दिया टिमटिमा रहा है / विद्यानिवास मिश्र
लोग कहेंगे कि दीवाली के दिन कुछ अधिक मात्रा में चढ़ा ली है, नहीं तो जगर-मगर चारों और बिजली की ज्योति जगमगा रही है और इसको यही सूझता है कि दिया, वह भी दिए नहीं, दिया टिमटिमा रहा है,पर सूक्ष्म दृष्टि का जन्मजात रोग जिसे मिला हो वह जितना देखेगा, उतना ही तो कहेगा। मैं गवई-देहात का आदमी रात को दिन करनेवाली नागरिक प्रतिभा का चमत्कार क्या समझूँ? मै जानता हूँ, अमा के सूचीभेद्य अंधकार से घिरे हुए देहात की बात, मैं जानता हूँ, अमा के सर्वग्रासी मुख में जाने से इनकार करने वाले दिए की बात, मै जानता हूँ बाती के बल पर स्नेह को चुनौती देनेवाले दिए की बात और जानता हूँ इस टिमटिमाते हुए दिए में भारत की प्राण ज्योति के आलोक की बात। दिया टिमटिमा रहा है! स्नेह नहीं, स्नेह तलछट भर रही है और बाती न जाने किस जमाने का तेल सोखे हुए है कि बलती चली जा रही है, अभी तक बुझ नहीं पाई। सामने प्रगाढ़ अंधकार, भयावनी निस्तब्धता और न जाने कैसी-कैसी आशंकाएँ! पर इन सब को नगण्य करता हुआ दिया टिमटिमा रहा है…
सुनना चाहेंगे इस दिए का इतिहास? तो पहले रोमक इतिहासकार प्लिनी का रुदन सुनिए। भारतवर्ष में सिमिट कर भरती हुई स्वर्ण-राशि को देखकर बेचारा रो पड़ा था कि भारत में रोमक विलासियों के कारण सारा स्वर्ण खिंचा जा रहा है, कोई रोक-थाम नहीं। उस दिन भी भारत में श्रेष्ठी थे और थे श्रेष्ठिचत्वर, श्रष्ठि-सार्थवाह और बड़े-बड़े जलपोत, बड़ी-बड़ी नौकाएँ और उनको आलोकित करते थे बड़े-बड़े दीपस्तंभ। स्कंदगुप्त का सिक्का 146 ग्रेन का था, कब? जबकि भारतवर्ष की समस्त शक्ति एक बर्बर बाढ़ को रोकने में और सोखने में लगी हुई थी। 146 ग्रेन का अर्थ कुछ होता है… आज के दिए को टिमटिमाने का बल अगर मिला है तो उस जल-विहारिणी महालक्ष्मी के आलोक की स्मृति से ही, और भारत की महालक्ष्मी का स्त्रोत अक्षय है, इसमें भी संदेह नहीं। बख्तियार खिलजी का लोभ, गजनी की तृष्णा, नदिरशाह की बुभुक्षा और अंग्रेज पंसारियों की महामाया के उदर भरकर भी उसका स्त्रोत सूखा नहीं, यद्यपि उसमें अब बाहर से कुछ आता नहीं, खर्च-खर्च भर रह गया है। हाँ, सूखा नहीं, पर अंतर्लीन आवश्य हो गया है और उसे ऊपर लाने के लिए कागदी आवाहन से काम न चलेगा। कागदी आवाहन से कागदों के पुलिंदे आते हैं, सोने की महालक्ष्मी नहीं। आज जो दिया अपना समस्त स्नेह संचित करके यथा-तथा भारतीय कृषक के तन के वस्त्र को बाती बनाकर टिमटिमा रहा है, वह इसी आशा से कि अब भी महालक्ष्मी रीझ जायँ, मान जायँ। उसका आवाहन कागदी नहीं, कागद से उसकी देखा-देखी भी नहीं,जान-पहचान नहीं, भाईचारा नहीं; उसका आवाहन अपने समस्त हृदय से है, प्राण से है और अंतरात्मा से है। इस मिट्टी के दिए की टिमटिमाहट में वह शीतल ज्वाला है, जो धरती के अंधकार को पीकर रहेगी और बिजली के लट्टुओं पर कीट-पतंग जान दें या न दें, यह शीतल ज्वाला समस्त कीट-पतंगों की आहुति ले के रहेगी। चलिए, केवल शहर के अंदेश से दुबले न बनिए, तनिक देहात की भी सुधि लीजिए।
