दिल्ली का महाशून्य / सातकड़ि होता / दिनेश कुमार माली
किसान मेला समाप्त हो गया था। देश के कोने-कोने से लाखों लोग आए हुए थे इस मेले में। मेला खत्म होने के बाद सब अपने-अपने घर चले गए। पति का हाथ पकड़ कर रास्ता पार करते समय बसन्ती देवी ने कहा, “जिसको जाना है वह चला जाए। हमने अभी तक कुछ भी नहीं देखा है। इतना दूर आकर दिल्ली देखना हमारे किस्मत में कहाँ? दो- चार दिन देर से लौटने से नहीं होगा।”
भवानन्द बाबू ने कहा, “क्यों नहीं होगा। छुट्टी बढ़ा दी जाएगी। आए है तो, चार-पाँच दिन यहाँ रूककर दिल्ली, आगरा,मथुरा और वृंदावन घूमकर जाएंगे। हो सकता है कि और कभी नहीं आ पाए। “
रास्ते का जाम खुल गया था। हाथ छुड़ाते हुए बसंती देवी कहने लगी, “शरम नहीं आती है, अभी भी हाथ पकड़े हुए हो। सभी देख रहे हैं हमारी तरफ।”
भवानन्द ने उत्तर दिया, “वे मुझे नहीं देख रहे है तुम्हारा हाथ पकड़े हुए। वे देख रहे है तुम्हारे जैसी सुंदरी मेरे साथ कैसे है। देख रही हो, तुम्हारी तरफ कितनी आंखें घूर रही हैं। “
बसंती देवी अपना पल्लू ठीक करते हुए कहने लगी, “मज़ाक करने के लिए यही समय मिला है। और समय नहीं मिला। मुझे क्या देखेंगे वे लोग ! देख रहे है, वे सब कैसे दौड़ रहे हैं। हो न हो वे लोग ऑफिस से लौट रहे होंगे। “
भवानन्द बाबू तेजी से मोटर साइकिल पर जा रही एक महिला को देखकर कहने लगे,”देखो, देखो ! तुम्हें हाथ पकड़कर रास्ता पर करने में शर्म आती है और यह औरत मोटर साइकिल पर अकेले जा रही है।”
बसंती देवी ने अपनी जीभ काटते हुए कहा, “यह कोई अच्छा काम थोड़े ही है ! अगर शादी की होगी तो घर में बेटे, बेटी, पति सभी होंगे। और नहीं तो, शादी होने वाली होगी। क्या जरूरत है आदमियों के साथ इस तरह रणचंडी बनकर घूमने की। यह ठीक बात नहीं है।”
भवानन्द ठहरे एक स्कूल अध्यापक। पाँच एकड़ जमीन के मालिक है। बी॰ए॰ पास करने के बाद पंद्रह साल से गाँव के एक माइनर स्कूल में अध्यापक का काम कर रहे है। बसती की शादी हुए दस साल बीत गए थे। उस समय उनकी उम्र सोलह साल थी, मैट्रिक परीक्षा देकर घर बैठे हुए थे। उसके ऊपर घर-गृहस्थी का बोझ।
मास्टरी की जिंदगी में भले ही देश के बारे में बच्चों को समझाने का समय होता है, मगर देश भ्रमण का संयोग कभी नहीं बन पाता है। भूगोल हो या इतिहास, या फिर नागरिकी पढ़ाते समय बिना दिल्ली देखे भी दिल्ली की कहानियाँ पढ़ानी पढ़ती है, और किताबों के पन्नों में अंकित राष्ट्रपति भवन,पार्लियामेंट हाउस और लाल किले को दर्शाना पड़ता है। एक मास्टर की जिंदगी में ये सब देखने को कहाँ मिलते है ! घर-गृहस्थी चलाते-चलाते और कहाँ वक्त मिलता है ये सब देखने में? गर्मियों की छुट्टियाँ थी। बारिश नहीं होने के कारण खेतीबाड़ी का काम शुरू नहीं हुआ था। दिल्ली में किसान मेला होने की खबर सुनाई पड़ी थी। जेब में पैसे नहीं थे मगर वहाँ जाने के लिए उनका मन छटपटा रहा था। बसंती को लेकर अगर एक बार दिल्ली देख आते तो जीवन सार्थक हो जाता। बाहर अकेले जाते नहीं बनता। समय ठीक नहीं है। कब क्या हो जाएगा, किसे पता? साथ में कोई होने से आपदा विपदा में मदद मिल जाती है।
