज़ होकर मात्र सैंतीस वर्ष की आयु में शहीद कर दिया था.

दिनेश जी की ‘पाश के लिए’ कविता में आए बिम्बों में जैसी ऐन्द्रियता है वह नागार्जुन द्वारा एक कविता में कटहल के खुरदुरे छिलके से दरिद्रता की तुलना का स्मरण कराती है.ऐसी ऐन्द्रियता हिन्दी कविता में दुर्लभ है:

जैसे टीसते घाव पर
बार-बार जाता है हाथ
छिले मसूड़े पर
बार-बार जाती है जीभ
वैसे ही मन
तुम्हें बार बार छूना चाहता है

जैसे फटा होंठ
जीभ से तर करने पर
और फटता जाता है
तुम्हारी शहादत से
अंतरतम जितना गीला हुआ है
ह्रदय उतना ही फटता गया है
हमारे बेंजामिन !

सवाल है
हम ज़िन्दा कैसे हैं ?
जवाब तुम हो
‘हम लड़ेंगे साथी’.

पाश की कविताओं में ग्रामीण पंजाब का वर्णन मिलता है। उसमें शहर लगभग अनुपस्थित है। उनका शहर के साथ शायद ही कोई गहरा संपर्क हुआ हो। पाश की सारी कविताएँ सत्य पर आधारित हैं। उन्होंने कभी भी झूठ नहीं लिखा। उन्होंने वही लिखा जो उन्होंने अपने जीवन में अनुभव किया था। उनकी ज़्यादातर कविताओं में कवि का एक पूर्ण विद्रोही के व्यक्तित्व को देखने को मिलता है. भारतीय कविता में वे ऐसी कविता के बीज बोते हैं जो सभी विचारधाराओं की सहजता को स्वीकार करती है।

पाश की कविता में आश्चर्यजनक रूप से भाव-वैविध्य मिलता है. राज्य और उसके संचालकों के प्रति अपनी नफरत और गुस्से के बावजूद पाश का कवि कोमल,प्रसन्न,लालसा के साथ ही कई बार उदासी से भी भरा है। उनकी कई कविताएँ विश्लेषणात्मक और गीतात्मक हैं. उन्होंने कुछ बेहद मार्मिक प्रेम कविताएं भी लिखी हैं.

संक्षेप में कहें तो पाश की कविताएँ अन्य कवियों द्वारा रचित चालू मुहावरों से भिन्न हैं। उनके अनुसार सुंदरता तभी आ सकती है जब हर कोई खुश हो। पाश गरीब लोगों के प्रति बहुत चिंतित थे। चूँकि वे प्रथमत: और अंतत: क्रांतिकारी कवि हैं,इसलिए वे दिनेश जी के प्रिय कवियों में एक हैं.पाश की शहादत भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक एवं राजनीतिक इतिहास की एक बड़ी त्रासदी है जिसे दिनेश जी ने अपनी कविता का विषय बनाया है.

‘इसी काया में मोक्ष’ संग्रह की कविताओं का बीज भाव भी संघर्ष है जिनमें यदि एक और भारतीय सामंती जीवनमूल्यों की पुरजोर मुखालफ़त है तो दूसरी ओर भारत समेत तमाम विकासशील देशों में आतंकवाद को हवा देने वाली साम्राज्यवादी ताकतों को बेनक़ाब करने की सलाहियत भी है.

दिनेश कुशवाह की स्त्री पर केन्द्रित कविताएँ बेशक हमारा ध्यान खींचती हैं. इस सन्दर्भ में रेखा,हेलेन,स्मिता पाटिल,मीना कुमारी आदि सिने तारिकाओं पर रचित कविताओं के आलावा उनकी ‘लड़की और सोना’, ‘लड़की और फूल’, ‘लड़की और रोटी’, ‘लड़की और शब्द’, ‘लड़की और सपने’, ‘प्रेम में पड़ी हुई लड़की’ सरीखी कविताएँ उल्लेखनीय हैं और विश्लेषण के लिए स्वतंत्र विनिबंध की मांग करती हैं. ‘सदी की शुरुआत पर स्त्री के लिए शोकगीत’ कविता के आरंभ में कवि कहता है :

तड़पता रहता है मेरा मन
एक स्त्री को देखने के लिए
जबकि मेरे भीतर बसी हैं असंख्य स्त्रियाँ.