आज देहात में क्या है और क्या नहीं है, यह बात दूँ? देहात में है वयस्क मताधिकार के अनुसार चुनी गई गाँव-सभाएँ और न्याय-पंचायतें, जिनमें बकरी और मुर्गी तक पर कर लगाया जा चुका है और'सरवा ससुरा' कहने पर भी अंतिम अर्थ-दण्ड, वर वसूली इनकी कुल दस प्रतिशत हुई है, अधिक नहीं। देहात में हैं, बिखरे हुए सफेदपोश, जिसके कारण हाट में साग-भाजी भी वही ला पाते हैं, जिनका पेटा बड़ा है, टुटपुँजिहे लोग साग-भाजी भी बेचकर अपनी गुजर नहीं कर सकते हैं। देहात में है, झिनकू साह की फूलती-फलती हुई बिरादरी जिनकी बाँस की पेटी तक मोटे-मोटे भुजाएठों से, हँसुलियों से और कंठहारों से लेकर हलकी नकबेसर, लौंग कनफूल, बेंदी और झूमर से ठसाठस भर गई हैं और मैली पैबंदी लगी हुई चौबंदी को बिदाई मिल गई है, उसके स्थान पर बँगला कुर्ते ने अपना आलोक दिखाया है। देहात में आपको नहीं मिलेगी हँसती-खेलती जवानी, क्योंकि धरती की लक्ष्मी रूठ गई है, और अब पेट आधा-तीहा भरने के लिए उसे मलेरिया के विलास-काननों में जाकर आराकसी करना पड़ता है, या कचरापाड़ा तथा जमशेदपुर की भट्ठियों में तपना पड़ता है। देहात में आज आपको नहीं मिलेगी अलाव की अलमस्त चर्चा और अलाव के आलोक में उज्जवल मुखाभा, वहाँ आगम का अंधेरा है, गहरी निराशा है और अत्यंत क्षीण साहस। जहाँ एक और आनेवाले आम चुनाव के लिए अभी से देश के हितैषियों में सीटों की बंदरबाँट की धूम मची हुई है और अखबारों में सिद्धांतों की धमाचौकड़ी भी, वहाँ जिनके लिए यह सब कुछ हो रहा है,जिनके नाम पर यह सब कुछ किया जा रहा है, वे अकाल की छाया में घिरते चले जा रहे हैं बेहोशी और बेकसी के साथ।
चलिएगा इस देहात में? वहाँ इस समय दूध की धार नहीं मिलेगी, पेड़ की पत्ति से बना हुआ तरल-सा रक्त मिलेगा, कुछ सफेदी लिए हुए! वहाँ 'सजाव दही' परोसने वाले 'बाँके नैन' नहीं मिलेंगे, वहाँ मिलेंगे छाछ के लिए तरसनेवाले, छीना-झपटी करनेवाले मुरझाते हुए दुध के दाँत। भारतवर्ष में हथिया खाली हाथ आई है और खाली हाथ गई है, इसका परिणाम बैठे-बैठे आप नहीं समझ सकते, वहाँ चलकर देखिए कि कातिक आ गया, अभी डीभी उचम्हती नहीं नजर आती, अगहनी में भैंसों की दावन पड़ी हे,उस अगहननी में आदमी की हँसिया नहीं लग सकती। बाजरा ईंधन की समस्या शायद हल कर दे पर उदर की समस्या हल करने से वह भी इंकार कर रहा है। वहाँ गऊचोरी का सुसंगठित व्यवसाय करनेवाले भी आज दिन प्रसन्न नहीं, क्योंकि आज कोई अपने बैल को किसी भी दाम पर चोर के यहाँ से वापिस लाने के लिए उत्कंठित ही नहीं है, क्योंकि भूसा चूक गया है, आगे कोई आशा नहीं, खरीफ की फसल बाढ़ में गई, बची-खुची सूखा में गई, रबी जनमते ही पाथर हो गई। पर दिया टिमटिमा रहा है!
