दिल के दरवाजे से / नीला प्रसाद
बिट्टी,
अभी गहरी रात है। तुम अपने बिस्तर पर सो रही हो और मैं तुम्हें देखती हुई, तुम्हारे पास तुम्हारे स्टडी टेबल पर बैठी, तुम्हें पत्र लिख रही हूं। तुम्हारे गालों पर सूखे आंसुओं की छाप है, पर कम्प्यूटर पर लिखी तुम्हारी डायरी पढ़ने के बाद मुझे हिम्मत नहीं हो रही है कि तुम्हारे छुटपन की तरह, मैं गीले तौलिए से तुम्हारा चेहरा पोंछ, तुम्हारे गाल चुंबनों से भर, तुम्हें सीने से लगा लूं। मैंने तुम्हारे जन्म के पहले से ही तुम्हें अपने अंश के रूप में देखा- तुम मैं ही थी जैसे; अपनी कुछ अलग खूबियां लिए हुए- पर मेरे इस भावनात्मक सच को जो तुम्हारे साथ- साथ ही मेरे मन में निरंतर बड़ा होता रहा, आज तुम्हारे लिखे ने पूरी तरह झुठला दिया। नहीं, तुम ‘मैं’ नहीं हो। तुम्हारे सोचने का ढंग मुझसे कितना अलग है! पहले प्यार में ठोकर खाकर तुमने जो लिखा है - उससे मैं पूरी तरह हिल गई हूं। मैं हर बार प्यार में ठुकराई जाकर ,विद्रोह में खुद को ज्यादा सहेजती, संवारती गई कि जिसने मुझे ठुकराया, वह पछताए कि उसने अपनी गलती से क्या कुछ खो दिया है.. और तुम पहले प्यार में असफल होकर जीवन का अंत करने की सोच रही हो!!
पिछले कुछ महीनों से हम एक दूसरे से बहुत कम मिल पाए। तुम्हारे पापा की तरह मुझे भी लंबे दौरों पर जाना पड़ा और तुम- हमारी इकलौती- बिल्कुल अकेली पड़ गई। मैंने सोचा अब तुम बड़ी हो गई हो, निखिल से प्यार करने लगी हो, तो उसका प्यार तुम्हें भावनात्मक रूप से संवारे, मजबूत बनाए रखेगा....तुम्हें मेरी कमी उतनी नहीं खलेगी जितनी छुटपन में खला करती थी, पर मैं बिल्कुल गलत निकली। निखिल ने प्यार में तुम्हें साझा नहीं किया, बल्कि अकेला कर छोड़ गया।
बिट्टी, मैं इतनी स्तब्ध हूं, ,खुद को इतना हिला हुआ, कातर और धिक्कार योग्य महसूस कर रही हूं कि तुम मेरी मनःस्थिति की कल्पना भी नहीं कर सकती। तुमने अपने लिए फैसले का दिन कल रखा है- यदि मैं आज रात के बदले कल रात लौटती तो? अगर कल रात लौट कर मैंने पाया होता कि मेरी लाडली, मेरे जिगर का टुकड़ा, मेरा ‘मैं’ अब इस दुनिया में नहीं है- तो? तुमने अपने अकेलेपन में अपनी भावनाएं रात सोने से पहले लिख डालने का निर्णय नहीं किया होता-तो? मैं दौरे से थकी हारी लौटकर, तुम्हारे कमरे में आने और तुम्हारे आंसूभरे चेहरे से विचलित होकर, तुम्हारे कागज उलटती -पलटती, तुम्हारा लैपटॉप न खोलती तो? अगर तुमने पासवर्ड बदल दिया होता और मैं तुम्हारा लिखा पढ़ ही न पाती - तो?? इन आशंकाओं का मेरे बहते आंसुओं की तरह ही कोई अंत नहीं है... मैं खुद को दिलासा दे रही हूं कि अभी तो कुछ नहीं बिगड़ा। अभी तुम हो। मेरे सामने बिस्तर पर सोई हुई हो। मन हो रहा है कि तुम्हें नींद से उठाकर सीने में छुपा लूं और कहूं तुमसे कि नहीं मेरी गुड़िया, ऐसा मत करना कभी! जीवन में, जीवन से कीमती कुछ भी नहीं होता कि जिसके लिए जान दे दी जाए.... प्यार भी नहीं। पर मन कहता है कि तुम्हें, जो अपनी बेचैनी में किसी भी क्षण जाग जा सकती हो, अपनी ओर से जगाने की बजाय, तुमसे पत्र लिखकर बात की जाय। सामने- सामने तुमसे यह सब कह भी नहीं पाऊंगी। नहीं बता पाऊंगी तुमसे अपने एक के बाद एक टूटे रिश्तों की कथा कि जिससे तुम महसूस सको कि प्यार के कितने- कितने शेड्स हो सकते हैं, जो हमें एक साथ बना और तोड़ रहे होते हैं। प्यार में पड़ा आदमी कमजोर, व्यक्तित्वहीन हो जा सकता है तो टूटा प्यार, अटूट ताकत भी दे सकता है, जीवन संवार जा सकता है। ‘कैसे?’ मैं तुम्हें सिलसिलेवार बताऊंगी- जैसे पहले कभी नहीं बताया। तुम शायद मेरे मन , मेरे जीवन, मेरे व्यक्तित्व को - और इसी बहाने खुद को- समझ सकोगी। नहीं, शायद क्यों - तुम जरूर समझ सकोगी, क्योंकि तुम पूरी नहीं तो थोड़ा सा ‘मैं’ जरूर हो।