पवन करण की ‘स्त्री मेरे भीतर’ की याद दिलाती इस कविता के नायक को जब प्रेम के बिना जीवन नि:सार लगने लगता है तब मीरा की आँखों में कृष्ण की तरह स्त्री उसके मन में समा जाती है.कवि का कहना है कि समाज में ज़्यादातर लोगों को बस एक स्त्री चाहिए,पर ऐसे बहुत कम लोग हैं जो स्त्री से प्रेम करते हैं.इतना ही नहीं, कवि के शब्दों में “ऐसी स्त्रियाँ भी थीं जिन्हें प्रेम से कुछ लेना देना नहीं था...जो उन्हें मिल गया था वो बहुत था या बहुत कुछ पाने के लिए वे कुछ भी कर सकती थीं.” इस क्रम में कवि लिखता है कि इस स्त्री को जब प्रेम की तलाश होती है तो सारे मर्द उसे एक जैसे लगते हैं “पर उनमें से कुछ इतने प्यारे कि उसे/उन्हें अपनी कोख में रख लेने का मन करता है.” कविता के अंत में कहा गया है :

स्त्री के पास ऊब थी,आदतें थीं,
अजूबे थे,
मोहिनी थी, मर्म था, गृहस्थी थी,
ग़रीबी थी, कठिन संघर्ष थे,
गीत थे,गाने की इच्छा थी
कहीं अमीरी और ऐश भी थे
पर आँसू सब जगह थे.

इन पंक्तियों से गुज़रते हुए मीर के शे’र की याद न आए,यह मुमकिन नहीं :

जिगर में ही इक क़तरा खूँ है सरिश्क
पलक तक गया तो तलातुम किया.

कहने की ज़रूरत नहीं है कि कालांतर में भारत समेत दुनिया-भर में स्त्री-अधिकारों के लिए हुए आन्दोलन के तहत स्त्री के आँसू से घटित हुए ‘तलातुम’ या सामाजिक आलोड़न के मद्देनज़र आधी आबादी के संघर्षों पर केन्द्रित दिनेश कुशवाह की स्त्री-विषयक कविताओं की प्रासंगिकता स्वयंसिद्ध है.यह बात अलग है कि इक्कीसवीं सदी की स्त्री आँसू बहाने के बजाय जयशंकर प्रसाद की मन्दाकिनी के ‘यह कसक अरे आँसू सह जा’ वाले अंदाज़ से आगे बढ़कर गुलामी की तमाम संरचनाओं और ख़ासकर स्त्री-पराधीनता के उन मूलभूत कारणों की शिनाख्त के साथ ही उनसे मुक्ति का मार्ग तलाश करने में संलग्न है जो वस्तुत: पितृसत्ता और बाजारवाद के घातक संयोजन की उपज है.

‘इतिहास में अभागे’ दिनेश कुशवाह का एक महत्त्वपूर्ण कविता संग्रह है जिसका शीर्षक अत्यंत व्यंजक और व्यख्यासापेक्ष है. इतिहास के बारे में आधुनिक इतिहास-दार्शनिकों का कहना है कि वह वर्तमान का अतीत के साथ चलने वाला निरंतर संवाद है. कैंब्रिज विश्वविद्यालय में इ.एच.कार की ‘इतिहास क्या है’ शीर्षक व्याख्यानमाला जब 1961 में प्रकाशित हुई तो उसमें इतिहासदर्शन के बारे में ऐसी अनेक अवधारणाओं का प्रतिपादन किया गया था जिन्हें बाद में विवादास्पद माना गया. अपनी 1967 में प्रकाशित ‘द प्रैक्टिस ऑफ हिस्ट्री’ पुस्तक में जेफ्री एल्टन ने ‘ऐतिहासिक तथ्यों’ और ‘अतीत के तथ्यों’ के बीच मनमाना अंतर के लिए इ.एच.कार की आलोचना करते हुए कहा कि उनका अतीत और उसका अध्ययन करने वाले इतिहासकार, दोनों के प्रति एक असाधारण अहंकारी रवैया रहा है. पर एल्टन ने इतिहास में ‘दुर्घटनाओं’ की भूमिका को खारिज़ करने के लिए उनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि इतिहास दर्शन के क्षेत्र में ‘प्रगति’ पर बल देने के साथ ही ईश्वरीय इच्छा वाले इतिहास के मध्ययुगीन दृष्टिकोण को नकार कर उन्होंने इतिहास-प्रक्रिया को एक धर्मनिरपेक्ष संस्करण प्रदान करने की कोशिश की.