बंकिम बाबू ने यमुना की सीढ़ियों पर इसी अमा की अँधेरी रात में भारत की राजलक्ष्मी को नूपुर उतारकर चुपचाप उतरते देखा था। सुना कि राजलक्ष्मी भारत की इंद्रपुरी में लौट आई है, किंतु माइक की प्रसारित ध्वनि संभवत: उन वधिर कानो तक नहीं पहुँच है, जो युद्धोत्तर भारत में किसी नए परिवर्तन का आभास भी नहीं पा सके हैं। उनके लिए संभवत: राजलक्ष्मी अभी नहीं आई हैं। कुम्हार का चक्का अब नहीं घूमता और माटी की घंटी अब नहीं बजती, पटवारी को चुटकी भर चीनी के लिए चाँदी चढ़ाने कोई नहीं जाता, क्यों? इसीलिए कि राजलक्ष्मी के आने का डिंडिम-नाद अभी इन अभागों के कानों में नहीं पहुँच सका है, पता नहीं उस डिंडिम-नाद का दोष है या इन कानों का, इसकी मीमांसा करने की आवश्यकता भी नहीं। पर सच बात यह है कि राजलक्ष्मी के पधारने के शुभ-संदेश उनके पास पहुँचाया भी जाए, तो वह इनके हृदय में उतर नहीं सकता। ये उस राजलक्ष्मी के आने की प्रतीक्षा में हैं जो अमावस्या के गहन अंधकार में ही आ सकती है, जो घर पर ही आ सकती है और जो गोबर का गोवर्धन बन कर छोटी से छोटी अन्न की डेहरी में ही जा सकती है। ये अभ्रंलिह प्रासादों की विद्युत्द्योतित सौधपंक्तियों पर मणिनूपुरों की झंकार के साथ उतरनेवाली राजलक्ष्मी को नहीं जानते, उनसे इनका कोई सामान्य परिचय भी नहीं।
इन बेचारों के छोटे-से हृदय में इतनी बड़ी रूपहुली राजलक्ष्मी का चित्र बस नहीं पाया, यह इनका दोष नहीं, इनके उन जले अतीत के संस्कारों का दोष है, जो अपने राजाराम और उनके रामराज्य का पल्ला क्षण भर के लिए भी नहीं छोड़ना चाहते। राजाराम जो बाती उकसा गए, वह किसी के भी बुझाए बुझना नहीं चाहती और दिया टिमटिमा रहा है, स्नेह के बल पर नहीं, बाती के बल पर नहीं, किसी नई आशा के बल पर नहीं, बल्कि उस उकसान के बल पर जो इसे राजाराम के हाथों से मिल चुकी है। इन दिए को गुल करनेवाले सपूत भी मौजूद हैं, जो नए इंसान के लिए सबसे बढ़िया जग मसान मानते हैं,जिन्हें अतीत के ध्वंस में मंगल की सृष्टि दिखाई पड़ती है। वे सपूत भी भर आँख इस दिए की ज्योति निहारें तो उनकी आँखें जुड़ा जाएँ।
तो राजलक्ष्मी को अगर सौ बार गरज है कि अपने आने का संदेश उसे इन वधिरों तक, इन अंधों तक भी पहुँचाना है और वे अगर यह समझती हैं कि बिना इन तक संदेश पहुँचे उनके आने का कोई महत्व नहीं है, तो मैं कहता हूँ कि उन्हें उसी रूप में आना होगा, जो इनकी कल्पना में सरलता से उतर सके। ये डॉलर-क्षेत्र नहीं जानते, ये पौंड-पावना से सरोकार नहीं रखते, इन्हें मुद्रास्फीति का अर्थ नहीं मालूम, पर इतना समझते हैं कि कागदों का अंबार राजलक्ष्मी का शयन-कक्ष नहीं बना सकता। इनकी लक्ष्मी गेहूँ-जौ के नवांकुरों पर ओस के रूप में उतरती है, इनकी लक्ष्मी धान की बालियों के सुनहले झुमकों में झूमती है और इनकी लक्ष्मी गऊ के गोबर में लोट-पोट करती है उस लक्ष्मी के लिए वन-माहोत्सव से अधिक कृषि-महोत्सव की आवश्कता है, कृषि महत्सव से अधिक कृषि-प्रयत्न की तथा कृषि-प्रोत्साहन की आवश्यकता है।