तुम्हारे जन्म से पहले, मैं अपने से अलग किसी रूप में, तुम्हारी कल्पना कर ही नहीं पाती थी। मुझे लगता था कि मैं ही बिल्कुल नन्हीं-सी बनकर, खुद अपने अंदर समा गई हूं। खुशीभरा झटका मुझे तब लगा जब तुम पैदा हुई। नहीं, तुम ‘मैं’ नहीं थी। तुम मुझसे कई -कई गुना ज्यादा प्यारी, सुंदर और गोरी थी। तुम पहली नजर में ही पापा की बेटी लगती थी गोकि तुम उनसे भी सुंदर थी। सुंदरता की चर्चा हुई क्योंकि एक नए जन्मे बच्चे का रंग -रूप ही दीखता है। उसका स्वभाव, उसकी बुद्धि, उसके कारनामे तो धीरे -धीरे प्रकट होते हैं। जैसे -जैसे तुम बड़ी हुई हम तुम्हारे रंग -रूप से इतर, तुम्हारी तीक्ष्ण बुद्धि, चपलता और चालाकी पर मुग्ध होने, चकराने लगे- सुंदरता गौण हो गई। पापा जैसे तुम्हारे चेहरे की मैं इतनी अभ्यस्त हो गई कि अलग से उसकी चेतना शेष नहीं रही। तुम ज्यादा समय मेरे साथ गुजारती थी इसीलिए मेरे स्वभाव का तुम पर ज्यादा असर पड़ा। तुमने मेरी मार खाकर विद्रोह करना सीखा, तो मेरे वहशी गुस्से की नकल में वैसा ही गुस्सा मुझपर और दूसरों पर उतारना! अपनी मीठी बोली और लाल होठों वाली मनोहारी हंसी से घर को उजास से भर देने वाली तुम, एक साथ मेरे जैसी और मुझसे अलग होती जा रही थी। बचपन से ही स्वतंत्र सोच विकसित करने की शिक्षा तुम्हंन मिली। तुम निखिल से मिली तो मुझे आपत्ति नहीं हुई। आखिर अपने निर्णय खुद लेने,प्यार करने और मन के रंगीन आकाश में अकेले ही विचरने का तुम्हें पूरा हक था। मैं इतनी व्यस्त रही कि निखिल घर आया भी तो उसे पूरा वक्त देकर नहीं मिल पाई। मुझे उम्मीद नहीं थी कि तुम्हारे फैसले इतनी जल्द हो जाएंगे। मैंने सोचा कि अभी तो तुम मिले ही हो - एक दूसरे को जानने ,समझने और कोई फैसला लेने में वक्त लोगे। जब तुम उसे परख लोगी, तब मैं और तुम इस बारे में बातें करेंगे और मिलकर कोई फैसला लेंगे। पर तुम अपने अकेलेपन में ,अपने सुख- दुख में, बिल्कुल अकेली पड़ गई और निर्णय भी अकेली ही लेने को विवश हो गई शायद.....बिट्टी, प्यार प्रमाण और परीक्षा दोनों मांगता है। प्यार पाने को आतुर युवा दिल परीक्षा देने को शायद ज्यादा ही उत्सुक रहता है पर जिसके लिए यह परीक्षा दी जा रही है, उसकी पात्रता की पहचान करने में अक्सर भूल हो जाती है। आखिर प्यार अंधा होने की कहावत जो ठहरी! मेरा अनुभव है कि अपनी जिंदगी में जितने प्यार मैंने संपूर्ण दिल से किए, वे सारे हारे। पर जैसे ही प्यार में दिमाग को प्रवेश मिला- स्थितियां बेकाबू नहीं रहीं। प्यार दिल का मामला है इस प्रचारित उक्ति से परे प्यार के स्थायित्व के लिए प्यार में दिमाग की एंट्री करवाना जरूरी है। समुद्र की लहर की तरह प्यार की उमड़न में समा जाने पर लहर की तरह ही टूट कर किनारे पर पटक दिए जाने का खतरा रहता है । उमड़न में आवेग का आनंद है इसीलिए दिल से हारे, इसमें समाते,इसमें खो जाते, फिर बाद में प्यार का स्थायित्व खो जाने पर पछताते हैं.... असली प्यार तो दिमाग की उमड़न है- वो थरथराता आवेश जो आपको सालों-साल बांधे रखता है। वह ठोस प्यार है, जिसका आधार आप पांवों तले महसूस सकते हैं। वह अपने आप को धीरे-धीरे पकाता, सिझाता और स्वादिष्ट बनाता है।
मेरे पहले प्यार का अहसास बिल्कुल वायवी था- जैसे महकी हवा! मैं घर की छत पर चटाई बिछा लेटी- लेटी ,पूरे आसमान की सैर कर आती। इंद्रधनुष छू आती, पलाश के फूलों भरे पेड़ों की लहक चुरा, पहाड़ी झरनों की उन्मत्तता में समा जाती। दूब पर पड़ी सुबह की ओस, झाड़ी में खिला अकेला गुलाब तक इशारे देते लगते। मैं निश्चित रूप से प्यार में थी, किसी को देने को प्यार मन में छलका पड़ रहा था। प्रेमी के लिए प्रेम कविताएं लिखकर तैयार थीं और पत्रों के ढेर बढ़ते जा रहे थे। पर किस्मत के धोखे से वहां कोई पुरुष मौजूद नहीं था। क्या इसीलिए मेरा प्यार, प्यार नहीं था? महसूसी गई प्यार की भावनाएं सब झूठी थीं?? मैं वर्षो तक छली गई-सी महसूस करती, घुटती रही। यह मेरे साथ प्यार में पहला धोखा था।
