दीपावली / शशि पुरवार
दो नन्ही मायूसी भरी नजरे, सामने बंगले पर हो रही आतिशबाजियों को देख रही थी। माँ श्याम को इस तरह बाहर खड़े देखकर पीड़ा से भर गयी और बोली ----
“बबुआ यह हमारा नसीब नहीं है, हमें तो भर पेट खाना भी नसीब नहीं होता है, यह बड़े लोगो के शौक है, पता नहीं कितनी बर्बादी करते है पैसे की।“
माँ की आवाज में बेटे का दर्द साफ़ नजर आ रहा था। एक कोशिश थी समझाने की परन्तु श्याम कुछ नहीं बोला, वह दूर से ही रंगीन अतिश्बजियाँ देख कर दिवाली मनाता था। गुस्से से उसने खाना नहीं खाया और जाकर चुपचाप सो गया।
सुबह उठकर झोपड़े से बाहर निकला तो उसके कदम सड़क की ओर बढ़ गए जहाँ रात आतिशबाजी हुई थी। सड़क पर जले हुए पटाखे के टुकड़े और कागज बिखरे पड़े थे, वह कागजों के ढेर को पैर से मार मार कर इधर उधर बिखेर रहा था जैसे कि अपना गुस्सा उन पर निकाल रहा हो। पर अचानक उसके कदम रूक गए और अधरों पे मुस्कान बिखर गयी, उसने देखा एक अधजला पटाखा पड़ा हुआ है, जल्दी से उसने वह पटाखा उठा लिया और फिर उसकी नजरे हर ढेर में कुछ ढूंढने लगी ।
कई अधजले पटाखे, बम व फुलजड़ी उसे मिल गए, प्रसन्नता के भाव उसके चेहरे पर आ गए, जल्दी से घर जाकर माँ से बोला --
“माँ, देखो इस बार हम भी दीपावली मनाएंगे।“