दिस इज वेस्टर्न कल्चर माय डियर / स्वाति तिवारी
दरवाजे पर किसी ने हल्की-सी दस्तक दी। दरवाजा अंदर से बंद है। अब क्या करे? मन नहीं है उठने का और किसी से बात करने का, पर उठकर खोलना तो पड़ेगा। क्या पता, प्रणव ही हो और कुछ भूल गया हो, पर चाबी, रूमाल, फाइलें सब याद रखकर दे तो दिए थे और प्रणव के जाते ही प्रतिमा ने दरवाजे का हैंडल लॉक किया और चिटकनी लगा ली थी। उसने उठकर चिटकनी खोली तो दरवाजे पर अपरिचित महिला खड़ी थी। वह मात्र चेहरे से पहचान रही थी कि वह उसके सामने वाले फ्लैट में रहती है। प्रणव के आने और जाने के वक्त प्रतिमा ने दरवाजा खोलते हुए या बंद करते वक्त इस महिला को बालकनी में खड़े देखा है। दरवाजे को पकड़े प्रतिमा उलझन में थी, आइए कहूँ या नहीं?
“हलो! मैं मिसेस कुलकर्णी आपके सामने वाले फ्लैट में...” आगंतुक महिला ने बातचीत शुरू की।
“ओह, हाँ! आपको बालकनी में खड़े देखा है, आइए।” प्रतिमा सहज होने की कोशिश के साथ दरवाजे से हटकर अंदर आ गई। घर की सजावट का मुआयना करती पड़ोसन मिसेस कुलकर्णी ने ड्राइंगरूम में प्रवेश किया।
“एक महीना हो गया, जबसे आप लोग रहने आए हैं, रोज सोचती हूँ, आपसे मुलाकात करने की, पर जब फुर्सत होती है आपका दरवाजा बंद रहता है। लगता है, आप व्यस्त होंगी या आपके आराम का समय होगा। यही सोचकर आते-आते रुक जाती हूँ।” बिना किसी औपचारिक भूमिका के उन्होंने बातचीत की भूमिका शुरू कर दी।
“सोचा तो मैंने भी था आपके घर आने का पर सोचती ही रही। इधर थोड़ी तबीयत भी ठीक नहीं है, इसीलिए आलस कर गई।” कहने को कह गई, पर लगा तबीयत वाली बात नहीं बतानी चाहिए थी।
“क्या हुआ आपकी तबीयत को?” मिसेस कुलकर्णी ने विस्मय से प्रश्न किया।
फँस गई थी मैं! पर कुछ तो बोलना था सो कह दिया, “कुछ खास नहीं, यूँ ही थोड़ी सुस्ती रहती है आजकल।”
“अच्छा समझी... खुशखबरी है, क्यों? अरे भई, बतलाना तो चाहिए हारी-बीमारी में पड़ोसी पहले काम आते हैं।”
चेहरे पर प्रसन्नता के मिले-जुले भाव ने स्वतः उत्तर दे दिया था।
“कितने दिन चढ़े हैं?” मिसेस कुलकर्णी ने जिज्ञासावश पूछा।
“पाँचवा महीना है।” प्रतिमा ने पाँच माह कहा तो, पर एक बार मन ही मन स्वयं को टटोला। यह बात बतानी चाहिए थी या नहीं। कल को यह शादी के लिए पूछेगी तो? एक निरर्थक-सी चिंता से माथा ठनका। पर चिंता निरर्थक नहीं थी। मिसेस कुलकर्णी ने अगला प्रश्न पूछ ही लिया, “पहला बच्चा है?”
