दीदी की ससुराल / रिशी कटियार
दुनिया के कुछ कठिन कामों में से एक है-दीदी की ससुराल में जाके समय बिताना (वैसे इसका एक कारण यह भी है की उनकी कोई ननद वगैरह नही है).पिछली दिवाली दीदी को उनके गाँव(अब वो उनका ही गाँव कहा जायेगा) जाके उन्हें बुला लाने के लिए मम्मी ने मुझे नियुक्त किया गया.अगर कोई चॉइस होती, कि शेर के दांत गिनोगे,या दीदी को बुलाने जाओगे तो मैं पहला काम ही चुनता.इस मिशन इम्पॉसिबल के लिए मैंने अपने चचेरे भाई,विशाल (जो हम में सबसे छोटा था ) और ममेरे भाई, ‘छोटे भैया’ (जो की हम सब में सबसे बड़े हैं) को भी साथ ले लिया ,एक विचार के लिए ब्रेक लेते हैं यहाँ पे,बड़े भैया का नाम उनके (बड़े भैया के) पैदा होते ही रख दिया गया बड़े भैया,क्या कॉन्फिडेंस होता है लोगों में.
हिन्दू पर्व एक दिन में खत्म नही होते,वो पूरी श्रृंखला होती है जिसकी कड़ियों में कई सारे छोटे पर्व पिरो दिए जाते हैं,जिन्हें अकेले में पॉइंट ऑब्जेक्ट समझ के नेगलेक्ट किया जा सकता है.दिवाली और होली भी ऐसे ही एक त्यौहार है,जिसकी तैयारियां महीनो पहले से शुरू हो जाती हैं .जैसे होली में फागुन शुरू होते ही आम और लोग या आम-लोग बौरा जाते हैं,वैसे ही दिवाली में भी उत्सवी माहौल महीनो तक रहता है.बड़ी दिवाली,गोवर्धन पूजा,छोटी दिवाली,परेवा,भैयादूज आदि सारे कर्मकांड इसी का एक हिस्सा हैं.
परेवा और भैयादूज, दोनों होली और दिवाली दोनों के बाद मनाया जाते हैं इसी क्रम में.भैयादूज इसलिए शायद कि अगर कोई होली में मोहल्ले के किसी लड़के ने “बुरा न मानो होली है”के चक्कर में चांस मार लिया हो,और अगर किसी और ने बुरा मान लिया हो तो प्रायश्चित कराया जा सके. परेवा पे क्या किया जाता है यह तो हमें नही पता,पर यह जरुर पता है की इस दिन कहीं आया जाया नही जाता.इसका कोई प्रमाणिक तथ्य नही है,होली पर शायद कपडे धुलने के लिए,और दिवाली में शायद लोगों को यह डर रहता होगा की रात के पटाखे और बम जो शाम को शायद न जल पायें हो,सुबह अपना कमाल दिखा जाएँ.दीदी को बुलाने हम परेवा को ही गये थे.
अब आगे बात बताने से पहले कुछ जानकारी और सामान्य ज्ञान:
दीदी की ससुराल एक अपेक्षाकृत पिछड़े गाँव में है.जीजाजी पांच भाई है,जिनमे वो सबसे बड़े हैं .ससुर जी एक बहुत ही घाघ,डिप्लोमेटिक व्यक्ति हैं जो बहुत प्यार से अपनी बातों में फंसा लेते हैं.उनका एक छत्र राज्य है घर पे ,और उन पे राज्य है दीदी की सास का
मृदुभाषी,विनम्र सास भी एक अबूझ पहेली हैं और उनके व्यवहार से उनके मन की बात जान पाना एक टेढ़ी खीर है (साली यह टेढ़ी खीर होती कैसी है )
दोपहर में जब हम दीदी के घर पहुंचे तो वहाँ सिर्फ वो और उनकी माताजी थी .घर के अन्य सभी पुरुष सदस्य गाँव के बाहर बने एक दूसरे एक दूसरे घर (कम-मंदिर,कम-ट्यूबवेल) पर थे.जरुरी औपचारिकताओं(जैसे चरण-स्पर्श,हाल-चाल,मिठाई,पानी) के बाद जब हमने दीदी को घर ले के जाने के लिए बात की तो उनका वही रटा-रटाया जवाब-“इनके पापा से पूछ लो”मिला.छोटे भैया की इस मानव-प्रजाति से पहली भिडंत थी,पर मैं जानता था कि आगे काम और कठिन होने वाला है
साल के इस मौसम में किसानो का मुख्य काम-आलू की गड़ाई,मक्के की मड़ाई,खेत की गुड़ाई या सदाबहार गाँव की लड़ाई होता है.इस समय खेत पे मक्के की मड़ाई का काम चल रहा था और पञ्च पांडव उसी में व्यस्त थे.जीजाजी ने शायद हमें दूर से ही देख लिया था इसलिए वो तुरंत हो अन्दर घुस कर तौलिया और बनियान वाला चोला उतर कर जीन्स,शर्ट और शूज के नए पैकेट में लांच हुए.यह सारा काम उन्होंने विद्युत् गति से किया और वह भी काबिले-तारीफ़ ढंग से.