कॉलेज में आने के दूसरे वर्ष तक मेरे मन में प्यार का घर सूना-सूना खाली पड़ा रहा। मैं मघ्यवर्गीय परिवार की औेसत अच्छे रंग-रूप, औसत पहनावे की चुप्पी लड़की थी। बुद्धि से तीक्ष्ण थी पर लड़कों से सीधे बात करने में घबराती थी। मुझे अपनी क्लास के कुछ लड़के अच्छे लगते थे पर मैं चाहती थी कि मित्रता या प्यार की पहल उनकी ओर से हो। बुद्धि से तेज, अच्छे पहनावे ओैर बातचीत में स्टाइलिश लड़के, खुले स्वभाव की, आउटगोइंग लड़कियां पसंद करते थे। मेरा प्यार, कपड़ों और पारिवारिक परिवेश से उत्पन्न दब्बूपन की वजह से मारा जा रहा था। मेरी पसंद के लड़के, जिन लड़कियों के साथ घूमते या उन्हें पसंद करते, बातें करते थे, उनके बारे में मैं सोचा करती थी कि वे जरूर उन्हें धोखा देंगी... उनकी दोस्ती की उमर कभी लंबी नहीं होगी! यह मेरी आधी ईर्ष्या थी, आधी सुनी- सुनाई बातें! फिर मुझे लगा कि परीक्षा में अच्छे अंक लड़कों का ध्यान मेरी ओर खींच लेंगे। मुझे अंक तो बहुत अच्छे आए पर दोस्ती किसी की नसीब न हुई। मैं लड़कियों के ग्रुप में रहती थी, मेहनत से पढ़ती थी और बनने- संवरने के छोटे-छोटे प्रयास, अपने सीमित जेबखर्च में करती, किसी पुरुष- मित्र से दोस्ती का इंतजार करती, दिन गुजारती थी।
पर प्यार आया तो बड़े अप्रत्याशित तरीके से - चुपचाप!! जैसे पार्क की घास पर लेटे-लेटे आपको पता ही न हो कि अंदर-अंदर पानी बहा आ रहा है और आप बेखबरी में अचानक से पूरे भींग जाएं।
हुआ यह कि मुझे कॉलेज की तरफ से हिंदी वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने जाना था। हमारी टीम में चार लोग थे- मैं और अन्य तीन लड़के! दो मुझसे सीनियर, अंग्रेजी के लिए और एक मेरे ही बैच का हिंदी के लिए जो दूसरे सेक्शन का था। मैं खूब जोशोखरोश से विपक्ष में बोली और सर्वश्रेष्ठ वक्ता का प्रथम पुरस्कार अपने कॉलेज के लिए जीत लाई। हमारे कॉलेज को दो पुरस्कार मिले थे- मुझे हिंदी में प्रथम और अंग्रेजी में मेरे सीनियर बैच के एक लड़के को द्वितीय। अगले दिन मैं कॉलेज गई तो नोटिस बोर्ड पर परिणामों की घोषणा लगी हुई थी पर मेरी क्लास के छात्र-छात्राओं को जैसे खबर ही नहीं थी। सबों को अपने मुंह से बताते मुझे संकोच हो रहा था कि इंगलिश डिबेट में द्वितीय पुरस्कार पाए अपने सीनियर को फूलमालाओं से लदे, अपने प्रशंसकों के साथ अपनी कक्षा में घुसते देखा। तब तक सर आए नहीं थे। उसने मुझे क्लास में चारों ओर नजरें घुमाकर खोजा और पास आकर खूब जोर-जोर से झटके देते हुए, हिला-हिलाकर हाथ मिलाया। मैं सबकी नजरों में आ गई। मुझे लगा कि अब तो शायद मुझे उन लड़कों से बधाइयां मिलेंगी जिन्हें मैं मन-ही- मन पसंद करती थी। पर हुआ उलटा। उन्होंने तो मुझे खुद की जगह चुने जाने और पुरस्कार जीत लाने के कारण राइवल मान लिया था।
तीन दिनों के बाद मेरा सीनियर अकेला ही मेरे घर पहुंच गया। मेरे लिए यह पहला मौका था कि कोई लड़का मुझसे मिलने आए। उसने तुम्हारे नानाजी से पूछा कि क्या रीना यानी मेरे पिता वही हैं? फिर बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिलाकर मेरी इतनी बड़ी (!) सफलता के लिए उन्हें बधाई दी और कहा कि वह मुझे भी बधाई देने आया है। वे मना नहीं कर पाए। दो-चार दिनों के बाद वह कॉलेज में मुझसे फिर मिला और बेतकल्लुफी से मेरे साथ-साथ चलने लगा। ‘तुम शरमा क्यों रही हो? मैं तो तुम्हारे घर भी हो आया हूं और तुम्हारे पूज्य पिताजी से तुमसे मिलने की अनुमति भी ले चुका हूं।’ वह छेड़ता हुआ बोला। ‘अच्छा!’ मैंने कटाक्ष किया। मेरा दिल जोरों से धड़क रहा था। यह धड़कन वाद-विवाद प्रतियोगिता में मंच पर जाने से पहले होने वाली धड़कन से बिल्कुल अलग थी। पहली बार किसी पुरुष मित्र के साथ सड़क पर चलने का वह अनुभव मुझे आज भी याद है। पांव बेजान लग रहे थे, होंठ सूख रहे थे और गाल तप रहे थे। ‘अच्छा, यह बताओ, मैंने उस दिन जोर से हिला-हिलाकर जब तुमसे हाथ मिलाया तो तुम्हें कुछ हुआ था? कोई अनुभूति??’ वह अंग्रेजी में पूछ रहा था। ‘नहीं, कुछ भी नहीं। एमबेरेसमेंट के सिवा।’ मैंने भी शैतानी से कहा। वैसे यह लगभग सच था। एमबेरेसमेंट के कारण दो थे- एक तो भरी भीड़ में उस तरह से मेरा हाथ हिलाया जाना,दूसरा मेरी हथेली का खुरदुरापन!!