आराम से घूम सकते है। शायद किसान मेला देखने का मौका मिल जाए, यहीं सोचकर वह गाँव के प्रधान के पास गए। प्रधान को लोगों को वहाँ भेजने का दायित्व मिला था,तुरंत ही सहमत हो गए। किराया कम लगेगा। खाने का खर्च खुद का। जाना ठीक रहेगा। भले ही वह मास्टर है, मगर पाँच एकड़ जमीन पर खेती भी कर रहा है। वह एक किसान है तो एक शिक्षक भी। किसानों को दस बातें सीखा पाएगा। घर लौटकर ये बातें जब उसने बसंती को बताई तो एक बार उसे विश्वास नहीं हुआ। मगर उसे विश्वास दिलाने के लिए उसने कहा, ”अगर तुम्हें मेरी बातों पर यकीन नहीं हो रहा है तो मुखिया को पूछ लें। किसान मेला लग रहा है दिल्ली में। सैकड़ों लोग जाएंगे वहाँ। हम भी जाएंगे उनके साथ। नारियल के कुछ लड्डू बना लें। रास्ते में काम आएंगे। बाहर की चीजों में मिलावट होती है। कम से कम नाश्ता साथ में रहे। कपड़े सारे सन्दूक में संभालकर रख लो। एक बिस्तरबंद की जरूरत पड़ेगी। उसके अलावा लोटा,तेल,साबुन,कंघा,सिंदूर,गुड़ाखू, दर्पण और मेरे पान। तुम तो पान नहीं खाती हो, मगर मेरे बिना पान के एक मिनट भी नहीं चलेगा। पान लेना मत भूल जाना। पति की सारी बातें सुनकर बसंती काम में लग गई। शुभघड़ी देखकर सभी लोग रेलवे स्टेशन की ओर रवाना हो गए। रेलगाड़ी में चढ़ने के बाद बसंती ने कहा,”अभी तक मुझे विश्वास नहीं हो रहा था, सोच रही थी की मज़ाक कर रहे हो। अब विश्वास हुआ कि मज़ाक नहीं है, वास्तव में दिल्ली जा रहे है।”
भवानन्द पान का टुकड़ा मुंह में डालते हुए कहने लगा,”तुम्हें साथ लिए बगैर कहीं मैं जाता हूँ? छाया की तरह हमेशा मेरे साथ लगी रहती है,इसलिए साथ आ रही है। “
बसंती बहुत धीरे से कहने लगी, “चारों तरफ लोग बैठे हुए हैं। कोई सुन लेगा तो क्या सोचेगा। बूढ़े हो गए हैं, मगर आशिक-मिजाज अभी तक खत्म नहीं हुआ। “
बसंती को चलती रेलगाड़ी में जंगल,खेत-खलिहान,गाँव सब कुछ दिखा रहे थे भवानन्द। दो रात और एक दिन के बाद रेलगाड़ी दिल्ली स्टेशन आ पहुंची। रास्ते भर दिन में जो कुछ सामने आ रहा था, देख रहे थे वे लोग। इलाहाबाद में गंगा नदी के ऊपर से पार होते समय भवानन्द ने दिखते हुए कहा, “यह इलाहाबाद है। पुराना नाम है प्रयाग। यहाँ पर गंगा,जमुना और सरस्वती का मिलन होता है। इस जगह का नाम है ‘संगम’। एक पुण्यस्थली। नसीब वाले ही लोग यहाँ आते है। “
हाथ जोड़कर प्रणाम करती हुई कहने लगी बसंती, “प्रयाग,काशी और गया में तो पूर्वजों का तर्पण किया जाता है। अगर समय मिला तो हम भी पिंडदान का काम पूरा कर लेंगे।”
भवानन्द इस सही समय आ गए थे, दिल्ली किसान मेला में हिस्सा लेने के लिए। लाखों लोग जुटे थे देश के कोने-कोने से। बहुत भीड़ थी। दिल्ली में चारों तरफ लोग ही लोग। खाने का सामान मंहगा हो गया था। रहने के लिए जगह नहीं मिल रही थी। गरमी के दिन थे इसलिए सब लोग खुली जगह में और मैदानों में चद्दर बिछकर सो गए थे। बातचीत करने की सुचारू व्यवस्था थी, मगर इतने लोग आएंगे किसी को भी पता नहीं था। दिल्ली भारत की आत्मा है, राजधानी है। यहाँ पर इतिहास लिखा जाता है। भूगोल के निशान देखकर रेखाएँ खींची जाती हैं। कौन दिल्ली देखना नहीं चाहेगा?
