दीपावली केंद्रित फिल्में / जयप्रकाश चौकसे

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दीपावली केंद्रित फिल्में
प्रकाशन तिथि : 28 अक्तूबर 2019


अमेरिका के डिज्नी स्टूडियो में एक स्थायी सेट क्रिसमस उत्सव का लगाया गया है। नैराश्य से जूझता आम आदमी अपने हृदय में उत्सव का उत्साह पैदा करने के लिए डिज्नी स्टूडियो के क्रिसमस सेट पर जा सकता है, जहां बारहों महीने क्रिसमस उत्सव का स्थायी सेट लगा रहता है। इसी तरह हम भारत के किसी थीम पार्क में दिवाली उत्सव का वातावरण बना सकते हैं और उत्सव को बारहमासी बना सकते हैं। दरअसल हर शहर में दिवाली उत्सव के वातावरण का सृजन किया जा सकता है, क्योंकि अवाम की विचारशैली में नैराश्य ने घर बना लिया है। एक फिल्म में एक बीमार बालक अपनी लाइलाज बीमारी के बारे में जानता है और उसकी इच्छा है कि वह क्रिसमस तक किसी तरह जी सके। उसके पास-पड़ोस वाले निर्णय करते हैं कि वे अपने घरों को उत्सव के दिन की तरह सजाएंगे। इस काम में सबसे बड़ी बाधा यह है कि हर घर में टेलीविजन है और बीमार बालक जान लेगा कि यह उत्सव का मौसम नहीं है। इस बाधा को दूर करने के लिए विगत उत्सव के वीडियो के अंश लेकर एक नया वीडियो बनाया जाता है और मोहल्ले में टेलीविजन प्रसारण में उसे लगा दिया जाता है ताकि बालक को कोई शक नहीं हो। पूरा मोहल्ला ही उत्सव की नौटंकी रचने में पूरे जोश से शामिल होता है। यह कथा ओ'हेनरी की 'लास्ट लीफ' के समान है।

अकारण अनजाने आक्रोश से पीड़ित लोगों के लिए शहर के बाहर एक स्थान तय कर सकते हैं और अपशब्दों की बौछार करके अपने आक्रोश का शमन कर सकते हैं। इस धरम-करम के जत्थे में वे भी शामिल हो सकते हैं, जो माहवारी वेतन लेकर हुड़दंग करते हैं, धमकियां देते हैं। स्थान दशहरा मैदान की तरह शहर से दूर तय किया जा सकता है। आक्रोश अभिव्यक्ति को व्यवस्थित किया जा सकता है। प्रायोजित आक्रोश को भी व्यवस्था की तरह रचा जा सकता है।

असमान अन्याय आधारित व्यवस्था की कोख से ही आक्रोश का जन्म होता है। प्रचार की धुंध हमेशा कायम नहीं रखी जा सकती। व्यवस्था ने प्रचार का टुरिंग टाकीज रचा है है जो कस्बे-कस्बे जाकर विकास का ढोल पीट रहा है। जानवर की चमड़ी से ढोल बनाए जाते हैं। किसी दिन जानवर की आत्मा अपनी चमड़ी वापस मांगने आ खड़ी हो सकती है। ज्ञातव्य है कि शिकार के समय हाका लगाने वाले ढोल पीटते हैं गोयाकि जानवर की सहायता से ही जानवर का शिकार किया जा रहा है। यह जन्म सिद्ध अधिकार मृत्यु के बाद भी सुरक्षित रहता है। आक्रोश से प्रेरित फिल्में बनी हैं परंतु उनमें से अधिकांश फिल्मों में आक्रोश व्यापक समाज हित की भावना से जन्म नहीं लेता वरन उसमें व्यक्तिगत बदले की बात होती है। गोविंद निहलानी की 'अर्धसत्य' सामाजिक अन्याय के खिलाफ आक्रोश पर बनी पहली फिल्म मानी जा सकती है। आक्रोश की छवि इतनी लोकप्रिय है कि टीवी पर समाचार देने वाले व्यक्ति ने भी अपने लिए आक्रोश की मुद्रा का उपयोग किया ।

उत्सव के दृश्य फिल्मों में भी प्रस्तुत किए जाते हैं। 'शोले' में होली के दिन ही गब्बर गांव पर आक्रमण करता है। यश चोपड़ा की 'कैपफीयर' से प्रेरित फिल्म 'डर' में भी होली के समय रंगे-पुते चेहरों का लाभ उठाकर प्रेम में अस्वीकार किया जाने वाला दिमागी बीमार व्यक्ति प्रेमिका के घर प्रवेश करता है। व्यक्ति प्रेमिका के घर प्रवेश करता है। दीपावली उत्सव अनेक फिल्मों में दिखाया गया है। दक्षिण भारतका एक शहर शिवाकाशी पटाखों के उत्पादन व्यवसाय का केंद्र रहा है और इत्तेफाक यह भी है कि फिल्म प्रचार सामग्री की प्रिंटिंग के लिए भी वह प्रसिद्ध रहा है। जाने कैसे दीपावली उत्सव के साथ जुआ खेलने की परम्परा जुड़ी है। एक ताश की बाजी में कुछ समय ब्लाइंड खेलने के बाद संजीव कुमार ने ताश देखें और जबल बाजी खेल दी। दरअसल उन्होंने ताश देखने का अभिनय मात्र किया था। यह पैतरा भी उस खेल का हिस्सा है।

विष्णु खरे ने तीन पत्ती खेल पर एक कविता भी लिखी है। एक अमेरिकन फिल्म में एक व्यक्ति ऊंचा दांव खेलता है और प्रतिद्वंद्वी पत्तो के शो की मांग करता है। वह कहता है कि उसके पास तीन बादसाह है। दो बादशाह वह दिखाता है और कहता है तीसरा बादशाह तो वह स्वयं ही है। अमेरिका में तीन पत्ती की जगह पोकर खेला जाता है। खेलते समय ताश देखकर अपने चेहरे को भावविहिन बनाए रखना होता है ताकि अन्य खिलाड़ी आपके पत्ते का अनुमान न लगा सकें। इसी कारण अभिनय क्षेत्र भी भावशून्य कलाकार को पोकर चेहरे वाला कलाकार कहा जाता है। पत्तो के खेल पर फिल्म 'सत्ते पे सत्ता' में गुलशन बावरा ने गीत लिखा था 'दुक्की पे दुक्की हो या सत्ते पर सत्ता, गौर से देखा जाए तोबस है पत्ते पर पत्ता, कोई फरक नहीं अलबत्ता'।

खबर है कि 'सत्ते पे सत्ता' का नया संस्करण भी बनाया जा रहा है। मूल फिल्म में अमिताभ बच्चन की दोहरी भूमिका थी। अंतरिक्ष में अन्य ग्रहों से दीवाली के समय भारत को देखने पर उन्हें यह भ्रम हो सकता है कि पृथ्वी पर एक उजास का पिंड है , जहां से प्रकाश आयात किया जा सकता है। हम तो अंधकार का निर्यात भी कर सकते हैं। हमारा दुनिया की सबसे बड़ी मंडी होना ही हमारी सुरक्षा की गारंटी मानी जा सकती है।