दिलीप कुमार की किताब और गुमशुदा याद / जयप्रकाश चौकसे

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दिलीप कुमार की किताब और गुमशुदा याद
प्रकाशन तिथि : 05 जून 2014


सायरा बानू अपने नब्बे पार पति सर्वकालिक महान अभिनेता दिलीपकुमार पर लिखी किताब एक भव्य समारोह में 9 जून को विमोचन करने जा रही हैं। लता मंगेशकर मुख्य अतिथि होंगी और दिलीप कुमार पर लिखा प्रसून जोशी का गीत भी प्रस्तुत होगा। फिल्म उद्योग के सभी सितारे और फिल्मकार समारोह में आएंगे क्योंकि दिलीपकुमार के प्रति पूरे उद्योग में गहरा सम्मान है। आज के युवा दर्शक उन्हें टेलीविजन पर प्रसारित उनकी फिल्मों से जानते हैं और उन्हें इसका अहसास भी नहीं कि वे वर्तमान के जिन सितारों के कभी-कभी प्रस्तुत अच्छे अभिनय पर तालियां बजाते हैं, वे प्रभाव और छाप दिलीप के हैं जिन्हें देखने का उन्हें सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। बहरहाल इस पुस्तक विमोचन समारोह की झलकियां सारे टेलीविजन चैनल दिखाएंगे और संभव है कि 'देवदास', 'मधुमति', 'दाग', 'मुगलेआजम' तथा 'राम और श्याम' के अंश भी दिखाए जाएं तथा युवा पीढ़ी उनके ताप को महसूस कर सके।सायरा द्वारा संकलित पुस्तक में दिलीपकुमार के सभी परिचितों ने अपने विचार प्रस्तुत किए हैं और एक उम्रदराज पत्रकार ने जीवनवृत्त लिखा है।

सायरा के पास भी पचास विवाहित वर्षो के अनुभव हैं। दिलीपकुमार कभी भी खुलकर उजागर नहीं हुए और ना ही उन्होंने डायरियां लिखी हैं। संभवत: यह पुस्तक उनके विषय में विविध विचार और दृष्टिकोण का संग्रह है। उनके नौ भाइयों में केवल दो के जीवित होने की जानकारी है परन्तु वे वर्षो से उनके निकट नहीं गए हैं और यह पारिवारिक धागे भीतर धागे का मामला है। दिलीप अपने परिवार में सबसे निकट अपनी बड़ी बहन के थे और उनके शिखर दिनों में 'आपा' का हुक्म ही चलता था। वे नहीं रहीं। दिलीपकुमार की प्रिय पुस्तक एमिली ब्रान्टे की 'वुदरिंग हाइट्स' थी जिस पर प्रेरित फिल्म थी 'दिल दिया, दर्द लिया'। इसके नायक का चरित्र-चित्रण अत्यंत उलझा हुआ है। बचपन से निरंतर अन्याय सहने वाला व्यक्ति शक्ति के ऐसे शिखर पर पहुंचता है कि बदला ले सके परन्तु उसे प्यार कभी नहीं मिल पाता। इस किताब मात्र की कुंजी से दिलीपकुमार के अवचेतन का रहस्य नहीं खुल सकता।

उनके अभिनीत सारे अमर पात्रों को मिलाकर इस सिनेमाई घोल से कुछ मदद मिल सकती है। उन्होंने कभी शेक्सपीयर का हैमलेट अभिनीत नहींकिया परन्तु उसकी दुविधा कि 'करूं या ना करूं' ने कभी उनका पीछा नहीं छोड़ा। इसी दुविधा के कारण वे डेविड लीन की 'लॉरेंस ऑफ अरेबिया' नहीं कर पाए, इसी कारण वे 'चंद्रगुप्त' और 'तुलसीदास' अभिनीत नहीं कर पाए। उन्हें केवल 'बैजू बावरा' और 'जंजीर' नहीं कर पाने का अफसोस है। दिलीपकुमार कभी भी अभिनेता नहीं बनना चाहते थे। दूसरे विश्वयुद्ध में उनके पिता का व्यापार संकट में आया और अनिच्छुक दिलीप देविका रानी से मिले जिन्होंने उन्हें 'ज्वारभाटा' में अवसर दिया। हिन्दुस्तानी सिनेमा के अभिनय में पारसी थियेटर का प्रभाव देखा। अतिरेक से अतिरंजित अभिनय उन्हें सिनेमा माध्यम के लिए बुरा लगा और हॉलीवुड की फिल्मों के पॉल मुनि का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। वे पहले भारतीय अभिनेता थे जिसने भूमिका को 'अंडरप्ले' करना शुरू किया, भावों की गहराई को महसूस करना और उनका चेहरे पर उभरते समय उन्हें दबाने का प्रयास उनकी शैली बन गया। इस तरह सिनेमाई अभिनय के नए स्कूल की स्थापना हुई।

अपनी भूमिकाओं पर गहरा मनन करना, बार-बार रिहर्सल करने से वे भारत में 'मेथड स्कूल' की स्थापना कर पाए। बहरहाल इस पुस्तक की रचना आज से कुछ वर्ष पूर्व होनी चाहिए थी, जब उनकी याददाश्त कायम थी। विगत समय में यादें आती-जाती हैं, कभी उन्हें पचास वर्ष पूर्व की घटना याद आती है तो वे एक मिनट पूर्व की बात भूल जाते हैं। यादों का इस तरह आंख-मिचौली खेलना बहुत कष्टकर हो सकता है। स्मृति के बिना मनुष्य चाबी से चलने वाला खिलौना मात्र रह जाता है। यह भी विचारणीय है कि यादों के पूरी तरह सुरक्षित रहते समय भी दिलीपकुमार पूरी तरह उजागर नहीं होते। अंतर्मुखी स्वभाव रहा है। दूसरी बात यह है कि पूरी साफगोई से आत्मकथा लिखना कठिन है। आप अपने अनेक अपराध स्वीकार करना चाहते। यथार्थ में हुए अपराध या मन में अपराध का विचार जाना भी किसी को बताया नहीं जा सकता। क्रिश्चियन जीवन शैली की तरह यथार्थ जीवन में कन्फेशन रूम नहीं होते। इस किताब में ही दिलीपकुमार का अस्मा से निकाह और उसे नकारना कैसे शामिल हो सकता है? हम सभी इस मायने में कातिल हैं कि सभी ने कई बार कत्ल का विचार किया है परन्तु किया नहीं।