दिलीप कुमार की प्रतिभा और उनके संशय / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 11 दिसम्बर 2012
पाकिस्तान के पेशावर में आज दिलीप कुमार उर्फ मोहम्मद यूसुफ खान का जन्मदिन धूमधाम से मनाया जाएगा। एक संस्था वर्षों से प्रयास कर रही है कि दिलीप कुमार और उनके पड़ोसी राज कपूर के मकानों को अधिकृत करके वहां इन दोनों कलाकारों के संग्रहालय बनाए जाएं। सिनेमा अपने सौ साल मना रहा है और दिलीप कुमार का ९०वां जन्मदिन है। वे 'ज्वारभाटा' १९४४ से 'किला' १९९८ तक सक्रिय रहे, परंतु इन दशकों में उन्होंने बमुश्किल साठ फिल्मों में अभिनय किया, क्योंकि हर फिल्म की अपनी तैयारी के लिए उन्हें समय लगता था। अगर वे पैसे के मोह में एक ही समय में अनेक फिल्में अनुबंधित करते तो काम में गहराई नहीं आती। उनके पिता पेशावर से आकर इगतपुरी में बसे थे और फलों का व्यापार करते थे। दूसरे विश्वयुद्ध के समय तत्कालीन सरकार ने उनका बंगला अपना रक्षा दफ्तर खोलने के लिए ले लिया तो परिवार को मुंबई आना पड़ा। उनके पिता फिल्मों के खिलाफ थे और अपने मित्र पृथ्वीराज कपूर से कहते थे कि तू कैसा पठान है, जो भांडों का काम करता है।
उनके पुत्र यूसुफ को बॉम्बे टॉकीज की देविकारानी ने दिलीप कुमार के नाम से 'ज्वारभाटा' में प्रस्तुत किया और फिल्म प्रदर्शन के बाद ही पिता को मालूम पड़ा तो उन्होंने उसे समझाने की कोशिश की। उन्हीं दिनों खबर थी कि मौलाना अब्दुल कलाम बंबई आ रहे हैं। अत: यूसुफ को लेकर पिता बॉम्बे सेंट्रल पहुंचे और मौलाना से इल्तिजा की कि बच्चे को समझाएं कि पठानों का काम अभिनय नहीं है। मौलाना साहब ने यूसुफ खान को सिर्फ इतना कहा कि जो भी करो, पूरी मेहनत और ईमानदारी से इबादत की तरह करना। दिलीप कुमार ने अभिनय प्रार्थना की तरह ही एकाग्रता और संजीदगी से किया। उन दिनों अभिनय पर पारसी थिएटर का प्रभाव था। दिलीप कुमार पॉल मुनि से प्रभावित थे और उन्होंने अभिनय में मेथड स्कूल के उदय के पहले उसी तरह भूमिका को आत्मसात करके काम किया तथा उनका प्रभाव कमोबेश सभी सितारों पर पड़ा और आज भी कायम है। सदी के बहुप्रचारित एवं तथाकथित नायक पर भी उनका प्रभाव है। उनका तरीका यह रहा कि 'कोहिनूर' में उन्हें सितार बजाने का दृश्य करना था तो उन्होंने उस्ताद के पास जाकर कुछ समय रियाज किया। उस समय वे ग्यारह तरीके से सिगरेट जलाकर पी सकते थे और ताश के पत्तों की अनेक ट्रिक्स भी जानते थे। उन्हें पतंग उड़ाने का शौक था तो उन्होंने जानकारों से मांजा सूतना सीखा, कन्नी बांधना सीखा।
अगर कोई बात उनके जेहन में अटक जाए तो वे उसकी तह तक जाने की कोशिश करते थे। उनके प्रिय निर्देशक मेहबूब खान ने उन्हें 'मदर इंडिया' में डकैत बिरजू की भूमिका दी। उन्हें अनेक फिल्मों में अपनी नायिका रही नरगिस के बेटे की भूमिका करना नहीं पसंद आया, परंतु पात्र बिरजू उनके जेहन में जा बैठा तो उन्होंने 'गंगा-जमना' बनाई और डकैत की भूमिका कुछ इस शिद्दत से निबाही कि आज तक उससे बेहतर प्रयास कोई नहीं कर पाया। उनका साहस देखिए कि भव्य बजट की फिल्म को भी विश्वसनीयता देने के लिए सारे संवाद तक गीत क्षेत्रीय भाषा अवधी में रखे। यही बिरजू का पात्र 'गंगा-जमना' के बाद महानगरीय स्वरूप में सलीम-जावेद की लिखी 'दीवार' में प्रस्तुत हुआ। इसका खुलासा मेरी किताब 'महात्मा गांधी और सिनेमा' में है।
शरतचंद्र के उपन्यास 'देवदास' पर लगभग ग्यारह बार फिल्में विविध भाषाओं में बनी हैं, परंतु बिमल रॉय की फिल्म तथा दिलीप कुमार का अभिनय श्रेष्ठतम है। राजेंद्र सिंह बेदी के संवाद की क्या खूब अदायगी की है कि आज तक लोग नहीं भूले। दरअसल महाभारत का 'अर्जुन', शेक्सपीयर का 'हैमलेट' और शरतचंद्र का 'देवदास' लगभग एक-सी दुविधा और संशय के शिकार हैं और दुनियाभर के एक्टर इन भूमिकाओं के लिए हमेशा तत्पर रहे हैं। बिमल रॉय की जन्म-जन्मांतर तक जाने वाली इंटेंस 'मधुमति' में भी दिलीप कुमार ने ऐतिहासिक महत्व का अभिनय किया है।
एक बार िलीप कुमार ने कहा था कि उन्हें तीन भूमिकाएं नहीं करने का मलाल हमेशा रहेगा - गुरुदत्त की 'प्यासा', जो उन्होंने अपने चिकित्सक की सलाह पर कि अब उन्हें अपने दिमागी संतुलन के लिए त्रासदी नहीं करके हास्य फिल्म करनी चाहिए, नहीं की। उन्हें इसका भी मलाल है कि वे 'चाणक्य' और 'तुलसीदास' की भूमिकाएं नहीं कर पाए, ये फिल्में बनी ही नहीं। उन्होंने हॉलीवुड की 'लॉरेंस ऑफ अरेबिया' भी नहीं की। दरअसल अपनी देर से निर्णय लेने की आदत के कारण वे फिल्में नहीं कर पाए। डेविड लीन ने उनके निर्णय का तीन माह तक इंतजार किया। उनके मिजाज में ही संशय है, जिसे उनका डर नहीं समझना चाहिए। दिलीप कुमार हमेशा खुद से बहुत सवाल करते हैं और उचित-अनुचित को तौलने में समय लेते हैं। आज के जमाने में तो लोग पकने से पहले बिकने को तत्पर रहते हैं। ये बाजार क्या समझे दिलीप कुमार को, जो काम में गुणवत्ता की इबादत करता रहा है।