किसान मेला समाप्त होने के बाद सभी अपने अपने गाँव चले गए। शुरू हुआ हमारे लौटने का समय। कई लोग दिल्ली के बाजारों में कुछ खरीददारी करने लगे, अपने परिवार के लिए। भवानन्द ने भी कुछ खरीदा। बसंती ने नए कंगन खरीदकर अपने कलाइयों में पहने। दिल्ली से एक सिल्क साड़ी खरीदने का मन था उसका। मगर शायद ज्यादा पैसे खर्च हो जाएंगे, सोचकर उसने मना कर दिया। पहले मथुरा, वृंदावन,आगरा घूमने के बाद अगर कुछ बचा तो फिर खरीदेगी वह साड़ी। फिर सिल्क साड़ी कहाँ मिलती है? बहुत मन था खरीदने का उसे। दिल्ली में देश का सारा ऐश्वर्य छलक रहा हो जैसे। साफ सुथरे चौड़े रास्ते। दोनों तरफ पेड़ों के झुरमुट और बड़े-बड़े बगीचों वाले बंगले। दिल्ली में तेज रफ्तार वाली गाड़ियों को देखकर डरने लगती थी बसंती, यदि कोई दुर्घटना हो गई तो? अपरिचित-अनजान देश। किसकी शरण लेंगे?
रास्ते में आते हुए सारे दर्शनीय स्थानों को अच्छी तरह बताते हुए जा रहे थे भवानन्द। त्रिमूर्ति के जवाहरलाल स्मृति मंदिर के अंदर घूमकर देखते समय जवाहर लाल द्वारा प्रयोग में लाई हुई टेबल, कुर्सी तथा अन्य सामानों को देखकर अभिभूत हो गई थी बसंती। स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री इस घर में सोलह साल रहे थे। फिर इन्दिरा गांधी ने भी अपने जीवन का अमूल्य समय अपने पिता के साथ इस घर में गुजारा था। त्रिमूर्ति की दीवारों पर अभी भी देशप्रेम के निशान मौजूद है। और आगे बढ़ते चले गए वे लोग। राष्ट्रपति भवन, सचिवालय के दक्षिण और उत्तर ब्लॉक, पार्लियामेंट हाउस। उसके बाद जंतर-मंतर और आगे जाने पर दिल्ली महानगरपालिका का पाताल मार्केट। सभी जगह घूम कर देख रही थी बसंती। कन्याकुमारी से कश्मीर तक सारा देश एक सूत्र में बंधा हुआ है, वह सोचने लगी। प्रत्येक प्रांत, अलग अलग भाषा और धर्म के लोग दिल्ली में बसे हुए हैं।
