दीपावली और जुआ / लफ़्टंट पिगसन की डायरी / बेढब बनारसी
मैं चाय पीकर 'सिविल एण्ड मिलिटरी गजट' पढ़ रहा था। एक मुकदमे की रिपेार्ट छपी थी। किसी मजिस्ट्रेट ने अपने बेयरा को ठोकर मार दी थी। उस बेयरे ने चाय का दूध गिरा दिया था। वह बेयरा मर गया था। हिन्दुस्तानी मजिस्ट्रेट ने छः महीने की सजा दे दी थी। इसी पर 'सिविल एण्ड मिलिटरी गजट' ने एक अग्रलेख लिखा था कि भारत से अब अंग्रेजी राज मिट जाने का समय आ गया है। एक भारतीय मजिस्ट्रेट ने अंग्रेज मजिस्ट्रेट को दण्ड दे दिया। भारतवासी कभी, अंग्रेजों के प्रति न्याय नहीं कर सकते। यही मैं सोच रहा था कि 'सिविल एण्ड मिलिटरी गजट' की बात ठीक ही होगी। उसने लिखा था कि एक अंग्रेज जो इतनी दूर से भारत में आया है, सरकार ने उसे इतना बड़ा अफसर बनाया है; जिम्मेदारी के काम पर रख दिया है उसे दण्ड देना चाहिये कि नहीं... मैं कुछ सोच ही रहा था कि पंडित जी आ गये। दूसरे-तीसरे महीने पंडितजी आ जाते थे। कभी उनके लड़कों को फीस देने के लिये पैसा नहीं होता था, कभी उन्हें कहीं यात्रा करनी होती तो जैसे आवश्यकता पड़ने पर बैंक से लोग रुपया निकाल लेते हैं, उसी भाँति वह मेरे पास आ जाते थे। नमस्कार के पश्चात् पंडितजी को मैंने कुरसी दी। बोला - 'कैसे कष्ट किया?' भारतवर्ष में चाहे कोई गाड़ी पर आये या मोटर कार पर, यही समझा जाता है कि उसने कष्ट किया। तब आने वाला आने का अभिप्राय बताता है। पंडितजी ने कहा कि आज दिवाली है, सोचा कि आपके दर्शन करता चलूँ। मैंने कहा - 'दिवाली क्या होती है?' उन्होंने बताया कि आज लोग अपने घरों को दीपों से सजाते हैं, रोशनी करते हैं। मैंने पाँच रुपये का नोट उन्हें दिया। बोला - 'आपके यहाँ बिजली न हो तो इससे एक कनस्टर तेल खरीद लीजियेगा। अपने घर पर भी रोशनी कीजियेगा।' पंडितजी ने कहा कि हम लोग मिट्टी को तेल इस दिन नहीं जलाते। सरसों का तेल जलाते हैं। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। इतने कॉलेज और विश्वविद्यालय होने पर भी भारतवर्ष में आज भी सरसों का तेल जलता है। मैंने पंडितजी से कहा कि भारतवर्ष को कभी स्वराज्य नहीं मिल सकता। जब बिजली आ गयी तब सरसों का तेल जलाना, जब पतलून का आविष्कार हो गया तब धोती पहनना, कुरसी जब बनने लगी तब जमीन पर बैठना कौन-सी अच्छी बात है? पंडितजी ने कहा - 'हम लोग तो वही करते हैं जो शास्त्रों में लिखा है।' मैंने पूछा - 'शास्त्र बहुत दिन पहले बने होंगे?' पंडितजी ने कहा - 'शास्त्र बने कहाँ। वे तो ईश्वरी बातें हैं। ऋषियों ने उन्हें लिखा है। वह तो ऐसे हैं जैसे सूर्य। सदा एक-से रहते हैं। वह सब समय के लिये हैं। ऋषि लोग ऐसी-वैसी चीज नहीं लिखते थे। वह जो लिख गये हैं वह पचास हजार साल पहले जितना ठीक था उतना