दिल्ली में नींद / उमा शंकर चौधरी
दिल्ली जो एक शहर है और जिसके एक छोर से दूसरे छोर की दूरी इतनी अधिक है कि पैदल लोगों को कई दिन लग जाएँ।
आज महीने का दूसरा दिन था इसलिए चारूदत्त सुनानी ने सोचा कि आज वह अपने घर जायेगा। उसने अपने उस कारखाने के चदरे की छत से सिर को बाहर निकाल कर देखा तो लगा कि धूप एकदम से बौरा ही गयी है। लेकिन उसकी पैंट की जेब में उसके महीने की तनख्वाह थी तो उसने अपने भीतर एक फुर्ती महसूस की। उसने आधे दिन की छुट्टी अपने मालिक से यह कह कर ली थी कि उसकी पत्नी की दायीं टांग में एक फोड़ा है जिससे मवाद निकल रहा है और जिसे दिखलाने उसे आज जाना ही होगा। सुनानी ने अपने मालिक से यह झूठ बोला था परन्तु इसके अलावा उसके पास चारा ही क्या था।
सुनानी ने सोच तो लिया था लेकिन धूप इतनी प्रचंड थी कि आंखें एकदम से चुंधिया गईं। उसने ज्योंही उस टीन के चदरे से अपना सिर बाहर निकाला तो ऐसा लगा कि आग का गोला उसके सिर से टकरा गया हो। उसने छोटे-छोटे कदमों से बस स्टैंड की तरफ बढना शुरू किया। उसके कारखाने से बस स्टैंड की दूरी लगभग डेढ किलोमीटर की होगी। लेकिन इस मौसम में और वह भी भरी दोपहर में यह डेढ किलोमीटर बहुत खटक-सा रहा था।
"कितना अच्छा होता कि सूरज दादा थोड़ी देर के लिए नहाने चले जाते।" ऐसा सुनानी ने अपने मन में सूरज दादा कि ओर देखते हुए सोचा और फिर अपनी इसी सोच पर उदास हो गया।
सुनानी की लम्बाई 5 फुट 8 इंच के करीब हागी। उसका सिर थोड़ा बड़ा था और उस सिर पर दोनों ही तरफ से तिकोने स्टाइल में बाल की जगह खाली हो चुकी थी। उसके सिर में छोटे-छोटे घाव थे जो धूप में एकदम से चुनचुनाने लगे थे। उन घावों के मुंह खुले हुए थे और चुनचुनाने के बावजूद उनमें खुजली करने की गुंजाइश नहीं थी। सुनानी को ऐसा लग रहा था कि धूप की तेज तपिश उन घावों के सहारे सिर के भीतर घुस रही है और सिर एकदम से भट्टी की तरह तपने लगा था। बस स्टैंड पर भीड़ थी लेकिन बस स्टैंड नहीं था। चूंकि बस स्टैंड जैसी कोई चीज नहीं थी इसलिए सुनानी की आंखें चुंधियाती रहीं, घाव के सहारे तपिश सिर में धंसती रही और उसका माथा ठनकता रहा। वह जहाँ खड़ा था वहाँ दो ठेले वाले और पानी की ट्राॅली वाले थे। दो ठेले में से एक पर ककड़ी और एक पर खीरा बिक रहा था। दोनों ठेले वाले पानी की बूंदों के सहारे उन्हें ताजा रखने की कोशिश कर रहे थे। सुनानी ने न तो खीरा खरीदा और न ही ककड़ी।
नाम चारूदत सुनानी: पृष्ठभूमि जैसा कुछ कुछ
चारूदत्त सुनानी मूलतः उड़ीसा का था। लेकिन उड़ीसा अब उसमें नहीं के बराबर ही था। चारूदत्त के पिता का नाम था शाक्यमुनि। यानी शाक्यमुनि सुनानी। भुवनेश्वर से जब आप पुरी की तरफ बढेंगे तब उसी के बीच एक छोटे से गाँव में शाक्यमुनि का घर था। शाक्यमुनि बहुत गरीब था लेकिन उसका जीवन किसी तरह चल रहा था। उसके पास वहाँ एक छोटा-सा खपरैल का घर था और थोड़ी-सी खेती। उस खेती से घर तो नहीं चलता था लेकिन उसमें दो पपीते के पेड़ थे जिनके पपीते बहुत मीठे थे। उसकी तीन बेटियाँ थीं और मात्र एक बेटा। उसके पास जो थोड़ा-सा खेत था सिर्फ़ उसके भरोसे जीवन गुजारा नहीं जा सकता था इसलिए उसने अपने रोजगार को विस्तार देने के लिए एक डोंगी खरीदी थी। उस डोंगी से वह समुद्र मंे मछली पकड़ने जाता था। डोंगी में एक जाल था और एक पतवार। वह उस डोंगी में जाल के सहारे मछली पकड़ता था और फिर उन मछलियों को टोकरी में ले जाकर बाज़ार में बेचता था। शाक्यमुनि उस डोंगी को लेकर अकेले समुद्र में बहुत दूर चला जाता था दूर इतना कि किनारे बैठकर देखो तो डोंगी एक शून्य के माफिक दिखायी पड़े। शाक्यमुनि उस छोटी-सी खेती और इन मछलियों के सहारे ही अपना और अपने परिवार का जीवन चला रहा था। शाक्यमुनि ने इन्हीं आमदनियों के सहारे ही अपनी तीनों बेटियों का लगन किया था।
शाक्यमुनि इस समूद्र और इन मछलियों से बहुत प्यार करता था और वह समुद्र के इस जल और इन मछलियों के बिना एक दिन भी नहीं रह पाता था। वह अक्सर कहता था कि समुद्र के पानी से ज़्यादा बड़ा साथी कोई नहीं हो सकता। वह कहता आखिर ऐसा क्यों है कि आंसू और समुद्र का पानी दोनों का स्वाद नमकीन होता है। वह इसे मनुष्य की भावना से जोड़ता था। वह उन मछलियों पर अतिशय भरोसा जताता था और कहता कि अगर ये मछलियाँ न हों तो मेरे जीवन का क्या अर्थ।
शाक्यमुनि सामान्यतया नंगे बदन रहता था। सिर्फ़ बदन पर एक लुंगी। लुंगी का रंग प्रायः उजला होता था लेकिन कभी-कभी हल्की नारंगी लुंगी भी वह पहन लेता था। अपने बेटे चारूदत्त को वह बहुत प्यार करता था। कई बार वह अपने साथ समुद्र पर अपनी डोंगी की सवारी करने अपने बेटे चारू को भी साथ लाता था। बेटा चारूदत्त, जिसका नाम उसके पिता ने इसी समुद्र किनारे लेटे और आसमान को निहारते, चांद को देखते रखा था। चारू यानी चांद जैसी शीतलता। चारू कई बार अपने पिता के साथ समुद्र की इस पाट पर दूर तक जाता था और फिर इतना खुश होता था कि उधर से लौटने में बिना नाव के वह समुद्र की छाती पर बस दौड़ता हुआ चला आता था।
सब ठीक चल रहा था लेकिन शाक्यमुनि का इन मछलियों से कुछ ज़्यादा ही प्यार बढने लगा। शाक्यमुनि को पता नहीं क्यों पर अचानक एक दिन ऐसा लगने लगा कि एक दिन ऐसा आयेगा कि समुद्र से सारा पानी खत्म हो जायेगा और पानी खत्म हो जायेगा तो सारी मछलियाँ मर जायेंगी। ठीक वह दिन जिस दिन उसके मन में यह ख्याल आया उसके बाद से कभी भी उसके दिमाग से यह डर निकल नहीं पाया। वह पहला दिन था जब वह अपने साथ एक डिब्बे में समुद्र का पानी लेकर घर आया था और अपनी पत्नी से कहा था कि वह इसे सम्भाल कर रख दे क्योंकि समुद्र का पानी जिस दिन खत्म हो जायेगा उस दिन कम से कम इस पानी को देखकर वह समुद्र को महसूस तो कर सकता है और उस दिन से शाक्यमुनि ने रोज अपने साथ एक डिब्बे में पानी लाकर उस घर में रखना शुरू कर दिया था। "हम जितना अधिक से अधिक समुद्र को बचा सकें।" वह ऐसा कहता था और इस तरह उसका घर धीरे-धीरे पानी के इन डिब्बों से भरता जा रहा था।
धीरे धीरे शाक्यमुनि का यह पागलपन इस कदर बढ़ता चला गया कि वह अक्सर रात में वहीं समुद्र किनारे डोंगी पर सोने लगा और कभी-कभी वह समुद्र के पानी को अपनी बांहों में भरकर घंटों रोता रहता और तब सचमुच समुद्र के पानी में उसके आंसू का नमक मिलता रहता था और फिर यही पागलपन इतना बढता गया कि एक दिन उसने उस अपने गांव, अपना इलाका, अपनी भाषा और अपना वह प्यारा समुद्र छोड़ कर इस दिल्ली जैसे महानगर में प्रवेश करने का निर्णय ले लिया। उसने तब कहा था कि यह दिल्ली जो कि एक बड़ा शहर है यहाँ अच्छा है कि कोई समुद्र नहीं है जो कि कभी खत्म हो जाये और यह जो दिल्ली है वह कभी खत्म हो ही नहीं सकती है। लेकिन यहाँ पैसे बहुत हैं जिसे बस समेट लेने की ज़रूरत है। शाक्यमुनि जब दिल्ली आया तब चारूदत्त सातवीं कक्षा में वहीं सरकारी स्कूल में पढता था और फिर चारूदत्त दिल्ली में कभी फिर पढाई कर नहीं पाया।
यूं तो मैं शाक्यमुनि के दिल्ली के संघर्ष को भी विस्तार से जानता हूँ परन्तु यह कहानी शाक्यमुनि सुनानी की नहीं होकर उसके इकलौते बेटे चारूदत्त सुनानी की है इसलिए मैं उस विस्तार में यहाँ नहीं जा रहा हूँ। इस कहानी के लिए शाक्यमुनि के लिए संक्षेप में बस इतना ही कि शाक्यमुनि ने दिल्ली आकर अपने सामने सपनों को टूटते-बिखरते देखा। उसने अपने और अपने परिवार के जीवनयापन के लिए दर-दर की ठोकरें खायीं। तरह-तरह के निकृष्ट स्तर का काम किया और किसी तरह कई वर्षों तक ज़िन्दगी को बस घसीटता रहा। नशे से दूर रहने वाला शाक्यमुनि दिल्ली में नशे का आदी होने लगा और फिर सब बर्बाद होता चला गया। उसने अपने गाँव की जो वह छोटी-सी जमीन थी उसे बेच दिया। वह यहाँ कमाने की कोशिश करता तो ऐसा लगता जैसे वह इस दुनिया का है ही नहीं। उसे लगता कि सब उसे ही घूर रहे हैं। उसे लगता उसे कुछ आता ही नहीं। उसे लगता वह सब कुछ भूल चुका है। उसे लगता है एकदिन वह और भी सब कुछ भूल जायेगा। यहाँ तक कि अपना नाम, अपनी पहचान, अपनी भाषा और सांस लेना भी।
अच्छा बस इतना हुआ कि चारूदत्त की शादी उसके पिता ने अपनी ज़िन्दगी रहते कर दी थी। धीरे-धीरे चारूदत्त के पिता और बाद में माँ का निधन हुआ और फिर इस तरह हम इस कहानी को सीधे ले चलते हैं चारूदत्त सुनानी के जीवन मंे। यहाँ से हम चारूदत्त के जीवन की बात करेंगे और उसके नाम के लिए हम सिर्फ़ सुनानी का प्रयोग करेंगे।
सुनानी: दिल्ली में अगर लाल किला है, कुतुबमीनार है तो वह क्यों नहीं रह सकता
सुनानी को जब उसके पिता दिल्ली लेकर आये थे तब उसकी उम्र लगभग बारह-तेरह साल की थी और तब से वह लगभग दिल्ली में काम कर ही रहा है। कभी इस गैरेज तो कभी उस गैरेज। कभी रिक्शा तो कभी ठेला। बढ़ती उम्र के साथ जब वह गठीला जवान हुआ तब उसके अंदर जोश भरा हुआ था। अपने पिता को नशे में डूबते और बर्बाद होते देख तो उसे गुस्सा आना चाहिए था, उसे खीझ होनी चाहिए थी परन्तु सुनानी को अपने पिता से कोई शिकायत नहीं थी। वह अपने मन में सोचता था कि समुद्र की उन मछलियों में ज़रूर कोई चालाक मछली रही होगी जिसने पिता कि आंखों में इस दिल्ली के ख्वाब को बुन दिया था। सुनानी अपने पिता कि इस तन्हाई को शिद्दत से महसूस करता था। वह जानता था पिता कि समुद्र से और उन मछलियों से प्यार की इंतहाँ को। इसलिए वह इस अलगाव के दुख को भी जानता था। वह अपने पिता को देखता था यहाँ उनके द्वारा किया जाने वाली और फिर असफल होने वाले कोशिश को भी देखता था और दुखी होता था। सुनानी डोंगी पर बैठ समुद्र में दूर तक निकल जाने वाले पिता का एक संतुष्ट चेहरा याद करता और फिर काम पर निकल जाता था। सुनानी नशे के चंगुल में जकड़ते जा रहे पिता को जानता था परन्तु वह सच यह भी जानता था कि एक हारा हुआ और व्यथित मनुष्य कब तक जिंदा रह सकता है। सुनानी सब कुछ जानते हुए भी पिता को नशे की छूट देता था।
हाँ अब जब मैं उसकी यहाँ कहानी लिख रहा हूँ तब पिछले दस-बारह वर्षों से वह एक कबाड़ जैसी दुकान में काम कर रहा है। या कह लें यह एक ऐसी दुकान है जहाँ कारों की या तो मरम्मत होती है या फिर उसे पूरी तरह बिगाड़ ही दिया जाता है।
यह दिल्ली का एक बाहरी इलाका है जहाँ अभी तक लम्बी दूरी से चलकर आती एक मेट्रो का एक किनारा खत्म हो जाता है। मेट्रो के यहाँ पहुँचने पर यह घोषित किया जाता है "यह डैश स्टेशन है। इस मेट्रो की यह यात्रा यहीं समाप्त होती है।" इस स्टेशन से भी लगभग आठ किलोमीटर दूर जब बस से जाया जाए तब आती है यह कबाड़ जैसी दुकान। बहुत लम्बी दूरी तक यह सुनसान इलाका है। इस इलाके में ऐसा नहीं है कि इस जैसी कोई एक दुकान है कि कुछ अजीब लगता हो। एक साथ इस तरह चार-पांच बिगाड़ने या मरम्मत करने की दुकानें यहाँ है। इसलिए जब इस इलाके में कभी आप आयेंगे तो आपको यहाँ कबाड़ ही कबाड़ दिखेगा। ऐसा जैसे यह ज़िन्दगी भी एक कबाड़ है। इसे ठीक-ठीक दुकान कहा जाए या फिर गैरेज जैसी कोई चीज, पता नहीं। परन्तु हाँ यह अवश्य सत्य है कि सुनानी इन दस-बारह वर्षों में इस दुकान-गैरेज की धुरी बन चुका है। यूं तो काम करने वाले वहाँ और भी हैं परन्तुु सुनानी तो सुनानी है।
वास्तव में गाड़ियाँ जो एक्सीडेंट में या फिर पुरानी होने पर बिल्कुल थकुचा-सी जाती हैं वे गाड़ियाँ यहाँ आती हैं। गाड़ियों में थोड़ी-मोड़ी चोट हो तो वह तो कहीं भी निकल जाये लेकिन गाड़ियों को इतनी चोट लग जाये कि उसके सम्भल जाने की सारी संभावनाएँ खत्म हो जायंे तब वे यहाँ पहुँचती हैं। यूं समझिये जब रुमाल को मरोड़ दिया जाए और उस पर इस्त्री फिराकर हम उसे एकदम फ्रेश कर लें।
"असी ते लांड्री खोल रखी है जी। लांड्री विच मुड़ी तुड़ी गड्डी दे जाओ होर फेर देखो साड्डा कमाल। असी ऐनु नोट वर्गा कड़क बनां दांगे।" ऐसा सुनानी के दुकान के मालिक सरदार मोंटी सिंह अपनी दाढी में हाथ फिराते हुए कहते थे।
"हम तो कहते हैं तुसी बेफिकर होके गाड़ी चलाओ जी। गाड़ी की गारंटी हमारी। गाड़ी तुम कैसी भी हालत में ले आओ जी हम उसे एवन करके आपको लौटायेंगे। हाँ अपनी जान की चिंता आप करो। बाकी वाहे गुरु की कृपा।" सरदार मोंटी सिंह ऐसे बोलते जैसे लोग गाड़ियों को ठोकते इसलिए नहीं हैं कि उन्हें अपनी जान से ज़्यादा अपनी गाड़ी की चिंता रहती है।
दिल्ली मंे एक दिल्ली गेट है और दिल्ली गेट के पास है एक खूनी दरवाजा
सुनानी ने दिल्ली में अपने पैर जमाने के लिए बहुत संघर्ष किया। उसने रिक्शा, ठेला सब चलाया लेकिन अब लगभग ग्याहर-बारह साल से वह इसी गैरेज में था मोंटी सिंह के यहाँ। एक तरह से कहिए इस गैरेज को बनाने में सुनानी की बड़ी भूमिका थी।
"तब तो यहाँ इक्का दुक्का लोग दिखते थे। एकाध गाड़ियाँ।" सुनानी थोड़ा नाॅस्टेल्जिक होता। "तब तो यहाँ एक जामुन का पेड़ भी था।"
"यह पहली दुकान है इस तरह की इस एरिया में। फिर देखा देखी कितनी खुलती गईं।"
जब सुनानी इस गैरेज में काम पर लगा था तब कुछ नहीं पता था उसे इस बारे में। लेकिन तब दादा थे यहाँ। बंगाली दादा। दादा ने तब सुनानी को अपना शिष्य बनाया और फिर सुनानी एक आज्ञाकारी शिष्य की तरह धीरे-धीरे सब सीखता चला गया।