सबसे पिछड़े ओड़िया दिल्ली में आगे निकलने का प्रयास कर रहे हैं। इसलिए दिल्ली और जेएनयू विश्वविद्यालय में ओड़िया छात्रों की काफी भरमार है। विश्वविद्यालय के परिसर की सारी हॉस्टलों में ओड़िया विद्यार्थी, सभी कॉलेजों में उनका वर्चस्व। जगन्नाथ और पुरुषोत्तम क्षेत्र में बंधकर नहीं रह गए हैं वे। दिल्ली में ओड़िया लोगों ने जगन्नाथ प्रभु का मान बढ़ाया हैं। आगामी रथयात्रा के लिए अभी से रथ निर्माण का कार्य चल रहा है। भवानन्द ने अपनी पत्नी से कहा, ”आपस में लड़ने-झगड़ने वाले, एक दूसरे की टांग खींचने वाले तथा परस्पर ईर्ष्या करने वाले ओड़िया बाहर प्रदेश में एकजुट होकर काम कर रहे हैं। ऐसा लगता है मानों इतिहास का अभिशाप मिटाकर फिर से ओड़िया का स्वर्णयुग शुरू हो रहा हो।
बसंती चूंकि थक गई थी, इसलिए दोनों तांगे में बैठकर चले गए राजघाट और शांतिवन भ्रमण के लिए। गांधी, नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के समाधि-स्थल देखने के बाद राजघाट की हरी घास की मखमली गलीचे पर टहलते-टहलते शाम हो रही थी। बसंती ने कहा, “घूमना-फिरना बहुत हो गया, घर नहीं जाना है क्या? ”
पास में खड़े हुए दिल्ली की चाट बेचने वाले लड़के को भवानन्द ने भेलपुरी देने के लिए कहा। फिर भेलपुरी खाते-खाते कहने लगे, ´और शाम होने दो, यहाँ पर थोड़ा और विश्राम कर लेते है। राजधानी में हर जगह पहरा है। डर किस बात का? ”
भेलपुरी और बर्फी खाने के बाद दोनों ने पानी पिया। पास ही में चाय भी मिल गई। पेट भर जाने के बाद घास के ऊपर लेटने का मन हो रहा था। मगर बसंती राजी नहीं हुई। उसकी जांघों के ऊपर अपना सिर रखकर लेट गए भवानन्द। बसंती कहने लगी, “अरे ! कोई देख लेगा तो? ”
भवानन्द ने पास में सोए हुए आदमी और औरतों की ओर इशारा करते हुए कहा, “राजधानी में यह प्रचलन है। थोड़ी झुक जाओ, एक चुंबन लगा देता हूँ। “
शर्म से लाल-पीली होकर बसंती कहने लगी, “धत, बच्चे की तरह कर रहे हो। चालीस के आसपास हो गए हो।”
भवानन्द ने प्यार करते हुए कहा, “सच-सच बता, तुम्हारी इच्छा नहीं हो रही है?”
बसंती ने अपने पति की कमर के पास चुटकी काटते हुए कहा, “चलो, जल्दी लौट चलते है, उसके बाद जो तुम कहोगे वह सब ...”