ही आज भी ठीक है और उतना ही दो लाख साल आगे भी रहेगा। देखिये, ऋषियों ने बताया है - 'दो और दो-चार होते हैं। डेढ़ लाख साल भी दो और दो पाँच नहीं हो सकते। वह लोग योगी होते थे जो आगे और पीछे सब देख लेते थे।' मैंने कहा कि मुझे किसी योगी के पास ले चलिये, किन्तु आज तो मैं दिवाली देखना चाहता हूँ। कार मँगवाऊँ? पंडितजी ने कहा कि दिवाली देखनी हो तो पैदल ही ठीक होगा। मैं अभी घर जाता हूँ। सन्ध्या समय आ जाऊँगा।
मैंने कैप्टन ऑसहेड को भी बुला लिया। पंडितजी के साथ मैं और कैप्टन चले। नगर में जाकर हम लोगों ने देखा। छोटे-छोटे दीप मकान की छतों पर, दीवारों पर, तारों के समान जल रहे थे। सारा नगर प्रकाश से जगमगा रहा था। बड़ी कोठियों में मैंने देखा कि बिजली के सैकड़ों बल्ब जल रहे हैं। मैंने पंडितजी से पूछा कि शास्त्रों में बिजली के बल्ब का विधान तो होगा ही। पंडितजी ने बताया कि शास्त्रों में बिजली पैदा करनेवाले इन्द्र का वर्णन है। शास्त्र आरम्भ से चलते हैं। बिजली का वर्णन वेदों में न होता तो बिजली आती कहाँ से। एक जर्मन, जो यहाँ कलक्टर था, वेद चुराकर ले गया। वहीं उसने बिजली बनायी।
हम लोग आज क्लब नहीं गये। नगर की रोशनी देखी। अच्छी लगी। कितना तेल इन लोगों ने आज खराब किया। जान पड़ता है इसमें यह भाव निहित है कि इस प्रकार से तेल जलाया जाये और बिजली कम्पनियों को घाटा हो, क्योंकि उसमें अंग्रेज ही अधिक हैं और वह टूट जाये। देर हो चली थी; हम लोग लौटना चाहते थे कि पंडितजी ने कहा कि एक चीज और देखना हो तो दिखाऊँ। मैंने पूछा कि वह क्या है। पंडितजी ने कहा कि आज की रात में हम हिन्दू लोग भाग्य की परीक्षा करते हैं। मैंने पूछा - 'वह कैसे?' पंडितजी बोले - 'हम लोग आज जुआ खेलते हैं। जो आज जुआ नहीं खेलता उसका दूसरा जन्म छछूंदर का हो जाता है।' मैंने कहा कि संसार में इतने छछूंदर आये कहाँ से? यूरोप में तो अक्सर ही जुआ खेला जाता है। इसलिये वह लोग तो हो नहीं सकते और आप लोग हो नहीं सकते। पंडितजी ने कहा - 'रोज खेलने की बात नहीं है, आज खेलने की बात है।' मैंने कहा कि उसमें देखना क्या है। जुआ तो खेलने की चीज है। पंडितजी ने कहा - 'मैं ऐसा-वैसा जुआ नहीं दिखाऊँगा।' मैंने कहा - 'यहाँ क्या जुआ खेलेंगे लोग! मेरे यहाँ जुआ होता है डरबी का। लाखों रुपया लोग जीतते-हारते हैं। जुआ होता है मांटेकार्लो में, जहाँ लोगों की जान चली जाती है।' पंडितजी ने कहा - 'कप्तान साहब, यह सब कुछ नहीं, हमारे यहाँ युधिष्ठिर अपनी स्त्री हार गये थे।' मैं सोचने लगा - जान पड़ता है कि जो जाति जितनी ही सभ्य होती है, उतनी ही तेज जुआड़ी होती है। सभ्यता और जुआ का बड़ा गहरा सम्बन्ध जान पड़ता है। मुझे जिज्ञासा हुई। मैंने कप्तान ऑसहेड से पूछा। राय हुई, चलकर देखा जाये। पंडितजी ने कहा कि सेठ मोटेराम नाटेमल के यहाँ चलिये, वह मेरे यजमान हैं।