पिताजी जो घर के अन्दर थे(और मुझे शक है की शायद खाना बना रहे थे ) जब तक बाहर आ कर आड़ में अपना तहमद बदल कर पैंट पहन पाते,हम उनके चरणों में गिर चुके थे.अर्थात अब उन्हें उसे दोनों हाथों में लहंगा स्टाइल में दोनों छोर पकड़ कर चलना था (यह उनका सिग्नेचर स्टाइल रहा होगा,जो निरंतर अभ्यास से आदत बन गया होगा ),पिताजी एक मध्यम कद के,हलके से भारी शरीर के और अर्ध-गोलाकार पेट के स्वामी है ,जो दिमाग के तेज और पैरों को धीरे चलाने में विश्वास रखते हैं’
हमारे ‘नमस्ते” के बाद उनका “खुश रहो,”और उसके बाद उनका पेटेंटेड “और !!”
धीमे से,मुस्कुराते हुए और आँखों में देखते हुए उनका “और “ ,और किंकर्तव्यविमूढ़ हम,कि इसका क्या जवाब दिया जाये.वह बस पहले इतना ही बोलते हैं,जब तक सामने वाला अपने मुंह में जमी हुई दही को पिघला के न बोले “और सब ठीक है “.....पर अब,अब क्या बोला जाये.मुझे पूरा भरोसा है की अच्छे से अच्छा वाचाल भी इस चाल के जाल में सोचने को विवश हो जायेगा कि अब क्या बोलना चाहिए...ससुराल एक बहुत ही राजनीतिक जगह है,जहाँ पर आप दिग्विजय सिंह या सलमान खुर्शीद बनने की गलती नही कर सकते.यहाँ शब्दों का बहुत ही सावधानी से और चतुराई से प्रयोग करना पड़ता है,और दीदी की ससुराल,वहाँ तो आप पहले से ही बैकफुट पर होते हैं.इसलिए हमारे जैसे नौसिखियों के लिए “मौन ही सर्वोत्तम भाषण” होता है
अगर कुछ समझ न आये तो बस हाँ में हाँ मिलते रहिये,और बस जहाँ जरुरत हो वहीँ कम से कम शब्दों में बहुत ही संतुलित जवाब दीजिये.वहाँ मुझे अपने इंटरव्यू के दिन याद आ जाते हैं जहाँ हम थर्ड डिग्री के इस्तेमाल पे भी मुंह नही खोलते थे.गाँव में एक सुविधा और भी है कि आप खेती के बारे में बात शुरू कर सकते हैं(यदि आप जानते हों).करीब आधा घंटे तक शब्दों का आदान प्रदान बहुत कम ही हुआ.मैं खड़ा-खड़ा जाने क्या सोच रहा था,विजय भैया “कैसे कहा जाये “,और विशाल ने एक खटिया पे बैठ के एक चींटी के साथ छेड़खानी करना उचित समझा.वातावरण बहुत ही शांत था,दोपहर की हलकी धूप थी (अर्थात ‘कितनी गर्मी है’ या ‘कितनी ठण्ड है’का के बात शुरू नही की जा सकती थी )
विजय भैया खेती के जानकार थे और उन्होंने पसंदीडा टॉपिक आलू की खेती,प्रकार,भाव,मौसम,रणनीति के बारे में बातें करनी शुरू की और वो रुचिपूर्ण आनंद लेते रहे.करीब एक या डेढ़ घंटा हो गया और मुझे लगा कि हमें बिना पूछे ही जाना पड़ेगा.
तभी भैया ने बात को छेड़ा और समय सम्बन्धी कुछ सीमाओं का हवाला दे कर दीदी को घर ले जाने के पूछा .उनके आधे मिनट का मौन,चिंतनपूर्ण चेहरा और सोचता दिमाग इस बात की गवाही दे रहा था कि वो मानने नही वाले हैं.पहले उन्होंने कहा कि ‘भैयादूज कल है’,फिर “माताजी से पूछ लो” और फिर ब्रह्मास्त्र,जिसका हमें डर था, “आज परेवा है,आज के दिन जाना अशुभ माना जाता है”.अब हमें हथियार डालने ही थे.थोड़े बहुत प्रतिरोध के बाद अब हमें वहाँ से खिसकने की भूमिका बनाना था.
जाने की भूमिका का भी विशेष महत्व है.यह जानते हुए भी कि आप रुकना नही चाहते और सामने वाले रोकना भी नही चाहते,आप सीधे जाने के लिए नही कह सकते...आप को अपनी मजबूरी बतानी पड़ती है,जिसे सुनने में भी उनकी कोई दिलचस्पी नही होती है.विजय भैया को मैंने कई बार ऊँगली से,हाथ से,और आँखों से चलने का इशारा कर रहा था.वह चलना शुरु करते थे और तभी वह(दीदी के ससुर) कोई नया तराना छेड़ देते थे.एक बार हम पैर छू कर चल भी पड़े,फिर दोबारा रोके गये.फिर से और फिर से.इस तरह आने से पहले हम उनकी चप्पल की पांच बार धूल साफ़ कर चुके थे.वहाँ से निकलने के बाद एक अजीब सी शांति का अहसास हो रहा था.घुटन खत्म हो गयी थी ,और मन अब सोच सकने लायक हो गया था ...और अंत में हम यही सोच पाए कि यहाँ आने का मौका गँवाने में ही भलाई है.