जब तक इन देहातियों की लक्ष्मी आती, तब तक हमको भी इस लक्ष्मी से कुछ लेना-देना नहीं है। हमारे ऊपर वैसे ही अकृपा बनी रहती हैं, हम ठहरे लक्ष्मीपति की छाती पर श्रीवत्सचिहृ देने वाले महर्षि भृगु की संतान, समुद्रपाई अगस्त्य के वंशज और लक्ष्मी के धरती के निवास बेल की डाली छिनगाने वाले परम शैव, हम लक्ष्मी की सपत्नी के सगे पुत्र, हमें उनसे दुलार की, पुचकार की आशा नहीं, आकांक्षा नहीं। पर विमाता होते हुए भी माता तो हैं ही वे, कौशल्या से कैकेयी का पद बड़ा हुआ, तो थोड़ी देर के लिए इनका पद भी सरस्वती से बड़ा मान ही लेता हूँ, सो भी आज के दिन तो इनका महत्व है ही, ये भले ही उस महत्व को न समझें। इसलिए मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ कि मैं अपनी इस विमाता को चेताऊँ कि जिनके चरणों की वे दासी हैं, उनकी सबसे बड़ी मर्यादा है, निष्किंचनता। सुनिए उन्हीं के मुख से और लक्ष्मी को ही संबोधित करके कही गई इस मर्यादा को… "निष्किचना वयं शश्र्वन्निष्किंचनजनप्रिया तस्मात्प्रायेण न ह्यढया मां भजन्ति सुमध्यमे" (हम सदा से ही अकिंचन हैं और अकिंचन जन ही हमें प्रिय हैं, इसलिए धनी लोग प्राय: हमें नहीं भेजते)।
निष्किंचन को चाहे आप 'हैव-नाट' कहिए चाहे खेतिहार किसान, परंतु कृषि और कृष्ण की प्रकृति एक है, प्रत्ययमात्र भिन्न है भगवान और कर्म से भारत के भगवान कृषिमय हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। इसलिए उनकी राजलक्ष्मी को उनका अनुगमन करना आवश्यक ही नहीं परमावश्यक है।
आज जो दिया टिमटिमा रहा है वह उसी लक्ष्मी की स्मृति में, उसी लक्ष्मी की प्रतीक्षा में और उसी लक्ष्मी की अतृप्य लालसा में। इस दिए की लहक में सरसों के वसन्ती परिधान की आभा है, कोल्हू की स्थिर चरमर ध्वनि की मंद लहरी है, कपास के फूलों की विहँस है, चिकनी मिट्टी की सोंधी उसाँस है,कुम्हार के चक्के का लुभावना विभ्रम है और कुम्हार के नन्हें-नन्हें शिशुओं की नन्हीं हथेलियों की गढ़न। इसमें मानव-श्रम का सौंदर्य है उसके शोषण की विरूपता नहीं। इसी में घट-घट व्यापी परब्रह्म की पराज्योति है, तथा स्वार्थ और परमार्थ की स्व और पर की, पार्थिव और अपार्थिव की, ताप और शीत की,नश्वर और अनश्वर की, नाश और अमरता की मिलन-भूमि एवं उनकी परम अद्वैत-सिद्धि है। भारतीय दर्शन जीवन का आभरण नहीं है, वह तो उसका प्राण है, आदि-स्त्रोत है और है अनंत महासागर, मानो इसी सत्य को जगाने के लिए ही दिया टिमटिमा रहा है।
- दीपवाली 2007, पकड़डीहा