दीपक मशाल की लघुकथाएँ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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दीपक मशाल की लघुकथाएँ

प्रत्येक विकासशील विधा स्वरूप एवं शिल्प की दृष्टि से कभी स्थिर नहीं रहती है। कभी मन्थर गति से तो कभी क्षिप्र गति से स्वरूप और शिल्प में परिवर्तन होते रहते हैं। विषयवैविध्य जहाँ अलग शिल्प की तलाश करता है, वहीं सामाजिक दायित्व की पूर्त्ति के लिए कभी ये परिवर्तन सहज रूप में होते हैं, तो कभी लेखक स्वयं को अलग स्थापित करने के लिए भी करते हैं। एक स्थिति आदर्श की होती है, जिसमें सहजता का सन्निवेश होता है, तो दूसरी स्थिति भावुक आदर्श की; जिसका उद्देश्य केवल पाठक को प्रभावित करना होता है। इवान तुर्गनेव की भिखारी का कथ्य मानवीयता का आदर्श होते हुए भी सहज है। किसी भूखे भिखारी को अपने हिस्से की रोटी में से कुछ दे देना भी इसी श्रेणी में आएगा; लेकिन भिखारी के साथ बैठकर रोटी खाना भावुक और ऊहात्मक आदर्श कथा को कमज़ोर करता है। लेखक जब कथा-के विरल प्रवाह में खुद कूद पड़ता है, तो वह हास्यास्पद हो जाता है; क्योंकि लेखकीय हस्तक्षेप साफ़ नज़र आने लगता है। हिन्दी लघुकथा-जगत् में इस ऊहात्मक आदर्श की ढेरों लघुकथाएँ लिखी गई हैं और आज भी लिखी जा रही हैं। इस तरह की रचनाएँ साधारण पाठक के लिए क्षणिक मनोरंजन हो सकती हैं, लेकिन गम्भीरता से विचार करने पर पता चलता है कि ये शिल्पगत दुर्बलता का अच्छा उदाहरण बन गई हैं।

दीपक मशाल नए लघुकथाकार हैं। मैं सन् 2011 से इनकी लघुकथाएँ पढ़ता रहा हूँ। लघुकथा के कथ्य और शिल्प पर मुझसे प्राय: चर्चा होती रहती है। न तो यह युवा लेखक आत्ममुग्ध है और न किसी रचना पर आकर ठहरा है। यह निरन्तर आगे बढ़ने में विश्वास रखने वाला है, अपनी विशिष्टता के साथ, अपनी दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त करके. भारत के अलावा विश्व–संस्कृति के सम्पर्क में रहने के कारण इनकी लघुकथाओं का विषय एकांगी नहीं, वरन् वैविध्यपूर्ण है। । इनकी लघुकथाओं का फलक व्यापक है। दूध, डर, मुझे नहीं होना बड़ा, बेचैनी यदि मनोवैज्ञानिक क्षेत्र का अवगाहन करती हैं तो वह चेहरा, माचिस, चोर-सिपाही-वजीर-बादशाह प्रतीकात्मक अर्थ लिये हुए हैं। दखल, अच्छा सौदा उपभोक्ता संस्कृति के यथार्थ की व्याख्या हैं। 'ठेस' और 'पानी' हमारी सामाजिक विकृतियों को अनावृत्त करती हैं। यह शुभ संकेत है कि दीपक मशाल ने खुद को किसी एक क्षेत्र से बाँधकर नहीं रखा है। मधुदीप ने इस युवा लेखक की रचनाओं का चयन करते समय इन दिशों की पड़ताल की है। इनकी लघुकथाओं को जैसा मैंने समझा, उनका विश्लेषण करने का प्रयास किया है।

