दिलीप कुमार की असाधारण प्रतिभा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 18 सितम्बर 2013
आज नब्बे वर्षीय दिलीप कुमार के बीमार पडऩे पर उस तरह की प्रार्थना सभाएं नहीं हो रही हैं, जैसी अमिताभ बच्चन के 'कुली' की शूटिंग के समय दुर्घटना के कारण मुंबई के अस्पताल में बीमार पडऩे पर हो रही थीं। कारण स्वाभाविक और स्पष्ट है कि वह एक विरल दुर्घटना थी और अमिताभ बच्चन युवा तथा शिखर सितारा थे। उस समय तो हालात कुछ ऐसे थे कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अपने पारिवारिक मित्र को देखने अस्पताल पहुंची थीं। यह बात अलग है कि उस घटना के बाद गंगा में इतना पानी बह गया है कि गांधी परिवार और बच्चन परिवार जुदा हो गए हैं।
आज दिलीप कुमार अपने जीवन की संध्या में हैं और उनका शिखर अब वे स्वयं भी अपनी स्मृति में ठीक से देख नहीं पाते होंगे। दिलीप कुमार सन् 1944 से 1998तक 54 वर्ष सक्रिय रहे, परंतु इस लंबी अवधि में भी उन्होंने साठ से अधिक फिल्में अभिनीत नहीं कीं, जिनमें अतिथि भूमिकाएं भी शामिल हैं। उनकी फिल्मों की भव्य बॉक्स ऑफिस सफलता के कारण उन्हें बहुत-सी फिल्मों में अभिनय के लिए आमंत्रण मिलते थे, परंतु उनके द्वारा अस्वीकृत फिल्मों की संख्या स्वीकृत फिल्मों से दस गुना अधिक है। सारा जीवन दिलीप कुमार का आग्रह गुणवत्ता के लिए रहा है और उन्होंने तो मेहबूब खान की 'मदर इंडिया' करने से भी इनकार किया, क्योंकि वे अनेक फिल्मों में अपनी नायिका रहीं नरगिस के पुत्र बिरजू की भूमिका नहीं करना चाहते थे। परंतु अन्याय के खिलाफ विद्रोह करके निर्मम व्यवस्था द्वारा डाकू बन जाने वाले बिरजू का पात्र उनके अवचेतन में ऐसा समाया था कि उन्होंने कुछ वर्ष पश्चात इसी बिरजू को अत्यधिक प्रखर और प्राणवान बनाकर 'गंगा-जमना' बनाई और यही पात्र दशकों की छलांग लगाकर सलीम-जावेद की 'दीवार' में अमिताभ बच्चन के एंग्री मैन की छवि में हमें नजर आता है। अत: हम बिरजू को ही गंगा और विजय के नाम से देखते हैं।
अगर सुनील दत्त का श्रेष्ठ अभिनय बिरजू था, तो दिलीप कुमार अपने श्रेष्ठतम स्वरूप में 'गंगा-जमना' को जीते हैं और अमिताभ बच्चन भी 'दीवार' के विजय से ही शिखर छूते हैं। युवा विद्रोह की इस छवि को सिनेमा में पहली बार हम अशोक कुमार अभिनीत 'किस्मत' में देखते हैं, जिसके प्रदर्शन के समय अमिताभ बच्चन चंद माह के शिशु थे और दिलीप कुमार को 'किस्मत' बनाने वाली कंपनी न्यू थिएटर्स में नौकरी मिल चुकी थी। जब हम अपने दिमागी कैमरे को सामान्य सतह से उठाकर ऊपर रखते हैं तो हम किस्मत (1943), मदर इंडिया (1957) और दीवार (1975) में एक ही पात्र के उग्रतर होते स्वरूप को देख सकते हैं और यह भी समझ सकते हैं कि हिंदुस्तानी सिनेमा का पहला खलनायक ब्याजखोर महाजन था तो बाद में डाकू और तत्पश्चात स्मगलर और आज वह आतंकवादी है या भ्रष्ट नेता।
बहरहाल, दिलीप कुमार ने एक के बाद एक अनेक त्रासदी फिल्मों में काम किया और वे भूमिकाओं को आत्मसात करके भावना की तीव्रता से अभिनय करते थे, इसलिए उनके मन पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उन्हें इलाज कराने लंदन जाना पड़ा। वहां उनके मनोचिकित्सक ने उन्हें सलाह दी कि वे कुछ समय तक त्रासदी फिल्में नहीं करके हास्य भूमिकाएं करें। इसी कारण उन्होंने अत्यंत दुख के साथ गुरुदत्त की सर्वकालिक महान 'प्यासा' नहीं की। उन्हें अपने जीवन में केवल 'बैजू बावरा', 'प्यासा' और 'जंजीर' अस्वीकृत करने का खेद है। उन्हें राज कपूर ने 'संगम' में दो नायकों में से कोई भी एक चुनने को कहा, परंतु अंदाज (1949) के बाद वे अपने बचपन के मित्र और पड़ोसी राज कपूर से सीधे नहीं भिडऩा चाहते थे।
बहरहाल, दिलीप कुमार ने अपनी हर भूमिका के लिए लंबी तैयारी की, मसलन 'कोहिनूर' के एक दृश्य में सितार बजाना था तो उन्होंने सचमुच सितार बजाना सीखा। वे मेथड स्कूल के श्रेष्ठ अभिनेता रहे हैं। दिलीप कुमार बीसवीं सदी के सबसे श्रेष्ठ हिंदुस्तानी अभिनेता हैं और यह बात सदी के महानायक की तरह प्रचारित अमिताभ बच्चन भी स्वीकार करेंगे।