भवानन्द ने कहा, “चलने से पहले एक प्यारी-सी पप्पी मेरे गालों पर लगा दो,वरना मैं नहीं जाऊंगा। “दोनों के बीच यह लेकर शुरू हो गई खींचातानी। भवानन्द छोड़ने वाला नहीं था। वह कहने लगा, “बिना कुछ निशानी लिए दिल्ली से खाली हाथ लौटूँगा? मेरी सौंगंध, अगर मुझे प्यार करती हो तो ...”। बसंती शर्म से लाल पड़ गई। उसका शरीर गरम हो गया। भवानन्द हर समय इस तरह। जिद पकड़ने पर छोड़ने का नाम नहीं। चारों तरफ एक बार देख लेने के बाद बसंती ने झुककर भवानन्द के गाल पर एक चुंबन जड़ दिया और कहने लगी, ”हुआ ! अब चले। “
उठने का बिलकुल मन नहीं हो रहा था। खेल शुरू होने के बाद जब तक खत्म नहीं हो जाता है, उसका अशांत मन शांत नहीं होता था। ऐसे भी शिक्षक-जीवन नीरसता पूर्ण होता है। सुबह शाम खाने-पीने की चिंता में जीवन समाप्त हो जाता था। कब जवानी बीत गई और बुढ़ापा आ गया, पता ही नहीं चला। दस साल के वैवाहिक जीवन में कभी भी उसने बसंती को एकांत वातावरण में पाया था। सास-ससुर, देवरानी और ननद की हाजरी उठाते उठाते आधी रात हो जाती थी। बिस्तर में जाते ही थकावट से नींद आ जाती थी। भवानन्द तो बहुत पहले ही सो जाता था। केवल खुर्राटे सुनते-सुनते सो जाती थी वह। राजघाट के उस तरफ से यमुना नदी का कलरव सुनाई पड़ रहा था। पानी की फुहारें ऊपर उठ रही थी और उन पर चमक रही थी लाल हरी लाइटें। उनको दिखाते हुए भवानन्द कहने लगा, ”तुम ऐसे ही थिरको, बसंती।”
बसंती ने हँसते हुए कहा, “अनेक दिनों के बाद आज की शाम हमेशा याद रहेगी।”
भवानन्द ने खुश होते हुए कहा, “तुम तो आने से इंकार कर रही थी। अगर तुम नहीं आती तो उस छोटे घर के अंदर सड़ती रहती। प्यार-मोहब्बत छोटे मध्यमवर्गीय परिवार के लोगों की किस्मत में नहीं होता है। इसलिए गरीब आदमी स्थान काल पात्र न देखकर प्यार करें, अन्यथा अमीर परिवार में जन्म लें। वहाँ पर संभोग के कई तरीके, कई सुविधाएं। हमारा मन जलता है,शरीर से धुंआ निकलता है,मगर अपनी घास पर अपने जलने के सिवा कुछ भी नहीं है।”
बस-स्टेंड की तरफ दोनों ने प्रस्थान किया। बहुत दूर जाना था। इतना दूर पैदल जाना मुश्किल था। इसलिए वहाँ जाने के लिए एक तांगा कर लिया। जाने के लिए और कोई गाड़ी नजर नहीं आई। दो बस आकर चली गई, मगर उसमें भीड़ थी, इसलिए नहीं रूकी। टैक्सी या ऑटो मिलने से भी चलता। भवानन्द ने खड़े होकर टैक्सी रोकने के लिए इशारा किया, मगर कोई नहीं रूकी। रात गहराने लगी थी, यह देख बसंती कहने लगी, “बहुत दूर जाना है। रात हो गई है। कैसे जाएंगे? ”
भवानन्द ने उसे हिम्मत देते हुए कहा, “राजधानी में चारों ओर पैसों का खेल है। यहाँ आना जितना आसान है, जाना उतना नहीं। फिर भी डर किस बात का? ”
आगे पुलिस कांस्टेबल खड़ा था। बसंती जाने के लिए बेचैन हो रही थी। भवानन्द ने बहुत कोशिश की, मगर न तो टैक्सी मिली और न ही कोई विकल्प व्यवस्था हो पाई। कुछ दूरी तक दोनों पैदल चले। ट्रैफिक पुलिस से पता करके टैक्सी स्टेंड की ओर चले गए। वहाँ पहुँचते पहुँचते नौ बज गए थे। स्टेंड पर एक ड्राइवर इंजिन का हूड़ खोलकर खड़ा था। भवानन्द ने उससे अनुग्रहपूर्वक कहा, “उत्कल भवन जाएंगे? ”
“जाने का भाड़ा मिलेगा, मगर आने समय तो कुछ भी नहीं।”
बसंती ने अपने पति से कहा, “कुछ ज्यादा देने से राजी हो जाएगा।”
दूसरा और कोई उपाय न देखकर भवानन्द ने टैक्सी वाले से यह बात कही। हिन्दी अच्छी तरह से नहीं आती थी। मगर हिन्दी-अँग्रेजी मिली-जुली बोलकर अपना काम चला लिया। टैक्सी वाला जाने के लिए राजी हो गया। मगर इंजिन में थोड़ा काम बाकी था। वह खुद ठीक कर देगा, ज्यादा से ज्यादा एक घंटा लगेगा। बसंती दुविधा में फंस गई। किन्तु और कोई उपाय नहीं था, जो कुछ भी हो, कोई एक तो मिला था, उसको छोड़कर दोनों जाते भी तो कहाँ?
