दिन-प्रतिदिन नागपंचमी / जयप्रकाश चौकसे

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दिन-प्रतिदिन नागपंचमी
प्रकाशन तिथि :06 अगस्त 2016


मदारी कीबीन की धुन पर सांप नहीं डोलता। वह मदारी की डोलती गर्दन की नकल करता है। शशधर मुखर्जी की पांचवें दशक में बनी वैजयंतीमाला अभिनीत 'नागिन' में मदारी की बीन की ध्वनि कल्याणजी भाई नामक वादक ने क्ले-वायलिन नामक नए आयात किए वाद्य से रची थी। विविध ध्वनियों को निकालने वाला यह यंत्र उन्हीं दिनों पहली बार आयात किया गया था। कालांतर में कल्याणजी भाई वादक से संगीतकार बने और बाद में अपने छोटे भाई आनंदजी के साथ उन्होंने जोड़ी बना ली। निशीकांत कामत की फिल्म 'मदारी' के नायक ने अपने पुत्र को एक पुल के यकायक टूट जाने की दुर्घटना में खोया था और वह उस मंत्री के बेटे का अपरहण कर लेता है, जिसने पुल के निर्माण में घूस खाई है। फिल्म के क्लाइमैक्स में वह सारे भ्रष्ट मंत्री, अफसर ठेकेदारों की असलियत सरे आम उजागर करता है। नसीरुद्‌दीन शाह और अनुपम खेर अभिनीत 'वेडनेसडे' में भी एक आम आदमी व्यवस्था को हिलाकर रख देता है और इसी तर्ज पर अनेक फिल्मों की शृंखला की ताज़ी कड़ी है 'मदारी' परंतु चिंताजनक बात यह है कि भ्रष्टाचार विरोधी फिल्मों को अवाम सराहता जरूर है परंतु किसी की सोच में कोई परिवर्तन नहीं होता। क्या भ्रष्टाचार, संगीत के 'स्थायी' की तरह सदैव अपरिवर्तित रहने वाला है? समस्या की जड़ में सांस्कृतिक मूल्यों का पतन है परंतु 'संस्कृति' शब्द के इस्तेमाल से डर लगता है, क्योंकि एक दल ने इस पर अपना एकाधिकार-सा कर लिया है और इसके अर्थ को संकीर्ण कर दिया है।

हम सब बीन की ध्वनि से मंत्रमुग्ध हैं और केवल बजाने वाला बदलता है परंतु धुन वही रहती है। अब तो प्रतिदिन ही नाग पंचमी है और हम श्रद्धाभाव से उन्हें दूध पिलाते हैं। सांप आख्यानों में महत्वपूर्ण है। विष्णु शय्या सांप ही है। यह भी हम मानते हैं कि अंधेरे में पकड़ी रस्सी को मनुष्य सांप समझकर घबरा जाता है, कुछ तो मर भी जाते हैं परंतु पोस्टमार्टम में सांप का जहर नहीं मिलता। पोस्टमार्टम प्रक्रिया का संबंध केवल शरीर से है, मन में बसे भय उससे उजागर नहीं होते। शैलेंद्र की काला बाजार के लिए लिखी पंक्तियां हैं... 'मोह मन मोहे, लोभ ललचाए कैसे कैसे ये नाग लहराए मेेरे दिल ने ही जाल फैलाए'

असल बात यही है कि मन ही सारे भ्रम रचता है, लालच पैदा करता है और हमारी इन कमजोरियों के कारण हम ठगे जाते हैं। सारे भ्रष्ट नेताओं को हमने ही चुना है। हमारी बजाई तालियां ही बौने लोगों को भव्य बना रही हैं। फिल्म इस तथ्य को भी रेखांकित करती है कि अपहरण करने वाले और किए गए व्यक्ति के बीच एक समझदारी और परस्पर लगाव पैदा हो जाता है। इस फिल्म के अंतिम दृश्य में मंत्रीजी का अपहरण किया गया बच्चा दौड़कर अपहरण करने वाले के गले लगता है। वह जान चुका है कि इस व्यक्ति के साथ अन्याय हुआ है और उसका अपना पिता ही अनेक लोगों को हानि पहुंचाता रहा है अर्थात नायक और खलनायक की भूमिकाओं में उलटफेर हो चुका है। क्या अब यह बालक अपने घर में अपनी मां के साथ मिलकर अपने भ्रष्ट मंत्री पिता के खिलाफ युद्ध करेगा? इससे भी अधिक बड़ा प्रश्न है कि क्या यह बच्चा वयस्क होकर आदर्श मनुष्य और कर्तव्यपरायण नागरिक बनेगा? क्या जीवन मूल्यों की वापसी इस तरह होना संभव है?

याद आता है कि 1973 में 'जंजीर' के बाद नायक की आक्रोश की मुद्रा बॉक्स ऑफिस पर धन की वर्षा कर रही थी परंतु उस आक्रोश के कारण व्यवस्था बदली तो नहीं वरन उसका और अधिक पतन हो गया है। आक्रोश की फिल्म शृंखला में 'कालिया' नामक फिल्म बनी जिसका नायक कहता है कि कतार वहीं से शुरू होती है, जहां वह खड़ा होता है। तमाम आक्रोश वाली फिल्में अराजकता की हिमायत करती नज़र आती हैं और इसी तर्ज पर अब अपहरण करने वाला भी अराजकता समर्थक बनता जा रहा है। हमारे देश में गणतांत्रिक प्रणाली को अपराध की गंगोत्री की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है। हमने डेमोक्रेसी के भारतीय संस्करण को अपराधमय कर दिया है। इस तरह की सारी फिल्में अनाम तानाशाह के नाम लिखे निमंत्रण-पत्र की तरह नज़र आने लगी हैं। जब हमने अपने धर्म के उदात्त स्वरूप को भी बौना कर दिया तो फ्रांस की क्रांति के फलस्वरूप पैदा हुई डेमोक्रेसी की क्या औकात है? यह भारत तक सीमितनहीं है, क्योंकि अमेरिका में ट्रम्प की जीत भी संकीर्णता की अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर स्थापना की तरह हो सकती है। हर क्षेत्र में कोई मदारी बीन बजाता नज़र रहा है और हम बीन की ध्वनि के सामने मंत्रमुग्ध होकर डोलते से नज़र रहे हैं।