पंडितजी के साथ हम लोग एक विशाल भवन में पहुँचे। दरवाजे पर संतरी ने पंडितजी को प्रणाम किया। हम लोगों को देखकर कुछ सहम कर हट गया। कई सीढ़ियाँ और आँगन पार करके हम लोग एक सुन्दर हाल में पहुँचे। हाल खूब सजा हुआ था। बड़े-बड़े बल्ब सुन्दर फानूसों में जल रहे थे। सुन्दर-सुन्दर कालीनें थीं, मसनद थे। जमीन पर ही लोग बैठे थे। बीचोंबीच लाल मखमल का एक बड़ा-सा रूमाल के समान बिछा था। उसी के चारों ओर लोग बैठे थे। हम लोग जब पहुँचे तब वहाँ शायद लोग कुछ गिन रहे थे, क्योंकि 'चार, छ, आठ' की आवाज मेरे कानों में आयी।
हम लोगों को देखकर वह लोग कुछ आश्चर्य में हो गये। पंडितजी ने तुरन्त सेठजी से हमारा परिचय कराया। यह सेठ लदाऊदास हैं, आप ग्यारह मिलों के डाइरेक्टर हैं और आपकी गोबर से कंडे बनाने की मिल बन रही है; यह रायसाहब ढुनमुनदास हैं; आप यहाँ डिप्टी कलक्टर हैं; यह मुंशी चलतेलाल वकील हैं। बार एसोसिएशन के सभापति हैं। आप पंडित प्रस्ताव प्रसाद पांडेय एम.एन.ए. हैं। और जो लोग थे वह साधारण रहे होंगे क्योंकि उनसे मेरा परिचय नहीं कराया गया। दुनिया में कुछ लोग ऐसे हैं जो जुआ को अनुचित समझते हैं। यहाँ वह देखते तो समझते कि ऐसे-ऐसे ऊँचे लोग जो काम करते हैं वह काम भला अनुचित हो सकता है। मुझसे कहा कि खेलिये। मैंने कहा कि मुझे तो आता नहीं। खेलने में कोई बात नहीं है। जरा देखूँगा। फिर खेल आरम्भ हुआ। एक सज्जन ने पहले छोटी-छोटी कौड़ियाँ दाहिने हाथ में लीं और फिर हाथ को पाँच मिनट तक ऐसे हिलाया जैसे मिरगी आने पर लोगों का हाथ हिलता है और कौड़ियों को हाथ से गिरा दिया और कहने लगे - 'चार-चार', डिप्टी साहब कहने लगे - 'नौ-नौ। पता नहीं इसके पश्चात् कि प्रकार कौड़ियाँ गिनीं। सबके सामने दस-दस रुपये के नोट रखे थे। एक आदमी ने सबके सामने से नोट बटोर लिये और स्वयं कौड़ियाँ हिलाने लगा। बड़ी देर तक इसी प्रकार से होता रहा। कभी एक आदमी नोट बटोरता, कभी दूसरा और दोनों हाथ फैला ऐसे बटोरता था जैसे किसी को कोई अंक में ले रहा हो।
यह हो ही रहा था कि धमधमाते हुए एक साहब पुलिस की वर्दी पहने दो कांस्टेबलों के साथ पहुँचे। सेठ साहब ने तुरन्त खड़े होकर कहा - 'आइये कोतवाल साहब, तशरीफ रखिये।' कोतवाल साहब ऐसे प्रसन्न दिखायी दिये मानो जुए में नहीं गये हैं, किसी यज्ञ में गये हैं। दस मिनट बैठने और मिठाइयाँ खाने के पश्चात् सेठजी ने सौ-सौ रुपये के दो नोट कोतवाल साहब के हाथों में दिये। बोले - 'लड़कों को मिठाई खिलाइयेगा।' कोतवाल साहब ने जेब में रुपये रखते हुए कहा - 'इसकी क्या आवश्यकता है।' फिर बोले - 'अच्छा चलूँ, मुझे अभी कई जगह जाना है।'