दिल की नजर से नजरों के दिल से / जयप्रकाश चौकसे

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दिल की नजर से, नजरों की दिल से

प्रकाशन तिथि : 13 जनवरी 2011

एक ही घर में पिता का यथार्थ, पुत्र के यथार्थ से अलग होने का आभास देता है क्योंकि जिस तरह सफलता अपने लिए अपनी दुनिया रचती है, उसी तरह असफलता भी अलग किस्म का भ्रम रचती है।


द स जनवरी को अभिनेता ऋतिक रोशन ने अपना छत्तीसवां जन्मदिन अपने परिवार और निकट मित्रों के साथ मनाया। कोई धूमधाम नहीं, कोई दिखावा नहीं। आमतौर पर सितारा दावतों में दोस्तों से पहले दुश्मनों को न्योता दिया जाता है ताकि वे आपकी समृद्धि और दावत नियोजन की कला देखकर ईष्र्या महसूस करें। दावतों में शरीक मेहमान, विशेषकर औरतें, खूब सज-धजकर आती हैं और उन्हें देखना कम स्वयं को दिखाना अधिक है। दावत में नकली ठहाके लगाए जाते हैं और इतना अधिक गले लगना होता है कि लगे कि इन प्रतिद्वंद्वियों में कितना प्यार है। इस तरह की दावत में कोई आनंद नहीं ले पाता। पूरा समय स्वयं की रक्षा और दूसरों पर कटाक्ष करने में निकलता है। गैरमौजूद मित्रों और सहयोगियों की बुराई दावतों का खास शगल होता है और यह फिल्म दावतों तक सीमित नहीं है। यह राष्ट्रीय शगल है।

बहरहाल, ऋतिक रोशन की दावत तनावमुक्त रही क्योंकि सीमित व्यक्ति ही आमंत्रित थे। विगत वर्ष ऋतिक की 'काइट्स' और 'गुजारिश' जैसी फिल्में असफल रहीं, परंतु वे इन्हें अपना प्रयोग मानते हैं और उन्हें दोनों फिल्मों पर गर्व है। फिल्म उद्योग में प्राय: लोग असफलता को स्वीकार नहीं करते क्योंकि पराजय यहां अपशब्द माना जाता है। ऋतिक के पिता राकेश रोशन व्यावहारिक और संतुलित व्यक्ति हैं। वे जानते हैं कि दोनों ही फिल्मों में कमी रह गई है।

दरअसल ऋतिक अपने समकालीन सितारों में सबसे कम आयु के हैं और उन्हें लंबी पारी खेलनी है। उनके दस वर्ष के कॅरियर में एक सफलता के बाद अनेक असफलताओं का सिलसिला सा बनता है और राकेश रोशन फिर एक सफलता गढ़ते हैं। वे एक घोर व्यावसायिक फिल्मकार हैं और आम आदमी की पसंद को काफी हद तक समझते हैं। अब सुना है कि वे एक भव्य एक्शन फिल्म की परिकल्पना में जुटे हैं, जिसे 'कृष-दो' भी कहा जा सकता है।

एक ही घर में पिता का यथार्थ, पुत्र के यथार्थ से अलग होने का आभास देता है क्योंकि जिस तरह सफलता अपने लिए अपनी दुनिया रचती है, उसी तरह असफलता भी अलग किस्म का भ्रम रचती है। दोनों ही भ्रम नशे की तरह हैं। शराब का नशा भांग के नशे से अलग किस्म का होता है और अफीम का नशा दोनों से जुदा होता है। ड्रग्स में भी कई तरह के नशे शामिल हैं। नाक के द्वारा सूंघने वाले ड्रग्स का प्रभाव, इंजेक्शन द्वारा लिए गए ड्रग्स से अलग होता है।

बाजार और विज्ञापन की ताकतों ने आल्टरनेट रियलिटी रची है। नजर जो देख सकती है, उसके परे भी एक संसार है और नजरिया आपको यथार्थ का एक निजी स्वरूप देता है। कबीर कह गए कि सुनी हुई से ज्यादा यकीन 'आंखन देखी पर करो और शैलेंद्र कहते हैं- मत रहना अंखियों के सहारे।' (जागो मोहन प्यारे, फिल्म 'जागते रहो') सब सतहों से ऊपर उठकर निर्मम तटस्थता से यथार्थ को समझना विरल लोगों के बस की बात है। अनेक लोग अपनी असफलता को आभामंडित करते हैं कि फिल्म अवाम के सिर के ऊपर से गुजर गई या फिल्म अपने वक्त से आगे की है। ये प्रतिक्रियाएं दिमागी फॉर्मूला हैं। इनसे जन्मी आत्मग्लानि भयावह हो सकती है। ऋतिक शायद इसके ही शिकार हैं, परंतु राकेश साफ देख सकते हैं। एक ही घर में एक ही घटना को दो लोग अलग-अलग ढंग से ले रहे हैं। आम जीवन में अनेक व्यक्तियों में एक ही घटना के अलग-अलग भ्रम पैदा होते है