शुरू में सुनानी गाड़ी के खोले गए हिस्से और चोटिल हिस्से पर जब हथौड़ी मारता तो उससे जख्म और निशान दूर क्या होगा और दूसरा जख्म उभर आता।
"बाबू मोशाय। मोहब्बत करना सीखो। हम जो चोट यहाँ देता है वह जख्म भरने के लिए देता है ना कि जख्म देने के लिए।" दादा कि नसीहत आज भी भूल नहीं पाया सुनानी।
दादा कहते "हम कलाकार लोग हैं और कलाकार का काम है जखम को खतम करना। हाँ यह अलग बात है कि हमारी कदर किसी को नहीं है।" दादा ऐसा कहते और एक अतल गहराई में खो जाते। लेकिन फिर वे वापस लौटते "लेकिन तुम बोलो कला के बिना बचेगी यह दुनिया।" सुनानी को दादा कि कितनी बातें समझ में आतीं पता नहीं लेकिन दादा बोलते तो उसे बहुत अच्छा लगता था।
लेकिन दादा वहाँ बहुत दिन टिक नहीं पाये। दादा कि पत्नी वहाँ बंगाल के गाँव में कैंसर से पीड़ित हो गयी और दादा को सुनानी को अकेले कला कि इस दुनिया में छोड़कर जाना पड़ा। सुनानी अकेला हुआ लेकिन उसने अपनी स्मृति से दादा को कभी विस्मृत नहीं होने दिया।
सुनानी अपने मन के भीतर अपने गुरु को बसा कर धीरे-धीरे अपने आप को सम्भालने की कोशिश करने लगा और फिर वह धीरे-धीरे परफैक्ट होता चला गया।
सुनानी ने धीरे-धीरे गाड़ियों के शरीर पर उभरे गहरे जख्म को निकालना सीख लिया। वह प्रायः लोहे की हथौड़ी के साथ लकड़ी के हथौड़े को रखता था और गाड़ियों के उस हिस्से को गाड़ी से अलग कर अपनी गोद में रख आहिस्ते-आहिस्ते उस हथौड़ी से उसके जख्म को निकालता था।
सुनानी गाड़ियों के चोटिल हिस्से को पहले अपने अलग-अलग तरह के हथौड़ों से दुरुस्त करता फिर जब वह लगभग समतल हो जाता तब उसे मसाले से भरकर उसे पेंट किया जाता था। लेकिन सुनानी का काम सिर्फ़ चोटिल हिस्से को दुरुस्त करना था।
जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि यहाँ या तो गाड़ियों को दुरुस्त किया जाता था या फिर उसे नष्ट कर दिया जाता था। मोंटी सिंह को गाड़ियों के इस जख्म को निकालना बिल्कुल नहीं आता था। वह इस के लिए अब पूरी तरह से सुनानी पर निर्भर था। ऐसा नहीं है कि उसके यहाँ काम करने वाला सिर्फ़ सुनानी ही है। सुनानी के अतिरिक्त उसके यहाँ चार और कारीगर काम करते थे। लेकिन सुनानी को वह अब बहुत अनुभवी मानता था। हाँ लेकिन मोंटी सिंह ने इसमें महारत हासिल कर रखी थी कि गाड़ियों की कंडीशन को देखते हुए ही वह बता देता था कि वह संभलने लायक है या फिर नष्ट करने लायक।
जो गाड़ियाँ नष्ट करने लायक होती थीं उसे मलबे में तब्दील कर दिया जाता था। जो पाटर््स नये लगाने पड़ते थे तो उस पुराने जर्जर पार्ट्स को भी मलबे में फेंक दिया जाता था। मलबा यानी कबाड़। कबाड़ जब बहुत सारा इकट्ठा हो जाता था तब उसे बेचा जाता था। तब तक वह उस गैरेज के पीछे वाले हिस्से में पहाड़ की तरह बनता जाता था। एक पहाड़, दो पहाड़, तीन पहाड़। पहाड़ों के बीच ठक-ठक की आवाज एक कोरस बनाती थी।
स्त्रियों की चुप्पी में भी एक आवाज होती है
सुनानी की पत्नी का नाम था मृगाावती। मृगावती उड़ीसा कि ही थी। सुनानी के पिता अपनी मृत्यु से पहले यह एक अच्छा काम कर गए थे। नहीं तो सुनानी सोचता है कि उससे कौन करता शादी। मृगावती की लम्बाई कम थी और वह बहुत गरीब घर की थी। एक तरह से कहिए कि सुनानी के पिता उड़ीसा से मृगावती को लगभग बस लेकर ही आये थे। परन्तु सुनानी ने अपने जीवन में अपनी पत्नी का मान कभी कम नहीं होने दिया। सुनानी ने हमेशा सोचा कि उसकी शादी हो गई यही क्या कम है। मृगावती बहुत सुन्दर तो नहीं थी। उसके चेहरे पर से उसकी गरीबी झांकती थी। लेकिन सुनानी के लिए मृगावती रूपसी थी। जब सुनानी के पिता अपने साथ मृगावती को घर ले आये तब सुनानी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा था।
मृगावती जब इस घर में आयी तो सुनानी के परिवार की हालत एकदम जर्जर थी। लेकिन मृगावती खुद इतने गरीब घर से आयी थी कि उसके लिए यह सब ठीक ही था। परन्तु मृगावती को अपना घर, अपना परिवेश, अपने लोग के छूटने का दुख तो था ही।
जब सुनानी ने मृगावती को पहली बार देखा तो सबसे पहली बार उसकी निगाह उसके बालों पर गयी। मृगावती के बाल घुंघराले थे और सुनहरे थे। सुनानी ने जब उसे पहली बार देखा था तो वह उस घुंघराले बालों पर मोहित-सा हो गया था। तब पहली बार में ही सुनानी ने अपने मन में यह ख्वाब बुन लिया था कि वह इन घुंघराले बालों में अपनी उंगलियों को फंसा कर रख छोड़ेगा। एकाध दिन में जब तक थोड़ी रस्म अदा करके मृगावती से उसकी शादी नहीं हो गयी तब तक मृगावती सुनानी की माँ के साथ ही सोयी। सुनानी की माँ जो रात में बहुत खांसती थी और सोये-सोये बहुत तेज सांसें लेती थी।
शादी की रस्म के बाद जब पहली बार सुनानी अपनी पत्नी के साथ किराये के उस छोटे से कमरे में सोया तब उसके अरमानों को जैसे पंख लग गये थे। जिन घुंघराले बालों के लिए सुनानी उतावला हो रहा था हैरानी की बात यह है कि जब सुनानी ने मृगावती को अनावृत किया तो यह देख कर हैरान रह गया कि मृगावती के दोनों स्तनों के अग्रभाग पर एक-एक ठीक वैसा ही घुंघराला बाल था। वैसा ही घुंघराला और वैसा ही सुनहरा। सुनानी को तो लगा जैसे उसके हाथ खजाना लग गया हो। उसने सोचा यह तो बगीचे से निकली दो लताएँ हैं। सुनानी पहले उन दोनों बालों को एक-एक कर थोड़ी देर तक निहारता रहा और फिर उन दोनों स्तनों के दोनों बालों को एक-एक करके मुंह में ले लिया और इस बहाने।
"ये दोनों मेरे हैं मेरे। मेरे दो कबूतर। मैं इन्हें बहुत प्यार करूंगा।" सुनानी ने धीरे से यह कहा लेकिन उसके मुंह से यह आवाज बहुत स्पष्ट नहीं निकल पायी क्योंकि उसका मुंह तब भरा हुआ था। सुनानी ने जब अंत में उसे कसकर पकड़ लिया तब मृगावती चुप थी और शांत पड़ी हुई थी। एकदम निस्तेज।
सुनानी के जीवन के वे सुनहरे दिन थे। ज़िन्दगी से उसकी शिकायत खत्म होती जा रही थी। उसने तब यही सोचा 'जीवन इतना बुरा भी नहीं।' सुनानी अपने काम पर जाता और आते वक्त अपनी पत्नी के लिए थोड़ा-सा उजास ले आता और फिर घर में मौका पाकर उन लताओं से उलझा रहता। या फिर अपने कबूतरों से खेलता।
लेकिन धीरे-धीरे सुनानी ने मृगावती के साथ रहते-रहते यह जान लिया था कि वह एक चुप्पा स्त्री है। मृगावती घर में रहती थी और चुप रहती थी। वह प्रायः बस हाँ और नां से ही काम चलाती थी। वह घर का सारा काम अपने कंधे पर निपटाती लेकिन बोलती कुछ नहीं थी।
"आज सिर में तेज दर्द हो रहा है" ऐसा सुनानी बोलता और मृगावती चुप रहती।
"खाना खिला दो।" ऐसा सुनानी कहता और मृगावती उसके सामने खाना परोस देती।
"अब सो जाते हैं हम।" ऐसा सुनानी बोलता और मृगावती सचमुच सो जाती।
उस दिन जब मृगावती के उंचे होते पेट को देखकर सुनानी ने जब यह कहा था कि " तुम्हारे पेट में क्या छोटा सुनानी है? ' मृगावती ने तब भी कुछ खास प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की थी और उस दिन सचममुच सुनानी बहुत हतप्रभ रह गया था।
लेकिन मृगावती के जीवन में यह भी बहुत ही अजीब था कि वह जो जगे हुए में एक-एक शब्द को इतना सोच कर बोलती थी वही मृगावती अक्सर रात को गहरी नींद में धाराप्रवाह बोलती थी। धाराप्रवाह, उलजूलूल पता नहीं क्या क्या। कभी लगभग चीखते हुए कहती कि "मैं डूब जाउंगी, बचा लो मुझे।" फिर कसकर सुनानी को पकड़ लेती। कभी कहती "मैं कहती थी न कि रस्सी टूट जायेगी। डूब गई न बाल्टी। कभी कहती" सांस नहीं आ रही है घुट कर मर जाउंगी मैं। "कभी कहती" मुझे छोड़ दो मैं कहीं नहीं जाउंगी। झुनिया तो वहीं छूट गई। "
सुनानी ने पहले जब ये आवाजें सुनीं तो वह अंदर से डर गया था। उसे लगा पता नहीं क्या यह पागल है। या फिर यह कि क्या वह मरने वाली है। लेकिन धीरे-धीरे समय बीतने के साथ वह उसकी इस आदत का आदी हो गया। मृगावती बोलती और सुनानी उसे जोर से झकझोर देता और फिर वह करवट बदल कर सो जाती।
खैर मृगावती चाहे जैसी भी थी लेकिन सुनानी के जीवन में तीन प्यारे बच्चे उसी ने दिये और सच में इस घर को घर तो उसी ने बनाया।
"वह नहीं रहती तो घर लौटने का मन ही क्यों करता।" ऐसा सुनानी कहता तो उसके चेहरे पर एक संतुष्टि का भाव आ जाता।
एक दिन सुनानी ने आसमान की अलगनी पर एक पिंजरा टांग दिया था।
वह जो लम्बी दूरी से चली आ रही मेट्रो यहाँ आकर खत्म होती है और जहाँ से सुनानी का गैरेज सीधे में लगभग सात-आठ किलोमीटर है उसी मेट्रो के करीब से दक्षिण की तरफ महज आधे किलोमीटर की दूरी पर एक बड़ी-सी झोपड़पट्टी है। झोपड़पट्टी यानी एक बड़ी-सी जगह में छोटे-छोटे दड़बे जैसे ढेर सारे घर। अगर आप कभी ऊंची फलाईओवर से ऐसे घरों को एक साथ देखें तो सारे मकानों की ऊंचाई लगभग बराबर दिखेगी। सभी घरों की छतों पर ईंटों से दबायी गयी काली पलास्टिक या फिर चदरे जैसी कोई चीज और सबसे बड़ी बात यह कि आपको इसमें कोई गली नहीं दिखेगी। लगेगा जैस दो घरों के बीच कोई भी जगह नहीं है। फिर एक सवाल कि लोग पीछे के घरों में क्या एक घर से होकर जाते हैं।
इस मेट्रो स्टेशन से दक्षिण की तरफ जाने वाली सड़क के ठीक किनारे ही है यह झोपड़ों का अम्बार। इस मुख्य सड़क से जब इस झोपड़ों की दुनिया में उतरेंगे तब सबसे पहले मुहाने पर दिखेगी एक चाय की दुकान। दो-तीन बेंच। चाय के कुछ गिलास। एक चूल्हा और चाय के बुलबुले। थोड़ा-सा आगे जाकर ही जहाँ नित्य क्रिया करने के लिए लम्बी-लम्बी ट्राॅली जैसे टाइलेट रखे हुए हैं उससे दो कदम आगे बढने पर ही है सुनानी का एक छोटा-सा घर। वह भी घर क्या छत के ऊपर रहने कीे कोई छोटी-सी जगह। यह सुनानी का अपना है। नितांत अपना। इस दिल्ली में सुनानी जिस पर गर्व कर सकता है। जिसे वह अपनी बांहों में समेट सकता है।
सुनानी के पास इस दिल्ली जैसे महानगर में उसका अपना छोटा-सा आशियाना है। नीचे के एक बड़े से कमरे की छत उसकी अपनी है। उसने सिर्फ़ उस छत को खरीदी थी जिसपर उसने एक छोटा-सा कमरा अपने हाथों से बनवाया और उसके आगे दीवार की थोड़ी-सी आड़़ जिसमें एक तखत बिछ सके। नीचे वाले कमरे की ऊंचाई बहुत नहीं है इसलिए सुनानी को अपने कमरे में जाने के लिए बहुत सीढ़ियों को चढना नहीं पड़ता है। यूं समझें सामान्य घरों की तुलना में कम से कम पांच-सात सीढ़ियाँ कम। लोहे की एक सीढी सुनानी को बाहर से सीधे उठाकर उसकी छत पर पहुँचाती है। उस लोहे की सीढी पर ढलुवा पाट रखे हुए हैं।
सुनानी के पिता ने अपने जिंदा रहते इस बड़े शहर में एक झोपड़ी तक भी नहीं खरीदी थी। लेकिन पिता के निधन के बहुत दिनों के बाद सुनानी ने इस महानगर में पांव रखने की जगह तलाश ली। जब सुनानी की माँ का निधन हुआ तब मरने से ठीक पहले सुनानी की माँ ने एक बंद डिब्बे से कुछ हजार रुपये निकाल कर सुनानी के हाथ में रखे थे। सुनानी आश्चर्यचकित था।
"तुम्हारे पिता इतने बुरे नहीं थे बस उनकी ज़िन्दगी में प्यार की बहुत अहमियत थी।" ऐसा सुनानी की माँ ने अपने बेटे को अपनी भाषा में मरने से ठीक पहले कहा था और यह भरोसा ज़रूर रखा था कि वह अपने पिता से नफरत न करे।
अब आप इसे सुनानी की समझदारी कहें या फिर दूरदृिष्ट कि उसने इन पैसों को लेकर कुछ अच्छा और कुछ ठोस करने का सोचा। ये पैसे पर्याप्त नहीं थे। परन्तु सुनानी ने अपने जीवन में इकट्ठे इतने पैसे भी पहली बार देखे थे। लेकिन तब उसके लिए सबसे बड़े सहारा बनकर आये थे सरदार मोंटी सिंह के पिता सरदार जगताप सिंह। तब वे जीवित थे और दुकान पर आते थे। सुनानी उन पैसों के साथ परेशान था। तब सरदार जगताप सिंह ने उसे कुछ पैसे दिए इस झोपड़पट्टी में अपनी एक ठौर बनाने के लिए। सुनानी नहीं भूलता कभी उन्हें। उसने कई वर्षों में चुकाए थे वे रुपये। सरदार जगताप ंिसंह गुजर गए लेकिन सुनानी आज भी नहीं भूलता वह बात कि "यह शहर बहुत अजीब है बेटा। यहाँ आसमान में भी एक पिंजरा टांगने की जगल मिल जाए तो टांग ले।"
सुनानी का प्रवेश जब इस घर में हुआ तब उसके माता-पिता गुजर चुके थे और उसकी दो बेटियाँ हो चुकी थीं। तीसरे बच्चे के रूप में मृगावती ने बेटे को इसी घर में जन्म दिया था।
सुनानी के इस कमरे में एक खिड़की थी जिससे दिखता था एक छोटा आसमान। दरवाजे पर कपड़े का एक पर्दा टंगा हुआ था। कमरे के भीतर कुछ बर्तन थे और खाना बनाने की थोड़ी-सी जगह और कुछ संसााधन। एक कोने में कुछ मुर्तियाँ थीं। इसमें जगन्नाथ जी की भी मूर्ति थी। मृगावती सुबह सुनानी के जाने के बाद पूजा करती थी और चुपचाप ईश्वर का पाठ किया करती थी।
इस पूरी झोपड़पट्टी में लगभग सात-साढे सात सौ घर होंगे और इतने घरों में से शायद पांच या सात ही उच्चकुलीन लोग होंगे जिनके पास नित्य क्रिया से निपटने के लिए कोई नियत बनवाई गई जगह होगी। नहीं तो सबके लिए एमसीडी की तरफ से ट्राॅलीनुमा टाॅयलेट थे। बच्चे सड़क किनारे ही निवृत होते थे। इसलिए इस काॅलोनी में प्रवेश करने के लिए काफी संभल कर चलना पड़ता था।
सुनानी अपने गैरेज से लौटता तो यहाँ प्रवेश करते ही अजीब-सी बदबू उसकी नाक में भर जाती।
इस तरह के घरों में और इस तरह के मोहल्ले में (वैसे इसे मोहल्ला कहना बहुत अजीब है) जो ज़िन्दगी होती है उससे हम सब वाकिफ हैं इसलिए यहाँ मैं उस पर कुछ भी कह कर उसे दुहरा नहीं रहा हूँ। बस इतना समझा जाए कि यह दिल्ली जो कि एक विशाल शहर है उसमें यह भी ज़िन्दगी का एक रंग है। जहाँ हवा है, पानी है, मिट्टी है, भोजन है और जीवन है परन्तु सब बहुत ही कम है।