'ठेस' लघुकथा विधि और समीर के लिव इन रिलेशन की पृष्ठभूमि की कथा है। विधि के पिता उसके पास रहने के लिए आते हैं तो वह समीर को एक-दो हफ़्तों के लिए कहीं किसी दोस्त के यहाँ शिफ्ट करने को कहती है; क्योंकि वह नहीं चाहती कि घर वाले जाने कि मैं लिव-इन में रहती हूँ। आधुनिकता को एक ओर स्वीकार करते हुए भी मर्यादा की एक ऐसी दीवार बची हुई है, जिसे अचानक भूमिसात् नहीं किया जा सकता है। इस कथा में कोई अन्तर्द्वन्द्व नहीं, वरन् मर्यादा का पर्दा है प्रेमिका विधि जिसे गिराने के पक्ष में नहीं है। समीर मॉडर्न बनने और दूसरी तरफ़ मर्यादा की बात करने को अव्यावहारिक मानता है। 'अगर तुम्हारी बहिन तुमसे अपने लिव-इन रिलेशन के बारे में बताए, तो तुम खुशी-खुशी मान जाओगे?' विधि के इस प्रश्न से समीर उखड़ जाता है। उसका खुलापन पलभर में ढह जाता है। आधुनिक जीवनशैली का वह हामी संकीर्णता से घिरा नज़र आता है। सोच का यह दोगलापन सुविधावादी पुरुष को, उसकी उथली सोच को बेनकाब कर देता है। संकीर्णता वस्तुत: सामाजिक देन नहीं, वरन् व्यक्तिकेन्द्रित है। केवल अपने ऐशोआराम को प्राथमिकता देना प्रगतिशीलता नहीं। प्रगतिशीलता है-अपने साथी को, उसकी मन: स्थिति को समझना, उसका सम्मान करना।

'दूध' लघुकथा में एक ओर अनब्याही माँ की पीड़ा है, जो कभी गर्भपात करवा चुकी है। आज उसका बच्चा भी इसी युवाग्राहक की उम्र का होता; तो दूसरी ओर उस पुत्र की पीड़ा है; जिसे माँ का आत्मीय स्पर्श नहीं मिला। मन को सींचने वाला प्यार नहीं मिला। वेश्यावृत्ति से जुड़ी महिला और छात्र से जुड़ी यह लघुकथा कहीं भी मन में वितृष्णा पैदा नहीं करती। इस कथा में प्याज के छिलके की तरह तेज़ी से कपडे निकाल कर उसने लड़के को बिस्तर पर खींच लेने वाली उस महिला का मातृत्व ही उभरकर आया है। उसके सीने से लिपटा लड़का बड़बड़ाए जा रहा था, "क्यों मम्मी! क्यों चली गईं छोड़कर... क्यों?"

वह अभिभूत हो उठी और उस लड़के के सर पर हाथ फेरा तो वह गले से और जोर से लिपट गया। फिर अचानक उठा, नज़रें नीची कर अपने कपड़े पहने और सॉरी कहकर कमरे से बाहर निकल गया।

इस तरह की रचना में विषयवस्तु का निर्वाह करना बहुत कठिन है; लेकिन दीपक ने इसका निर्वाह बहुत सफलता से किया है। कथा-प्रवाह में लेखक का हस्तक्षेप कहीं भी दृष्टिगत नहीं होता। यही इस कथा की सफलता है।

'पानी' लघुकथा-घाटी में घटी त्रासदी के व्याज से एक अलग दूषित चिन्तन को उद्घाटित करती है। भीषण त्रासदी से शर्मा जी किसी तरह बचकर आ गए हैं। विपदा से बचकर लौटना भी एक बड़ी घटना है यानी दूसरे शब्दों में कहें तो चमत्कार। आज के दौर में हर घटना को भुनाने की होड़ लगी है। आपदा के समय पानी बेचकर पैसा कमाने वालों की कमी नहीं होती, उसी प्रकार कुछ लोग अपने स्वार्थ के लिए हर घटना का महिमा मण्डन करके उसके द्वारा सृजित लाभ को अपनी ओर मोड़ लेने के प्रयास में लगे रहते हैं। शर्मा जी खुद को इस जंजाल से दूर रखना चाहते हैं। वे जो ताण्डव देख चुके हैं, उससे उनकी आस्था कही, न-न कहीं आहत हुई है। वे छोटे शर्मा (अपने पौत्र) पर चिल्ला उठते हैं-"चल भाग जा राक्षस... मैं मर जाऊँगा लेकिन बीस गुनी कीमत का तेरा पानी नहीं खरीदूँगा।" कारण सीधा—सा है–छोटे शर्मा इस-इस साल दद्दू को प्रधानी के लिए खड़ा करना चाह रहे हैं। यही कारण है कि उनके इंटरव्यू के लिए टी वी वालों को बुला लिया है, ताकि इस अवसर पर लोगों की आस्थाका दोहन कर लिया जाए. गाँव से शहर तक, शहर से तीर्थाटान तक फैला बाज़ारवाद हमारी संवेदना का दोहन किसी न किसी रूप में कर रहा है। सामाजिक और सांस्कृतिक केन्द्र इसके विस्तार में गोपनीय भूमिका निभा रहे हैं, जिन्हें धर्म-कर्म के नाम पर अनदेखा कर दिया जाता है।