“हाँ।” कहकर प्रतिमा चाय-पानी की व्यवस्था के बहाने वहाँ से उठकर रसोई में आ गई - मन ही मन विचार करते हुए कि चाय लेकर आऊँगी तो बातचीत का विषय बदल दूँगी। उनके बातचीत के विधान मेरी व्यक्तिगत जिंदगी को सेंध लगाएँ, यह मुझे मंजूर नहीं था। इसी ऊहापोह में बाहर की गर्मी और मन का तापमान एक-सा लगा, अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व और मुक्त विचारधारा में भय के बादल देख प्रतिमा बेचैन हो उठी, पर यह कैसा भय? चाय की ट्रे लेकर लौटी तो देखा, मिसेस कुलकर्णी कॉर्नर टेबल पर रखी उसकी और प्रणव की तस्वीर देख रही है। उसे देखते ही उत्साह से पूछ ही बैठीं, “यह फोटो आपके हनीमून की होगी, है न? बहुत सुंदर आई है। कहाँ गए थे हनीमून पर?”
“जी ये...ऽऽ...” प्रतिमा सकपका गई पर बात सँभाल ही ली - यह फोटो सिंगापुर की है। हम यूँ ही घूमने गए थे तब की है।” कह तो दिया उसने, पर हनीमून और डेटिंग का फर्क आज एकदम सामने आकर खड़ा हो गया। फोटो हनीमून की होती तो कितने उत्साह से कहती वह, पर डेटिेंग पर वह और प्रणव सिंगापुर गए थे और यह पाँच माह का जीव तभी से उसकी कोख में है। क्यों नहीं खुलकर कह पाई यह कि वह बच्चा केवल उसका कहलाएगा। बगैर पुरुष के नाम के भी वह माँ हो सकती है - एक स्वतंत्र माँ। प्रतिमा ने चाय का प्याला पकड़ाते हुए बात बदलने के लिए पूछा, “आप कब से रह रही हैं इस फ्लैट में?”
“जब मिस्टर कुलकर्णी ने मुझसे शादी की तब यह फ्लैट वे बुक करवा चुके थे। किश्तों पर लिया था। पाँच साल पहले आखिरी किश्त भरी।”
“अच्छा, अच्छा।”
“हाँ, नहीं तो क्या?”
“चलिए, घर का घर हो गया बंबई में और क्या चाहिए?”
“तुम्हें पता है प्रतिमा, मेरी भी पहली डिलीवरी यहीं हुई थी। बेटा हुआ था। फिर ऊपर वाले वर्माजी के यहाँ भी...” वे आप से तुम पर आ गई थीं।
“अच्छा...” प्रतिमा मुस्करा रही थी।
“तुम लोगों ने फ्लैट खरीदा या किराए पर लिया है।”
“अभी तो किराए पर लिया है। दरअसल हमारा फ्लैट जुहू में है। फर्स्ट फ्लोर पर प्रणव के मम्मी-डैडी का और नाइंथ फ्लोर पर मेरी मम्मी का।”
“एक ही बिल्डिंग में ससुराल और मायका है। फिर इधर जुहू छोड़, अंधेरी में फ्लैट क्यों लिया। प्रेगनेंसी में घर के लोग साथ होने चाहिए।”
“बस यूँ ही। प्रणव ने फ्लैट ले लिया तो आ गए।” एक और झूठ, पर कब तक? कह क्यों नहीं दिया ससुराल का झंझट नहीं है। “फ्लैट थोड़े छोटे हैं, इसलिए इधर आ गए।” कहने को तो कह गई, पर मन पर फिर एक बोझ लदने लगा। सास-ससुर, घर, ससुराल... ये सारे शब्द इतने वजनदार होते हैं क्या? क्यों लग रहा है जैसे वह चोरी करते पकड़ी जा रही है। ये रिश्ते... क्या उसके जीवन में हैं? क्या वह इन्हीं से नहीं भाग रही थी! रिश्तों के बंधन ही तो उसे पसंद नहीं थे। तो क्या रिश्तों के नाम होना जरूरी है? रिश्तों के नाम जीवन में इतना मायने रखते हैं? अगर नहीं रखते तो क्यों मन डर रहा है उस एक प्रश्न से जिसे नकार दिया था उसने और प्रणव ने भी। माँ से झूठ बोलकर वह प्रणव के साथ सिंगापुर गई थी एनसीसी के कैंप के बहाने। दिन और रात की डेटिंग थी वह। चाँद जब होटल की खिड़की से आधी रात को झाँकता तो पाता - प्रतिमा और प्रणव परम तृप्त, बेसुध, एक-दूसरे पर समर्पित... नींद में होते।
पाँच दिन के ही किसी क्षण, किसी लम्हे का फुल पाँचवा महीना बन गया है। आजकल विवाह एक रूढ़ि है - मात्र दो देह के मिलन की रस्में! जब देह बगैर रस्मोरिवाज के एकाकार हैं तो विवाह का बंधन क्यों? जब मन चाहेगा, कहीं जाकर रह लेंगे साथ। अपनी-अपनी स्वतंत्रता की चाह में दोनों ने ही बंधन नकार दिए थे। पर क्या इस नकारने को सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर सकती है वह?