यह ठीक ही कहा गया है कि जिसका कोई इतिहास नहीं होता,उसका कोई भविष्य भी नहीं होता.इसलिए सच्चा इतिहास अतीत के बजाए भविष्य का होता है. अधिकतर इतिहास-दार्शनिकों का मानना है कि अतीत पर वर्तमान के नज़रिए से विचार करने के क्रम में सबक लेकर बेहतर भविष्य के निर्माण के लिए ही इतिहास लिखा जाता है.इतना ही नहीं, बड़े इतिहासकारों द्वारा इतिहास लिखने का कोई न कोई महान उद्देश्य अवश्य होता है और उनमें नैतिक चेतना भी होती है.अमूमन यह भी माना जाता है कि कोई चाहकर भी इतिहास के बाहर नहीं जा सकता. बावजूद इसके, आक्टोवियो पाज़ की इस मान्यता को खारिज़ नहीं किया जा सकता कि दुनिया के बड़े लेखकों की श्रेष्ठ कृतियाँ इतिहास-प्रक्रिया से गुज़रती हुई उसका अतिक्रमण करती हैं.

सवाल उठता है कि इतिहास-चेतना से लैस दिनेश कुशवाह की ‘इतिहास में अभागे’ कविता क्या इतिहास-प्रक्रिया के एक से बढ़कर एक त्रासद विवरण के बाद इतिहास का अतिक्रमण कर पाती है.उसमें समाजशास्त्रीय प्रामाणिकता और सौन्दर्यबोधात्मक संवेदनशीलता के बीच क्या समानुपातिक संबंध है.दूसरे शब्दों में उसमें इतिहास-चेतना के साथ क्या वह कला-चेतना है जो किसी कविता को युगांतरकारी या कालजयी बनाती है. वस्तुत: यह यक्ष प्रश्न है और प्रबुद्ध पाठकों के विवेक को नज़रंदाज़ करके इसका हड़बड़ी में उत्तर देना आलोचना की विश्वसनीयता को कठघरे में खड़ा करना होगा.विजयदेव नारायण साही की शब्दावली में कहें तो कभी-कभार ‘रेडियो की सुई को उचित लहरमान पर लगा-भर देना’ आलोचना की विश्वसनीयता के लिए बेहतर होता है.

कवि दिनेश कुशवाह की इतिहास-चेतना के तहत इस रचना में ऐसे तमाम स्त्री-पुरुषों और समाज का तलछट माने जाने वाले जनसमुदाय का ज़िक्र आया है जिनके योगदान को सामंती दृष्टिकोण से लिखित इतिहास में जानबूझकर भुला दिया जाता है :

वे अभागे कहीं नहीं हैं इतिहास में
जिनके पसीने से जोड़ी गई
भव्य प्राचीरों की एक–एक ईंट
पर अभी भी हैं मिस्र के पिरामिड
चीन की दीवार और ताजमहल.

इसके साथ ही रजवाड़ों में तरह-तरह से दलन, दमन और यौन-प्रताड़ना झेलती आम औरतों की व्यथा-कथा बयान करते हुए कवि कहता है:

इतिहास के नाम पर मुझे
याद आती हैं वे अभागी बच्चियाँ
जो राजे-रजवाड़ों के धायघरों में पाली गईं
और जिनकी कोख को कूड़ेदान बना दिया गया था.

हमारी बहुएँ और बेटियाँ
जिन्हें अपनी पहली सुहागिन-रात
किसी राजा-सामंत
या मंदिर के पुजारी के
साथ बितानी पड़ी
इस धरती को उनके लिए नहीं कहते भारतमाता.