लेकिन सुनानी ने जब यह घर खरीदा तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसे पहली बार यह अहसास हुआ कि इस बड़े से शहर में उसके पास भी पैर रखने की एक जगह है। जो उसकी अपनी है। नितांत अपनी। जहाँ पर वह अपना जूता उतार सकता है। अपनी बुशर्ट उतार सकता है। अपना पसीना सुखा सकता है और जहाँ पर वह अपने चेहरे को उतार कर रख सकता है रात भर आराम कर लेने के लिए।
सुनानी जब इस घर मंे आया तब उसकी दो बेटियाँ थीं। बड़ी बेटी तब पांच-छः साल की थी और छोटी बेटी दो साल की। तब सुनानी की माँ जिंदा थी और जिसका निधन बाद के दिनों में इसी घर में हुआ। इस घर ने सुनानी की ज़िन्दगी को खुशियों से भर दिया था। सुनानी जब अपने गैरेज से लौटता तो उसका मन बहुत आह्लादित रहता। घर पर उसके दोनों बच्चे अपने पिता का इंतजार करते। सुनानी अपनी दोनों बेटियों के साथ उनकी ख्वाबों की दुनिया में उतरता और उनके साथ ढेर सारी मस्तियाँ करता। उस छोटे से कमरे की उस खिड़की के पास बिस्तर पर लेट कर सुनानी अपने बच्चों को आसमान का टुकड़ा दिखलाता। आसमान में ढेर सारे तारे थे और सुनानी खिड़की से हाथ बढ़ा कर एक मुट्ठी तारा उस कमरे में लाकर बच्चों के सामने रख देता। बच्चे उन तारों के साथ खेलते तो सुनानी को बहुत अच्छा लगता था। छोटी वाली बेटी उन तारों मंे से कुछ तारों को गुम कर देती तो सुनानी मुस्करा देता था।
यह घर, यह जगह भले ही जितनी तकलीफदेह हो परन्तु सुनानी के लिए यह एक ऐसी जगह थी जहाँ आकर वह अपने सारे दुखों को भूल जाता था। वह यहाँ पैर रखता तो ऐसा लगता जैसे उसकी सारी थकान गायब हो गयी है। सुनानी अपने कोबा में कभी एक टुकड़ा उजास, तो कभी एक चुल्लू पानी और कभी एक मुट्ठी मिट्टी भर कर लाता और उस छोटे कमरे के कोने में रख देता था। उसके बच्चे सुनानी का इंतजार करते। सुनानी बच्चों के इंतजार में शामिल था और वह इस इंतजार का बहुत सुख भी लेता था।
पत्नी इस घर में अपने बच्चों के साथ रम गई थी। उसने बोलना और सोचना शुरू तो नहीं कर दिया था परन्तु नींद में उसके दुख थोड़े कम हो गए थे। वह रात में सोती थी तो सो जाती थी। अगर सुनानी कभी जगने के लिए कहता था तो वह जग भी जाती थी।
सही मायने में कहा जाए तो सुनानी अपने इस छोटे से घर में तमाम कष्टों के बावजूद सुख से रह रहा था।
आम आदमी की ज़िन्दगी में दुख दस्तक देता ही देता है।
सुनानी की ज़िन्दगी में सब ठीक चल रहा था परन्तु उसका यह दुख तब बढ गया जब उसके घर में तीसरे बच्चे ने जन्म लिया। सुनानी की पत्नी जब तीसरी बार गर्भवती हुई तब सुनानी की माँ जिन्दा थी और इस आस में थी कि एक बेटा पैदा हो। सुनानी की माँ की ईश्वर ने सुन तो ली परन्तु।
सुनानी की पत्नी मृगावती जब गर्भवती थी तब वह पास की सरकारी डिस्पेन्सरी में एक-दो बार गई थी। उस डिस्पेंसरी में मृगावती को कई बार सुई लगााई गई थी। सुनानी की माँ कहती है उसमंे से ही कोई सुई ऐसी अवश्य लगायी गयी थी जिसने यह इतना बड़ा अपराध कर दिया था।
सुनानी का तीसरा बच्चा जो कि एक बेटे के रूप में पैदा हुआ और जिसका नाम बाद में सुनानी ने शुकान्त सुनानी रखा वह वास्तव में एक डरपोक बच्चा था। जब वह पैदा हुआ तब उसके चेहरे पर एक खिंचाव था जिसको समझना बहुत आसान नहीं था। परन्तु सुनानी के मन में एक शंका ठहर गई थी। वह उस बच्चे को देखकर गंभीर हो गया था। सुनानी की पत्नी हमेशा कि तरह कुछ नहीं बोली थी।
ज्यों ज्यों शुकान्त बड़ा होता गया उसके चेहरे का ख्ंिाचाव बढ़ता गया और उसकी आंखें फटने लगीं। वह किसी भी चीज को आश्चर्य से देखता था और आश्चर्य से उसकी आंखें सामान्य से बहुत बड़ी हो जाती थी। वह हर आवाज और हर खटके से डर जाता था और जब वह डरता था तब उसके चेहरे का ख्ंिाचाव और बढ़ जाता था। अगर आवाज बहुत तेज और डरावनी हो तो शुकान्त बहुत असामान्य हो जाता था। उसके चेहरे पर तब एक बहुत ही अजीब तरह की विकृति आ जाती थी और उसकी आंखों की पुतलियाँ उलट जाती थीं। उसके ओंठ के दोनों कोर लार से भीग जाते थे।
शुकान्त का जब जन्म हुआ तब उसके पिता सुनानी को उसकी इस समस्या को लेकर सिर्फ़ एक आशंका थी लेकिन ज्यों-ज्यों उसकी उम्र में वृद्धि हुई उसका डर बढ़ने लगा और सुनानी की आशंका सच में बदलने लगी। वह एक बरतन के गिरने से या फिर पानी के चलने मात्र से डर जाता था और रोने लगता था। वह उस झोपड़ी मंे टंगे उस कैलेण्डर के उड़ने से जब डरने लगा था तब सुनानी ने प्रयास के साथ उस झोपड़ी से हर उस चीज को हटा दिया था या फिर उसमें सुधार ला दिया था जिससे थोड़ी भी आवाज निकल सकती थी। शुकान्त की नींद बहुत पतली थी और वह अपनी नींद में भी इन आवाजों को महसूस कर लेता था।
सुनानी की माँ जब तक जिंदा रही वह तमाम झाड़-फूंक वाले बाबाओं का चक्कर लगाती रही परन्तु इससे कोई फर्क आया नहीं। बाबा कहते कि इस पर कोई बुरा साया है और वह इसकी या यह किसी और की जान लेकर ही जायेगा। सुनानी की माँ ने सुनानी से एक दिन कहा था कि यह बुरा साया और कोई नहीं है इसकी माँ है जो अपने जबरदस्ती खरीद कर लाये जाने का बदला ले रही है और एक दिन यह इसे खाकर ही मानेगी।
परन्तु सुनानी ने इन बकवासों पर कोई ध्यान नहीं दिया था। वह अपनी पत्नी को प्यार करता था और उसकी पत्नी अपने बच्चों को बहुत प्यार करती है ऐसा वह हमेशा मानता था। सुनानी ने अपनी माँ की बातों की तरफ ध्यान नहीं दिया और फिर माँ सदमे मंे एक दिन मर गई।
शुकान्त की दोनों बहनें स्कूल जाती थी और चूंकि वह एक डरपोक बच्चा था इसलिए उसे स्कूल भेजना सुनानी के लिए सम्भव नहीं था। चूंकि शुकान्त की माँ एक चुप्पा औरत थी इसलिए जब तक कि दोनांे बहनें नहीं आ जाएँ घर में एकदम शांति बनी रहती थी। मृगावती चुप रहती थी और शुकान्त डरा हुआ चुप बैठा रहता था। ऐसा अक्सर होता था कि सुबह से लेकर दोनों बहनों के स्कूल से आने तक में दोनों माँ बेटा एक शब्द भी नहीं बोलते थे। वे दोनों बैठकर सिर्फ़ एक-दूसरे की शक्लें देखते रहते थे।
"तुम्हें इससे कुछ बात करनी चाहिए।" ऐसा सुनानी अपनी पत्नी से कई बार कह चुका था। परन्तु मृगावती बस चुप रहती थी।
ऐसा नहीं है कि मृगावती अपने बेटे को प्यार नहीं करती थी या फिर ऐसा भी नहीं है कि उसने ऐसा करने की कोशिश कभी नहीं की। वास्तव में मृगावती ने कोशिश तो कई बार की कि वह उससे बात करे लेकिन सिर्फ़ एक-दो शब्द से कुछ नहीं होने वाला था और बाद के दिनों में ऐसा होने लगा था कि शुकान्त शान्त रहता था और मृगावती एक शब्द भी कभी बोल देती तो वह और डर जाता था। वह अपनी माँ से डरने ना लगे इसलिए मृगावती चुप ही रहती थी। परन्तु मृगावती ने अपने पति सुनानी से अपने चुप रहने के पीछे के कारण को कभी बतलाया नहीं था।
सुनानी ने अपने उस छोटे से घर में एक छोटा-सा टेलीविजन लगा रखा था। टेलीविजन सामने की दीवार पर था जिसके सामने पर्दा खींच दिया जाए तो टेलीविजन की पिक्चर साफ दिखने लगती थी। माँ और बेटा जब घर पर होते थे तब टेलीविजन तो चलता था लेकिन माँ अपने बेटे के कारण टेलीविजन की आवाज को खोल नहीं पाती थी। टेलीविजन पर सिर्फ़ पिक्चर चलती रहती और दोनों माँ बेटे सामने चुपचाप बैठे होते।
शुकान्त के लिए उसके पिता सुनानी एक जीवन रेखा कि तरह थे। इस दुनिया में शुकान्त अगर किसी भी इंसान का थोड़ा-बहुत भरोसा करता था तो वे उसके पिता थे। उसे लगता था कि बस पिता ही हैं जो उसे बचा सकते हैं। पिता जब गैरेज से आते तब शुकान्त उससे चिपट जाता था। सुनानी अपने साथ उसे बाहर घुमाने ले जाता था। उसके कानों में रुई डालता था और उसके हाथ को अपनी बाहों में जकड़े रहता था। वह शुकान्त को रात में अपने पास ही सुलाता था। रात मंे सुनानी हल्के-हल्के बातें किया करता था और शुकान्त बिल्कुल चुपचाप सुनता रहता था।
"दादा क्या मैं जिंदा नहीं बचूंगा।" शुकान्त ने जब पिता के सीने से चिपट कर धीमे से यह सवाल पूछा था तो सुनानी को लगा कि उसका कलेजा कट कर गिर जायेगा। उसने सोचा वह कितना मजबूर पिता हैं और इस सवाल के समय भी शुकान्त की उम्र बहुत बड़ी नहीं थी। बामुश्किल पांच वर्ष। पांच वर्ष में इतना कठोर सवाल।
बेटी को अभी यह पता नहीं था कि उसका शरीर जवान हो रहा था।
सुनानी की दो बेटियाँ थीं। एक थी सूर्यप्रभा और दूसरी थी चन्द्रप्रभा। बड़ी बेटी सूर्यप्रभा नवीं में पढ़ती थी और उसकी उम्र जब चैदह वर्ष की रही होगी तभी उसके पहले एक पैर में फिर दूसरे पैर में भी गांठें निकल आयीं थीं। गांठें ऐसी कि चलने में ऐसा महसूस हो जैसे किसी ने दोनों ही पैरों में कीलें ठोंक दी हो। सूर्यप्रभा के लिए धीरे-धीरे चलना मुश्किल-सा हो गया था। उसका स्कूल जाना जब बन्द होने लगा तब पिता के कहने पर उसकी माँ उसे सरकारी अस्पताल तक ले गयी। जहाँ एक कम्पाउन्डर मिला और एक डाॅक्टर। डाॅक्टर लगातार फोन पर बात करने में व्यस्त था। बहुत लम्बी कतार थी और डाॅक्टर ने सभी मरीजों को लगभग बात करते-करते ही देख लिया। जब सूर्यप्रभा कि बारी आई तब डाॅक्टर को अचानक कहीं जाने की याद हो आयी। डाॅक्टर ने इसकी पर्ची को देखकर कम्पाउन्डर की तरफ इशारा करते हुए कहा ऐसे जैसे यह सब तो आम रोग है इसे तो तुम भी देख लोगे। कम्पाउन्डर लगभग चालीस साल के करीब का था। जब डाॅक्टर ने उसकी तरफ आश्वस्ति भरी निगाह से देखा तो उसे बहुत गर्व महसूस हुआ। उसने सोचा डाॅक्टर भी मानने लगा है कि वह बहुत कुछ जानता है।
कम्पाउन्डर ने सबसे पहले मृगावती से सूर्यप्रभा कि उम्र पूछी। सूर्यप्रभा को लगा कि शायद माँ बता पाये या नहीं इसलिए उसने झट से बतला देना चाहा परन्तु मृगावती ने तुरंत कहा "14 साल।"
"इसका बर्थसर्टिफिकेट लेकर आये हो।"
"तुम्हारे पास बीपीएल कार्ड है।"
"राशन कार्ड में इस बेटी की सही उम्र लिखी हुई है।" कम्पाउन्डर ने ये सब बातें पूछ कर कहना यह चाहा कि "नही ंतो तुम्हें यहाँ इलाज के सारे पैसे देने होंगे।" कम्पाउन्डर की घनी मूछें थीं और उसमें दो सफेद बाल थे।
मृगावती पैसों के नाम से डर गई और उसने सोचा वह यहाँ से चली जायेगी। लेकिन फिर कम्पाउन्डर ने कहा कि "मैं तुम्हारा बीपीएल वाले में नाम चढ़ा दूंगा क्योंकि मैं इसे देख रहा हूँ। मैं बहुत दयालू हूँ और मुझसे किसी का दुख देखा नहीं जाता है।"
"तुम बस अगली बार सिर्फ़ राशन कार्ड की काॅपी ले आना।"
"कोई और देखता तो तुम्हें सारे पैसे देने पड़ते।" कम्पाउन्डर ने हल्की मुस्कान के साथ ऐसा कहा और सुर्यप्रभा से स्टूल पर बैठ जाने को कहा। उसकी माँ वहीं खड़ी थी।
कम्पाउन्डर के कहने पर सूर्यप्रभा ने दोनों पैर सामने किए तो उसने सलवार को घुटने तक उठाने के लिए कहा। सूर्यप्रभा थोड़ी हिचकी तो कम्पाउन्डर ने उसकी शक्ल को देखा।
"यह देखना होगा कि इन गांठों की जड़ कहाँ तक हैं।" मृगावती वहीं खड़ी थी और चुप थी।
कम्पाउन्डर ने कहा यह गांठें पेट की गर्मी से बनती है। देखना होगा गर्मी कहाँ तक चढ गई है। उसने सूर्यप्रभा को दूसरे रूम में जाकर लेट जाने को कहा। उस कमरे का दरवाजा इसी कमरे से जुड़ा हुआ था और उस पर हरे रंग का एक गंदा-सा पर्दा लटका हुआ था। हरा रंग का वह पर्दा काफी मोटे कपड़े का था और उस कमरे में बिस्तर पर्दा उठाकर अंदर जाने के बाद बायीं ओर था।
जब सूर्यप्रभा चली गई तो पीछे से कम्पाउन्डर गया। मृगावती साथ चलने को हुई तब कम्पाउन्डर ने उस स्टूल की ओर इशारा किया और कहा तुम यहीं बैठ जाओ अंदर बैठने की जगह नहीं है। कम्पाउन्डर ने जब कमरे के अंदर प्रवेश किया तब अस्पताल के उस बिस्तर पर सूर्यप्रभा सहमी-सी बैठी हुई थी। लेकिन कम्पाउन्डर के यह कहने पर वह थोड़ा सहज हो गयी कि "कोई बात नहीं आराम से लेट जाओ। बस थोड़ा-सा चेक कर लूं। सब ठीक हो जायेगा। मैं अभी दवाई लिख दूंगा।"
सूर्यप्रभा जब उस बिस्तर पर लेट गई तब उसने महसूस किया कि यह बिस्तर दूर से देखने में जितना नरम दिख रहा था उतना है नहीं।
कम्पाउन्डर ने पास आकर सूर्यप्रभा के बिना पूछे झट से उसकी कमीज को ऊपर कर दिया और उसके पेट को देखने लगा। पेट को उसने अपने हाथों से सहलाया और इधर उधर हल्का फुल्का दबाया। फिर उसने सूर्यप्रभा को कहा पेट तो ठीक लग रहा है। सांस लेने में कठिनाई तो नहीं होती। तुम्हारी संास फूल तो रही है। " उसने सूर्यप्रभा के चेहरे को बहुत करीब से देखा।
"कमीज को ऊपर करो। तुम्हारी सांस तो देखनी हो होगी। यह तो ज़्यादा ही तेज है।"
सूर्यप्रभा ने कमीज को पकड़ कर हल्का-हल्का ऊपर करना शुरू किया। कम्पाउन्डर ने थोड़ा तीखे आवाज में कहा "दिखायेगी नहीं तो इलाज क्या अपने आप ही हो जायेगा।" फिर उसने उसके हाथ में पकड़ी कमीज को अपने हाथ में लेकर पूरी कमीज को ऊपर गले तक कर दिया। कम्पाउन्डर ने देखा कमीज के नीचे बनियान जैसी कोई चीज ही है।
कम्पाउन्डर का हाथ कांपने लगा। उसकी सांसे तेज हो गयीं लेकिन उसने अपने को संभाला। उसने कहा "पजामा बहुत टाइट पहने हो थोड़ा ढीला करो। पेट फूल रहा है।" सुर्यप्रभा ने पजामा कि रस्सी को थोड़ा ढीला किया और कम्पाउन्डर ने बहुत जल्दबाजी में उसे थोड़ा नीचे सरका दिया। उसके सामने सूर्यप्रभा का पूरा शरीर था और फिर वह थोड़ी देर तक यहाँ वहाँ हाथ सहलाता रहा। सुर्यप्रभा बहुत अजीब स्थिति में फंसी हुई थी। कम्पाउन्डर का चेहरा खिंचता चला जा रहा था। अचानक उसने अपने एक हाथ को नीचे किया और फिर उसने दूसरे हाथ से सूर्यप्रभा कि छाती को कसकर पकड़ लिया। सुर्यप्रभा अचानक उठ कर बैठ गई। कम्पाउन्डर के चेहरे पर पसीने की बूंदे चुहचुहा गयीं।