आजकल संबंधों को भी फैशन की तरह लिया जा रहा है - जब तक चले, चलाओ वरना आत्मा से उतार फेंको। अनचाहा बोझ नहीं चाहिए उन्हें... रिश्तों का बोझ।
चाय का प्याला खाली कर रखते हुए मिसेस कुलकर्णी ने वही सवाल खड़ा कर दिया। पूछ ही लिया वह प्रश्न जिससे प्रतिमा बचना चाहती थी। “कितने साल हुए ब्याह को?”
चेहरा सफेद पड़ गया प्रतिमा का। जवाब न देना पड़े इसलिए अनसुनी-सी करती वह उठने लगी, “जस्ट ए मिनट, शायद दूध की पतीली गैस पर रख आई हूँ। लेट मी चेक।” दूध गैस पर था ही नहीं, प्रश्न को टालना था, बस इसलिए उठी थी वह। सहज होने के लिए थोड़ा समय चाहिए था। वह टॉयलेट में चली गई। अंदर की हलचल से उपजी घबराहट की तीव्रता को बाहर निकालना चाहती थी। वॉश-बेसिन के नल को खोल, पानी के छींटे मुँह पर मार, नेपकिन से चेहरा थपथपाती बाहर आई। उसका चेहरा देख मिसेस कुलकर्णी ने सहज स्त्रीत्व के भाव से पूछा, “प्रतिमा! तुम्हें घबराहट हो रही है क्या? ऐसे समय नींबूपानी, नारंगी की गोली, दूध, ग्लूकोज लेती रहा करो।”
“हाँ लेती हूँ न... पर इस वक्त रोज ही मुझे उबकाई आती है। आफ्टर दैट आय फील अनकंफर्टेबल एंड आई फील लाइक स्लीपिंग।”
“ओके, आई विल लीव नाऊ। जब तुम्हें अच्छा लगे तब आ जाया करना मेरे पास। अकेली परेशान नहीं होना। सबके साथ होता है पति दफ्तर चले जाते हैं, बड़ा अकेलापन लगता है। पास-पड़ोसी ही काम आते हैं। समय भी कट जाता है और दूसरों के अनुभव बड़े काम आते हैं पहली डिलीवरी में।”
प्रतिमा ने सोफे पर सिर टिका लिया, स्पष्ट था वह बातचीत करने के मूड में नहीं है। पर मिसेस कुलकर्णी आजकल की प्रतिमा तो नहीं न? वह तो उम्र की प्रौढ़ता की ओर हैं।
“कुछ अच्छा खाने का मन करे तो बता देना, समझी। भूखे नहीं रहना, ऐसे वक्त। पति का रास्ता नहीं देखना खाना खाने के लिए। जब मन करे, खा लिया करो। अच्छा, मैं चलती हूँ।”
भड़ाक से दरवाजा बंद किया प्रतिमा ने और कटे पेड़-सी पलंग पर पड़ गई वह। जाने क्यों उसे लगा कमरे में वह अकेली नहीं है, कोई अब भी मौजूद है। उसने खुद दरवाजा लगाया है! कौन हो सकता है? फिर उसने पेट पर हाथ रखा तो अहसास की अजीब-सी लहर उसके तन-मन में तरंगित हो गई। 'ओह, तो वो दूसरे तुम हो कमरे में मेरे बच्चे।' वह मुस्करा उठी, पर पल भर में ही चिंता का भाव फैलने लगा, 'मेरे बच्चे... मेरे बच्चे। शब्द का अहसास उसके अंतर्मन पर छा गया, 'मेरा बच्चा' भी तो एक रिश्ता है, क्या इस रिश्ते को मैं या प्रणव अपने रिश्ते की तरह नकार पाएँगे कभी? मेरा बच्चा जब प्रणव कहेगा तो मैं क्या अपने बच्चे पर उसके अधिकार को रोक पाऊँगी? मेरी कोख में पलने से वह मेरा बच्चा है। पर यह स्वतंत्र अस्तित्व की मृगतृष्णा कहीं बच्चे से उसके पिता का अधिकार ही न छीन लें? और जो प्रश्न मिसेस कुलकर्णी ने पूछा और मैं बताने से कतराती रही, कल को वही प्रश्न बच्चे से पूछ लिया तो?