कविता में चित्रण के स्तर पर यथातथ्यता और मूल्य-निर्णय की दृष्टि से प्रतिबद्धता के कारण यह रचना नागार्जुन की ‘पाँच पूत भारतमाता के दुश्मन था खूंखार’ या रघुवीर सहाय की ‘राष्ट्रगीत में भला कौन यह भारत भाग्य विधाता है/फटा सुथन्ना पहने जिसका गुण हरचरना गाता है’ से आगे की कविता है. सच तो यह है कि मानव इतिहास का अधिकांश इतना अमानवीय और बदतर है कि लाभ-लोभ के व्याकरण से परिचालित होकर कवित्व का निर्वाह करने के लिए उसे नज़रअंदाज़ करके बिम्बों-प्रतीकों की माला रचने वाले दुनियादार और व्यावहारिक लेखकों को हास्यास्पद हो जाने से कोई रोक नहीं सकता.याद आ सकते हैं मार्क्स,जिन्होंने तथाकथित व्यावहारिक लोगों पर तंज़ करते हुए लिखा है कि “मुझे तथाकथित 'व्यावहारिक' लोगों और उनकी बुद्धिमत्ता पर हँसी आती है. यदि कोई जानवर की तरह जीना चाहता है, तो स्वाभाविक रूप से उसे मानवता की पीड़ा से मुँह मोड़ लेना चाहिए और केवल अपनी त्वचा की परवाह करनी चाहिए.” ऐसे में जन-प्रतिबद्ध ईमानदार रचनाकार कवित्व के बजाय ‘कठिन-कठोर गद्य’ लिखते हुए चीज़ों को उनके सही नाम से पुकारना ज़्यादा सही समझते हैं.वजह यह कि बकौल सुकांत भट्टाचार्य, “भूख के राज्य में पृथ्वी गद्यमय है/पूर्णिमा का चाँद जैसे झुलसी हुई रोटी है.”

इसके साथ यह भी ध्यान देने की बात है कि समाज में अमूमन जिन्हें ‘अभागा’ कहा या मान लिया जाता है वे वस्तुत: सदियों से इतिहास-प्रक्रिया के दुष्चक्र में पिसने के लिए अभिशप्त जन हैं, जिनके मन-मष्तिष्क को समाज के प्रभुत्वशाली तबके द्वारा यथास्थिति को स्वीकार कर लेने के लिए अनुकूलित करने की साजिश के तहत बहुत सोच-समझकर धर्मग्रंथों में ‘भाग्य’ की अवधारणा निर्मित की गयी है. बालज़ाक ने सही लिखा है कि “हरेक सौभाग्य के पीछे कोई न कोई अपराध होता है.” विदित है कि वर्चस्वशाली वर्ग के लोगों दवारा किए जाने वाले अपराध का दायरा हत्या,लूट,यौन हिंसा आदि से लेकर आर्थिक अपराध तक फैला हुआ होता है.ऐसे लोगों का भाग्योदय तब तक होता रहता है जब तक वे क़ानूनी चंगुल में नहीं फँसते और उन पर कोई कठोर कार्रवाई नहीं होती.संस्कृत में तो यहाँ तक कहा गया है कि स्त्री के चरित्र तथा पुरुष के भाग्य का अनुमान मनुष्य तो क्या देवता भी नहीं लगा सकते हैं :“त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यम देवौ ना जानाति कुतो मनुष्यः” कहने की ज़रूरत नहीं कि आज ऐसे बयानात क़ाबिल-ए-क़ुबूल नहीं हो सकते. कुल मिलाकर ‘इतिहास में अभागे’ कविता का मूल संदेश यह है कि सदियों से व्यवस्था का नरक भोगने को अभिशप्त जिन समुदायों को समाज के वर्चस्वशाली तबके द्वारा तथाकथित शास्त्रीय प्रमाण उद्धृत करके हतभाग्य कहा या माना जाता रहा है, वे वस्तुत: प्रताड़ित जन हैं जिनकी मुक्ति के बगैर मनुष्यता के इतिहास के आरंभ का हर दावा बेमानी है. मार्क्स ने सही लिखा है कि ‘अब तक मौजूद सभी समाज का इतिहास वर्ग- संघर्षों का इतिहास है.’ दिनेश कुशवाह की कविता में वह वर्ग-चेतना मौजूद है जो अनुकूल समाजार्थिक-राजनीतिक माहौल पाकर जब जीवंत होती है तो वर्ग संघर्ष का कारण बनती है.इस क्रम में अंतिम बात यह कि इस संग्रह की कविताएँ इस बात का सबूत हैं कि कवि के भीतर रूढ़िवादी मार्क्सवादियों की तरह वर्ग और वर्ण को लेकर कोई ऊहापोह नहीं है.उसे पता है कि वर्ग के भीतर भी जातिगत भेदभाव होता है और जाति में बंटे समाज में भी वर्ग के आधार पर अलग-अलग तबके हुआ करते हैं. ‘बहेलियों को नायक बना दिया’ कविता में आदिकवि से शिकायती लहजे में संवाद स्थापित करते हुए इक्कीसवीं शताब्दी का कवि कहता है :

