दिल्ली में / इब्नबतूता
इब्नबतूता (1304-1368-69) मोरक्को का निवासी, 22 वर्ष की आयु में यात्रा पर प्रस्थान। 28 वर्ष तक अरब, पूर्वी अफ्रीका, भारत, चीन, फारस, दक्षिणी रूस, मिस्र, फलासतीन् , स्पेन आदि का भ्रमण।
अगले दिन हम सुलतान मुहम्मद शाह की अनुपस्थिति में देहली पहुँचे। यह हिन्दुस्तान का महानगर है। एक विशाल और शानदार शहर। खूबसूरत और शक्तिशाली। यह चारों ओर एक ऐसी दीवार से घिरा हुआ है जिसके समान संसार में कोई दीवार नहीं। यह हिन्दुस्तान का ही सबसे बड़ा शहर नहीं है, बल्कि सभी मुस्लिम राज्यों में सबसे बड़ा शहर है। मैं 8 जून 1334 को सुलतान तिलबेट के दुर्ग से लौट आया जोकि राजधानी से सात मील दूर था। वजीर ने हमें सुलतान के पास जाने का आदेश दिया। घोड़ों, ऊँटों, फल, तलवारों आदि के उपहारों के साथ दुर्ग के द्वार पर पहुँचे। हरेक का सुलतान से परिचय कराया गया और प्रत्येक की स्थिति के अनुसार उसे सुलतान ने उपहारों से सम्मानित किया। जब मेरी बारी आयी, मैंने देखा कि सुलतान एक कुरसी पर विराजमान हैं। जब मैं दो बार सलाम कर चुका तो सुलतान के अमीर ने कहा-बिस्मिल्लाह मौलाना बदरुद्दीन। हिन्दुस्तान में मुझे बदरुद्दीन के नाम से बुलाया जाता था। और मौलाना शब्द आदर के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। मैं सुलतान के निकट पहुँचा। उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। मेरे हाथ को हौले से दबाया और मेरा हालचाल पूछा।
सुलतान ने काफी सुलतान किया और मेरे व्यय के लिए बारह हजार दीनार देने का वादा किया। यह बारह हजार दीनार पाने के लिए छह महीने तक इन्तजार करना पड़ा और इस बीच मुझ पर पचपन हजार का ऋण हो गया। ऋणदाता अपने रकम की माँग करने लगे। मैं बेफिक्र था क्योंकि मुझे मालूम था कि जब सुलतान यह बात सुनेगा तो मेरा कर्जा चुका देगा। वहाँ का रिवाज था कि ऋणदाता महल के द्वार पर ऋणी की प्रतीक्षा करता है। पर हाय! सुलतान के दुश्मन मेरे पीछे पड़ गये। कहने लगे-तुझे सुलतान के सर की कसम, जब तक मेरा ऋण नहीं चुकाएगा, महल के भीतर प्रवेश नहीं करेगा। ऋणी तब तक वह स्थान नहीं छोड़ता, जब तक ऋण चुका नहीं देता था या कुछ और मोहलत नहीं ले लेता था।
मेरे ऋणदाताओं ने ऐसा ही किया और इस पर सुलतान ने अपने एक अमीर को ऋण की रकम पूछने के लिए भेजा। ऋणदाताओं ने कहा, “पचपन हजार दीनार।” सुलतान ने फिर कहला भेजा, “माबदौलत तुमसे कहते हैं कि तुम्हारी रकम हमारे कब्जे में है। हम तुम्हारे साथ इंसाफ करेंगे। तुम अब इससे रकम नहीं माँगना।”
सुलतान ने दो अधिकारियों को ऋणदाताओं के कागजात की तस्दीक करके खजांची के पास रकम देने के लिए भेज दिया। खजांची लालची था। वह रिश्वत चाहता था। इसलिए उसने रकम अदा नहीं की, जबकि मैंने दो हजार दीनार भेजे लेकिन उसने वापस लौटा दिये। वह पाँच हजार माँग रहा था। और मैंने इतनी रकम देने से इनकार कर दिया। सुलतान के कानों में इस बात की भनक पड़ी तो उसने खजांची को कुछ समय के लिए मुअत्तल कर दिया और उसके चरित्र की जाँच का हुक्म दिया।
कुछ दिन बाद सुलतान शिकार पर चल दिया। मैं भी तैयार होकर उसके पीछे चल दिया। एक दिन सुलतान ने अपने दरबारियों से पूछा, “यह बाहर कौन है?”
एक दरबारी नसरुद्दीन ने कहा, “जनाब! वही मुराकाका मौलाना जोकि बहुत विक्षिप्तावस्था में है।”
“लेकिन ऐसा क्यों?” सुलतान ने उत्सुकता से पूछा और दरबारी ने जवाब दिया, “अपने ऋण की वजह से, क्योंकि उसके ऋणदाता अपनी रकम के लिए अभी भी उसे तंग कर रहे हैं। आपने वजीर को रकम अदा करने के लिए हुक्म दिया था लेकिन वजीर रकम चुकाने से पहले कहीं चला गया। क्या माबदौलत ऋणदाताओं को वजीर की प्रतीक्षा के लिए नहीं कह सकते या इस ऋण के भुगतान का आदेश नहीं दे सकते? अमीर दौलतशाह ने भी इस बात का अनुमोदन किया।
तब सुलतान ने कहा, “जब हम राजधानी को लौटें तो तुम खुद खजाने से यह रकम लाकर इसे दे देना।” खजांची भी वहाँ हाजिर था। वह बोला, “हुजूर! यह आदमी बहुत फिजूलखर्च है। मैंने पहले से इसे अपने मुल्क में भी फिजूलखर्ची करते हुए देखा है।” लेकिन सुलतान ने उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। सुलतान ने मुझे अपने साथ खाना खाने के लिए बुलाया। मुझे बिलकुल पता नहीं था कि मेरी अनुपस्थिति में क्या बात हुई है। जब मैं खेमे से बाहर निकला तो नसीरुद्दीन बोला, “दौलत शाह का शुक्रिया अदा करो।” और दौलत शाह ने व्यंग्य से कहा, “खजांची का शुक्रिया अदा करो...”
राजधानी लौटने पर खजांची ने तीन बोरियों में रकम भर भेज दी। 55 हजार दीनार ऋण के और 12 हजार दीनार वह जो सुलतान ने पहले देने का वादा किया था, लेकिन अपना दसवाँ हिस्सा जरूर काट लिया था।