फिर तो हम अक्सर एक-दूसरे से मिलने लगे। शेखर व्यवहारकुशल, स्मार्ट और सुदर्शन था। वह बी.एससी. प्रथम वर्ष में था और प्री- मेडिकल के दूसरे अटेम्ट की तैयारी कर रहा था। डॉक्टर पुत्र होने के कारण उसे इस पेशे का ग्लैमर और पैसा दोनों लुभाते थे- पारिवारिक दबाव तो खैर था ही। ‘तुमने तो जीव-विज्ञान और गणित दोनों ही लिया है- तो तुम भी मेडिकल में ट्राई क्यों नहीं करती?’ एक दिन उसने कहा। उसने मेरी नब्ज पकड़ ली थी। मैंने दोनों विषय तो बस फैशन में लिये थे, मेरा स्वाभाविक रुझान गणित में ही था। पर शेखर से मिलने के बाद मैं भी इस दिशा में सोचने लगी थी। आखिर पति डॉक्टर और पत्नी इंजीनियर की बजाय दोनों डॉक्टर की जोड़ी ज्यादा अच्छी लगती! तब मैं अतिभावुक लड़की थी- प्रेम के लिए घरबार, समाज ,सबकुछ छोड़ सकती थी तो करियर बदलना तो एक छोटी बात थी। हमारी मित्रता के कुछ ही माह बीते थे, बस गिनीचुनी मुलाकातें हुई थीं कि शेखर दूसरे प्रयास में प्री-मेडिकल क्लीयर करने में सफल हो गया। अब उसे शहर छोड़कर जाना था। मुझे पता नहीं था कि शेखर की मेरे सिवा अन्य किसी लड़की से दोस्ती है या नहीं। पता लगाने का कोई जरिया नहीं था और खुद पूछना कितनी ओछी बात लगती!....शहर छोड़ने से पहले वह मुझसे मिलने आया- उस छोटे से शहर की एकमात्र सुंदर बगिया में। मुझे क्लास के लिए देर हो रही थी, लोगों द्वारा देख लिए जाने का खतरा अलग से सिर पर मंडरा रहा था। फिर भी हम पांचेक मिनट साथ रहे। वह बोला‘, ‘तुम्हारी आंखें बहुत सुंदर हैं रीना! यदि मुझे कविता लिखना आता तो मैं तुम्हारी दर्द में डूबी आंखों के प्रति एक भावभीनी कविता जरूर लिखता। इतनी खोई-खोई, दर्द भरी, डूब जाने का निमंत्रण देती आंखें मैंने अबतक नहीं देखीं!!’ मेरे लिए वह बहुत मुश्किल क्षण था। नया पाया प्यार बिछुड़ रहा था.... अपने आंसुओं के आवेग को रोक, बात करना असंभव था। मैं कुछ बोल नहीं पाई। अभी तो अपने अंदर चांद की पिघलाहट महसूसनी शुरू ही की थी..अभी तो नजरों के ताप से शरीर का गर्म होना पहली बार पहचाना था... अभी तो प्यार का पहला चुंबन भी नहीं मिला था...और यह जुदाई!! ‘शेखर, तुम इसी शहर के मेडिकल कॉलेज में एडमिशन क्यों नहीं ले लेते?’ मैंने मुश्किल से पूछा। ‘मैं इस शहर से बाहर निकलना चाहता हूं। जरा दुनिया देखूं, स्वच्छंद घूमूं। तुम्हारे पिता की आर्थिक स्थिति शायद तुम्हें बाहर भेजकर पढ़ाने लायक नहीं है; तो तुम यहीं के मेडिकल कॉलेज के लिए कोशिश कर सकती हो।’ उसने अंग्रेजी में कहा। मैंने अपमानित महसूस किया पर बोली कुछ नहीं। ‘अच्छा, तो पत्र लिखती रहना।’ उसने उठते हुए कहा। ‘फिर कब मिलोगे?’ मै पूछना चाहती थी। मुझसे भी सुंदर आंखों वाली कोई मिल जाए तो मुझे भूल तो नहीं जाओगे? क्या अपनी सुंदर आंखों के सिवा मैं कुछ भी नहीं? तुम्हारा ध्यान मेरी आंखों ने खींचा था या भाषण ने? मैं बहुत कुछ कहना, पूछना चाहती थी। पर रुंधे गले से कुछ न कह पाई। ‘यह लो।’ विदा लेने से ठीक पहले मैंने मुट्ठी में भींच रखी अपनी कविता उसे थमा दी और झटके से मुड़ गई। उस क्षण मुझे पता नहीं था कि यह शेखर से मेरी आखिरी मुलाकात है और भविष्य में इस शहर में आने पर भी वह मुझसे नहीं मिलेगा।
शेखर चला गया और मेरी सारी एकेडमिक प्रखरता अपने साथ ले गया। मैं उसके खयालों में इतना खो गई कि कविता लिखने के सिवा कुछ और कर ही नहीं पाई। ढंग से पढ़ना, अतीत की बात हो गई। शेखर के पत्र बीच-बीच में आते रहते थे। पर उनमें भावना या प्यार का जो आवेग मैं ढूंढा करती थी, उनका नितांत अभाव था। प्री- मेडिकल के कॉम्पीटीशन में मैं नहीं आ पाई । शेखर को पता चला तो उसने सहानुभूति दिखाई और फिर से तैयारी करने की सलाह दी। यही निश्चय मेरा भी था। इंटर के बाद मैंने सिर्फ गणित ले लिया पर मेडिकल की तैयारी करती रही। अबकी बार पढ़ाई के नाम पर कविता लिखने की प्रवृत्ति पर काबू पाकर मैंने सचमुच पढ़ाई की ताकि शेखर की नाराजगी दूर हो जाय। परीक्षा अच्छी हुई पर सिर्फ चार अंकों के अंतर से मैं चूक गई। वे चार अंक मेरे भविष्य का निर्णय थे। मेरे लंबे भावनात्मक पत्र के जवाब में शेखर ने लिखा कि वह पहले से समझ रहा था कि मेरे जैसी भावुक लड़की कभी डॉक्टर नहीं बन सकती। लिजलिजी भावना और कविता जीवन में कुछ नहीं दे सकती- न प्रसिद्धि, न पैसा, न व्यावहारिकता!! अगर बाई चांस- क्योंकि तुम्हारे ऐेकेडमिक रिकॉर्ड भी बहुत ब्राइट नहीं- लेक्चरर-वेक्चरर कुछ बन पाई तो सूचित करना। मैं संतोष कर लूंगा कि मैंने थोड़े समय के लिए ही सही, किसी बेवकूफ का साथ नहीं चुना था। दरअसल मुझे शुरू से पता था कि मैं अपने लिए जैसी जीवन-संगिनी की कामना करता हूं, तुम वैसी हो नहीं। पर पता नहीं कैसे मैं तुम्हारी आंखों के रास्ते तुममें उतर, वहीं अटका पड़ा रह गया।’ संकेत स्पष्ट था- मेडिकल में प्रवेश नहीं, तो शेखर नहीं। मेरी प्यार की भावना को जीवन का गणित पढ़ाने का यह पहला सबक था।