रात के सवा दस बज चुके थे। राजघाट के इर्द गिर्द सन्नाटा छाने लगा था। टैक्सी की फाटक खोलकर ड्राइवर ने दोनों के लिए जगह बनाई। टैक्सी रवाना हुई। आश्वस्त होकर बसंती ने अपने पति से कहा, “अब जाकर सांस में सांस आई है। मैं तो बुरी तरह से डर गई थी कि अगर कहीं कोई टैक्सी नहीं मिली होती तो...?”
भवानन्द ने कहा, “सरपंच का बेटा आगे यहीं पढ़ता था। वह कह रहा था कि दिल्ली के रास्ते रात बारह बजे तक खाली नहीं होते हैं।मगर कभी-कभार कुछ दुर्घटनाएँ भी होती हैं। “
बसंती ने अपने पति की जांघ पर हाथ रखते हुए कहा, “मैं भगवान से प्रार्थना करती हूँ कि अच्छी तरह से हम पहुँच जाएंगे।”
थोड़ी दूर जाने के बाद फिर से गाड़ी बंद हो गई। इंजिन का हूड़ खोलकर फिर से ड्राइवर जांच करने लगा। बेल्ट को फंसा दिया। फिर से स्टार्ट कर जोर से गाड़ी दौड़ाने लगा। जगह पूरी तरह से अनजान अपरिचित। दोनों किनारे घने घने पेड़। बीच बीच में फूलों के बगीचे। एकदम सुनसान जगह। बड़ी मुश्किल से कहीं एकाध गाड़ी तो कहीं एकाध आदमी नजर आता था। फिर से वह गाड़ी एक कोका कोला की दुकान पर जाकर रूक गई। तीन कोका कोला खरीदकर वह ले आया। एक खुद के पास रख ली और दो भवानन्द की ओर बढ़ा दी। वह मना
नहीं कर सका। ड्राइवर दिखने में सज्जन लग रहा था। बहुत अच्छा व्यक्तित्त्व। वह कहने लगा, “बार-बार गाड़ी खराब होने के कारण मैं थक गया था। थोड़ा गला तर करना चाहता था। आप लोग पक्का दिल्ली के नहीं हो। हमारे मेहमान हो, कोका-कोला क्या मैं अकेले पीता? ”
भवानन्द ने मुंह में पाइप लगाकर पीते हुए अपनी पत्नी से कहने लगे, “पी लो, ड्राइवर भद्र आदमी लग रहा है। मुझे भी बहुत प्यास लगी थी।”
कोका-कोला पीने के बाद ड्राइवर ने गाड़ी स्टार्ट की। तेज गति से दौड़ने लगी। ठंडी-ठंडी हवा बह रही थी। कब आँखों में नींद उतर आई, भवानन्द को पता भी नहीं चला। मगर जब उसकी आंखें खुली तो उसने देखा वह अकेला था, बसंती पास में नहीं थी। वह जगह भी पहचान में नहीं आ रही थी। एक बड़ा हाल। बहुत सारे खाट बिछे हुए थे। सभी खाट में एक एक आदमी लेटा हुआ था। भवानन्द सोचने लगा कि कहीं यही तो उत्कल भवन नहीं है। अस्पताल का एक वार्ड। वह डर के मारे सिहर उठा। क्या उसके साथ कोई दुर्घटना घटी है? कुछ भी याद नहीं आ रहा था उसे। कोका कोला पीने तक की सारी बातें याद आ गई, मगर उसके बाद अंधेरा ही अंधेरा, घुप अंधेरा। बसंती गई कहाँ? दुर्घटना में क्या वह गंभीर तरीके से घायल हो गई है? किसी से पूछताछ करने के लिए उसने गर्दन घुमाते समय नर्स को देखकर कहने लगा, “मेरी पत्नी कहाँ है और कैसी है? ”नर्स ने अचरज से कहा, “तुम्हारी पत्नी कौन? वह यहाँ पर क्यों रुकेगी?”
