दिल मांगे मोर और पप्पू कांट डांस साला / जयप्रकाश चौकसे

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दिल मांगे मोर और पप्पू कांट डांस साला
प्रकाशन तिथि : 06 अगस्त 2014


एक सरकारी फैसले ने एक परीक्षा में अंग्रेजी को हाशिए पर डाल दिया परन्तु समाज में अंग्रेजी ने सभी भारतीय भाषाओं को रद्दी की टोकरी में अरसे पहले ही फेंक दिया है। आज मैं कहता हूं कि दांत बत्तीस होते हैं तो मेरे पाेते पूछते हैं, "वॉट्स बत्तीस', उन्हें "थर्टी टू' समझता है। दरअसल यह मुद्दा महज भाषा का नहीं वरन् जीवन शैली द्वारा विकसित विचार प्रक्रिया का है, क्योंकि भाषाओं में लोकप्रियता का आधार उसकी नौकरी दिलाने की क्षमता पर निर्भर करता है। जब राजभाषा फारसी और अंग्रेजी थी तब हमारे युवा लोगों ने फारसी और अंग्रेजी सीख ली। कुछ लोकप्रिय निर्णय अत्यंत अव्यवहारिक होते हैं, मसलन पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू घोषित की गई परन्तु वहां पंजाबी, सिंधी और पश्तो ही अधिक बोली जाती है।

कोई दो दशक पूर्व ही भारत में अंग्रेजी का प्रचार-प्रसार करने वाली लंदन स्थित संस्था ने निर्णय लिया कि अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार से अधिक आवश्यक है जीवन-शैली में अंग्रेजियत दाखिल कर देने का और इस काम में बाजार और विज्ञापन शक्तियां निर्णायक हैं और नारा उछला, "दिल मांगे मोर' जिसकी लोकप्रियता और प्रभावोत्पादकता को देखते हुए फिल्म में गीत बना, "पप्पू कांट डांस साला'। विगत दो दशकों के गीतों और फिल्म संवादों में अंग्रेजी का असर अधिक हुआ है जबकि आजादी के बाद के बरसों में ही गीत आया था, "आना मेरी जान, संडे के संडे' परन्तु उस दौर में कभी-कभी अंग्रेजी का इस्तेमाल फिल्म के गीत और टाइटिल में होता था, आज तो सारे कुएं में भांग पड़ी है। भारत में संभवत: अठारह करोड़ अखबार प्रतियां बिकती हैं जिनमें सबसे कम अंग्रेजी में प्रकाशित अखबारों की संख्या है परन्तु भव्य कॉरपोरेट कंपनियां अंग्रेजी अखबारों को महंगी विज्ञापन दरें देते हैं और गांव तथा अंचलों में पहुंचने वाली भारतीय भाषाओं के अखबारों को कम दर पर विज्ञापन देते हैं तथा इसी आधार पर कर्मचारियों और पत्रकारों के वेतन में भी भारी अंतर है। भारतीय सिनेमा के अधिकतम दर्शकों तक भारतीय भाषा के अखबार पहुंचते हैं परंतु विज्ञापन दरें फिर भी अंग्रेजी अखबारों की अधिक है और बात यहां तक जाती है कि सितारे भी उन्हें साक्षात्कार सहर्ष देते हैं और भारतीय भाषाओं के पत्रकारों को हिकारत से देखा जाता है। कार में जाते हुए आप देख सकते हैं कि पांच या सात सौ आबादी वाले गांव में भी एक अंग्रेजी माध्यम के स्कूल का बोर्ड नजर आता है। फिल्म तथा टेलीविजन में सारी पटकथाएं अंग्रेजी में लिखी जाती हैं और संवाद उस वाहियात रोमन अंग्रेजी में। अगर अभिनेता का उच्चारण सही नहीं है

तो उसने पढ़ा ही गलत है। कोई आश्चर्य नहीं कि महान दिलीप कुमार भूमिका की अपनी तैयारी में सारे संवाद हिंदी, अंग्रेजी तथा उर्दू में बोलकर रियाज करते थे। आज धार्मिक कथाओं पर बने सीरियलों में अजीब सी भाषा अजीब से उच्चारण से बोली जाती है। इस प्रकरण का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि ऊंचे पदों की सारी परीक्षाओं में अंग्रेजी और विज्ञान से जुड़े प्रश्न अधिक होते हैं और बाजार तथा विज्ञापन शासित काल खंड में वे ही तय करते हैं कि ऊंचे पदों पर कौन विराजें क्योंकि विशुद्ध भारतीयता से बना अवचेतन उनके षड्यंत्र को असफल कर देगा। आर्थिक खाई के विविध आयाम कहां नहीं फैले हैं। इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण भूरा साहब अपने विशाल बगीचे के गमले में चार दाने डालकर देखता है कि कितनी फसल आई और उस आधार पर अपने क्षेत्र की पैदावार के आंकड़े ऊपर भेजता है। लगभग सारे आकलन और आंकड़े ऐसे ही रचे जा रहे हैं।

अहमदाबाद से पैंतीस किलोमीटर पर सादरा में गांधीजी द्वारा 1920 में स्थापित शिक्षा संस्थान में सभी सहूलियत हैं परंतु पाठ्यक्रम में साहित्य, इतिहास, समाजशास्त्र की प्रमुखता के कारण अत्यंत अल्प दर में उपलब्ध शिक्षा ग्रहण के लिए भी प्रतिभाशाली छात्र नहीं आते। पूरा समाज ही सफलता के घोर आग्रह से इतना ग्रसित है कि जीवन मूल्य की चिंता किसी को नहीं है और जीवन मूल्य के अभाव से जन्मे भ्रष्टाचार पर छाती कूट किया जाता है। दरअसल सारी संरचना बहुत चतुराई से गढ़ी गई है ओर इसका कोई विरोध असरदायक नहीं होता। अंग्रेजी को हाशिए में डालना उस आंदोलन का एकमात्र उद्देश्य नहीं था। बहरहाल इस सारे खेल ने जीवन में संवेदनाओं को हाशिए में डाल दिया है और काेई इस विषय में चिंतित नहीं। हम किस कदर गाफिल हो सकते हैं, इसकी सीमा नहीं।