'अच्छा सौदा' छूट पर बिकने वाली वस्तुओं के पीछे छुपे सच को उजागर करती है। क्रिसमस के अगले दिन होने वाली बॉक्सिंग डे सेल का चित्रण करते हुए लेखक ग्राहकों की मारामारी को उकेरता है। लेखक का यह कहना-'हर कोई दुम में रॉकेट लगाए भाग रहा था' क्रेता की आतुरता को सही अर्थों में चित्रित करता है। लघुकथा के लिए इसी तरह की भाषा चाहिए, नवीन उद्भावना और अर्थ-गहनता लिये हुए. जिस छोटे से शो-रूम में बाकी दिनों में इक्का-दुक्का ग्राहक ही जाते थे आज वहाँ भी मारामारी थी। सेल का महत्त्व बढ़ाने के लिए बड़ी चालाकी से-'सेल में बिका हुआ माल ना वापस होगा और ना ही बदला जाएगा' के पम्फलेट लगाए गए थे। शोरूम में दो नवयुवक घुसे जो तेज़ निकला उसके हाथ कोट आ गया। दूसरा उसे न पा सका। दूसरे युवक की बेचैनी और गुस्से को भी सार्थक अभिव्यक्ति दी देर से जागने के कारण को। उसे लगा-'जैसे कोहिनूर हीरा उसके हाथ से फिसल किसी और की झोली में जा गिरा हो।' कथा के साथ पाठक की उत्सुकता निरन्तर बनी रहती है।

अब प्रकट होती है इसे सेल के पीछे की असलियत। दुकान का मालिक खुश था कि आठ महीने से दुकान में पड़ा वह कोट बिक गया, लागत निकलने के साथ फ़ायदा भी हो गया; अन्यथा दोपहर बाद उसकी कीमत कम करनी पड़ती। दुकान का सेल्समैन उसी कोट को पहनकर रात क्रिसमस पार्टी में गया था, जिस पर रेड वाइन का पैग गिर गया था। गहरे रंग का होने से उस पर पड़ा दाग ग्राहक को नज़र नहीं आया। वह मालिक की डाँट खाने से और आर्थिक दण्ड भुगतने से बच गया। ग्राहक, दुकान मालिक और सेल्समैन तीनों की नज़र में यह अच्छा सौदा था। बाज़ारवाद की पोल खोलता यह 'अच्छा सौदा' सेल्स की प्रक्रिया की सीवन उधेड़ने में सक्षम है।

चोर-सिपाही-वजीर-बादशाह–लघुकथा व्यवस्था पर करारा व्यंग्य है। चार पर्चियाँ डाली गईं। उन पर नाम लिखे गए चोर, सिपाही, वजीर और बादशाह। बादशाह की पर्ची जिसके हाथ में आई, वह सीना चौड़ा करके गरजकर बोला—'बोल-बोल, मेरा वजीर कौन?' लेखक ने नहीं बताया कि इनके पास कौन—सी पर्ची आई है। सीना चौड़ा करके गरजने और पूछने के तरीके ने उसके अस्तित्व का बोध कराया। वज़ीर का विनम्रतापूर्ण उत्तर–'मैं जहाँपनाह!'