पर मैं पीछे मुड़कर देखती हूं तो पाती हूं कि अठारह बरस की उम्र में मिले उस पाठ से मैंने कुछ नहीं सीखा। प्यार का गणित समझे बिना मैंने फिर प्यार किया और धोखा खाया। भले ही प्यार खोने के सदमे ने मुझे पूरी तरह तोड़ दिया था और मैं खाना-पीना त्याग कर, एकाकी कमरे में खुद को बंद किए दुख मना रही थी- मुझे जिद आ गई। मैने सोचा मैं शेखर को डॉक्टर बनकर दिखा दूंगी। भावुक इंसान, दूसरों से अच्छा डॉक्टर सिद्ध होगा- यह सिखा दूंगी। बता दूंगी कि कविता सर्जरी करते हुए भी की जा सकती है...मैंने बी.एससी की पढ़ाई स्थगित करके, घर में किसी को बताए बिना, फिर से प्री- मेडिकल की पढ़ाई शुरू कर दी। परीक्षा भी दे डाली पर किस्मत के धोखे से मात्र दो अंकों से एडमिशन पाने से वंचित रह गई।
अब जिंदगी व्यर्थ लग रही थी। शेखर एक ऐसा झटका था जो जिंदगी की राह बदल, हमेशा के लिए गायब हो गया था। यदि मैंने गणित में अपने स्वाभाविक रुझान को ध्यान में रखकर इंजीनियरिंग के लिए कोशिश की होती तो मेरे चांस ज्यादा अच्छे होते, पर मैं आनर्स के अंतिम वर्ष में आ चुकी थी। मैंनें खुद को पढ़ाई में पूरी तरह झोंक दिया और जिंदगी में कभी दुबारा प्यार न करने की कसम खा ली। सिर्फ पढ़ाई को समर्पित मेरा जीवन दो साल लीक- लीक चला।
एम.एससी के अंतिम वर्ष में मेरा एक सहपाठी मुझ पर मर मिटा। क्यों- यह बताना मेरे लिए मुश्किल है। वह मेरी मेधा थी या मेरा व्यक्तित्व? मेरी आंखें थीं या मेरे द्वारा लिखी कविताएं, जो कॉलेज की पत्रिका में छपती थीं? मेरी मुस्कान पर बिछी पिछले टूटे प्यार की उदासी थी या लड़कों के प्रति एक स्थायी अनासक्ति का भाव ,जो उन्हें आशंकित और आकर्षित दोनेां करता था। यह दूसरी लड़कियों की वाचालता के मुकाबले मेरी मितभाषिता थी या फिर मेरे व्यक्तित्व के चारों ओर कोई रहस्यमयता पैदा हो गई थी? यह कोर्स के अलावा हाथ में पकड़ी साहित्यिक किताबों का जादू भी हो सकता था और यह संभावना भी कि मैं ही किसी जादू से साहित्यिक नायिकाओं-सा जादू बिखेरने लगी थी ....‘मैं सुमित हूं और आप?’ से शुरु बातचीत किसी के मन में भावनाओं को उस कगार पर पहुंचा गई कि जब मैं किताबों में खोई, कभी प्यार न करने की प्रतिज्ञा निभाती, आनंद से जी रही थी तो कोई और प्यार का प्रतिदान न पाकर ऐसे विषाद में डूबता जा रहा था कि मेरा ध्यान आकृष्ट करने को कोई भी युक्ति अपनाने को तैयार था। मैं उससे प्यार नहीं जताती थी, अपनी ओर से कभी घर नहीं बुलाती थी ,पर उसका दिल बिल्कुल ही न टूट जाय, इस खयाल से उसके अनुरोध करने पर, घर आ जाने देती थी। घर से दो हजार मील दूर रह रहा सुमित, मां के हाथों का बना खाना खा सकता था, चुनिंदा गानों के कैसेट्स सुनते हुए मेरे कमरे की खिड़की से आसमान का बदलता रंग देख सकता था.....मेरी चुप-चुप-सी मुस्कुराहट ओढ़, बिछा, पहन सकता था। वह नहीं कर सकता था तो मुझसे खुलकर बातचीत! क्योंकि मैं उससे खुलकर बात करने से कतराती थी। उसका आना मुझे न अच्छा लगता था, न बुरा! वे मुलाकातें ऐसी औपचारिकता थीं जिन्हें निभा दिया जाना था, बिना किसी खास प्रयास के!! यह किसी की नजरों को, अपनी नजरों से मिलने देने का प्रयास व्यर्थ करने का एक अभ्यास भर था मेरे लिए। हर मुलाकात जहां उसके अंदर जल रही प्यार की आग में थोड़ा इंधन और डालने का काम कर रही थी, वहीं मेरे लिए परीक्षा के दिन बिल्कुल पास आते जाने से पढ़ाई में बाधा। ज्यादा,और ज्यादा पढ़ाई जरूरी थी- उसके बाद या तो हम नौकरी के लिए आवेदन देना शुरू कर देते या पी.