शादी न करते हुए प्रणव के साथ सहजीवन के बावजूद, स्वतंत्र अस्तित्व की मृगतृष्णा में कहीं मैं भटक तो नहीं रही? सिर भारी हो गया सोच-सोचकर। माँ ने कितना समझाया था - “शादी कर ले प्रणव से, फिर जो जी चाहे कर। बिना ब्याह के साथ रहने का चलन हमारे देश में नहीं है, प्रतिमा।” माँ की बातें दिलो-दिमाग में घूमने लगीं। कितनी आसानी से भाषण झाड़ दिया था अपनी माँ और प्रणव की मम्मी के आगे... क्या फर्क पड़ेगा शादी से? मुझे और प्रणव को साथ रहना है। हम प्यार करते हैं तो फिर रिश्ता प्यार का हुआ न? भँवरों या फेरों का क्या है? यदि मैं प्रणव का हाथ थाम लूँ और तुम्हारे आस-पास घूमकर फेरे ले लूँ तो क्या तुम साक्षी नहीं हो! अग्नि के फेरे एक परंपरा है। आडंबर से भरी। मैं रूढ़ियों को तोड़ रही हूँ। कल को प्रणव मुझे बाध्य नहीं कर सकेगा अपनी मर्जी से हाँकने के लिए, जैसे तुम्हें बाबूजी ने अपनी उँगलियों पर नचाया - “ऊषा यहाँ बैठो, ऊषा जल्दी आ जाना, ऊषा टीवी बंद कर दो, नानी के घर मत जाओ।”
“तू पागल हो गई है, प्रतिमा... अपने पिता के लिए इस तरह कोई बोलता है?”
“नहीं माँ, मैं पागल नहीं हूँ। मैं पत्नी बनकर गुलामी नहीं करना चाहती। तुम्हारी इन सदियों से चली आ रही रीति-रिवाजों की परंपराएँ स्त्री-पुरुष को केवल एक-दूसरे की गुलाम बनाती हैं। मैं घुटने टेकने वाली नहीं।”
दोनों घर से बेदखल हो गए थे - प्रणव और प्रतिमा।
फ्लैट किराए पर कहाँ मिलता उन्हें ब्याह के बगैर। सुधीर से प्रणव ने कहा और सुधीर ने फ्लैट देने की हाँ कर दी और प्रतिमा लिपट गई थी प्रणव से।
प्रतिमा ने न माँग भरी, न मंगलसूत्र गले में डाला, न बिछिया पहनी, न मेहँदी लगाई, न
हल्दी, न अग्नि के भाँवर पड़ी, न कन्यादान के संकल्प छूटे, फिर भी वह प्रणव के जीवन में आ ही गई और प्रणव का अंश उसकी देह में पल रहा है। पर यही देह का रिश्ता भाँवरों के साथ होता तो... माँ को बताना अच्छा लगता कि तुम नानी बन रही हो। सात फेरे... प्रणव के साथ ले लेती तो...