जब बाकी बचे दोनों में से चोर–सिपाही का पता लगाने के लिए कहा जाता है तो वज़ीर का कथन बहुआयामी ही नहीं बल्कि व्यंजनात्मक भी हो जाता है-'जाने भी दीजिये हुज़ूर, दोनों अपने ही आदमी हैं... वैसे भी इनके हाथ तो सिर्फ़ कौडियाँ लगी होंगी, अशर्फियाँ तो महफूज़ ठिकानों में पहुँच ही चुकी हैं।' सत्ता में वज़ीर व्यवस्था को पदमर्दित करने की भूमिका का निष्ठापूर्वक निर्वाह करता है। चोर भी उनका आदमी और चोर को पकड़ने वाला सिपाही भी उन्हीं का आदमी। जिसका सब कुछ चोरी चला गया है, वह किसी का आदमी नहीं, उसकी कोई सुनवाई नहीं। जिसके लिए सारी व्यवस्था का तामझाम है, उसे गर्दनिया देकर बाहर कर दिया गया है। सत्ता अपने चोर सिपाही के माध्यम से लूट को अंजाम देती रहती है। सामान्य और पीड़ित जन इस खेल से पूरी तरह बाहर है। लोकतन्त्र की यह सबसे बड़ी विडम्बना और विवशता है। इस नए लेखक की यह लघुकथा पाठक के मन पर एक धमक छोड़ने की शक्ति रखती है। सतही तौर पर रचना-पाठ सामान्य लग सकता है। गहन रूप से पढ़ने पर सहृदय पाठक विचलित और चिन्तित हो उठता है। वज़ीर और बादशाह की सारी ताकत चोर और सिपाही को बचाने में ज़ाया हो रही है। जो इनके हाथों लुट–पिट चुका है, उसे राहत मिलने की सम्भावना है ही नहीं। सामाजिक पतनशीलता और राजनीतिक विद्रूपता को यह लघुकथा मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान करती है।

दखल-लघुकथा में उस युवा मानसिकता को रेखांकित किया गया है जो विदेश में प्रवास और नौकरी करने को अलग प्रतिष्ठा से जोड़ने का भ्रम पाले हुए हैं। सोशल साइट के माध्यम से इस तरह की हीन मानसिकता को और खाद मिल रही है। भ्रम का गुब्बारा तब फुस्स हो जाता है, जब उसी के गाँव के समवयस्क लड़के की फ़्रैण्ड रिक्वेस्ट पाकर उसे लगता है कि वह इस दौड़ में पिछड़ गया है। वैश्विक स्तर पर यह गलाकाट प्रदर्शन मन का चैन छीनने का ही काम करता है। विषयवस्तु की नवीनता आज की युवा पीढ़ी की मानसिकता उजागर करती है।

डर-बेटे और बेटी का परिवार हर तरह से समृद्ध और सुखी है फिर भी बूढ़ा कहीं घूमने-फिरने को तैयार न होता। वह न बेटी की बात सुनता और न बेटे की। उस कस्बानुमा जगह से बाहर न निकलना चाहता था। बच्चों को लगता कि उनके भविष्य की खातिर दिन–रात एक कर दिया था। न कहीं घूमना-फिरना न तीर्थ यात्रा, न साथ में आकर शहर में रहना। उस शहर से उसकी आसक्ति किसी से छुपी नहीं थी, जबकि ना ही वहाँ उसका कोई दोस्त था ना सगा-सम्बन्धी। ऊपर से हवेलीनुमा उस मकान में दोनों लोग दो कमरों और एक किचेन से ज़्यादा कुछ इस्तेमाल भी ना करते। इसके पीछे एक डर छुपा हुआ था कि कहीं उनकी अनुपस्थिति में कोई उस घर पर कब्ज़ा न कर बैठे। इसीलिए वे घर का कोई भी हिस्सा कभी किराए पर नहीं देते थे। इसके पीछे भय निहित है; क्योंकि बुढ़िया को ध्यान आया कि उसके पति 35 साल पहले इस मकान के बूढ़े मालिक के पास किरायेदार बनकर आए थे और फिर एक सुबह अचानक उसके मालिक बन बैठे थे। अपराधबोध कभी आदमी को चैन से नहीं जीने देता। स्वप्न के माध्यम से लेखक उस डर को सामने लाता है।

माचिस–लघुकथा उस षडयन्त्र को बेनक़ाब करती है, जिसके अन्तर्गत एक अभियान चलाया जा रहा है, -उदारता को अनुदारता में बदलने का। जो देश को एकता के सूत्र में बाँधकर चले, उन्हें वर्गीकृत करके सीमित और संकीर्ण दायरे में लाकर खड़ा करने का उपक्रम किया जा रहा है। विचारों की उदार विरासत को एक छोटी—सी परिधि में जकड़ दिया गया है। दलबन्दी से अभिशप्त वर्ग ने समभाव वाले वैचारिक आन्दोलन का अपहरण करके उस पर अपने मनमाने अर्थ चस्पाँ कर दिए. पूरी लघुकथा आज के राजनीतिक प्रदूषण और अवसरवादिता को बेनक़ाब करती है। 'हर पार्टी के ऑफिस में माचिस-माचिस की पुकार मची थी।' वास्तव में यह माचिस दीपावली की फुलझड़ी जलाने वाली नहीं है। यह वह माचिस है जो निरन्तर आपसी सद्भाव, शालीनता, एकात्मकता, साम्प्रदायिक सौहार्द और सहिष्णुता को जलाने पर उतारू है। प्रत्येक दल में इसी माचिस की पुकार मची है। देशहित कहीं कोने में खड़ा रह गया है, जिसे संकीर्णता की माचिस कभी भी भस्मसात् कर सकती है।