एचडी के लिए कोशिश करते। हां, लड़कियों के लिए एक और विकल्प खुला था- कि वे शादी कर लेतीं और घर संभालती जीतीं। शायद इसीलिए सुमित तुरंत निर्णय चाहता था। वह जीवन भर का साथ चाहता था। वह मुझे संपूर्ण पाना चाहता था। उसने मेरे मां- पिताजी से बात कर ली। पिता को लगा कि जब वह बार-बार घर बुलाया जाता रहा है तो मेरा आकर्षण स्पष्ट है। उन्होंने ‘हां’ कर दी। मुझे पता चला तो जैसे सांप सूंघ गया। मैं पहले नौकरी, फिर शादी की मानसिकता में आ चुकी थी। साथ ही मैं सुमित से प्यार नहीं करती थी। वह बुद्धि, शक्ल -सूरत या व्यवहार से बुरा नहीं था परंतु मेरे मन की परिधि तक जिद करके चला आया था। तो स्वाभाविक रूप से अंदर उसका प्रवेश निषिद्ध था। पर मैं उसे कैसे समझाती? जब वह एक दिन एकांत में आंखों में आंसू भरे अपनी डायरी लिए मेरे पास चला आया, तो मैंने जाना कि वह मुझे कितना प्यार करता है! उसने अपनी डायरी कविताओं से भर रखी थी- मेरे लिए लिखी प्रेम कविताएं!! डन कविताओं में आग थी। विद्रोह की लहरों और प्यार के झरने का उफान था। मैंने स्थितियों को उसकी नजर से देखा तो मुझे मानने को विवश होना पड़ा कि मैंने अपने मौन से उसके मन में स्वीकृति का जो वलय रच दिया था, वह उसके साथ एक धोखा था, खेल था। मैंने उस दिन खुद को ,शेखर के प्यार में चोट पाई एक ऐसी लड़की में परिवर्तित हुआ पाया जो प्यार और भरोसा देने के नाकाबिल हो गई थी। मैंने सुमित को चाय दी, उसने नहीं पी। मैंने कुछ कहने की कोशिश की, उसने नहीं सुना। उसकी एक ही रट थी- मैंने उसे धोखा दिया है। उसके स्वर में गुस्सा था पर उसकी स्फटिक नजरें प्यार का खुला इजहार थीं। बिट्टी, मैंने उसे जानबूझकर धोखा नहीं दिया था। सुमित जैसे लड़के के प्यार को न अपनाना शायद शेखर से खाई चोट को अनजाने में सेंकने का मेरा तरीका था। मैंने धोखा खाया था और अब बदले में धोखा दे रही थी। अपने मन के खाली हिस्से को भरने के बदले ,नकारने में खुशी पा रही थी। मैं मजबूत बनने की कोशिश में संवेदनहीन हो रही थी। सुमित को मेरा अतीत पता होता तो वह शायद मुझे बेहतर समझ पाता। मुझे ईमानदारी से महसूस हुआ कि इतने बरस बीत जाने पर भी मैं शेखर के प्यार की प्रेतछाया से मुक्त नहीं हो पाई थी।
बिटिया, मेरी जान, मां के अनुभवों पर मत जाना। तुम अपने अनुभव खुद गढ़ना क्योंकि हर एक का महसूसने और रिऐक्ट करने का तरीका अलग होता है, पर फिर भी एक बात जरूर याद रखना। जीवन गणित हो या न हो, प्यार निश्चत रूप से भावनाओं का गणित है। जो पक्ष बिना कुछ पाए सबकुछ इसमें झोंक देता, फिर धोखा खाता है; अंत में अपने ही भार से जीवन के तराजू को तोड़ डालता है। इस तराजू का बैलेंस तभी बना रहता है जब मामला सिर्फ उन्नीस-बीस का हो।
मुझे बाद में कई वर्षो तक लगता रहा कि प्यार में धोखा खाकर और अनजाने में किसी दूसरे को वही देकर, अब मैं परिपक्व हो गई हूं। अगला प्यार, मैं दिल और दिमाग के सही संतुलन के साथ कर सकूंगी, पर प्रकृति का खिलवाड़ अभी मेरे साथ बंद नहीं हुआ था।
अफसर बनकर नौकरी में आने तक मैंने अपने मन और शरीर दोनेां को साध लिया था- छरहरे शरीर, लहरिया बालों, हल्के गोरे रंग, तीक्ष्ण बुद्धि और सुंदर कहे जाने के कारण, मुझमें एक अलग आत्मविश्वास आ गया था। मैंने चेहरे में छुपी सुंदरता को उजागर करना ही नहीं, शरीर के उभारों, ढलानों को साध, अपनी ओर आकर्षित पुरुषों से डील करना भी काफी कुछ सीख लिया था, पर मेरे साथ एक दुर्घटना हो गई। हुआ यह कि मेरे एक सीनियर और एक कुलीग - दोनेां ने एक साथ मुझमें दिलचस्पी दिखाना शुरू कर दिया। तब तक मैं शादी के बारे में सीरियसली सोचने लगी थी और इन दोनेां शादीशुदा लोगों में मेरी कोई दिलचस्पी पैदा नहीं हो पा रही थी। उन दोनों का प्यार उफनती नदी की तरह बांध तोड़ मुझे डुबो देने को आतुर था और मैं, उनका दिल न टूटे, उनका घर बना रहे और मुझे उनके प्यार में उलझना भी न पड़े- ऐसी युक्तियां ढ़ूंढती, बेचैन रातें गुजार रही थी। मैं चाहती थी सहज दोस्ती का रिश्ता- वे चाहते थे, प्यार! मैं खुद से तर्क करती कि खुद को चाहा जाना उतना बुरा भी नहीं है कि उसके लिए किसी से दुर्व्र्यवहार किया जाय या उन्हें थप्पड़ मारा जाय। दफ्तर में जिनसे रोज का साथ हो, उनसे दुश्मनी भी मोल नहीं ली जा सकती थी। सबसे बड़ा कारण था उस छोटे शहर में बदनामी का डर, जिसने मुझे उनसे सीधा विरोध मोल लेने से रोका। मैं मामले को दबा, छुपा देना चाहती थी। पर मैं मामले को जितना ही छुपाना चाहती थी, मेरे सीनियर उतने ही खुले रूप में प्यार का इजहार किए जाते थे। वे जितने ही अश्लील हो रहे थे, मेरा दूसरा प्रेमी उतना ही सौम्य, भावुकता की हदें पार करता प्यार परोस, जता रहा था। मैं परेशान थी। एक ओर से डिमांड्स ही डिमांड्स थीं, तो दूसरी ओर से सैक्रिफाइसेज ही सैक्रिफाइसेज!! मुझे चाहिए था एक स्वतंत्र विचारों वाला, कुंवारा, पढ़ा -लिखा, शालीन साथी- जिसके साथ रहते, कहीं से भी मेरे व्यक्तित्व या भावनाओं का हनन नहीं हो। जिससे पहले प्यार हो, फिर शादी। शायद इसी कारण मैं शादी की नीयत से प्यार करना नहीं चाहती थी... तो जो उपलब्ध था ,वह चाहिए नहीं था और जो चाहिए था, उपलब्ध नहीं था। मैं बहुत कुंठित रहा करने लगी।
