दिल को को लगी, लहजा दिल्लगी / जयप्रकाश चौकसे

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दिल को को लगी, लहजा दिल्लगी

प्रकाशन तिथि : 23 जुलाई 2012

फिल्म ‘रंग दे बसंती’ और ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ के प्रदर्शन के बाद कुछ शहरों में कुछ समय तक समाज सुधार की लहर चलती रही, जैसे आज आमिर खान के शो ‘सत्यमेव जयते’ से कुछ लहरें चल रही हैं। आमिर स्वयं आवाज में असर के लिए मंत्रियों और अफसरों से मिल रहे हैं। शायद इस प्रक्रिया में वे यह भी महसूस करें कि महज कानून से समाज में सुधार नहीं होता। यह लहर घर-परिवारों में लंबे समय तक बनाए रखना और समाज की भीतरी बुनावट पर निर्भर करती है। सरकार और अवाम में दृढ़ इच्छाशक्ति आवश्यक है।

हमारे हजारों शहरों व कस्बों में अंडरग्राउंड ड्रेनेज व्यवस्था नहीं है, अत: मनुष्य मनुष्य का मैला साफ करने के लिए बाध्य है। दरअसल सरकार और समाज की दिशाएं विपरीत हैं। शूजित सरकार की ‘विकी डोनर’ के प्रदर्शन के बाद स्पर्म बैंक में दानदाताओं की कतार लग गई है और संतानहीन दंपतियों को आशा की किरण मिल गई है। पहले इस मुद्दे को कालीन के नीचे दबाकर रखा था। आज इस पर सरेआम चर्चा हो रही है। इससे जुड़ी झूठी शर्म का आवरण हट गया है। शूजित सरकार और लेखिका जूही चतुर्वेदी ने महीनों परिश्रम करके एक तथाकथित ‘अभद्र समस्या’ पर ऐसी ‘शालीन फिल्म’ लिखी और प्रतिभाशाली कलाकारों ने डूबकर इतना सजीव अभिनय किया कि बात दर्शकों के दिल पर लगी और लहजा दिल्लगी का रहा। यही सार्थक मनोरंजन गढ़ने का मूलमंत्र है। इस विधा के आदिकवि चार्ली चैपलिन ने दिल को लगने वाली दिल्लगी का तरीका सबसे पहले खोजा।

सरकार अैर जूही के पात्र पारंपरिक फिल्मी पात्र नहीं हैं। नायिका तलाकशुदा है, नायक मोहल्ले की बिंदास लड़की के साथ मौजमस्ती कर चुका है। न वह तुलसी पूजती है और न यह दूध का धुला है, परंतु प्रेम की छलनी से गुजरकर उनका उद्धार हो जाता है। दिन भर लड़ने वाली सास-बहू रात में जाम से जाम टकराती हैं। यहां तक कि नायक-नायिका जुदा भौगोलिक क्षेत्रों से आए हैं और उनके रीति-रिवाज भी भिन्न हैं। फिल्म का प्रस्तुतीकरण इतना मनोरंजक है कि पात्रों के बीच की दीवारों का दर्शक को अहसास ही नहीं होता। मुद्दा यह है कि क्या मनोरंजन के माध्यम से समाज में परिवर्तन संभव है?

क्या इन अस्थायी लहरों से आमूल परिवर्तन संभव है? जहां संसद असफल रही, वहां क्या सिनेमा सफल हो सकता है? प्रयास किसी भी माध्यम से कहीं भी हो, उसका स्वागत है। केवल परिवार से उठी कोई लहर ही परिवर्तन ला सकती है। निरंतर दबाव और तनाव में रहने वाले परिवार रोजी-रोटी और मकान की व्यावहारिक समस्याओं से दबे हैं। सांस्कृतिक शिथिलता आसानी से दूर नहीं होती। नैतिकता की बहाली के लिए अनेक मिथ्या धारणाओं का खंडन आवश्यक है। इतिहास का पुनरावलोकन आवश्यक है। यह आत्मपरीक्षण हमारे आर्यन ‘स्पर्म डोनर’ तक जा सकता है। हम अपने पूर्वजों की प्रतिभा व परिश्रम से ही अनजाने हो गए हैं।

हमारी मौजूदा समस्याओं का निदान हमारे अतीत में ही विद्यमान है, परंतु नारेबाजी व संकीर्णता से उसे कुहासे में लपेटने से बहुत हानि हो चुकी है। उसके सारे आवरण हटाने होंगे। जब कबीर हमसे कहते हैं कि ‘घूंघट के पट खोल, तोहे पिया मिलेंगे’ तो उनका आशय स्पष्ट है कि घूंघट हमारे सिर पर पड़ा है, पिया अर्थात ईश्वर को कोई घूंघट या आवरण की आवश्यकता नहीं है। हम ही अपने जन्मना अहंकार का घूंघट नहीं हटा रहे हैं, हम ही अज्ञान के आवरण में छिपे हैं। धन-संपत्ति और हैसियत के आवरण हमें सत्य देखने ही नहीं देते। किसी समस्या के भरोसे बैठने से कुछ नहीं होगा। यह मुद्दा स्वयं को समझने का है।

नैतिक मूल्य व्यक्तिका मामला है और घर में ही इसका पोषण संभव है। विगत अनेक सदियों में अनेक महान लोगोंे या अवतारों ने समाज सुधारे हैं, परंतु उनका असर स्थायी सिद्ध नहीं हुआ। उन्होंने अजूबे घटित किए, करिश्मे किए, परंतु सबका लोप हो गया। इसीलिए अब स्थायी सुधार का केंद्र व्यक्तिहोना चाहिए, उसकी सोच स्वतंत्र होना चाहिए। अब कोई करिश्मा नहीं चाहिए, अजूबा नहीं चाहिए, सुधार की एक सतत् प्रक्रिया चाहिए। कहीं कोई कीमिया नहीं है।

मनुष्य अपरिभाषेय है, कुदरत की हर चीज मौलिक होती है। कोई दो मनुष्य एक जैसे नहीं होते। इस विभिन्नता को सम्मान की दृष्टि से देखना चाहिए। एक आम आदमी परिवार में प्रेमल और जवाबदार आचरण करता है, लेकिन सड़क पर वही आदमी भीड़ का हिस्सा बनकर हिंसक हो जाता है। यही आदमी सिनेमाघर में परदे पर प्रस्तुत भावना संसार में खो जाता है और यही संसद में जाकर स्वार्थी और खामोश हो जाता है। निरंतर विभिन्न भूमिकाएं करने वाले व्यक्तिके मूल में ही प्रेम का विकास आवश्यक है।

आज के दौर के सनकीपन ने यह वातावरण बना दिया है कि आदर्श की बात करने को अव्यावहारिक माना जाता है। आदर्श को असंभव करार देना घोर नैराश्य की पराकाष्ठा है। परिवार में नैतिक मूल्यों की स्थापना बहुत ही सरल है। एक परिवार में औसतन आठ-दस लोग ही रहते हैं, अगर इतने कम लोगों को नहीं समझा पाए तो हजारों की भीड़ जमाकर तमाशे आयोजित करने से क्या होगा। बात दिल को लगनी चाहिए, दिल्लगी का लहजा हो तो कमाल है। भीड़ में भांडपन होता है। उसे दिल्लगी नहीं कह सकते।