भवानन्द चौंककर बिस्तर से उठने लगा कि नर्स ने उसे सुलाते हुए कहा, “आप लेटे रहिए। डॉक्टर आकर जांच कर लेने के बाद जो तुम करना चाहते हो कर लेना।”
व्यग्र होकर भवानन्द ने कहा, “मुझे क्या हुआ है? मेरे पत्नी को क्या हुआ है?”
नर्स ने कहा, “आप धीरज रखिए। मैं डॉक्टर को बुला लेती हूँ।”वह दरवाजा बंद करके चली गई।
भवानन्द को अब लगने लगा कि उसका सिर चकरा रहा है। भारी-भारी लग रहा है। डॉक्टर आने से पहले उसने सफाई करने वाली लड़की को पास बुलाकर कहा, “सफदरजंग अस्पताल। अभी तक आपको मालूम नहीं।” एक पागल की तरह वह छत की ओर देखने लगा।
कुछ ही समय के भीतर डॉक्टर ने वहाँ आकर भवानन्द की अच्छी तरह जांच कर दवाई देकर चला गया। इंजेंक्शन लगाने के बाद उस डॉक्टर ने कहा, “यह तो किस्मत अच्छी है कि नशीला पदार्थ घातक नहीं था।”
आपने अच्छी तरह संभाल लिया। डॉक्टर की बात सुनकर अवाक रह गया भवानन्द। वह तो किसी प्रकार के नशे का सेवन नहीं करता था। किसने दिया, कहाँ से आ गया वह नशे का पदार्थ? वह मन ही मन अनेक प्रश्न करने लगा। सारे प्रश्नों का उत्तर खोजते-खोजते उसे याद हो आई टैक्सी ड्राइवर से कोका कोला पीने की बात। डॉक्टर को सारी बातें रोते-रोते बताने के बाद भवानन्द कहने लगा, “मेरी पत्नी बसंती? वह कहाँ पर है, वह कैसी है? ”
डॉक्टर कहने लगा, “एक भद्र आदमी ने आपको यहाँ लाकर छोड़ा था। आप नेहरू पार्क के पास बेहोशी हालत में पड़े हुए थे। जो भी हो, तुम्हारी पत्नी को तलाशना जरूरी है। “उसने तुरंत पुलिस को खबर की।
अस्पताल से छूटने के बाद महीने भर दिल्ली में घूमता रहा भवानन्द। छोटी-बड़ी सारी गलियां छान मारी। पुलिस ने उसका हुलिया भी बना लिया। गुमशुदा की तलाश कर लाने पर दस हजार रुपए का इनाम भी घोषित कर दिया। मगर भवानन्द का सारा प्रयास व्यर्थ साबित हुआ। और बसंती नहीं मिल पाई।
ढेंकानाल स्टेशन पर उतरकर और घर नहीं जा पाया भवानन्द। बसंती को साथ में लेकर दिल्ली गया था, उसे साथ में नहीं लाकर अकेले आया था। भवानन्द अपने को और संभाल नहीं पाया। स्टेशन के पास आम के पेड़ के नीचे बैठकर उदास आँखों से आकाश की ओर देखने लगा। संसार का सारा कोलाहल उसके सीने में मूर्त हो उठा था। बसंती का चेहरा खो गया था दिल्ली के महाशून्य में।