क्षमा करें आदिकवि !
आजतक एक भी बहेलिया
नहीं हुआ अप्रतिष्ठित
शिकारी राजा को अक्सर ऋषि
शाप नहीं देते

इस कविता में सामंती-पुरोहिती अपवित्र गठबंधन की बख़िया उधेड़ते हुए कवि का मानना है कि जाल में चिड़िया फँसाने वाले या मछली मारने वालों को व्याध कहना और शिकार को खेल कहना यदि एक ओर भुखमरों पर एक तरह की ज्यादती है तो दूसरी ओर बेगुनाह के वध को मनोरंजन बताना है. ‘ईश्वर के पीछे’ कविता में यही बात बेहद तल्ख़ स्वर में कही गयी है. श्रीमद्भगवत गीता में कहा गया है कि ईश्वर सब प्राणियों के ह्रदय में विराजमान है. शरीररुप यंत्र पर आरुढ़ हुए सब प्राणियों को अपनी माया के ज़रिए वह घुमाता रहता है:

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढ़ानि मायया ॥

बौद्ध धर्म के निरीश्वरवाद की ज़मीन पर खड़े होकर ईश्वर की सर्वव्यापकता के बारे में ऊपर उद्धृत श्लोक के साथ ही ‘हरि व्यापक सर्वत्र समाना’ सरीखी लोकप्रिय धारणा का प्रत्याख्यान करते हुए दिनेश कुशवाह प्रकारांतर से सामंती-पुरोहिती गठजोड़ को बेनक़ाब करते हुए लिखते हैं:

ईश्वर के अदृश्य होने के अनेक लाभ हैं
इसका सबसे बड़ा फ़ायदा
वे लोग उठाते हैं
जो हर घड़ी यह प्रचारित करते रहते हैं
कि ईश्वर हर जगह और हर वस्तु में है

इससे सबसे अधिक ठगे जाते हैं वे लोग
जो इस बात में विश्वास करते हैं कि
भगवान हर जगह है,और
सब कुछ देख रहा है.

ईश्वर के पीछे मजा मार रही है
झूठों की एक लम्बी जमात
एक सनातन व्यवसाय है
ईश्वर का कारोबार.

गौरतलब है कि इस कविता में ईश्वर के नाम पर तथाकथित धर्मयुद्ध का एलान करने वाले आतंकवादी एवं चरमपन्थी संगठनों के साथ ही साम्राज्यवादी ताकतों का भी पर्दाफ़ाश किया गया है. आकस्मिक नहीं है कि यह कविता संसार से सुप्रसिद्ध भौतिकशास्त्री स्टीफेन हाकिंग को समर्पित है,जो विकलांग थे और अपने ‘ब्लैक होल’ विषयक खोज के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने ‘बड़े प्रश्नों के संक्षिप्त उत्तर’ (ब्रीफ़ आंसर्स टू द बिग क्वेश्चन्स) पुस्तक में धर्मशास्त्रों में बहुविध विवेचित ‘ईश्वर दवारा संसार की सृष्टि करने’ या ‘ख़ालिक’ होने जैसी धारणा पर सवाल खड़ा करते हुए भाग्य या नियति आदि से जुड़ी मान्यताओं का पुरजोर तरीके से खण्डन किया है.दिवंगत होने के पहले उन्होंने लिखा : “शताब्दियों से मेरी तरह के विकलांग जनों के बारे में माना जाता था कि उन्हें दैवी अभिशाप के कारण ऐसा जीवन प्राप्त हुआ है.जबकि मैं हर चीज़ को प्रकृति के नियमों के तहत भिन्न तरीके विश्लेषित करने का पक्षधर हूँ.” दिनेश जी की इस कविता के साथ उनकी ‘हरिजन देखि प्रीती अति बाढ़ी’ और ‘महिला सरपंच को निर्वसन घुमाए जाने पर’ सरीखी कई कविताएँ पढ़ने से पता चलता है कि समाज में जन्म के आधार पर निम्न मान लिए गए लोगों के प्रति होने वाले अन्याय के साथ-साथ कवि जेंडर पर आधारित भेदभाव,प्रताड़ना और चरित्र हनन करने वाली पितृसत्तात्मक मनोवृत्ति के विरुद्ध भी हमेशा खड्गहस्त रहा है:

