दिल की बातें 'जिंदगी' के नजदीक से / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :23 मार्च 2015
आज से सोनी पर रात साढ़े नौ बजे से गुरु भल्ला और धवल गढ़ा का राम कपूर अभिनीत 'दिल की बातें दिल ही जाने' नामक सीरियल प्रारंभ हो रहा है। ज्ञातव्य है महेश भट्ट की 'डैडी' नामक फिल्म की कथा से प्रेरित है यह सीरियल। पिता-पुत्री की इस पारिवारिक कथा में कई नए मोड़ हैं। राम कपूर स्वयं स्वीकार करते हैं कि उनके लंबे टेलीविजन करियर में इतनी चुनौती वाली भूमिका पहली बार आई है और उनकी पत्नी की भूमिका में गुरुदीप कौर भी कमाल का अभिनय कर रही हैं। गुरुदीप कौर की भूमिका छोटी है और उनकी मृत्यु के दृश्य के बाद कथा पिता और पुत्री की बन जाती है परंतु गुरुदीप की अदृश्य मौजूदगी से ही दोनों पात्र संचालित हैं। पत्नी के लिए पति का दु:ख और मां के लिए बेटी के दु:ख में अंतर होता हैं, क्योंकि एक के पास जीवन का अनुभव है और दूसरी के लिए वह मां की मृत्यु ही निर्णायक अनुभव है। दरअसल, मौत की पराजय को ही शैलेंद्र की ये पंक्तियां उजागर करती हैं, 'मरकर भी किसी को याद आएंगे, किसी के आंसुओं में मुस्काराएंगे, जीना इसी का नाम है।'
मौत के स्कूल में जीवनभर की पढ़ाई की परीक्षा होती है और इस अजीबोगरीब परीक्षा का प्रमाण-पत्र विद्यार्थी के हाथ में नहीं आता परंतु यही प्रमाण-पत्र उसकी यादों को बनाता है, जो प्रियजनों के हृदय में हमेशा जीवित रहती हैं। कुछ लोगों की यादों के स्मारक बना दिए जाते है परंतु यादें रूपी चरित्र का प्रमाण-पत्र किसी स्मारक का मोहताज नहीं होता। क्या नाथूराम गोडसे की प्रस्तावित मूर्ति गांधीजी के आदर्श को मिटा सकती है? सोक्रेटीज को मृत्युदंड देने वाले जजों का नाम भी किसी को याद नहीं, सोक्रटीज का दर्शनशास्त्र जीवित है।
बहरहाल, इस सीरियल के पटकथा लेखक जबा हबीब और संवाद लेखक विशाल ने चरित्र-चित्रण बहुत विविध और प्रभावोत्पादक किए हैं। शीघ्र ही बिदा होने वाली गुरुदीप कौर का पात्र इतना जिंदादिल और दबंग रचा है कि वह अन्य पात्रों एवं दर्शकों की स्मृति में सदेव ठहाके लगाती रहती है। जब ऑस्ट्रेलिया में जबरदस्त मुकाबले चल रहे होंगे तब गुरुदीप और राम कपूर का मोहल्ला क्रिकेट बड़ा मनोरंजक लगेगा। इस सीरियल में एक मुद्दा दया-मृत्यु का भी है और यूथेनेशिया अर्थात मर्सी किलिंग कुछ ही देशों में कानूनी तौर पर जायज है। भारत में यह प्रतिबंधित है।
विगत कुछ समय से इस मुद्दे पर नए सिरे से बहस हो रही है कि जब संविधान मनुष्य को स्वतंत्रता देता है तो क्या मौत पर उसकी इच्छा का अनादर संविधान में प्रयुक्त संपूर्ण स्वतंत्रता के आदर्श की अवमानना है। दूसरा तथ्य यह है कि कैंसर के रोग और उपचार की पीड़ा जीवन में ही नर्क की झलक दिखाता है। क्या अनेक मामलों के कैंसर का इलाज मरीज के दर्द को ही लंबा नहीं खींचता है, अत: उसे निजात की इजाजत मिले। इसके साथ यह भी तथ्य है कि डाॅक्टर और शोधकर्ता इस मर्ज से निरंतर युद्ध कर रहे हैं और इच्छा मृत्यु उनके संघर्ष का अवमूल्यन है। बहरहाल, बताया जाता है कि कैंसर तीन सौ प्रकार का होता है और कमोबेश 250 पूरी तरह ठीक हो जाते हैं। मारक प्रकार के कैंसर के खिलाफ भी जंग जारी है।
पृथ्वीराज कपूर की जिस बीमारी से मृत्यु हुई उसका संपूर्ण इलाज चंद दिन बाद ही उपलब्ध हुआ। साधना की एक आंख निकालनी पड़ी और नकली आंख लगाई गई, इसके कुछ माह बाद ही उस रोग का उपचार मिल गया, गोयाकि इन चंद दिनों के अंतराल ने उन आंखों की बलि ली, जिसके सैकड़ों दीवाने थे। बहरहाल, अपनी एक नकली आंख के लगने के बाद भी उन्होेंने कुछ सुपरहिट फिल्मों में काम किया। खबर यह आई है कि विगत कुछ समय से वे कैंसर से जूझ रही हैं और उनके निकट सूत्रों से मिली जानकारी है कि वे पूरी तरह सेहतमंद हो जाएंगी। बहरहाल 'दिल की बाते दिल ही जाने' की कथा में यह प्रसंग छोटा सा है - पूरी कहानी तो पिता-पुत्री व अन्य रिश्तों की है।