दिल की बात / अशोक भाटिया
पिछली बार जब मैं गुप्ता जी के ऑफिस गया, तो वहाँ एक नई क्लर्क आ चुकी थी। हल्की-सी झलक में वह मुझे आकर्षक लगी थी।
कल जब मैं गुप्ता जी के ऑफिस में कागजात लेने जा रहा था, तो मन के कोने में वह फाइलों वाली लड़की भी बैठी हुई थी।
‘‘नमस्ते।‘‘ मुझे देखते ही वह अदब से बोली।
‘‘नमस्ते, गुप्ता जी कहाँ हैं?‘‘
‘‘साथ वाले कमरे में गये हैं। बैठिये आप।‘‘
उसका संकेत मनमोहक था। मैं विश्वास से कह सकता हूँ कि कोई भी आदमी उसे देखकर उसके सौन्दर्य से जरूर पिघलने लगेगा। एक बार तो मैं भी अपना सब काम भूलकर वहाँ बैठ जाना चाहता था, पर नहीं। ‘धन्यवाद‘ कहकर मैं साथ वाले कमरे में चल दिया। लगा कि उसकी बड़ी-बड़ी आँखें मुझे पीछे खींच रही हैं।
थोड़ी देर बाद मैं गुप्ता जी के साथ आया, तो वह फाइलों वाली लड़की चाय पी रही थी।
गुप्ताजी ने दराज से पुलिंदा निकालते हुए कहा- ‘ये रहे आपके कागजात।‘
कागज लेकर फौरन खड़े होते हुए मैंने कहा - ‘भाई जान, ज़रा जल्दी जाना है। फिर आऊँगा।‘
मैं बाहर जाने लगा, तो कोने में बैठी वह लड़की बोली- ‘चाय पीजिये।‘
एकबारगी चाहा कि बैठ जाऊं, लेकिन बहुत जरूरी काम था, इसलिये ‘फिर कभी सही’ कहकर मैं बाहर आ गया।
मेरे मन में वह लड़की गड़-सी गई थी। शाम को उसी की मुद्राओं और चाय की ऑफ़र के आस-पास घूमता मैं बाजार जा रहा था कि अचानक गुप्ताजी मिल गये।
‘‘और सुनाइये गुप्ताजी, क्या हाल हैं?‘‘
‘‘ठीक है...वो कागज़ ठीक टाइप हो गये न?‘‘ वे बोले।
‘‘ठीक हो गये। अच्छा गुप्ताजी, आपके दफ्तर में जो नई लड़की...‘‘
गुप्ताजी बीच में ही बोल उठे - ‘हाँ, वह कह रही थी कि वे जो आपके दोस्त आज आये थे...‘‘
‘‘हाँ क्या़?‘‘ मेरे दिल की धड़कन तेज हो गई थी...
‘‘हो सके, तो उनसे टाइप का कुछ काम मुझे भी दिला देना...।‘‘