सूर्यप्रभा ने अपने कपड़े ठीक किये और वह बाहर आ गई।
बाहर उसकी माँ उसी स्टूल पर ज्यों की त्यों बैठी हुई थी। सूर्यप्रभा कुछ बोल नहीं पायी। उसकी माँ कम्पाउन्डर के इंतजार में थी। कम्पाउन्डर ने बाहर आने में ज़्यादा वक्त नहीं लिया। जब वह बाहर आया तो सूर्यप्रभा ने देखा कि वह काफी संयत था। उसने सूर्यप्रभा कि माँ को कहा इसके पेट में बहुत गैस है। अगली बार इसके पेट और इसकी छाती की एक्सरे निकालनी होगी।
"तुम चिंता नहीं करो। यहाँ मैं कोई पैसा नहीं लगने दूंगा।" ऐसा कहते हुए तब कम्पाउन्डर की निगाह सिर्फ़ उस परची पर थी। उसने पर्ची पर तब तक के लिए एक-दो दवाइयाँ लिख दी थीं।
मृगावती वहाँ से निकली तो वह उस कम्पाउन्डर के एहसान के तले दबी हुई थी। लेकिन सूर्यप्रभा चुप्प थी। जब आगे मृगावती ने सूर्यप्रभा से उस अस्पताल में चलने के लिए कहा तो उसने साफ मना कर दिया। मृगावती ने कुछ नहीं कहा। जब सुनानी ने मृगावती को पूछा तो उसने बस इतना कहा वह नहीं जाना चाहती। बाद में मृगावती उसे अपने साथ एक झोला छाप डाॅक्टर के पास ले गई। झोला छाप डाॅक्टर ने अपने उपचार में उसका आॅपरेशन किया और उन गांठों को गर्म नुकीले औजार से निकाला। उससे हुआ यह कि सूर्यप्रभा के दोनों पैरों में चार-चार, पांच-पांच गड्ढे हो गए।
डाॅक्टर ने दो-तीन पाउडर देकर सूर्यप्रभा को विस्तार से उपचार बतलाया। उस उपचार में कपड़े की बाती बनाकर उसे उस पाउडर के मसाले में भिगोकर आग में जलाना था और फिर उस अधजले कपडे़ को उन छेदों में अंदर की ओर ठूंसना था। सूर्यप्रभा इस उपचार से तड़प उठती थी। गर्म कपड़े को किसी नुकीली चीज से उस जख्म के अंदर ठूंसना प्राण निकालने वाला था। लेकिन सूर्यप्रभा ने यह भी नियमित रूप से किया। इस उपचार का अंत यह रहा कि जख्म तो धीरे-धीरे भर गए लेकिन यह गांठ पूरी तरह कभी ठीक नहीं हो पाये। हर छः-सात महीने पर जब लगता कि अब सब सामान्य होने को है तब यह गांठ फिर से उभर आता और फिर यही सब प्रक्रिया और इतने ही कष्ट। धीरे-धीरे सुर्यप्रभा ने इन गांठों की चिंता करनी छोड़ दी। गांठों की चिंता करना मतलब इलाज की चिंता करना। गांठ होते और बस वह अपना चलना-फिरना बन्द कर देती। उसने अपनी इन गांठों के साथ ही जीना सीख लिया था।
इस तरह सूर्यप्रभा का स्कूल छूट गया। पढाई छूट गई तो घर में सिर्फ़ सोना और टीवी देखना ही काम बच गया। इस घर में वह अपनी माँ और अपने बड़े होते भाई के साथ दिन भर रहती थी। सूर्यप्रभा दिन भर बस यूं ही लेटी रहती या फिर टेलीविजन देखने की कोशिश करती। पूरी लड़ाई अब इस बात की थी कि टेलीविजन चले तो उसमें आवाज हो या फिर वह बन्द हो। आवाज बन्द न हो इसके लिए सूर्यप्रभा पूरी लड़ाई छेड़ देती। लेकिन आवाज हो तो शुकान्त डर कर रोने लगता था।
आसमान में टंगा यह पिंजरा वाकई पिंजरा ही हो गया था।
यह झोपड़ी सुनानी के लिए जन्नत की तरह भले ही हो लेकिन एक वक्त आया जब उसे इस घर से दिक्कत शुरू हो गई। बच्चे बड़े होने लगे और यह इलाका इन बच्चों के लिए नासूर होने लगा। सुनानी की सबसे ज़्यादा चिंता के केन्द्र में उसकी बड़ी हो रही बेटियाँ थीं। बेटी बड़ी होने लगी और बेटी का शरीर इस घर, इस झोपड़पट्टी में समाने से बाहर हो गया।
बेटी बड़ी हो रही थी तो साथ में उसका शरीर भी जवान हो रहा था। बड़ी हो रही बेटी का अपनी नित्यक्रिया के लिए बाहर जाना और यूं लाइन में लगना सुनानी के दिल पर बहुत कचोट मारता था। यूं एक औरत होने के नाते उसकी पत्नी ने भी ये सब कष्ट सहे थे या सह रही थी लेकिन बेटी, जिसे वह बहुत प्यार करता था, के हिस्से के इन कष्टों को सहना उसके लिए बहुत मुश्किल था।
सुनानी जिस घर में रहता था उसके सामने सिर्फ़ कपड़े का घेरा बनाकर नहाने की एक जगह बना दी गई थी। यह स्नान घर न तो उसका अपना ही था और न ही इसका घेरा इतना मजबूत ही था कि उसके भीतर के दृश्य अदेखा रह जाये। स्नान घर जैसी इस जगह में स्त्रियाँ स्नान करती थीं। लेकिन इस कपड़े का घेरा इतना ऊंचा नहीं था कि स्त्रियाँ खड़ी हो सकें। स्त्रियाँ इस स्नान घर मंे बैठकर ही स्नान करती थी और बैठकर ही कपड़े बदल लेती थी। सुनानी अगर चाह भी ले तो इस स्नान घर को कुछ मजबूत नहीं कर सकता। क्योंकि यह जगह उसकी अपनी नहीं थी। सड़क किनारे की इस जमीन पर सिर्फ़ इन पर्दों के सहारे ही काम चलाया जा सकता था।
सुनानी के भीतर का पुरुष इस स्नान घर को देखकर बहुत दुखी रहता था। वह जानता था कि इस स्नान घर में बेटी की जवान होती देह को ढ़कने के कोई साधन नहीं है। वह किसी से कह नहीं पाता था लेकिन उसने कई बार इस इलाके के लंपट लड़कों को बेटी के स्नान करने जाने का इंतजार करते देखा था।
उस दिन की बात सुनानी कैसे भूल सकता है जब बहुत बुरा हुआ था। सोमवार का दिन था। वह काम पर जाने के लिए निकल रहा था और बाहर मौसम बहुत खराब था। उसके हाथ में एक झोला था जिसमें उसका दोपहर का भोजन था। इस दोपहर के भोजन में तीन सूखी रोटी के साथ आलू के कुछ भुने हुए टुकड़े थे। उसने कुछ लड़कों को ताक झांक करते देखा तो यह समझ लिया कि स्नान घर में बेटी है। वह सीढ़ी से नीचे उतर रहा था तब पानी के गिरने की हल्की आवाज उसके कान में आ रही थी। लेकिन जब वह स्नान घर के समीप से गुजर रहा था तब यह आवाज बन्द होे गयी थी। उसने देखा कि उसके रुकते ही सड़क के सारे लफंगे दूर भाग गये थे। वह कुछ पल हिचका लेकिन उसकी नजर अनायास ही उस स्नान घर की तरफ चली गई। आखिर कितनी जर्जर हालत है इस स्नान घर की।
पानी की आवाज थम चुकी थी। मौसम बहुत खराब था ऐसा लगता था कि अभी बारिश हो जायेगी। सुनानी ने जब नजर को घुमा कर उस तरफ किया तो अचानक लगा कि वह स्नान घर के बहुत करीब है और स्नान घर बिल्कुल ही बेपर्दा हो गया है। सुनानी की निगाह जवान हो रही बेटी पर गई जो अब कपड़ा पहनने की स्थिति में थी। उसने अपनी जवान हो रही बेटी को बहुत दूर तक अनावृत देख लिया था। यह अच्छा था कि उस बेपर्दा वाली जगह से बेटी की निगाह अपने पिता पर नहीं गई थी।
लेकिन पिता सुनानी!
सुनानी को अचानक लगा कि उसके पांव कांपने लगे हैं। दोनों पांवों का भार अचानक बहुत बढ़ गया। उसने तुरंत भाग जाना चाहा। परन्तु पैर बहुत तेज नहीं उठ पाये। उसे लगा कि उसके पेट में एक बहुत कठोर गोला बन गया है। एक कठोर गोला जो ऊपर की ओर उठ रहा हो। उसके पेट में बहुत जोर का मरोड़-सा उठा और वह कुछ दूर जाकर सड़क किनारे जमीन पर बैठ गया।
"इस ज़िन्दगी को होना ही था तो क्या ऐसा होना था।" सुनानी ने शुद्ध उड़िया में अपने मन के भीतर ये शब्द बड़बड़ाये।
यह वह दिन था जब से सुनानी का उस घर में रहना एक सजा कि तरह हो गया था। उसे लगने लगा था जैसे उसने अपने जीवन में वह कर दिया है जिससे उसका छुटकारा नहीं है। वह अपने आप से नजरें चुराने लगा था।
लेकिन इसके बाद भी सुनानी सिर्फ़ अपने जीवन को कोस भर ही सकता था, उसके पास इसका कोई समाधान नहीं था। उसका वेतन महज छः हजार रुपये थे और छः हजार में दिल्ली में खाने के अलावा सिर्फ़ सिर दर्द की गोलियाँ खाई जा सकती थीं। बेटी बड़ी हो रही थी लेकिन सुनानी के यहाँ पैसों की रफ्तार रुकी हुई थी।
परन्तु इस घर से इतनी समस्याएँ होने के बावजूद तब सुनानी के पांव के नीचे की जमीन खिसक गई थी जब यह बात अचानक से उस पूरे इलाके में फैल गई कि यह जमीन, जिस पर कि उनके छोटे-छोटे ख्वाब धंसे पड़े हैं, उस जमीन के भीतर एक अकूत खजाना है। इस अकूत खजाने को हासिल करने के लिए इस जमीन को पहले समतल करना होगा और फिर इसमें चमचमाती रोशनी वाली ढेर सारी दुकानें खोली जायेंगी। ढेर सारे नए ख्वाब पलेंगे। ढेर सारी ख्वाहिशें और ढेर सारे अरमान यहाँ अपना आकार लेंगे।
यह कहा गया कि यह अनधिकृत जमीन है इसलिए सरकार इसे कभी भी समाज कल्याण के लिए ले सकती है।
यह खबर इस इलाके में आग की तरह फैली।
"यहाँ लाशें बिछेंगी।" कुछ लोगों ने कहा।
"यहाँ हमारी लाशें बिछेंगी।" एक आदमी ने इसे थोड़ा सुधार दिया।
"तो अभी कौन-सा जिंदा हो।" एक लौण्डे ने मजे लेते हुए कहा।
"अभी कम से कम जिंदा होने का अहसास तो है।" एक बुजुर्ग ने बात को सम्भाल लिया।
"हाँ सो तो है। एक सिगरेट पी लें जरा।" उस लौण्डे ने फिर मजा लिया।
सुनानी ने जब इस खबर को सुना तो सोचा "इस धरती पर क्या सुई की नोंक भर जगह नहीं बची कहीं हमारे लिये।"
बहुत दिनों के बाद उस रात और उस रात के बाद कई रातों तक सुनानी की पत्नी ने रात में नीद में कुछ कहना चाहा।
"श्मशान में कुत्ता रो रहा है।"
"सीढ़ी में मेरा पैर अटक गया है। मैं गिर रही हूँ।"
"ये सारे घर टूटेगें तो कितने सांप निकलेंगे?" आदि आदि।
यह अंदेशा और डर बहुत दिनों तक बना रहा कि आज रात तो कल रात बुल्डोजर आने वाला है। लोग झंुड बनाकर पहरा देने लगे। लोग कहते जो आयेगा उसे कौन-सा हम छोड़ देंगे। उन पर कुत्ता छोड़ देंगे। वहाँ के लौण्डे लपाटे कहते "बहन के ल। सालों को मार-मार कर पूरा शरीर बर्बाद कर देंगे।"
कई कई रातें ऐसे गुजरीं कि लोग रात-रात भर सोये नहीं। कभी मामला ठंडा पड़ जाता तो कभी फिर वही शोर-गुल।
सुनानी का चेहरा उन दिनों एकदम काला पड़ गया था। उसे रोज अपने गैरेज जाते वक्त ऐसा लगता कि जब वह शाम को लौटेगा तब वह यहाँ मलबे का ढेर पायेगा। रात को वह सोता तो लगता कि जब वह सुबह उठेगा तो वह किसी और ग्रह पर होगा। कैसे और पता नहीं क्या-क्या होगा।
लेेकिन इसे उस झोपड़पट्टी के लौण्डे लपाटों का डर कहिए या फिर वोट बैंक का चक्कर न तो इस इलाके में कोई नोटिस ही आया और न ही कोई पुलिस वाला।
हाँ कुछ ही दिनों में यह खबर ज़रूर आयी कि यह जमीन सरकार लेना तो चाहती है लेकिन वह इसके बदले पक्का मकान देगी। पक्का मकान यानी पक्की छत और पक्की सड़कें और पक्के शौचालय।
सुनानी ने इसे जब सुना तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। सुनानी के मन में सबसे पहले बड़ी हो रही बेटियों का ख्याल आया। उसे लगा अब बड़ी हो रही बेटियाँ सुरक्षित हैं।
अब यहाँ होती है कहानी की असली शुरूआत
घर की समस्या के समाधान के उछाह में सुनानी ने यह सोचा ही नहीं कि घर कहाँ और कितनी दूर मिलेगा।
सरकार को शायद वह जमीन किसी 'जनकल्याण' के काम के लिए बहुत जल्द देनी थी। उस पर शायद कुछ ज़्यादा ही दबाव था। इससे फायदा यह हुआ कि एक साल के भीतर ही इन लोगों को घर मुहैया करा दिया गया। अभी घर पूरी तरह तैयार भी नहीं थे लेकिन इन्हें वहाँ स्थान्तरित कर दिया गया।
इस झोपड़पट्टी में जितने घर थे सभी को घर तो मिल नहीं सकता था क्योंकि इनमें से बहुत से घर ऐसे थे जिनके नाम पर घर था ही नहीं। जिनके नाम सूची में थे उन्हें घर मिले और जिनके नहीं थे उन्हें बस वहाँ से बेदखल किया गया।
यह जगह जहाँ ये घर बनाये गए थे वह दिल्ली का दूसरा किनारा था। एकदम सुनसान। दूर-दूर तक न तो कोई घर और न ही कोई आवाजाही। वहाँ तो खैर क्या उसके आसपास भी कोई मेट्रो अपना आखिरी पड़ाव नहीं लेती थी। बस इतना समझ लीजिए कि बस उस नये घर से कुछ ही दूर चला जाए कि दिल्ली खत्म। बस उस रास्ते कुछ बसें गुजरती थीं जो अपने अंतिम पड़ाव में दिल्ली को खत्म करने चल देती थी।
यूं समझा जाए कि अभी तक सुनानी जिस झोपड़ी में रह रहा था ये घर उसके ठीक विपरीत दिशा में थे और ये पुराने घर जितना ही मुख्य इलाके में थे ये नये घर उतने ही सुनसान इलाके में।
सुनानी को जब घर मिला और उसने उस घर को जाकर देखा तो उसे बहुत खुशी हुई। यह घर छोटा ही सही लेकिन पक्का था। पक्की-सी जिन्दगी। उसने अपने परिवार को वहाँ अच्छी ज़िन्दगी जीते हुए और बहुत सुरक्षित महसूस किया। सुनानी ने घर को देखकर अपने सिर को ऊपर उठाकर ईश्वर को धन्यवाद दिया और सोचा "सचमुच यह दिल्ली बहुत अनोखी है। बहुत सारे रंग हैं इसके।"
सुनानी उस घर को देखकर लौटा तब चन्द्रप्रभा ने बहुत उत्साह से पूछा था "हमारा नया घर कैसा है।"
सुनानी ने उत्तर देने से पहले सूर्यप्रभा कि तरफ देखा था और फिर उसके चेहरे पर एक संतुष्टि का भाव आ गया था। फिर उसने जवाब दिया था "एकदम चकाचक। वहाँ तुम्हारे खेलने की जगह भी है।"
सुनानी जिस एक मुद्दे को अभी अपने परिवार के बीच उठाना नहीं चाहता था उसे वह बहुत ही बेहतर तरह से जानता था। वह जानता था कि जिस गैरेज में वह काम कर रहा है उससे उस घर की दूरी इतनी अधिक है कि वहाँ आना जाना रोज संभव नहीं है।
सुनानी ने अपने मन में पहले दिन ही सब समझ लिया था। अपने गैरेज से निकलो तो पहले बस फिर मेट्रो और फिर एक और बस। उसने आने-जाने का बस का किराया जोड़ लिया था दोनों तरफ के कम से कम हुए अस्सी रुपये। उसने अपने मन में हिसाब लगाया। अस्सी रुपये के हिसाब से पच्चीस दिन के हुए दो हजार। उसने मन में सोचा अब तक बढ कर हुए वेतन के बावजूद क्या वह दो हजार रुपये किराये पर खर्च कर पायेगा। क्या वह बचे हुए साढे चार हजार में घर का खर्च चला पायेगा। आज पहली बार सुनानी को लगा कि दिल्ली कितनी बड़ी है। एक किनारे पर बैठो तो दूसरे को छूना संभव न हो पाये। उसने सोचा दिल्ली सिर्फ़ दूर नहीं है बल्कि दिल्ली में दूरी भी है।