दरवाजे पर उसे प्रणव के कदमों की आहट लगी। उठी, दरवाजा खोला। दरवाजे पर प्रणव ही था। अंदर आते ही उसने प्रतिमा को चूम लिया, “कैसी हो माय डियर डार्लिंग।”
वह चुप रही।
प्रणव ने टाई ढीली करते हुए कहा, “प्रतिमा,प्रतिमा! तेज भूख लगी है, कुछ पकौड़े-वकौड़े बनाओ।”
इच्छा नहीं थी प्रतिमा की... पर डिब्बे में बेसन ढूँढ़ने लगी। कढ़ाई में हर छूटते पकौड़े की छन्न... उसके अंदर भी होती। क्या अंतर रहा उसमें और बीवी में?
पकौड़े के साथ हल्की-सी ह्विस्की प्रणव लेने लगा तो प्रतिमा ने रोका था, “नहीं प्रणव, मत लो।”
एक-दूसरे की स्वतंत्रता को बनाए रखने का दावा करने वाले प्रणव और प्रतिमा क्या स्वतंत्र हैं? हस्तक्षेप नहीं है उनका एक-दूसरे के जीवन में?
रात बिस्तर पर प्रतिमा आँखें मूँदे लेटी थी। प्रणव ने खींच लिया उसे बाँहों में, “क्या हुआ, मैडम? बड़ी चुपचाप हैं... प्यार करने का मूड हो रहा है मेरा।” उसका उत्तर सुने बगैर ही प्रणव...
प्रतिमा उठकर बैठ गई। एक छत के नीचे, एक बिस्तर पर साथ रहते, सोते स्वतंत्रता को बचा पा रही है वह? अपने अस्तित्व को बचाए रखना संभव नहीं रहा। प्रणव अपनी इच्छापूर्ति के बाद करवट बदलकर सो गया, पर प्रतिमा का मंथन चलता रहा। एक प्रश्न आकर लेट गया उसके और प्रणव के बीच। क्या उसका बिन ब्याहे माँ बनने का निर्णय गलत है? उसका प्रणव से रिश्ता... एक दैहिक सुख की मृगतृष्णा नहीं...
अगले दिन फिर मिसेस कुलकर्णी उसके दरवाजे पर थीं, “प्रतिमा थालीपीठ बनाया है। लो थोड़ा चखकर बताओ।” प्रतिमा को चिढ़-सी आने लगी। बड़ी बोर औरत है। अनावश्यक हस्तक्षेप करने लगी है उसके जीवन में। फिर एक दिन दरवाजे पर मिसेस कुलकर्णी थीं, “प्रतिमा पूरनपोली बना रही हूँ, चलो, वहीं एक, गरम-गरम पोली खा लो। जानती हूँ, तुम्हें एकांत पसंद है, पर कुछ भी बनाती हूँ तो तुम्हारा खयाल अपने-आप आ जाता है। मैं जब प्रेगनेंट थी तो कुलकर्णी जी की आई पूरे टाइम साथ रहीं। सासु माँ ने रोज नए पकवान खिलाए। तुम अकेली हो यहाँ, यही सोचकर मन तुम्हारी तरफ दौड़ता है।”
“नहीं, नहीं, अच्छा लगता है मुझे भी।” पूरनपोली की थाली उठाते हुए प्रतिमा ने कहा।
“सातवें माह में सासु माँ को बुलवा लेना। सातवाँ महीना थोड़ा रिस्की होता है। आठवें में नदी-नाले पार नहीं करना... तुम्हें माँ ने बताया तो होगा न?”
“अच्छा, शाम को तुम्हारे पति को समझाऊँगी, अपनी माँ को ले आएँगे।”
“वे नहीं आएँगी।”
“क्यों नहीं आएँगी? पोता क्या यूँ ही मिल जाएगा?”
“...ऽऽ...”
“बहू को लाड़-प्यार किए बगैर?”
“वे नाराज हैं।”
“तो अपनी माँ को बुलवा लो?”
“वे भी नहीं आएँगी।”
“क्यों? भागकर शादी की थी क्या?”
“नहीं।”
“तो?”