मुझे नहीं होना बड़ा-पड़ोस के दो भाइयों की कथा है। बड़े भाई अमित की अपने छोटे भाई अनुराग से किसी बात को लेकर कहा-सुनी हो गई और बात हाथापाई तक पहुँच गई. बीच-बचाव के लिए वह उनके घर पहुँचा तो उसे भी नाक पर एक घूँसा खाना पड़ा, जबकि इस तीसरे भाई से उनका कोई झगड़ा नहीं होता था। अमित के छोटे बेटे पर इस झगड़े का बुरा असर पड़ा। उसे दूध पिलाने के लिए जब भाभी ने उसे बहलाने की कोशिश की, "दूध नहीं पियोगे तो बड़े कैसे होओगे, बेटा?" इस पर छोटा बेटा फूट-फूट कर रोने लगा, " मुझे नहीं होना बड़ा...मुझे छोटा ही रहने दो... भइया मुझे प्यार तो करते हैं। ' साधारण–सी लघुकथा में बच्चे के बहाने एक बड़ा सन्देश प्रस्तुत किया गया है।

बेचैनी–आपसी सम्बन्धों में औपचारिकता और अहंमन्यता सदा कृत्रिमता को ही जन्म देती है। अपने आने वाले परिचित को इन्तज़ार कराना सम्भवत: उसी अहं का पोषण करता है। पत्नी नहीं चाहती की आते ही एकदम अगवानी के लिए दौड़ा जाए, इसलिए वह पति को टोकती है। इससे पति कि बेचैनी बढ़ती है। वह अपनी बेचैनी पत्नी के सामने प्रकट कर देता है। पत्नी को भी अहसास होता है कि प्रतीक्षा करने वाले मित्र के साथ उनका छोटा बच्चा भी तो होगा, जो नीचे अकारण बाहर सर्दी में खड़ा होगा। वह पति को जल्दी सबको ले आने के लिए कह देती है। थोथे अहं का यह विगलन मानवीयता की सुगन्ध बन जाता है।

वो चेहरा–लघुकथा में सामाजिक अन्याय से लड़ने का एक जज़्बा है। समय बीतता जाता है। बेईमानों के विरुद्ध लिखने के लिए और आँकड़ों की दरकार हुई. एक अर्से बाद पर्याप्त आँकड़े एकत्र हो गए. सारे षडयन्त्रों का भंडाफोड़ किया जा सकता है। वह उन्हीं नामों के प्रतिरोध के लिए तैयार हुआ लेकिन यह क्या! 'उसके पेट से निकले हाथों ने उसके हाथों को थाम लिया, उसके पेट पर उभरे उस चेहरे के आँसुओं में गज़ब का सम्मोहन था।' पेट से निकले हाथों के इस सम्मोहन ने उसकी सारी शक्ति छीन ली। उसके सारे इरादे कालकवलित हो गए. इस प्रतीकात्मक लघुकथा में यह सन्देश मुखर हुआ है कि पेटभर रोटी के लिए सारी शक्ति लगा देने वाला व्यक्ति अघाए और अत्याचारी लोगों से मुकाबला नहीं कर सकता। यह असमानता का संघर्ष है, जिसमें हार उसी की है जो असहाय है, अकेला है तथा निहत्था है, जिसे इस संघर्ष में अपनी आजीविका छिन जाने का डर है।

दीपक मशाल की ये लघुकथाएँ इतना तो आश्वस्त करती हैं कि आने वाले समय में लेखक और अधिक नए विषयों का सन्धान करेगा और शिल्प के क्षेत्र में भी नए द्वार का उद्घाटन करेगा। -0-

27-04-2014