सुनानी जब अपने घर को छोड़ रहा था तब उसकी आंखों से आंसू गिर रहे थे। उसे अपनी माँ की बहुत याद आ रही थी कि कैसे उसकी माँ ने अपनी जमा पूंजी में से इस घर का आधार रखा था। लेेकिन दूसरी तरफ एक सुकून भी था। बेटी और परिवार सुरक्षित था। उनका भविष्य सुरक्षित था।
लेकिन सुनानी की चिंता के केन्द्र में था शुकान्त। शुकान्त जो अपने पिता के बिना एक दिन काटने की सोच भी नहीं सकता, वह कैसे रहेगा। सुनानी ने शुकान्त की तरफ देखा तो रोना छूट गया। शुकान्त अब आठ साल का लगभग होने को था लेकिन कौन कहेगा उसे आठ साल का। आठ साल का घर में चुपचाप दुबक कर बैठे रहने वाला एक बच्चा। सुनानी ने शुकान्त को गले लगा लिया और उसकी आंखों से आंसू निकल आए। शुकान्त भी शायद समझ रहा था, उसके शरीर में एक कंपन थी।
"दादा अगर मेरी नींद में राक्षस आ गया तो मैं क्या करूंगा। वह मुझे मार खायेगा क्या?" शुकान्त ने अपने दादा को बस इतना ही कहा और दादा ने सब समझ लिया।
"मैं सारे राक्षसों को यहीं पकड़ कर रख लूंगा। कोई तुम्हारे पास आ ही नहीं पायेगा।" सुनानी ने कहा लेकिन उसे अपने कहे पर भरोसा नहीं हुआ।
सुनानी अपने बेटे के लिए सब कुछ सोच सकता था। परन्तु उसके पास विकल्प सिर्फ़ दो ही थे। एक या तो उधर ही कहीं नौकरी ढूँढ ली जाए या फिर अलग रहना ही दूसरा एक मात्र विकल्प था। जहाँ सुनानी का नया घर था वहाँ कई किलोमीटर तक दूर-दूर कोई अवसर नहीं था और अगर कुछ नजदीक करने के लिए कोई और नौकरी करनी भी पड़े तो सुनानी के पास विकल्प ही क्या था। सुनानी को इस कलाकारी के सिवाय आता ही क्या था और अब वह उम्र भी कहाँ रही कि वह कुछ नया सीख ले और नया कुछ करने का रिस्क ले भी तो इतनी तनख्वाह कौन देगा और तनख्वाह के बिना बच्चों के पेट कैसे पलेंगे। वह तो भला हो उस दादा का जिसने यह हुनर सुनानी के हाथ में दे दिया। सुनानी ने अचानक से सोचा पता नहीं अभी कहाँ होंगे दादा।
सुनानी ज्यों-ज्यों इस पुराने घर को छोड़ने के करीब जा रहा था उसके अंदर अपने परिवार के छूटने का डर बढ़ता जा रहा था। वह अपने सारे विकल्पों पर सोच लेना चाहता था।
सुनानी के गैरेज का मालिक सरदार मोंटी सिंह एक अच्छा आदमी था। वह सुनानी की समस्या को समझता था। मोंटी सिंह यह कदापि नहीं चाहता था कि सुनानी उसके गैरेज को छोड़ कर जाए लेकिन वह जानता था कि वह एक मजबूर पिता है। सुनानी के उपर मोंटी सिंह के पिता और खुद उसका बहुत एहसान था इसलिए खुद सुनानी भी नहीं चाहता था कि जीते जी उसे ऐसा करना पड़े। परन्तु उसकी मजबूरी उसकी इंसानियत से बड़ी थी। मोंटी सिंह ने उसे इस बात की इजाजत दे दी कि वह कोई काम ऐसा देख ले जहाँ से वह अपने घर लौट सकता हो। तब मोंटी सिंह ने ठीक अपने पिता कि तरह बहुत गहरी बात कह दी थी "जो शाम को अपने घर नहीं लौट पाता है उसका जीना भी कोई जीना है। शाम को अपने घर तो पंछी-पखेरू भी लौटते हैं। तूं तो जीता जागता बंदा है यारा।" सुनानी ने देखा मोंटी सिंह में उसके पिता का अक्स दिख रहा था। मोंटी सिंह ने सुनानी को चार दिनों की छुट्टी दी घर को संजोने और अपनी नौकरी पर विचार करने के लिए।
इन चार दिनों में सुनानी ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। लेकिन सुनानी इस समय के हाशिये पर फेंका हुआ एक ऐसा आदमी था जिसके लिए इस धरती पर कोई जगह बनाई ही नहीं गई थी। उसने सारे विकल्पों पर विचार कर लिया। लेकिन उसका यह घर इतना सुनसान इलाका में था कि वहाँ कोई गुंजाइश नहीं थी। आसपास के सारे इलाके जहाँ से वह अपने घर लौट सकता था वहाँ कोई ऐसी स्थिति बन नहीं पा रही थी कि वह अपनी बनी बनाई नौकरी छोड़ दे।
इन चार दिनों के मोहलत की आखिरी रात सुनानी अपने नए घर में शुकान्त से चिपट कर सोया हुआ था। उसके बगल में मृगावती निश्चिंत सोयी हुई थी। लेकिन सुनानी की आंखों से आंसू झड़ रहे थे। सुनानी उठकर वहीं बिस्तर पर ही बैठ गया। उसने देखा शुकान्त ने गहरी नींद में भी उसको कसकर पकड़ रखा है। शुकान्त के चेहरे पर डर की एक गहरी छाया थी।
बाहर दूर-दूर तक सन्नाटा पसरा हुआ था। उसे यहाँ का यह सन्नाटा बहुत सुकून दे रहा था। यह इलाका जहाँ ये घर बसाये गये थे उसके चारो तरफ छोटे-छोटे पहाड़ थे। यह पथरीला इलाका था और उन पत्थरों के बीच उगे हुए छोटे मोटे पौधे। इन घरों के चारों ओर एक घेरा बनाकर इसे सीमित किया गया था। उससे थोड़ा आगे चलकर सड़क थी जिससे बसें जाती थीं और रात में बड़े-बड़े ट्रक। अब जब से ये घर बसाये गए हैं वहीं सड़क किनारे बसों के नंबर लिखकर पेड़ पर टांग दिया गया है। यहाँ बसें रुकने लगी थीं। यह बस स्टाॅप बन गया था। लेकिन ये घर उस सड़क से इतनी दूरी पर थे कि वहाँ बसों की आवाज नहीं के बराबर ही आ पाती थी। इन घरों के पीछे और अगल-बगल जहाँ तक नजर जाती थी वहाँ तक एक सन्नाटा था। पहाड़ के छोटे-छोटे टुकड़े और उनके बीच उगे हुए छोटे-छोटे पौधे।
सुनानी उस दिन सुबह-सुबह जब जाने को तैयार हुआ तो वह हारा हुआ-सा लग रहा था। अपने साथ उसने एकाध कपड़े रख लिये और आगे क्या होगा पता नहीं। लेकिन उस दिन अचानक सुनानी ने इस इलाके की खामोशी को देखकर अपने मन में सोचा कि यह जगह जहाँ आवाज कहीं भी नहीं है उसके बेटे के लिए बहुत सुरक्षित है। कोई आवाज नहीं है इसलिए कोई डर भी नहीं। सुनानी ने सोचा यहाँ उसके बेटे को कान में रुई डालने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
सुनानी ने जब अपने मालिक सरदार मोंटी सिंह से यह साझा किया कि उसके पास अब इसके अलावा कोई चारा नहीं है। मोंटी सिंह खुश हो गया। सुनानी ने जब यह सोचा था कि वह अपने सोने की व्यवस्था वहीं करेगा तब उसके मन में यह एक डर था कि अगर मालिक ने उसे अपने गैरेज में सोने तक की इजाजत नहीं दी तब वह क्या करेगा। यूं तो गैरेज में इतनी जगह थी कि उसमें एक आदमी पड़ा ही रहेगा तो क्या फर्क पड़ जायेगा। लेकिन मालिक तो मालिक है वह चाहे अपनी जगह का इस्तेमाल करने दे या न दे। लेकिन सरदार मोंटी सिंह ने आगे बढ़कर साथ देने का वादा किया और यह कहा कि "अरे बादशाहांे यह गैरेज तुम्हारा है, तुमने सींचा है इसे। इसमें पूछना क्या है!"
दिल्ली, मनुष्य, कीड़ा और कीड़े जैसी ज़िन्दगी
इस आदत को डालने में सुनानी को वक्त लगा कि अब काम खत्म करने के बाद उसे कहीं जाना नहीं है। हाँ उसके लिए यह मुश्किल हो गया था कि वह कैसे यह निर्णय ले कि कहाँ से उसके काम का वक्त शुरू होता है और कहाँ खत्म। शाम को अब वह प्रायः देर तक ही काम करता था। वैसे भी वह करता क्या।
सुनानी के लिए सबसे मुश्किल था अकेले खाने की व्यवस्था करना। उसने अपने जीवन में कभी भी अपने हाथों से खाना बनाया नहीं था। माँ के बाद मृगावती ने अपने हाथों सारी जिम्मेदारी निभाई थी। उसने लकड़ी रखकर थोड़ा बहुत खाना बनाने की व्यवस्था वहाँ की थी परन्तु प्रायः वह इधर उधर ही खाता था। इधर उधर ठेले-साइकिल पर अजीब अजीब-सी तली हुई चीजें।
सुनानी का यह गैरेज जिस इलाके में था वह अँधेरा घिरने के बाद काफी सुनसान हो जाता था। एकाध लोग ही इधर-उधर दिख जाए तो दिख जाए। उस गैरेज में सिर्फ़ एक छोटा-सा कमरा था जिसमें काफी सामान भरा हुआ था। उसी में एक कुर्सी और एक टेबुल था जिस पर मोंटी सिंह बैठता था। इस कमरे की चाबी मोंटी सिंह अपने पास रखता था। सुनानी गैरेज में खुले आकाश के नीचे उन कबाड़ के पहाड़ों के बीच सोता था। वहाँ उसे सोते हुए देखना ऐसा लगता था जैसे वह पहाड़ों के बीच एक घाटी में सोया हुआ है। सुनानी के साथ वहाँ जो चार और लोग काम करते थे उनमें गिरिजा को उसका दुख समझ में आता था इसलिए वह कभी कभार कह भी देता था कि दादा आज मैं यहीं रुक जाता हूँ। परन्तु सुनानी कहता "नहीं जो घर जा सकते हैं उन्हें तो घर जाना ही चाहिए।" सुनानी शाम को काम खत्म करने के बाद अक्सर सड़क किनारे आ जाता और उधर से गुजरने वाली बसों को देखता। बसों में यात्री अपने-अपने घरों को जा रहे हैं सुनानी ऐसा सोचता और उन्हें देखकर वह बहुत खुश होता। वह आसमान में पक्षी के झुंड को भी घर की तरफ लौटते हुए देखता तो उसे बहुत खुशी होती। वह उन पक्षियों को देखता और उन पक्षियों के चेहरे की मुस्कराहट को भी देखता।
सुनानी को देर रात तक नींद नहीं आती। वह उस घाटी में सोते हुए आसमान को देखा करता था। आसमान में एक चांद था और ढेर सारे तारे। उसी आसमान में शुकान्त का चेहरा भी था। शुकान्त का उदास चेहरा। सुनानी आसमान में टंगे अपने बेटे के चेहरे से घंटों बतियाया करता। वह शुकान्त से माफी मांगता और शुकान्त रोने लगता।
"तुम मेरे लिए अनमोल हो। लेकिन मैं क्या कर सकता हूँ। तुम्हें अपने आप जीना सीखना होगा।" सुनानी अपने मन में ऐसा साचा करता था।
सुनानी जब गहरी नींद में होता तो उसे सपने आते। सपने में वह शुकान्त को अपने साथ घुमा रहा होता उसे झूला झुला रहा होता कि बाहर एक जोरदार धमाका होता और शुकान्त वहीं जमीन पर लोटने लगता। उसकी आंखें अजीब-सी बाहर आ जातीं और उसकी देह अकड़ जाती। सुनानी अपने सपने से घबरा कर उठता और देखता कि उसके माथे पर पसीने की बूदें हैं।
सुनानी ने एक बार सपना देखा था कि वह सोया हुआ है और साथ में मृगावती सोयी हुई है। एकदम चुप्प और सुनानी उन दोनों कबूतरों से खेल रहा है। सुनानी ने महसूस किया कि वे दोनों अब मुरझा से गए हैं।
लगभग एक वर्ष बीतने को था। इस बीच सुनानी और उसके परिवार का जीवन यूं ही चलता रहा था। जो जहाँ थे वे उसी हालत में अपनी उम्र में बड़े हो रहे थे। सुनानी यूं ही खाने और सोने के बीच जीवन बिता रहा था। शुरू में दो चार बार तो सुनानी थोड़ी जल्दी-जल्दी घर गया लेकिन उसे लगा कि अगर ऐसा वह लगातार करता रहे तो खर्च के हिसाब से बहुत ही मुश्किल में पड़ जायेगा। अब उसने अपने को महीने में एक बार या फिर अधिकतम दो बार तक सीमित कर लिया था।
वह इलाका चूंकि इतना सुनसान था और सारी सुविधाएँ चूंकि दूर थीं इसलिए बहुत सारी दिक्कतें थीं। सुनानी की दूसरी बेटी चन्द्रप्रभा जो अब तक स्कूल जा रही थी यहाँ आकर उसका भी स्कूल बन्द हो गया। अब उस घर में चारों रहते थे और बस रहते थे।
सुनानी ने देखा कि शुकान्त अकेले में एकदम मुरझा गया था। वह शांत हो गया था। जब शुरू में सुनानी एक-दो बार घर गया तो शुकान्त को लगा जैसे सांस मिल गई हो। लेकिन धीरे-धीरे वह अपने पिता से इतना ज़्यादा चिढ गया था कि वह बिल्कुल शांत हो गया था। वह अब अपने पिता के आने और जाने पर कोई प्रतिकिया नहीं देता था। सुनानी ने देखा उसका चेहरा और खिंचता जा रहा था। उसकी आंखें धीरे-धीरे और चैड़ी होती जा रही थी। लेकिन वह बस अपने घर में चुपचाप पड़ा हुआ रहता था। यह इलाका बनिस्पत शांत था इसलिए चन्द्रप्रभा कभी-कभी उसे बाहर चलने को कहती भी थी परन्तु वह कहीं नहीं जाता था। धीरे-धीरे सुनानी का घर जाना इतना कम हो गया कि उसे बहुत कुछ पता भी नहीं चल पाता था। हाँ मोबाइल पर चन्द्रप्रभा से रोज एक छोटी-सी बातचीत हो जाती थी। सुबह काम पर बैठने से पहले सुनानी एक फोन अवश्य करता था और लगभग हर दिन उस फोन पर चन्द्रप्र्र्रभा ही होती थी। वह पापा के करीब थी और स्वस्थ भी। सुनानी का उस फोन पर रोज का एक सवाल ज़रूर था कि शुकान्त कैसा है और लगभग रोज ही चन्द्रप्रभा जवाब देती कि "ठीक नहीं है।" सुनानी इस जवाब को पहले से जान रहा होता था लेकिन ऐसा सुनकर वह दुखी होकर फोन रख देता था।
परिवार से इस अलगाव के बाद भी सुनानी का जीवन और यह कहानी सामान्य चल रही होती यदि सुनानी के जीवन में यह तूफान न खड़ा हुआ होता।
उन दिनों सुनानी के चिंता के केन्द्र में उसकी बड़ी बेटी सूर्यप्रभा थी जो शादी के लायक हो गयी थी। परन्तु सुनानी अपनी बेटी के बारे में कुछ सोच पाता उससे पहले ही उसका शरीर एक अजीब-सी उलझन में फंस गया। सुनानी बीमार होने लगा था यह तो उसे बाद में पता चला लेकिन इस बीच वह बहुत दिनों तक एक अजीब-सी उलझन में फंसा रहा था।
सुनानी अपनी गोद में गाड़ी के दरवाजे वाले हिस्से को लेकर उसे समतल बनाने के अपने हुनर में लगा हुआ था कि उस दिन अचानक उसे लगा जैसे सिर के अन्दर कुछ चल रहा है यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ। पहले कुछ दिनों तक तो उसे ऐसा लगा कि शायद यह कमजोरी है जिसके कारण यह एक तरह की झनझनाहट है। ऐसा होने के बाद कुछ देर वह अपने काम से उठ जाता कुछ घूमता-टहलता और फिर काम पर बैठ जाता। पहले तो ऐसा कभी-कभार होता था परन्तु धीरे-धीरे इसकी रफ्तार बढती चली गई। सुनानी काम पर बैठता, ठक-ठक की आवाज शुरू होती और उसके सिर में यह कुछ चलने की प्रक्रिया शुरू हो जाती।
सुनानी इसे अपनी शारीरिक कमजोरी मानता रह जाता अगर उसके शरीर में सिर्फ़ यह झनझनाहट जैसा ही होकर रह जाता। परन्तु सुनानी के लिए आश्चर्य तब हो गया जब अचानक एक दिन वह काम करते-करते झटके से रुक गया। रुक गया मतलब एक पाॅज की तरह। पाॅज ऐसे जैसे किसी वीडियो को चलते-चलते अचानक रोक दिया जाए और फिर उसे थोड़ी देर में फिर प्ले कर दिया जाए। काम करते-करते एकबारगी एक दिन सुनानी को लगा वह सुन्न हो गया और सही बात तो यह है कि उसे इस बात का अंदाजा भी तब लगा जब वह इस सुन्नपन से बाहर निकला। तब उसे महसूस हुआ कुछ हुआ था। वह तब जिस स्थिति में होता उसी स्थिति में दस-बीस सैकेण्ड के लिए रह जाता। धीरे-धीरे यह समय भी बढने लगा था परन्तु यह कभी भी एक मिनट से ज़्यादा नहीं हुआ। सुनानी के साथ एक बार यह हुआ तब यह एक बार भर होकर नहीं रह गया बल्कि इसकी भी प्रक्रिया जैसी शुरू हो गयी।