“वी आर नॉट मैरिड। एक्चुअली वी आर इन्वॉल्वड इन अ 'लिव इन' रिलेशनशिप... दरअसल हमने शादी नहीं की। सिर्फ साथ रहने का फैसला किया है।” प्रतिमा ज्यादा समय तक इस सच को छिपाकर नहीं रख सकती थी। जब-जब छिपाया मन पर बोझ बढ़ता जाता था। कहकर हल्का लगा, पर साथ ही आवाज की बुलंदी गायब थी - वह बुलंदी जो ब्याह की बात पर माँ को उनके और बाबूजी के रिश्तों की गुलामी पर कहते वक्त मौजूद थी।
“वॉट आर यू टॉकिंग? क्या बात कर रही हो।” उन्होंने गैस बंद कर दी। प्रतिमा को लगा कि गर्भवती को गरम-गरम पूरनपोली खिलाने के उत्साह पर पानी फिर गया।
“तुमने शादी नहीं की?”
“नहीं की।”
“क्यों?”
“हमें लगता है कि शादी एक बंधन है। वह केवल गुलाम बनाती है और शादी के बाद प्यार खत्म हो जाता है। मैंने देखा है, अपने मम्मी-डैडी को दुश्मनों-सा लड़ते हुए।”
“पागल हो प्रतिमा, सारे रिश्ते रस्मों के मोहताज हैं?”
“स्वतंत्रता, अस्तित्व, वजूद, पसंद, सब शादी के साथ मिटने लगते हैं। हम अपना-अपना जीवन अपने अनुसार नहीं जी पाते हैं। मैंने देखा है, अपनी माँ को बाबूजी की पूजा की थाली से लेकर अंडरवियर-बनियान तक बाथरूम में टाँगने की गुलामी को!”
“मैं तो मॉडलिंग की दुनिया में हूँ, जहाँ शादीशुदा लड़की का कैरियर ही खत्म हो जाता है।”
“मॉडलिंग का कैरियर शादी से नहीं, उम्र के साथ यूँ ही खत्म हो जाता है।”
“आर्थिक स्वतंत्रता के बाद हम एक-दूसरे पर निर्भर नहीं हैं तो क्यों बंधनों में बँधें?”
“प्रतिमा, जिसके साथ बंधन में बँधना नहीं चाहती हो उसका ये बंधन! कोख के अंदर तो बँधा है। जानती हो, माँ का सबसे पवित्र रिश्ता बच्चों से ही होता है, पर पवित्रता की मोहर शादी की रस्मों से ही लगती है। जिसकी पत्नी नहीं कहलाना चाहती हो, उसी के बच्चे की माँ कहलाने को तैयार हो और शादी कोई रस्म नहीं, एक संस्कार है, प्रतिमा। एक संस्कार संतान को जन्म देने के पहले का। उसके बगैर पत्नी नहीं, उपपत्नी ही कही जाओगी। उपपत्नी मतलब 'रखैल'। बच्चे के जन्म से पहले कोर्ट में या मंदिर में जहाँ भी चाहो, इस संस्कार को पूरा कर लो। बच्चा तुम्हारे रिश्ते की इज्जत करेगा, वरना बड़े होकर सबसे ज्यादा कटघरे में उसे ही खड़ा किया जाएगा।”
पूरनपोली रखी रही थाली में। न उन्होंने सरकाई, न मैंने खिसकाई। प्रतिमा अपने फ्लैट में लौट आई। पलंग पर पड़ी रही-खाली, निष्प्रयोजन, उदास... तो क्या इस बंधन से भी मुक्त हो जाऊँ? या इसके लिए उस बंधन को स्वीकार लूँ।
मिसेस कुलकर्णी की बड़बड़ाहट महसूस करती रही प्रतिमा। उसे लग रहा था, वह मिसेस कुलकर्णी कह नजरों में उतर गई है। वे उसे डाँट रही हैं और अपने पति को बता रही हैं - 'वॉट द हेल इस गोइंग ऑन दीस डेज?'
'यू वोंट अंडरस्टैंड, दिस इज वेस्टर्न कल्चर माय डियर, विच इज ऑल्सो रूलिंग इंडियंस नाऊ।'