दीपिका पादुकोण की सामाजिक चिंता / जयप्रकाश चौकसे

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दीपिका पादुकोण की सामाजिक चिंता
प्रकाशन तिथि :10अक्तूबर 2017


दीपिका पादुकोण ने दिमागी सेहत के प्रति जागरूकता का शंखनाद किया है और इसके लिए एक ट्रस्ट की स्थापना भी की है। भारत महान में फिल्म सितारे द्वारा उठाई बात का बहुत प्रचार हो जाता है। हजारों गांवों में बिजली नहीं है,सामान्य अस्पताल भी नहीं है और कहीं अस्पताल हैं तो डॉक्टर नहीं हैं, डॉक्टर हैं तो दवा नहीं है। दाल है तो रोटी नहीं है, ब्लाउज है तो साड़ी नहीं है। बहरहाल, अभावों का जिक्र भी वैचारिक संसार से निरस्त किया जा चुका है। चारों ओर हरा-हरा है, इस हरियाली को जो नहीं देख पा रहा है,उसे आंखों के डॉक्टर से परामर्श करना चाहिए। गालिब साहब का शेर है- उग रहा है दर-ओ-दीवार से सब्ज़ा 'ग़ालिब' हम बयाबां में हैं और घर में बहार आई है।' मुफलिसी के कारण रंग-रोगन नहीं कराने के कारण दीवारों पर काई जम गई है।

दिमागी सेहत दुरुस्त होने पर शरीर कई बीमारियों से बच जाता है। बकौल राज कुमार हिरानी हमें 'कैमिकल लोचे' से बचना चाहिए। खुशी की तलाश एक अहम बात है परंतु क्या सरकार द्वारा खुशी का मंत्रालय खोलने से कोई रास्ता निकल सकता है? इससे कुछ मंत्रियों और अफसरों को पैसा बनाने का अवसर मिल जाएगा। यात्रा भत्ता कागजों का अम्बार लग जाएगा। यह सारा मामला कुछ ऐसा है कि जो भीतर है वह हम बाहर खोजने जा रहे हैं। हम उस हिरण की तरह हैं, जो अपने भीतर बसी कस्तूरी की सुगंध को बाहर खोज रहा है। यही बात सिद्ध करता है 'अलकेमिस्ट' उपन्यास। इसका यह अर्थ नहीं है कि सरकार पर कोई दोष नहीं लगाया जा सकता। असमानता व अन्याय आधारित व्यवस्था भी खुशी के अभाव का कारण हो सकती है। किसको मुजरिम समझें, किसको दोष लगाएं। आनंद एल राय और मुदस्सर अजीज की फिल्म 'हैप्पी भाग जाएगी' की नायिका अपनी इच्छा के विपरीत ब्याहे जाने पर घर से भाग जाती है और अनचाहे अनजाने ही पाकिस्तान पहुंच जाती है। मजेदार और रोचक घटनाक्रम के अंत में वह मनचाहा पति भी पा जाती है और अपने वतन भी आ जाती है। इस फिल्म में संकेत है कि दोनों पड़ोसी देशों का अवाम खुशी की तलाश में भटक रहा है।

दशकों पूर्व गुलजार की फिल्म 'खामोशी' का सारा घटनाक्रम एक दिमागी खलल का इलाज करने वाला अस्पताल है, जहां एक संवेदनशील नर्स अपनी सेवा और प्रेम से मरीज को रोगमुक्त करती है। रोगी ठीक होने के बाद प्रेम को भूल जाता है। पूरी इलाज प्रक्रिया में नर्स की संवेदनाओं का इस्तेमाल होता है और फिल्म के अंत में नर्स स्वयं अपना दिमागी संतुलन खो देती है। अब वह अस्पताल में स्वयं एक मरीज है परंतु संवेदना का सेतु बनाने वाला कोई व्यक्ति वहां नहीं है। गौरतलब है कि कमल हासन अभिनीत 'सदमा' में नायक दिमागी असंतुलन वाली मरीज को अपने प्रेम से सेहतमंद कर देता है परंतु ठीक होते ही वह स्त्री उसके प्रेम को भूल जाती है। कमल हासन और श्रीदेवी ने विलक्षण अभिनय प्रस्तुत किया था। यह एक तरह से काउंटर क्लोज़र है। ज्ञातव्य है कि फ्रांस की विचारक सिमॉन द ब्वा ने काउंटर क्लोज़र अवधारणा प्रस्तुत की थी कि एक व्यक्ति अपने परिश्रम और त्याग से एक देश को आज़ाद करा देता है परंतु विजय के इस क्षण में वह मन ही मन जानता है कि वह सही जीवन मूल्य स्थापित करने में असफल हो गया है। महात्मा गांधी भी इसी सत्य से पीड़ित थे कि भारत स्वतंत्र हो गया है परंतु अहिंसा और भाईचारे के आदर्श विभाजन होते ही टूट गए हैं। वे अपनी हत्या के पूर्व ही अादर्श खंडित होने से मर चुके थे। अब इसे नाथूराम गोडसे की सफाई का आधार नहीं बनाना चाहिए कि उसने कोई हत्या की ही नहीं।

दिमागी संतुलन के डॉक्टर और नर्स भी अपना संतुलन खो सकते हैं। इसे चिकित्सा क्षेत्र का काउंटर क्लोज़र माना जाना चाहिए। वर्तमान काल में हमारी सुबह की प्रार्थना में यह शामिल करना चाहिए कि हे प्रभु शक्ति दे कि आज हम अपना दिमागी संतुलन बनाए रखें। इस दौर में गुजरात में एक दलित द्वारा मूंछे रखने पर उसे मार दिया गया गोयाकि दाढ़ी-मूंछें पर सवर्ण एकाधिकार है। राजस्थान में दलित दूल्हा घोड़ी पर बैठे तो उसे मार दिया जाता है।

भारत में हर एक क्षण में विगत सारी सदियां मौजूद होती हैं। आजकल बर्बरता का कालखंड बार-बार सतह पर आ जाता है। दूसरा पक्ष यह है कि दिमागी असंतुलन को भी सुरक्षा कवच नाया जा सकता है। सआदत हसन मंटो का एक पात्र विभाजन को अस्वीकार करते हुए जी रहा है। उसका खंडित आदर्श ही उसका संबल हो गया है। अगर आदर्श ईंधन है तो हमारी गाड़ी बिना ईंधन के मात्र ढलान के कारण चल रही है और इसे विकास कहा जा रहा है। बहरहाल, दीपिका पादुकोण ने महत्वपूर्ण मुद्‌दा उठाया है। खुशी है कि उनके सुडौल कंधों पर एक विचार करने वाला दिमाग भी है।