सुनानी अपने जीवन में यूं अटकने लगा है इसका पता सामान्यतया लोगों को नहीं लग पाता था परन्तु उसके जीवन में ऐसा दिन भर में एक-दो बार होता ज़रूर था। सुनानी के साथ में काम करने वाले गिरिजा ने महसूस कर लिया था, उसने एक दिन कहा "दादा यह क्या हुआ। गाड़ी अटक कैसे गयी।" तब सुनानी बिल्कुल झेंप-सा गया था। लेकिन सुनानी ने उससे अपने इस दर्द को साझा किया इस विश्वास के साथ कि वह इसे औरों से छुपाये रखने में उसका साथ देगा। उसे यह डर था कि कहीं मोंटी सिंह इसी कारण से उसे नौकरी से निकाल न दे। तब से सुनानी के इस दर्द का एक राज़दार यह गिरिजा हो गया। वह यूं अटकता तो गिरिजा हर संभव कोशिश करता कि वह इस स्थिति से उसे उबार ले। परन्तु सुनानी अपने इस अटकने के इस डर के साये के साथ ही तब से जीने लगा था।
लेकिन सुनानी की मुख्य समस्या जितना उसका यूं अटकना था उससे ज़्यादा बड़ी समस्या उसके सिर में होने वाली यह झनझनाहट थी। यह समस्या उसके लिए ज़्यादा बड़ी इसलिए थी कि उसकी यह समस्या उसके काम, उसके रोजगार से जुड़ी हुई थी। वास्तव में वह जितना ही हथौड़ा चलाता उसके सिर में यह झनझनाहट उतनी ही बढ़ जाती। धीरे-धीरे उसे ऐसा लगने लगा था जैसे उसके सिर में अचानक से कई नसों में एक साथ एक अजीब-सी सनसनी शुरू हो गयी थी।
सुनानी को जब मस्तिष्क में सनसनी होती तो वह बहुत विचलित होने लगता। उसके साथ दिक्कत यह थी कि वह अपने काम में इस कारण से न तो कोताही कर सकता था और न ही वह एक लम्बी छुट्टी ले सकता था। सुनानी ने तब यह सोचना शुरू किया था "काश उसके पिता ने उन मछलियों से प्यार करना नहीं छोड़ा होता तो आज उसकी स्थिति यह नहीं होती।" "काश उसके जीवन में यह दिल्ली नहीं आयी होती।"
गिरिजा के दबाव डालने पर ही सुनानी इस बात के लिए तैयार हुआ था कि वह अस्पताल जाकर अपनी बीमारी दिखा आये।
यह वहीं के पास का सरकारी अस्पताल था जहाँ सुनानी को सुबह-सुबह जाना पड़ता था। अस्पताल में लम्बी लाइन थी। उसकी दीवारों पर पान की पीक के निशान थे। वहाँ के कर्मचारी बहुत कड़क थे और वे बहुत ही कर्कश आवाज में बीमारों के नाम पुकारते थे। जिस पर्ची पर सुनानी का इलाज होना था उसका रंग गुलाबी था। लेकिन डाॅक्टर प्रशान्त अच्छा डाॅक्टर था। जिस डाॅक्टर प्रशान्त ने सुनानी को देखा था वह अभी बहुत अनुभवी नहीं था और उसके बाल भी अभी सफेद नहीं हुए थे। परन्तु वह अपने काम से बहुत प्यार करता था और यह केस उसके लिए बहुत ही नया और रुचिकर था। उसके लिए अभी तक डाॅक्टरी का पेशा सिर्फ़ पैसे कमाने का धंधा नहीं बन पाया था। वह पहले तो यह समझ ही नहीं पाया कि ऐसा हो कैसे सकता है। परन्तु उसने केस की तह तक जाना चाहा।
सरकारी अस्पताल में जो कुछ जांच मुफ्त में हो सकती थी सुनानी ने उन्हंे अवश्य करवाया। तमाम प्रकार की जांच से जो बातें सामर्ने आइं उसे देखकर और इस निष्कर्ष पर पहंुचकर हम-आप नहीं डाॅक्टर प्रशान्त भी चक्क्र खा गया था। जांच का निष्कर्ष यह था कि सुनानी के सिर में कुछ कीड़े घुस गए थे। डाॅक्टर ने एक्सरे में जिन कीड़ों को सुनानी को दिखलाया वह निगेटिव की शक्ल में उन कीड़ों की परछाई भर थी। सुनानी ने उस निगेटिव में अपनी खोपड़ी को देखा और उस खोपड़ी में कीड़ों के निशान। उंगली से थोड़े छोटे कीड़े ऐसे लगते जैसे अपनी ढेर सारी टांगों के साथ वे अभी चल पड़ेंगे। सुनानी ने देखा खोपड़ी में कुछ और भी धब्बे थे जो खोपड़ी के अपने हिस्से थे। उसने सोचा इन्हीं हिस्सों के सहारे वह सपना देखता है। सपना जिसमें उसका शुकान्त आता है अपने दुख के साथ।
सुनानी अपनी इस तकलीफ के बारे में अपने घर में कुछ बतला नहीं सकता था। वह इस बीच एक बार अपने घर गया और उसने वहाँ काफी सुकून महसूस किया।
लेकिन सुनानी की तकलीफ यहीं खत्म नहीं हुई। धीरे-धीरे यह बीमारी बढ़कर उसके पूरे सिर को अपनी गिरफ्त में ले चुकी थी। उसके पूरे सिर में घाव जैसे दाने उभर आये और उसमें अजीब तरह की खुजली होने लगी थी। इन छोटे-छोटे घावों के मुंह खुले हुए थे और भरी गर्मी में सुनानी इन घावों के साथ तड़प उठता था। जब इन घावों के साथ सुनानी अपने घर गया तब उसकी बेटियों ने यह जानना अवश्य चाहा कि ये क्या हैं। मृगावती ने इन घावों की ओर देखा, वह थोड़ा आश्चर्यचकित हुई और फिर चुप हो गयी।
सुनानी ने जितना ही जानना चाहा उतना ही उलझता चला गया कि ये कीड़े उसके मस्तिष्क के भीतर गए कैसे। कैसे जी रहे हैं वे वहाँ। क्या खाते होंगे वे वहाँ। सुनानी ने डाॅक्टर से जानना चाहा तो डाॅक्टर प्रशान्त ने समझाने की कोशिश की-
"सड़क किनारे का खाना बहुत हानिकारक होता है।"
"सड़ी हुई चीजों को खाने से कीड़े पैदा हो जाते हैं माथे में। जैसे पेट में पैदा होते हैं कीड़े।"
"खराब पानी भी कारण हो सकता है।"
लेकिन सुनानी ने धीरे-धीरे जान लिया है इसका राज भी। उसने जान लिया है कि ये जो कबाड़ के पहाड़ हैं, जिनके बीच सोता है वह उन्हीं पहाड़ों में से निकलते हैं ये कीड़े। ये रात में निकलते हैं और इस अंधेरी सुरंग में अपना घर बना लेते हैं।
धीरे-धीरे हालात ये हो गए थे कि सुनानी के जीवन में ये तीनों कष्ट एक साथ चल रहे थे। वह अपने काम में मशगूल होता तो परेशान हो जाता। जब तक वह अन्य काम कर रहा होता जैसे कि गाड़ियों के कुचले हुए पार्ट्स को खोलना या फिर उन्हें लगाना तब तक उसे दिक्कत कम होती। लेकिन जब वह अपने सामने उन हस्सों को रखकर उन पर अपनी हथौड़ी चलाना शुरू करता उसके माथे में शांत बैठे ये कीड़े उत्तेजित हो जाते। वे यहाँ वहाँ चलना शुरू कर देते। सुनानी अपने मस्तिष्क के भीतर इन कीड़ों के चलने को बारीकी से महसूस कर पाता था। इन कीड़ों के चलने की कोई आवाज होती हो या नहीं परन्तु सुनानी को लगता जैसे ये कीड़े अपने चलने की एक आवाज भी उसके मस्तिष्क में छोड़ते जाते हैं।
सुनानी जब धूप में इन लोहे के पार्ट्स के साथ काम कर रहे होता तो उस समय उसका माथा एकदम गर्म हो जाता और ऐसा लगता जैसे उसके इन घावोें के रास्ते गर्मी उसके माथे के भीतर घुस रही है।
डाॅक्टर कहता है "ये जख्म इन्हीं कीड़ों के द्वारा गर्मी पैदा करने से होते हैं।"
जबकि सुनानी को लगता है यह गर्मी इन्हीं छेदों से अंदर जाती है तब ये कीड़े गर्मी से बेचैन होने लगते हैं।
दिल्ली में नींद
दिल्ली में सोना कौन चाहता है। दिल्ली सोने का नहीं जगने और सुख लेने का शहर है।
"दिल्ली में अगर साओगे तो सारी खुशियाँ छूट जायेंगी।" कहता था मेरा अय्याश दोस्त सत्या।
"अंधेरे में ही तो जगमगाती है रोशनी।" इसमें जोड़ता था सानू।
"और इसी जगमगाती रोशनी में ही तो चमकती है देह।" कहती थी मायरा। तो ऐसा लगता था जैसे कह रहे हों सब "चार बज गए लेकिन।"
लेकिन इसी बीच फुटपाथ पर सोया कहता है मजदूर "अंधेरे में ही छुपाए जाते हैं आंसू।"
"अंधेरे में ही तो छुपता है कालापन।" धीरे-धीरे बुदबुदाता हूँ मैं।
"नहीं तो क्यों लिखते 'अंधेरे में' कविवर मुक्तिबोध।" कहती है यह मेरी अंतरात्मा।
लेकिन सुनानी इस दिल्ली में रहकर भी सोना चाहता है। दिल्ली में लोग सोना नहीं चाहते लेकिन उन्हें नींद परेशान करती है। पर सुनानी सोना चाहता है और नींद है कि आती ही नहीं। वह खूब काम करता है, अपने शरीर को खूब थकाना चाहता है, चूर कर देता है कि तब हारकर नींद तो आयेगी। लेकिन नींद है कि आती ही नहीं।
सुनानी दिन भर अपने को संभालते-संभालते और काम करते-करते इतना अधिक थक जाता कि उसे लगता था कि वह रात में सोयेगा तो बस सारी थकान उतर ही जायेगी। परन्तु वह रात मंे सोने जाता तो उसके मस्तिष्क के सारे कीड़े जग जाते। वह ज्योंही अपने आप को आरामदेह स्थिति में लाता और उसके सारे स्नायुतंत्र सोने की स्थिति में आते कि वे कीड़े जग जाते और फिर उसके सिर के भीतर यहाँ से वहाँ तक दौड़ लगाने लग जाते। कीड़े दौड़ लगाते तो सुनानी उठकर बैठ जाता।
एक कीड़े की उम्र एक मनुष्य की उम्र से कम होती है या ज़्यादा पता नहीं
एक तरह से सुनानी और उसके मस्तिष्क में पल रहे इन कीड़ों के बीच जंग जैसी चल रही थी कि क्या ये संभव है कि ये कीडे़ शांत हों और उसी समय को चुरा कर वह भी सो जाये। ऐसा प्रायः नहीं के बराबर ही हो पाता और इस तरह दिनों-दिन गुजरने लगे जब सुनानी सो नहीं पाया। सो नहीं पाता इसलिए उसके अंदर एक बेचैनी समाने लगी। उसका चेहरा काला पड़ने लगा और उसकी आंखें धंसने लगीं। उसके बाल बिखरे-बिखरे रहते थे और चूंकि चेहरे का रंग बिल्कुल ही उड़ गया था इसलिए वह पागल-सा दिखने लगा था।
अब सवाल है कि इसका इलाज क्या है और सवाल यह भी है कि क्या सुनानी ने यह सवाल अपने डाॅक्टर से नहीं पूछा होगा। सुनानी ने अपने डाॅक्टर से यह सवाल पूछा था और शांत बैठ गया था। डाॅ प्रशांत जो कि उम्रदराज नहीं था और उसके बाल अभी सफेद नहीं हुए थे। वह बहुत अनुभवी भी नहीं था लेकिन वह सीखना चाहता था। इसलिए उसने इस केस पर काफी विचार किया। उसने सीनियर डाॅक्टर से परामर्श भी लिया और कुछ वक्त लेने के बाद वह जिस निष्कर्ष पर पहुँचा उस पर चल पाना सुनानी के वश की बात नहीं थी।
डाॅक्टर प्रशांत ने कहा इसे सिर्फ़ आॅपरेशन के द्वारा ही मस्तिष्क से निकाला जा सकता है और सिर का आॅपरेशन मामूली आॅपरेशन तो है नहीं। डाॅक्टर प्रशांत यह कह कर दो बातों की तरफ इशारा करना चाह रहा था वह यह कि एक तो यह बड़ा आॅपरेशन है और यह किसी बड़े हाॅस्पिटल में ही संभव है। सरकारी अस्पताल में संभव तो है परन्तु वहाँ भी यह आॅपरेशन एकदम मुफ्त नहीं हो सकता। एकदम मुफ्त क्या ठीक-ठाक पैसा लग जायेगा। फिर कम से कम दो-तीन महीने का आराम।
सुनानी ने सोचा कहाँ से लायेगा वह इतने सारे पैसे। कैसे करेगा वह तीन महीने तक आराम। कौन कमा कर देगा इन तीन महीनों में घर चलाने लायक पैसे।
डाॅक्टर प्रशांत के द्वारा कही जो दूसरी बात थी वह ज़्यादा डरावनी थी। यह मस्तिष्क का आॅपरेशन है सब अच्छा ही होगा। बड़े डाॅक्टर ही करेंगे तो सब अच्छा होना भी चाहिए लेकिन। सुनानी इस लेकिन को सुनकर चकरा गया था। डाॅक्टर प्रशांत ने कहा "एक प्रतिशत डर तो कैजुअल्टी का रहता ही है।" "दिमाग सुन्न भी हो सकता है। पेशेन्ट कोमा में भी जा सकता है।" सुनानी कैजुअल्टी को समझ नहीं पाया। डाॅक्टर प्रशांत ने तब खुल कर "मौत हो तो सकती है। इससे कोई डाॅक्टर कैसे इन्कार कर सकता है।" मृत्यु सुनकर सुनानी को लगा जैसा वह अभी ही वहीं मर चुका है। वह वहीं जमीन पर बैठ गया। उसने अपने सिर को दीवार पर टिकाया तो दिमाग के अंदर भी थोड़ी हलचल हुई।
डाॅक्टर प्रशांत ने माहौल को बहुत गंभीर देखा तो उसे थोड़ा हल्का करना चाहा। "अरे ऐसा कुछ नहीं होगा। डरो मत। यह तो उनका रोज का काम है।" "लेकिन डाॅक्टर को बतलाना तो पड़ता ही है।" लेकिन सुनानी के दिमाग में यह 'मृत्यु' शब्द जैसे टंग गया था।
सुनानी सोचता है 'चलो मैं ना भी डरूं लेकिन मेरा परिवार, क्या होगा उसका।' कौन जिंदा रखेगा शुकान्त को और कौन करवायेगा शादी इन दोनों बेटियोें की। '
पर सुनानी के सामने अब सवाल यह था कि आगे क्या?
सुनानी काम करता रहा और उसके मस्तिष्क में डाॅक्टर प्रशान्त की बातें घूमती रहीं। होने को तो ठीक हो ही सकता है लेकिन कैजुअल्टी भी हो सकती है। मर भी सकता है आदमी। सुनानी गाड़ियों की बाॅडी पर ढेर सारे जख्म देखता रहा और सोचता रहा। वह हथौड़ी चलाता रहा और सोचता रहा।
सुनानी को लगा कि जो गाड़ियाँ उसके पास इस जर्जर हालत में पहुँचती है उनमें और एक मनुष्य की ज़िन्दगी में कितनी समानता है। सरदार मोंटी सिंह कहता है जो गाड़ियाँ ठीक नहीं हो सकती उसे नष्ट कर दो। डाॅक्टर प्रशान्त कहता है होने को तो सब ठीक हो जाए परन्तु होने को सब नष्ट भी हो सकता है। सुनानी की गोद में गाड़ी का एक बिल्कुल ही बिगड़ा हुआ भाग पड़ा हुआ है। वह उस पर बहुत ही करीने से हथौड़ी चलाने लगता है। उसने अपने मन में कहा 'ठीक क्यों नहीं हो सकता है। ठीक तो सब कुछ हो सकता है बस ठीक करने वाला कलाकार अच्छा होना चाहिए।' अपने आप से जद्दोजहद करते हुए सुनानी कुछ विचार कर लिया अपने मन में। उसने अपने मन में सोचा 'इस जीवन को नष्ट होना ही है तो हार कर क्यों नष्ट हो।' इसलिए उसने अपने मन में कुछ निर्णय लिया।
यह बहुत दिलचस्प है कि सुनानी जब अगली बार डाॅक्टर से मिला तो उसने एक बहुत ही नायाब-सा प्रश्न सामने रखा।
"अगर कीड़े हैं तो कीड़ांे की कोई उम्र भी तो होती होगी। वे मर भी तो जायेंगे।" डाॅक्टर प्रशांत निस्संदेह सुनानी से सहानुभूति रखने लगा था नहीं तो कौन डाॅक्टर इतना वक्त देता एक मरीज को।
डाॅक्टर प्रशांत पहले थोड़ी देर तक तो इस प्रश्न के बाद सोच में पड़ गया था परन्तु उसने सोचकर और अपना पूरी डाॅक्टरी दिमाग इस्तेमाल कर कहा
"अब इस कीड़े की उम्र क्या है यह तो पता नहीं। परन्तु कीड़े की कोई न कोई उम्र होती तो अवश्य होगी।"
"तो क्या इंतजार करोगे तुम उनके मर जाने का?"