बोलती औरत को चुप कराने का
एकमात्र हथियार बेहयाई है.

विवेच्य संग्रह की ‘प्राणों में बाँसुरी’ कविता पढ़ते हुए नागार्जुन की ‘बहुत दिनों बाद’ और ‘तबियत खिल गयी’ कविता की बेसाख्ता याद आती है,जिसमें प्रकृति से विच्छिन्न तथाकथित सभ्य एवं संभ्रांत वातावरण में ज़िन्दगी जीने वाले तथाकथित खुशहाल लोगों की चेतना पर आधुनिकता के गर्द-ओ-ग़ुबार जम जाने के चलते उनके भीतर पैदा हुए ख़ालीपन के एहसास को व्यंजित किया गया है:

कितने दिन हुए
न रोमांच हुआ
न जी टीसा
न प्राणों में बाँसुरी बजी

कितने दिन हुए
न खुलकर रोया
न खुलकर हँसा.

याद रहे कि इस कविता का सुर मंगलेश डबराल की उस कविता से थोड़ा भिन्न है जिसमें ‘रचना की ऋतु’ बीत जाने के बाद किसी रचनाकार की मन:स्थिति का मार्मिक चित्रण है:

बाहर एक बाँसुरी सुनाई देती है
एक और बाँसुरी है
जो तुम्हारे भीतर बजती है
और सुनाई नहीं देती

एक दिन बहुत वह चुप हो जाती है
तब सुनाई देता है उसका विलाप
उसके छेदों से गिरती है राख़.

अंतर्पाठीयता दिनेश कुशवाह की कविताओं की अनेक उल्लेखनीय विशेषताओं में एक है. उनकी कविता में आर्ष ग्रंथों से लेकर नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल,केदारनाथ सिंह,काशीनाथ सिंह सरीखे अनेक लेखकों की रचनाओं के संवेदन-तंतु के साथ ही भाषिक संरचनाएँ भी विद्यमान हैं.दूसरे शब्दों में पेशे से विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर होने के साथ ही वे बहुत पढ़ेलिखे कवि हैं.यह बात इसलिए लिखनी ज़रूरी है क्योंकि कुछेक अपवादों को छोड़कर हमारे समय में प्रोफेसर होना दुर्भाग्यवश अन्य नौकरियों की तरह महज एक नौकरी है और हिन्दी में कविता लिखना कई लोगों के लिए पढ़ेलिखे लोगों के बीच अपना ‘व्यक्तित्व बनाने’ और ‘चरित्र चमकाने’ का जरिया बनकर रह गया है. दिनेश कुशवाह की कविता की जड़ें भारतीय कविता की महान परम्परा में गहरे धँसी हैं.बावजूद इसके परम्परा के प्रति उनका रुख अंधस्वीकार या अंधनकार के बजाए आलोचनात्मक है.उन्हें पता है कि परम्परा जब अपनी गत्वरता खोकर रूढ़ि बन जाती तो नीर-क्षीर विवेक से उसका प्रत्याख्यान करते हुए अपने समय के यथार्थ का पुनर्सृजन किसी भी कृती कवि के लिए आवश्यक हो जाता है.

(दिनेश कुशवाह: ‘इसी काया में मोक्ष’ एवं ‘इतिहास में अभागे’ कविता संग्रह , राजकमल प्रकाशन. दिल्ली)