एक दिन आफिस में मेरे पास एक लड़का आया- देखने में औसत, बातचीत में शालीन। उसने पूछा कि क्या मैं किसी एल.आई.सी एजेंट का पता जानती हूं? मैंने उसे फोन नंबर दे दिया। तीन -चार दिनों के बाद वह फिर आया और कहा कि यह नंबर तो मिलता ही नहीं। ‘फोन खराब होगा।’ मैंने लापरवाही से कहा। ‘आप नंबर एक बार फिर से चेक कर देंगी?’ उसने प्रस्ताव रखा। मैंने चेक कर दिया। उसने कहा कि उसने शायद गलत नोट कर लिया था। ‘क्या मैं आपके फोन से नंबर मिला लूं?’ उसने पूछा,पर मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही, नंबर मिलाने लगा। तुम इस वाकये के बारे में पूरा सुनोगी तो समझ जाओगी कि नंबर उसने जानबूझकर गलत नोट किया था ताकि मेरे पास दुबारा आने का बहाना रहे। खैर- मैं निश्छल थी, यह खेल समझ नहीं पाई। वह उसके बाद गाहे- बगाहे दफ्तर आता और मुझसे जानबूझकर टकराता, हालचाल पूछता, रस्मी बातें करता। फिर वह निःसंकोच आने लगा। उसका नाम चेतन था। हमारी आत्मीयता बढ़ने लगी। आश्चर्य कि उसे मेरे घर- परिवार, भाई-बहनों से लेकर मेरी पढ़ाई, सैलरी, बैंक बैलेंस तक- सब पता था। मैं जिसे चाहता हूं, उसके बारे में सबकुछ पता रखता हूं- वह शान से कहता। चेतन पढ़ा-लिखा था, कॉलेज में पढ़ाता था और बातें बड़ी मनमोहक करता था। हमारी दोस्ती चल निकली। मेरे बारे में अन्य बातों के अलावा उसे यह भी पता था कि मैं अपने दोनों प्रेमियों से किस कदर परेशान रहती हूं। ‘उन्हें इग्नोर करती रहो, सब ठीक हो जाएगा। अब तो मैं तुम्हारे साथ हूं।’ वह मुझे सलाह देता। फर्क मुझे सचमुच महसूस हुआ। मेरे सीनियर थोड़े नाराज-से दीखते ,अलग हो गए थे। अब न मुझे शाम को देर तक रोकते, न ही मुझे सामने बिठा, बहाने से अपने पांव, मेरे पांवों पर रख देते। पर मेरे भावुक प्रेमी का व्यवहार बिल्कुल नहीं बदला। एक दिन उसने कहा- ‘आजकल आप चेतन के साथ बहुत वक्त गुजार रही हैं, पर सावधान, वह अच्छा आदमी नहीं है।’ मैंने सोचा- ओह! यह तो इसकी ईर्ष्या बोल रही है। मैं मन- ही- मन, ईश्वर का लाख-लाख शुक्रिया अदा कर रही थी कि उसने चेतन मुझे दिया। मैं चेतन को ज्यादा इंतजार नहीं कराना चाहती थी। मुझे ब्याह से दफ्तर की अनचाही स्थितियों से मुक्ति की राह दीख रही थी। चेतन मेरा प्यार ही नहीं, मुक्तिदाता भी था। मैं पूरी तरह उसमें डूब गई।
मैं नदी थी- वह आता, मुझे सोख लेता, फिर जलमग्न बना छोड़ जाता था। मैं अनुर्वर मैदान थी- वह आता तो मुझमें फूलों का बागीचा खिला जाता था। मैं लैंप पोस्ट थी- वह मेरी रोशनी दूर तक फैला, उसे समुद्र तक पसार आता था। अब दिन सुहावने और सपने देखती रातें उससे भी ज्यादा सुहावनी थीं। मैंने चेतन से कहा कि मैं उसके माता-पिता से मिलना चाहती हूं। वह चाहे तो अपने घरवालों की मर्जी के खिलाफ जाकर भी उससे शादी कर सकती हूं। ‘हां, मुझे पता है। पर पहले एल.आई.सी का चेक तो जमा कर दो। कल उसकी आखिरी तारीख है’,उसने आराम से कहा। मैं थोड़ा हतप्रभ हुई। अगले दिन मैं चेकबुक लेती आई। ‘तुम बस साइन कर दो। मैं भर लूंगा। मैं बहुत हड़बड़ी में हूं।’ उसने जल्दी मचाते हुए कहा। अपने होने वाले पति को ब्लैंक चेक देते मुझे क्या आपत्ति हो सकती थी, पर अगले दिन जब वह मिलने नहीं आया, तो मैंने उसे फोन किया। ‘मैं बाहर जा रहा हूं। अगले हफ्ते लौटकर मिलता हूं।’ उसने बताया, तो मैं चकराई। कल तक तो बाहर जाने की कोई बात नहीं थी, पर वह मेरे चकराने की शुरुआत भर थी क्योंकि दो दिनों के बाद जब मैं पैसे निकालने बैंक गई तो बताया गया कि मैं अपने सारे पैसे निकाल चुकी हूं, इसीलिए चेक नहीं भुन सकता।... बिट्टी, तुम मेरी मनःस्थिति का अंदाजा लगा सकती हो। मेरे अस्सी हजार रुपये लेकर चेतन चंपत हो चुका था। वह मेरे पांच वर्षों की गाढ़ी कमाई थी। तब के अस्सी हजार, आज के दस लाख से कम क्या होंगे! मैं अपने दुःख में पूरी तरह अकेली थी, पर आत्महत्या नहीं, चेतन को मजा चखाने के बारे में सोच रही थी। लो ब्लड प्रेशर झेलती, घर पर अकेली लेटी-लेटी, गुत्थी सुलझाने की कोशिश करती, मैं लगातार रोती रहती। मेरे भावुक प्रेमी को शक हुआ तो सारी जानकारी इकट्ठा करके मेरे घर आया। उसने जो बताया, उससे मेरे पांवों तले की जमीन खिसक गई। चेतन न तो कॉलेज में पढ़ाता था, न ही कुंवारा था।वह मेरे उद्दंड सीनियर का शादीशुदा दोस्त था। उससे बदला लेने का विचार मैंने अपने भावुक प्रेमी की सलाह पर, बहुत कोशिश करके, अपना मन मारकर, छोड़ दिया।
तुम मेरा विश्लेषण कर, मुझ पर हंस सकती हो, पर वह मेरे कुंवारे जीवन का आखिरी धोखा था। उसके तीन वर्षो बाद, मैं तुम्हारे पापा से मिली। यह दो समझदार लोगों की मुलाकात थी, जो दिल से महसूसते और दिमाग से सोचते थे- दिल से सोचने और दिमाग से महसूसने की बजाय! हमने एक-दूसरे को पसंद किया और फटाफट शादी कर ली। तुम्हारे जनमने और पनपने के साथ- साथ हमारा प्यार भी जनमा, पनपा,बढ़ा और उसने हमारे जीवन को पूरी तरह छा लिया। हम अपने साथ के लिए कभी नहीं पछताए।
बिट्टी, मैंने कभी नहीं चाहा कि तुम जीवन में कहीं भी हारो। मैं हर मां की तरह तुम्हें हमेशा जीता हुआ देखना चाहती रही। मैंने बहुत प्रयासों से तुम्हें जीतना सिखाया, पर प्यार का मामला तो सबसे अलग ठहरा। हर जगह जीतता दीखता आदमी भी, प्यार के मैदान में मात खा सकता है। प्यार के लिए अपने सबसे अंतरंग रिश्ते में धोखा दे सकता है- भरोसा तोड़ सकता है। दिमाग से सोचने वाला आदमी भी दिल से सोचने लग जा सकता है। जो धोखा खाए, वह पछता सकता है, पर धोखा खा जाने भर से उसका जीने का अधिकार खत्म नहीं हो जाता। धोखा देने वाले के बदले, धोखा खाने वाला गिल्ट महसूसता हुआ अक्सर आत्महत्या के बारे में सोचता है क्योंकि उसके भरोसे, उसके विश्वास की हत्या पहले ही हो चुकी होती है। पर बेटा, एक बार फिर से सोचना। क्या यह उचित है कि रिश्ते में बेईमानी करने, झूठ बरतने वाला तो मुंह उठाए जिए, पर रिश्ते में ईमानदार बना आदमी उसका दंश झेले, सजा पाए और कुंठा में आत्महत्या की सोचे।
...और मेरी लाडली, तुम तो अभी सिर्फ बाईस की हो। तुमने तो अभी जीवन जिया ही नहीं। निखिल ने एक साथ कईयों से प्यार किया पर तुमने तो सिर्फ, और सिर्फ उससे! उसका प्यार खेल था, पर तुम्हारा तो समर्पण और पूजा। उसने तुमसे खेला और बिना कोई गिल्ट महसूसे, किसी और के लिए, तुम्हें ठुकरा दिया- तो इसमें तुम्हारा क्या दोष? जैसे- जैसे तुम बड़ी होगी, प्यार के बारे में अलग तरह से महसूसोगी। प्यार के उसके अलग- अलग सिद्धांतों से परिचित होगी और उसके अलग- अलग रूपों से हतप्रभ भी। तब तुम शायद मेरी तरह मानने लगोगी कि साथ-साथ चलता जो बिना कारण बताए अलग हो जाता, किसी स्वार्थ के कारण आगे बढ़ जाता है- उसे पीछे से पुकारना या उसके लिए दुःख मनाना बेमानी है क्योंकि, वह पूरी तरह तुम्हारा कभी था ही नहीं। निखिल से धोखा खाने के बाद, तुम्हारा दुख महसूसना मैं समझ सकती हूं, पर उस कारण जीवन के अंत के बारे में सोचना, नहीं समझ सकती। यह तुम्हारा पहला प्रेम और प्रेम में पहला धोखा है। इस झटके को महसूसो जरूर, वरना इससे कुछ सीखने से वंचित रह जाओगी। फिर इसे एक झोंके की तरह जीवन से निकल जाने दो। हारो, हार को महसूसो पर जीवन में ग्रेस बनाए रखते हुए!! हारना, जीवन हार जाना क्यों बने मेरी रानी बिटिया!!
मैं एक मां के संपूर्ण प्यार, दुलार और आशिर्वाद के साथ कामना करती हूं कि तुम इससे उबरो और बाद में कभी नए-नए जवान हुए अपने बच्चे को, इस रात की, अपनी और मेरी दुविधाभरी , प्यार में हार-जीत की यह सच्ची कहानी सुनाओ। उसे समझने का मौका दो कि हम मां-बेटी के रिश्ते कैसे थे।
..कि कैसे एक रात की दुविधा के बाद सुबह जागकर, तुमने मेरा पत्र पढ़ा, मेरा अतीत जाना और हमारे रिश्ते बदल गए। कैसे पत्र पढ़ने के बाद, तुम मेरे लिए एक बहिनापे भरे, दोस्ताने रिश्ते से भर उठी, और मेरे- तुम्हारे जीवन में लगाव का एक नया अध्याय जुड़ा। ... तुम इस सब को, मेरी कामना को, सच करोगी न बिट्टी!! फिर बूढ़ी हो जाने पर सोचना कि क्या कल की तुम्हारी सोच सही थी??
बहुत-बहुत प्यार ,कसक, आंसुओं और आशिर्वाद सहित.....
मां