"और अगर तुम मर गए उससे पहले तो?" डाॅक्टर प्रशांत थोड़ा चिढ-सा गया था। क्योंकि उसे लगने लगा था कि सुनानी बस मरने ही वाला है।
सुनानी चुपचाप सुनता रहा लेकिन डर को उसने पीछे छोड़ दिया था। उसने लगभग अतल गहराई में खोते हुए धीमे से कहा "और मेरे पास उपाय ही क्या है।" यह वाक्य सुनानी ने इतने धीमे से कहा था कि डाॅक्टर प्रशांत भी सुन नहीं पाया। प्रशांत के प्रश्नवाचक निगाह से पूछने पर सुनानी ने कहा "एक मरा हुआ आदमी क्या दुबारा मरेगा सर। एक गरीब जिन्दा है यही क्या कम बड़ा भ्रम है कि उससे जीवित बचे रहने का उपाय पूछा जाए।"
"सारे कीड़े मिलकर खा लेगें मुझे। कोई बात नहीं। मर जाउंगा। इसमें भी कोई बात नहीं। इतने सारे कीड़े ऐसे भी तो खा ही रहे हैं मुझे।" सुनानी बहुत गहराई से बोल रहा था और प्रशांत सिर्फ़ सुन रहा था।
"सारे कीड़े खा लेंगे मुझे। मर जाउंगा मैं। मेरा बेटा शुकु भी मर जायेगा।" सुनानी ने बिना यह जाने बोला कि डाॅक्टर प्रशांत भला क्यों कर जानने लगे उसके बेटे शुकान्त को।
डाॅक्टर प्रशांत जानता था कि उसके प्रोफेशन में भावुकता का कोई स्थान नहीं है परन्तु वह बहुत भावुक हो गया। उसने अपना हाथ सुनानी के कन्धे पर रख दिया और महसूस किया कि वह कन्धा एक कमजोर कन्धा है। उसने कहा-
"वैसे तो किसी भी बीमारी को रोकना इतना आसान नहीं है परन्तु मैं कुछ दवाइयाँ दूंगा। यह बीमारी बढ़नी तो नहीं चाहिए।"
"बस समझ लो अब तुम्हारे और तुम्हारे भीतर बसने वाले इन कीड़ों के बीच जंग जैसी कुछ है। वे जब तक तुम्हारे भीतर हैं वे तुम्हें खाते रहेंगे। अब दौड़ सिर्फ़ इस बात की है कि पहले तुम हारते हो या कि वे। वे तुम्हें खाते रहेंगे और अगर तुम मर गए तो जीत उसकी। लेकिन वे थक कर एक-एक कर अपनी आयु को प्राप्त करते रहे तो तुम्हारी जीत और यह जीवन तुम्हारा।"
"यह तुम्हारी ज़िन्दगी की रेस है। तुम्हें इसे जीतना ही चाहिए।" प्रशांत की आवाज़ में एक जोश था जो वह चाहता था कि सुनानी के दिल में घर कर जाये।
लेकिन डाॅक्टर प्रशान्त ने हिदायतें भी दीं।
"यह ध्यान रहे ऐसी कोई चीज कभी भी मत देखना जिसमें तुमको तुम्हारा ही अक्स दिखे। जैसे शीशा या फिर पानी।" कहने का तात्पर्य यह था कि पानी और शीशे में अपने अक्स को देखने से ये कीड़े और ज़्यादा उत्त्ेाजित हो जाते थे जबकि उन्हें अब धीरे-धीरे सुलाना ही मकसद था।
"हो सके तो कोई मुलायम काम हाथ में ले लो। ज़्यादा आवाज और ज़्यादा कठिनाई तुम्हारे लिए अब ठीक नहीं।" यह एक ऐसी हिदायत थी जिसने सुनानी को उदास कर दिया।
सुनानी जब प्रशांत के पास से गया तो उसके अंदर गजब का जोश भर गया था। उसे जीवित रहने का एक अच्छा रास्ता मिल गया था या फिर कह लें एक नयी चुनौती। उसने डाॅक्टर प्रशांत की हिदायतों को ध्यान में रखा और फिर जुट गया अपनी इस बहुत अजीबोगरीब प्रतियोगिता में। यह प्रतियोगिता जो एक मनुष्य और कीड़ों की प्रजाति के नामलूम कीड़े के बीच थी।
हाँ इस बीच सुनानी को ध्यान आया कि पिछले दो-तीन दिनों से न तो उसने चन्द्रप्रभा से बात ही की है और न ही पिछले दो-ढ़ाई महीने से वह घर ही जा पाया है। उसने इसी उत्साह के साथ घर चला जाना सही समझा। चन्द्रप्रभा ने फोन पर बतलाया कि शुकान्त की तबीयत ठीक नहीं है और यह कि वह बिल्कुल शांत होता जा रहा है। सुनानी के लिए शुकान्त की यह खबर कोई नई नहीं थी इसलिए वह इससे विचलित नहीं हुआ।
'आवाज भी एक जगह है' के बदले 'आवाज की भी एक जगह है' (मंगलेश डबराल की कविता कि पंक्ति में थोड़ा बदलाव करते हुए)
तमाम दूरी के बावजूद सुनानी को अपना यह नया घर बेहद पसंद था। वह वहाँ रह नहीं पाता था लेकिन जब कभी वह यहाँ आता तो यहाँ की खामोशी उसे बहुत भली लगती थी। अपने काम पर रहते हुए सुनानी को हर घड़ी अपने घर और परिवार की चिंता रहती और सबसे ज़्यादा बीमार बेटे शुकान्त की। परन्तु इस इलाके की यह एक खामोशी ही थी जो उसे सुकून देती थी। वह अपने मन में सोचता "ईश्वर हर बुरे में कुछ अच्छा अवश्य करते हैं।"
वह खुद भी जब कभी यहाँ रहता इस खामोशी की खुशियाँ मनाता। वह इस खामोशी में खामोश रहता और सिर्फ़ इस खामोशी को बोलने देता।
उस दिन अपनी आधे दिन की छुट्टी के साथ जब सुनानी घर आया तो घर पहुँचते-पहुँचते धूप कम हो गई थी लेकिन बनिस्पत ही क्योंकि अभी धूप खत्म नहीं हुई थी। मौसम में उमस थी और उसके कान के पीछे से पसीना अभी भी चू रहा था। उसकी बनियान पीठ पर पसीने के कारण चिपकी हुई थी।
पिछले कई महीनों से परेशान रहने के बाद आज सुनानी बहुत उत्साहित था। आज उसे लग रहा था जैसे उसने रास्ता ढूंढ़ लिया है। उसने पूरे रास्ते सोचा था कि अच्छा सोचने से हमेशा अच्छा होता है। वह आज अपने घर बहुत ही प्रसन्न मन से जा रहा था। पूरे रास्ते की चिल्लपों की परेशानी के बावजूद आज वह चिढ़ा हुआ नहीं था क्योंकि उसे मालूम था कि वह बस अभी-अभी खामोशी के आगोश में जाने वाला है। वह बहुत खुश था इसलिए उसने सोचा था कि आज वह अपने बच्चों के साथ इस खामोशी में कुछ वक्त गुजारेगा। वह चाहता था कि शुकान्त के मन में जो कड़वाहट भर रही है वह आज उसे दूर करने की कोशिश अवश्य करेगा। उसने अपने मन में हल्के से शुद्ध उड़िया में बुदबुदाया "प्यारा बच्चा।" लेकिन उत्साह में उसने इस बुदबुदाहट को भी इतनी जोर से बुदबुदाया कि बगल का आदमी पूछ बैठा "क्या है?" और सुनानी झेंप गया।
बस स्टाॅप पर बस से उतरते ही गर्म हवा के झोंके ने सुनानी का स्वागत किया। सड़क पर अभी भी बहुत शोर था गाड़ियों के सांय-सांय निकलने की आवाज थी। जब उसने उस सड़क को छोड़ा और जहाँ से कि उसे उम्मीद थी कि अचानक से यह आवाज उसका साथ छोड़ने लगेगी और खामोशी की बांहों में धीमे-धीमे वह घुसता चला जायेगा वास्तव में सुनानी के साथ वहाँ बहुत बड़ा धोखा हुआ। उसके ख्वाबों के ठीक उलट वहाँ आज खामोशी नहीं बल्कि बहुत ही कर्कश आवाज थी। ऐसी कर्कश आवाज कि जैसे कान का पर्दा फट जाये।
सुनानी अपने घर की तरफ बढ़ रहा था और यह शोर उसकी ओर बढ़ रहा था। अचानक उसे लगा कि वह शोर के एकदम पास आ गया है। या कहें कि वह शोर की गिरफ्त में आ गया है। उसने देखा उसके घर की जो चहारदिवारी थी और जिसके बगल से दोनों तरफ जो छोटे-छोटे पहाड़ थे जिनमें छोटे-छोटे पौधे उगे हुए थे और जहाँ गजब की एक खामोशी पसरी हुई रहती थी उस जगह को लोहे के कंटीले तार से घेर दिया गया था। उस घेरे के अंदर दो-तीन क्रेन जैसी गाड़ियाँ लगी हुई थीं। उन गाड़ियों का काम था उन पत्थरों को तोड़कर उसे समतल बनाया जाना। उन गाड़ियों में आगे एक नुकीला पेंसिल जैसा लोहे का बना हुआ था। गाड़ी में बैठा ड्राइवर उसको अपने पास से संतुलित कर उन पहाड़ों में धंसाता था और फिर वह पेंसिल जैसी नुकीली चीज उस पत्थर में गर-गर करके धंसती चली जाती थी। आवाज इतनी तेज और इतनी कर्कश की नस फट जाये। वह लोहे की पंेसिल पहले पत्थर को फाड़ती थी और फिर उसे टुकड़ों में तब्दील करती थी। इस लोहे और पत्थर के बीच का संघर्ष इतना कठिन था कि गाड़ी तक कांप जाये। ड्राइवर बहुत ही मुश्किल से संतुलन बना कर रखे हुए था।
इस कर्कश आवाज ने सुनानी के मन को एकदम से विचलित कर दिया। उसके मस्तिष्क में घर बना बैठे सारे कीड़े बहुत उत्तेजित हो गए। सुनानी को लगा जैसे उसका सिर फट जायेगा। उसने अपने सिर को पकड़ लिया और वह वहीं बैठ गया। उसके माथे में जो फोडे़ थे उनमें एकदम से जलन उठी। उसने सोचा जैसे उसके सिर में आग लग गई है।
किसी तरह घर पहंुच कर सुनानी ने जो देखा उसको देखकर उसे लगा जैसे वह पागल हो ही जायेगा। बिस्तर पर शुकान्त जोर-जोर से छटपटा रहा था और उसकी माँ और बहनों ने उसके पैर और हाथों को कसकर पकड़ रखा था। ऐसा लग रहा था जैसे शुकान्त कहीं भाग जाना चाह रहा है। वह दांत भींचे हुए था। उसकी आंखों की पुतलियाँ उलटी हुइ थीं। उसके मुंह में झाग बन रहा था और पूरे मुंह पर झाग फैला हुआ था।
शुकान्त ने अपने पिता को देखा तो उसे लगा जैसे उसे नया जीवन मिल गया हो। सुनानी ने दौड़कर शुकान्त को अपने में समेट लिया। उसने उसके दोनों कानों को अपने दोनों हाथों से कसकर दबा दिया। सुनानी बिस्तर पर बैठा हुआ था और शुकान्त अधलेटा था। सुनानी ने उसे कसकर पकड़ रखा था। थोड़ा वक्त लगा और फिर शुकान्त को नींद आ गई।
यह किसी को पता नहीं चला कि सुनानी ने शुकान्त को कसकर पकड़ रखा था और तनाव के कारण सुनानी खुद ही अपने दौरे का शिकार हो गया था। वह एक मिनट तक के लिए अटका रहा। लेकिन वहाँ खड़े उसके परिवार के सदस्य में से कोई भी यह शक नहीं कर पाया कि सुनानी एक मिनट अटक कर वापस भी आ चुका था।
लेकिन शुकान्त को संयत करने के बीच सुनानी भूल गया था कि उसकी क्या हालत है। ज्यांेही शुकान्त को नींद आई सुनानी भी वहीं बिस्तर पर ढ़ेर हो गया।
जब अँधेरा घिरा और मशीन का काम बन्द हुआ तब सुनानी को भी राहत मिली। सूर्यप्रभा और चन्द्रप्रभा कि बातों से जो जानकारी मिली वह यह थी कि जब से यहाँ यह काम शुरू हुआ है शुकान्त पूरे दिन यूं ही तड़पता रहता है। वह पैर पटकता रहता है और बस यहाँ से कहीं भाग जाना चाहता है। पूरा दिन हमारा यूं ही बीतता है उसे पकड़ कर रखने में। सुनानी ने देखा दोनों बेटियाँ बड़ी हो रही हैं। सूर्यप्रभा जवान हो गई थी। सुनानी ने देखा कि सुर्यप्रभा अभी भी अपने पैर के गांठों से परेशान थी और वह चल नहीं पा रही थी। वह दिवार के सहारे चल पा रही थी या फिर वह बहुत ही आहिस्ते से वह अपना पांव जमीन पर रख रही थी। सुनानी ने सुर्यप्रभा कि तरफ देखा और गहन ंिचंता मंे खो गया।
सुनानी ने महसूस किया कि यह एक बन्द कमरा है और इसमें रहने वाले चार जन बस धीरे-धीरे अपनी उम्र को जी रहे हैं। जी रहे हैं या फिर जीने को मजबूर हैं।
शुकान्त सोया हुआ था। सुनानी ने देखा ऐसा लग रहा था जैसे कई दिनों के बाद वह चैन की नींद सो पा रहा था। उसने देखा शुकान्त बहुत थका हुआ लग रहा था। उसके शरीर का अब विकास नहीं हो रहा था इसलिए वह अपनी उम्र से काफी छोटा लगने लगा था। उसके हाथ-पांव सूखकर अजीब से होते जा रहे थे और उसका चेहरा अब डरावना लगने लगा था।
सुनानी जो सोचकर आया था वह यहाँ एकदम से उलटा हो गया। इसलिए उसने यहाँ से अचानक भाग जाना चाहा। वह चाहता तो अपनी छुट्टी को एक दिन और बढ़ा कर यहाँ रुक सकता था। परन्तु आज वह अपने आप को संभाल नहीं पा रहा था।
उसने सुबह घर से निकलते हुए देखा अभी पत्थर तोड़ने का काम शुरू नहीं हुआ था। अभी वहाँ सन्नाटा पसरा हुआ था। उसे बहुत अच्छा लगा लेकिन उसने तुरंत वहाँ से भाग जाना चाहा। वहाँ एक बोर्ड अवश्य लगा हुआ था जिस पर अंग्रेज़ी में कुछ लिखा हुआ था। वह जितना समझ पाया, ऐसा लगा जैसे यह जमीन किसी बड़ी कम्पनी को दी जा रही है जो यहाँ बड़ा कारखाना जैसा खोलेगी शायद। कारखाना या फिर कुछ और पता नहीं क्या।
राजेश जोशी की एक कविता है 'रात किसी का घर नहीं'
सुनानी घर से भाग कर आ तो गया लेकिन यहाँ आकर भी वह बेचैन ही रहा। उसे अब हमेशा ऐसा लगता जैसे उसके बिना उसका बेटा मर जायेगा।
सुनानी के लिए तनाव लेना बहुत खतरनाक था। डाॅक्टर के अनुसार वह जितना तनाव लेगा उन कीड़ों को खत्म करना उतना ही मुश्किल होगा। सुनानी चाहता था कि तनाव नहीं ले परन्तु बार-बार उसके बेटे का चेहरा उसके सामने आ जाता। उसे घर से लौटकर आए हुए एक सप्ताह गुजरने को था परन्तु इस सप्ताह में उसने अपने आपको इतना तनाव में रखा था कि ऐसा लगता था जैसे वह अपने आप को इस चुनौती में क्या रखेगा, उसकी मौत तो ऐसे ही हो जायेगी।
सुनानी के पास जो काम होता था उसमें वह अपने को डुबोये रखने की कोशिश करता था। उसे उस बंगाली दादा कि बात हमेशा याद रहती थी कि 'वह तो एक कलाकार है और कलाकार का काम तो इस दुनिया को संवारना है।' सुनानी हमेशा चाहता था कि वह अपने काम में कभी कोताही नहीं करे।
जब गैरेज में चोटिल गाड़ियाँ आतीं तो उसकी सबसे बड़ी मुसीबत होती कि वह उन पार्टस को खोलने के लिए कैसे जाए क्योंकि गाड़ियों में शीशे लगे होते थे और वह चाहता था कि जितना कम से कम हो सके वह अपनी शक्ल देखे। वह किसी को बतलाना नहीं चाहता था इसलिए उसकी मुश्किल ज़्यादा थी। गिरिजा समझता था तो वह साथ भी देता था। सुनानी के कहने पर गिरिजा गाड़ी के शीशे को पहले कपड़े से ढ़क देता था। फिर सुनानी वहाँ काम करता था।
सुनानी पानी पीता तो आँख मंूद कर। उसने उसके बाद से कभी अपनी शक्ल किसी शीशे में देखी नहीं थी। पता नहीं था उसे अब उसकी शक्ल कैसी हो गयी है।
अपनी इन ऐहतिहातों से सुनानी को ऐसा लगने लगा था कि एक दिन सारे कीड़े मर जायेंगे और वह बच जायेगा। सुनानी सोचता था कि वह बच जायेगा पर उसका बेटा कैसे बचेगा। वह सोचता "क्या वाकई ऐसी कोई जगह है जहाँ कि कोई आवाज नहीं हो।"
अब चन्द्रप्रभा का रोज खुद ही फोन आता "पापा अब घर आ जाओ। बचा लो इसे पापा। यह मर जायेगा। अब इसकी तड़प देखी नहीं जाती।" ्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र
