दीपिका पादुकोण को गुस्सा क्यों आया / जयप्रकाश चौकसे

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दीपिका पादुकोण को गुस्सा क्यों आया
प्रकाशन तिथि : 29 सितम्बर 2014


दीपिका पादुकोण के विषय में एक राष्ट्रीय अखबार के फिल्म पृष्ठ पर उनकी तस्वीर के नीचे कुछ लिख दिया कि "आेह माय गॉड, दीपिका क्लीवेज इज शोइंग' यह अंदाज-ए- बयां मखौल उड़ाने की तरह था। वक्ष स्थल की ऐसी हल्की सी झलक कि राह गुजरते आदमी का ध्यान भी नहीं जाए आैर जो लुच्चे लड़कियों को ताकते रहते हैं, ताड़ते रहते हैं वे तो सात परदों में छुपी लड़की भी देख लेते हैं। दीपिका काे वह वाक्य सख्त नापसंद आया आैर उन्होंने इसका पुरजोर विरोध किया। अगर वे विरोध नहीं करतीं तो वह लगभग अनदेखी सी रही टिप्पणी पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता। दीपिका के विरोध के बाद सोनम कपूर का यह कहना कि अपना शरीर ढांक के रखें तो कोई टिप्पणी नहीं करता। दरअसल सोनम को अनावश्यक रूप से बहुत बोलने का शौक है।

वे स्वयं करण जौहर निर्मित एक फिल्म में साहसी रहीं आैर 'खूबसूरत' में 'बम डोले' पर भी इठला चुकी हैं अखबारी कागज से ये 'जंग' ट्विटर आैर फेसबुक के वैकल्पिक संसार में पहुंच गया। अखबार की आेर से भी जवाबी हमले हुए। शाहरुख खान दीपिका के पक्ष में खड़े हो गए। कोई आैर बेहतर तमाशा उपलब्ध नहीं होने के कारण यह अनावश्यक जंग कई सतहों पर जारी है। इस तरह का प्रकरण कही भी हो, सेंसर के ढीले होने के मुकाम पर पहुंच जाता है। नैतिकता आैर संस्कृति की रक्षा का ठेका लिए लोग इसी तरह के मौके की तलाश में रहते हैं। बहरहाल दीपिका की इस प्रतिक्रिया का कारण उसका मूड खराब होना भी हो सकता है। टिप्पणी गलत आैर अभद्र थी- यह सही है परंतु दीपिका एक सितारा होने के नाते अनावश्यक फब्तियों की आदी होगी। सितारों के बिगड़े दिल आशिक उलूल-जुलूल हरकतें करते ही रहते हैं। फिल्म सेट पर भी ताका-झांकी होती रहती है। आम जीवन में भी महिलाएं इस तरह की ताका-झांकी को सहन करती हैं। लोकल ट्रेन आैर भीड़ भरी बसों में अनजाने लोगों द्वारा जानकर किए गए स्पर्श से आत्मा लहुलूहान होती है। आमिर द्वारा प्रस्तुत 'सत्यमेव जयते' के पांच अक्टूबर से प्रारंभ होने वाले सत्र के प्रचार के लिए रचे गए प्रोमो बहुत ही संवेदनशील संकेत दे रहे हैं। एक प्रोमो में बस कंडक्टर एक ताकने वाले पैसेंजर से कहता है कि 'सत्यमेव जयते' देखना ना भूले। वह अपरोक्ष रुप से ताका-झांकी करने वाले को आगाह कर रहा है। इसी तरह एक सरकारी दफ्तर में रिश्वत की पेशकश करने वाले को कहा जाता है कि वह 'सत्यमेव जयते' देखना ना भूले। सारांश यह कि सामाजिक मुद्दे उठाने वाले कार्यक्रम के प्रोमो भी सार्थक हैं। इससे यह अनुमान लगाना ठीक नहीं कि कोई एपिसोड ताका-झांकी पर होगा।

सामाजिक बुराइयां अलग-अलग होने के बावजूद उनमें एक समानता यह है कि सबकी जड़ में अशिक्षा, अंधविश्वास एवं जीवन मूल्यों का अभाव है। रोग शरीर के किसी भी भाग में कैसा भी हो, पूरा शरीर ही शिथिल पड़ जाता है। पेन्क्रियाज की कमतरी से उत्पन्न मधुमेह के रोगी के पैर में फुंसी-फोड़ा होना खतरे की अग्रिम सूचना होती है। क्या समाज भी इस तरह के संकेत भेजता है? समाज के भेजे संकेत हम अनदेखा कर देते हैं? किस तरह का सिनेमा देखा जा रहा है, यह भी एक संकेत है। यह कितने अचरज की बात है कि आनेवाली प्राकृतिक आपदाआें के संकेत को पशु-पक्षी मनुष्य से पहले समझ जाते हैं। दीपिका प्रकरण साधारण सा दिखता है परंतु मीडिया का सनसनीखेज होना भी संकेत है आैर दीपिका पादुकोण के भड़कने को तमाम आैरतों के गुस्से का संकेत भी माना जा सकता है। आम जीवन में हमेशा संजीदा नहीं रहा जाता। शरारत आैर हंसी, ठहाका आवश्यक है। इसी तरह कुछ ताका-झांकी महज शरारत हो सकती है।

सं‌भवत: दीपिका को यह बुरा लगा कि वह चित्र कतई अश्लील नहीं था आैर शरीर का कोई अंग दिख भी नहीं रहा था परंतु टिप्पणी में आेह माय गॉड कुछ बहुत बड़ी बात का संकेत देता है। वह चित्र नहीं टिप्पणी से नाराज है। यह भी संभव है कि उस अखबार से जुड़े कुछ पत्रकार दीपिका के प्रति कभी आक्रामक रहे हैं आैर यह छेड़छाड़ के लंबे सिलसिले का एक हिस्सा है। सब्र का बांध छोटी सी बात से भी टूट सकता है। किसी ऊंट पर बहुत वजन लादा गया हो आैर एक तिनका रखते ही ऊंट बैठ जाता है। फिल्म पत्रकारिता के गिरते हुए स्तर को सभी देख रहे हैं। जब किसी के पास कहने को ठोस कुछ नहीं है तो वह 'क्लीवेज' ही देखता है।