सुनानी ने सोचा एक दिन वहाँ जाकर यह समझने की कोशिश वह ज़रूर करेगा कि यह आवाज आखिर कब तक के लिए है। सुनानी वहाँ पहुँचा तो सब वैसे ही था। कष्ट कम इसलिए था क्यांेकि सुनानी भी अपने काम को पूरा करके ही गया था। बस थोड़ा ही पहले निकला था। इसलिए जब तक वह वहाँ पहुँचा अँधेरा घिरने को था और वहाँ से सारे मजदूर जाने को थे। वहाँ की कर्कश आवाज बंद हो चुकी थी। हाँ सारे मशीनें वहीं खड़ी थीं।
मजदूरों के पास जाकर सुनानी ने पूछा "क्या इस शोर के बिना पत्थर नहीं काटा जा सकता।"
तब मजदूरों को लगा था कि यह कोई पागल है। "हाँ तू रोज रात में छेनी-हथौड़ी से काट लिया कर।" मजदूरों ने हंसते हुए कहा था। सुनानी ने देखा उस कटीले तार के अंदर इस तरह की गाड़ियाँ खड़ी थीं।
"क्या हम अब शोर के बिना कभी नहीं रह पायेंगे।" यह आखिरी सवाल था सुनानी का।
मजदूरों में एक थोड़े प्रौढ़ मजदूर ने कहा "यह दुनिया अब शोर के बिना कुछ नहीं है। शोर के बिना सिर्फ़ मरा जा सकता है।"
सुनानी अपने मन में बुदबुदाया "यह शोर ही तो मृत्यु है।"
उस दिन जो उसने अपने बेटे की हालत देखी वह पिछली बार से भी बदतर थी। सुबह वह निकलने लगा तो शुकान्त कातर निगाह से उसे देख रहा था। सुनानी की आंखों से आंसू झड़ने लगे थे और वह झटके से निकल आया था।
अपने सारे कष्टों के साथ जैसे तैसे सुनानी गैरेज पर दिन तो काट लेता था लेकिन सबसे मुश्किल था रात काटना। यह सोचना भी कितना अजीब लगता है कि सुनानी रात में सो ही नहीं पाता था। उसने कभी पांच-दस मिनट की झपकी ले ली तो ले ली इससे ज़्यादा सोना उसके लिए अब संभव नहीं था।
रोज शाम को जब अँधेरा घिरने लगता तब सुनानी का मन करता कि वह सब कुछ छोड़छाड़ कर घर भाग जाए। लेकिन वह जानता था कि वह मजबूर है।
सुनानी रात में सोता नहीं था और चूंकि सोता नहीं था तो भटकता था। वह पैदल बहुत दूर तक निकल जाया करता था। या फिर जमीन पर लकीरें खींचता था। उसने देखा था कि दिल्ली की रात भी रोशनी भरी होती है। रात में गाड़ियाँ चलती हैं। रात में नशा होता है और रात में भी यह शहर अपने पूरे शबाब पर होता है।
तमाम ऐतिहातों के बाद सुनानी कितना ठीक हो पाया यह तो कहा नहीं जा सकता है और ना ही ठीक-ठीक यह कहा जा सकता है कि कीड़े और उसकी जंग में कौन आगे चल रहा था और कौन पीछे। परन्तु सुनानी को पता नहीं चल रहा था और धीरे-धीरे उसकी याद्दाश्त खत्म होने लगी थी। धीरे-धीरे उसका सिर ज़्यादा चकराने लगा था। धीरे-धीरे वह ज़्यादा अटकने लगा था।
और बड़ी बात यह थी कि अब सरदार मोंटी सिंह को धीरे-धीरे यह पता लगने लगा था कि सुनानी के दिमाग में गड़बड़ी हो गयी है। लेकिन यह गड़बड़ी किस स्तर तक है अभी समझ नहीं आया था।
वह एक भयंकर रात थी। लेकिन मौसम सुहावना था। सुनानी मुख्य सड़क पर भटक रहा था। बेहद गर्मी के बाद शाम में हल्की बारिश हुई थी। यह बारिश के छूटने के बाद का समय था। सड़क पर पानी की चमक अभी बाकी थी और मिट्टी की सौंधी खुशबू अभी फिजा में घुली हुई थी। सुनानी भटकते हुए दूर निकल आया था उस तरफ जिस तरफ मेट्रो लाइन थी। सड़क के ठीक बीचोंबीच पाये के सहारे मेट्रो लाइन को ऊंचा उठा दिया गया था। पाये के ऊपर मेट्रो की चैड़ी पाट थी और उस पाट के ठीक नीचे की जमीन जो कि सड़क के ठीक बीच थी वह थोड़ी ऊंची थी और वह सूखी हुई थी। सुनानी ने महसूस किया कि दिन भर घर-घर की आवाज करने वाली यह मेट्रो की पाट अभी शांत लेटी हुई थी। सुनानी उस मेट्रो लाइन के ठीक नीचे वाली पाट जो कि सड़क से थोड़ी ऊंची थी उस पर चढ गया और उस पर चलना शुरू कर दिया। दोनों ओर की सड़कों पर गाड़ियों की आवाज थी।
सुनानी का सिर आज शाम से ही भारी लग रहा था और उसने महसूस किया कि उसे आज रह-रह कर चक्कर भी आ रहे थे। इस खुली जगह में मौसम की ठंडक को महसूस करना सुनानी को थोड़ा राहत दे रहा था। उसने देखा उस खुली पटरी पर लोग निश्चिंत सोये हुए थे। आज मौसम में थोड़ी ठंडक थी इसलिए उनकी नींद में एक गहराई थी। सुनानी को उन लोगों को यूं गहरी नींद में सोये देखना अच्छा लग रहा था। वह अपने आप को उन लोगों से टकराने से बचाते हुए चल रहा था।
वह सीधा आगे बढता रहा और एक जगह आकर रुक गया। उसने देखा एक परिवार था। मां-बाप और उनके तीन बच्चे। जहाँ वे सोये थे वहीं एक छोटा-सा कनात तना हुआ था। लेकिन पूरा परिवार उस कनात से बाहर खुले मंे सो रहा था। कनात के बगल में जलावन वाला चूल्हा था जिसकी आग बुझ चुकी थी। वहाँ कुछ जूठे बर्तन रखे हुए थे।
बेटी सबसे बड़ी थी वह एक किनारे सोयी हुई थी। माँ के साथ सबसे छोटा बेटा चिपट कर सोया हुआ था। बाप के साथ बीच वाला बेटा जो पांच-छः साल का होगा बेखबर सोया हुआ था। बाप दूसरे किनारे में था जिसके साथ ही लगा हुआ मेट्रो का एक पिलर था। सुनानी ने इस परिवार को देखा और उसे बहुत अच्छा लगा। वह मेट्रो के उसी पिलर से रगड़ खाते हुए वहीं बैठ गया और एकटक देखने लगा। उसने आसमान की ओर देखा आसमान साफ था। उसने अपनी कमीज की जेब से मोबाइल निकाल कर देखा उसमें एक मिस्ड काॅल था। उसने मोबाइल के अंदर प्रवेश कर देखने की कोशिश की। यह काॅल उसके घर से था। उसने सोचा पता नहीं कैसे छूट गया। उसके मन में एक आशंका तैर गई। उसने मोबाइल में ही समय देखा रात के सवा दो बज रहे थे। उसका मन किया कि वह अभी पलट कर अपने घर फोन कर ले। लेकिन फिर सोचा शुकान्त की नींद खराब होगी और वह घबड़ा जायेगा और फिर उसने सामने निंश्चिंत सोये उस परिवार को भी देखा। बीच वाले बच्चे ने अब अपनी बांहों में अपने पिता को बहुत ही प्यार से जकड़ लिया था।
सुनानी वहीं बैठा रहा और देखता रहा। सुनानी को अपना बचपन याद हो आया। कैसे वह अपने पिता के साथ समुद्र की लहरों से खेला करता था। कैसे उनके साथ वह डोंगी में दूर तक निकल जाया करता था और कैसे पिता ने अपने हाथों से उसे मछलियों को सहलाना सिखलाया था।
उसे याद आए अपने बच्चों के साथ बिताये गए पल। कैसे वह अपनी उस झोपड़ी जैसे घर की खिड़की से उन्हंे तारे दिखाया करता था। कैसे उसके काम से लौटने तक बेसब्री से इंतजार करते थे बच्चे। फिर शुकान्त का दर्द याद आया और उसकी तड़प भी। उसकी उलट जाती पुतली और झाग से भरा हुआ मुंह। सुबह घर से निकलते वक्त की उसकी कातर आंखें। उस छटपटाती हुई स्थिति में पिता को कसकर पकड़ना सुनानी को अभी याद आया तो उसका मन बेचैन हो गया।
सुनानी के सिर में जोरदार चक्कर आने लगा। उसने अपने सिर को उस पिलर से सटा दिया। पर कुछ फर्क नहीं पड़ा। उसे लगा जैसे उसके सिर में जोर-जोर से कोई चक्कर लगा रहा है और उसी रफ्तार में उसका सिर भी घूम रहा है। ऐसा लग रहा था जैसे उसका सिर अभी खुल जायेगा। उसने वहाँ से उठ जाना चाहा। वह उठा और उठते हुए पहले पिता के साथ प्यार से सोये उस पांच साल के बच्चे के माथे पर अपना हाथ फेरा। बच्चे ने पिता को अभी भी कसकर पकड़ रखा था। उसकी नींद अभी भी बहुत गहरी थी।
सुनानी को पता नहीं क्या हुआ। उसने वहीं पास पड़ी हुई एक ईंट को उठाया और उसे तोड़कर उसके टुकड़े कर लिए। फिर उसने उन टुकड़ों से मेट्रो के उस खम्भे पर कुछ लिखना शुरू कर दिया। आंय-बांय। पता नहीं क्या क्या। उसने वहाँ कुछ चित्र बनाए। बस, गाड़ी, रिक्शा और एक लम्बी सड़क। उसका हाथ जहाँ तक आराम से पहंुच सकता था उसने वहाँ तक चित्र बनाये फिर दूसरा खम्भा, फिर तीसरा खम्भा। वह तब तक चित्र बनाता रहा जब तक कि उजाला न हो जाय और हर चित्र में बस और सड़क ज़रूर थे। उसके आखिरी चित्र में एक बच्चा था। बच्चे के छोटे-छोटे बाल थे। बच्चे के गाल पिचके हुए थे और उस बच्चे की आंखें मुंदी हुई थीं।
उजाला होने के बाद और अपने आखिरी चित्र बना लेने के बाद सुनानी हंसने लगा। जोर-जोर से नहीं बिल्कुल कुटिल मुस्कान। वह मुस्कराता हुआ अपने गैरेज पहुँच गया। उसने आज कुछ खाया भी नहीं, बस मुस्कराता रहा। वह गिरिजा का इंतजार करता रहा। गिरिजा के आते ही उसने मुस्कराना छोड़ दिया और दौड़ कर गिरिजा के पास चला गया।
सुनानी गिरिजा के पास गया और गिरिजा के बिना संभले ही बोलना शुरू कर दिया। गैरेज में अभी सिर्फ़ सुनानी के अलावा गिरिजा ही था। वह सुनानी के कारण थोड़ा जल्दी आता था। सुनानी गिरिजा के पास गया और चिल्लाना शुरू कर दिया।
"तुम्हें क्या लगता है घर जाने नहीं दोगे तो क्या मुझे रोक लोगे। तुम उन कबूतरों को रोक पाये घर जाने से। तुम उन चींटियोें को रोक पाये। बड़े आये रोकने वाले।"
"तुम्हे क्या लगता है कि मैं मर जाऊंगा। इतना आसान नहीं है मरना।" सुनानी अपनी रौ में बोल रहा था और गिरिजा को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था।
सुनानी गिरिजा के बहुत पास चला गया। गिरिजा को पहली बार सुनानी से डर लगा और वह छिटक कर दूर चला गया। सुनानी ने अपनी आवाज को धीमे किया
"डर मत। मैं हूँ मैं। तू डर क्यूं रहा है। मुझे नहीं पहचानता। मैं हूँ सुनानी। चारुदत्त सुनानी।"
"मैंने एक रास्ता निकाला है। बस तू एक कुदाल ले आ।" गिरिजा बस चुप्प सुन रहा था। गिरिजा चुप था तो सुनानी खीझ भी रहा था।
वह गिरिजा पर झल्ला उठा "तू क्या अपने को इस दुनिया का मालिक समझता है। यह धरती तुम्हारी है? यह आसमान तुम्हारा है? यह मिट्टी तुम्हारी है? फिर तो यह कबाड़ भी तुम्हारा ही होगा।" सुनानी ने वहाँ पड़े हुए गाड़ियों के कुछ टुकड़ों को हाथ से उठाया और उसे दम लगाकर दूर फेंक दिया।
"तुम मुझे अपनी सड़क पर नहीं चलने दोेगे तो कोई बात नहीं। मैं अपना एक अलग रास्ता बना लूंगा। बस एक कुदाल ले आ।"
गिरिजा अभी तक जवाब नहीं दे रहा था। लेकिन वह मौके की गंभीरता को समझ ज़रूर रहा था।
लेकिन इस बार गिरिजा ने डरते हुए पूछा "दादा कुदाल का क्या करोगे?" वह सावधान भी था उसे लगा सुनानी उस पर झपट्टा मार देगा। पर सुनानी एकदम शांत होकर उसके करीब आया और फुसफुसाते हुए बोला
"एक सुरंग बनाऊंगा।"
"सुरंग!" गिरिजा ने चैंक कर सुनानी की ओर देखा तो सुनानी और चैकन्ना हो गया।
"हाँ रोज रात में सुरंग बनाऊंगा। किसी को पता भी नहीं चलेगा। सरदार साहब को भी पता नहीं। बस तू मत बतइयो।" सुनानी ने ऐसे कहा जैसे इसे राज़ की तरह रखने की हिदायत दी जा रही हो।
"बस पांच-छः रातों में सुरंग तैयार। फिर मैं रोज घर जाउंगा। रोज। रोज जाकर मैं अपने बेटे के पास सो जाया करूंगा।" सुनानी ने कहा और उसकी आंखों से आंसू निकल आये।
"फिर मेरा बेटा कभी नहीं रोयेगा।"
"पर घर तो बहुत दूर है दादा।" गिरिजा ने समझाना चाहा।
सुनानी ने अब गिरिजा पर एकदम झपट्टा मार दिया। उसकी गरदन को पकड़ लिया और कहा "घर मेरा है तू ज़्यादा जानता है। तू मुझे घर जाने देता क्यों नहीं। मेरे बेटे ने तेरा क्या बिगाड़ा है!" थोड़ी देर में सुनानी ने गिरजा को छोड़ दिया और फिर वहीं बैठ गया।
"तू क्या चाहता है कि मेरा बेटा मर जाए।" सुनानी ने गिरिजा के पैर पकड़ लिए। ऐसा लग रहा था जैसे गिरिजा ही वह व्यक्ति है जो उसे सुरंग बनाने की अनुमति देगा।
गिरिजा चुपचाप खड़ा था और सुनानी वहीं जमीन पर बेचैनी में लोटपोट हो रहा था।
कहानी खत्म होने पर कुछ यथार्थ और कुछ शक-सुबहा
इसमें न तो आपको और न मुझे कोई शक है कि जब सुनानी सामान्य हुआ होगा तो गिरिजा ने उसे माफ कर दिया होगा। क्यांेकि वह जानता है कि दादा बीमार हंै और यह भी कि दादा अब क्या बचेंगे और बीमार आदमी का क्या बुरा मानना।
यह शक आपको भी होगा और मुझे भी है कि सुनानी अपनी बीमारी को अब भला और कितने दिनों तक अपने मालिक सरदार मोंटी सिंह से छुपा पायेगा। अब वह घड़ी बहुत नजदीक ही है शायद जब सरदार मोंटी सिंह उसे उस नौकरी से निकाल देगा और सुनानी का नौकरी से निकलना! फिर आगे क्या-क्या होगा मैं और आप दोनों जानते हैं।
यह संदेह आपको भी है और मुझे भी कि सुनानी का लगभग जिंदा लाश बन चुका बेटा पता नहीं कब तक उस कर्कश आवाज को झेल पायेगा। कब तक अपनी छटपटाहट के साथ वह जिंदा रह पायेगा। पता नहीं ंक्या होगा उसका।
लेकिन अभी का यथार्थ यह है कि गिरिजा ने सुनानी को कुदाल लाकर दे दी है और सुनानी रात में कुदाल ले कर निकल जाता है। अपने गैरेज के पीछे वाले इलाके में जाकर उसने एक सुरंग खोदना शुरू कर दिया है। वह रोज वहाँ घण्टों मेहनत करता है और उजाला होने पर अपने गैरेज, अपने काम पर लौट आता है। वह रोज गिरिजा को बताता है कि अब वह अपनी मंजिल से बस थोड़ी ही दूर है। उधर ज्योंही उसका घर निकल आयेगा वह अपने घर चला जायेगा। सुनानी कहता वह एक दिन उसको भी अपने साथ अपने घर ले जायेगा।
यह शक आपको भी है और मुझे भी कि यह सुरंग कितने दिनों तक इस दुनिया से छिप पाएगी।
लेकिन अभी सच यही है कि अगर रात के घुप्प अंधेरे में आप आयें और दिल्ली के इस इलाके में जायें तो वहाँ आपको सुनानी सुरंग खोदता हुआ मिल जायेगा।
बस दो गुजारिश अवश्य हैं आपसे कि आप उसे देखें लेकिन चुपके से और यह भी कि कोई उसे यह न बतलाये कि उसका घर इस सुरंग से बहूत दूर है। दूर बहुत दूर। सुनानी अभी सुरंग खोद रहा है और हमें इस सुरंग को बचाना तो चाहिए ही। बस इतना ही।