दीप्ति नवल के साथ परिचर्चा / दीप्ति गुप्ता
१) दीप्ति गुप्ता - सामाजिक दायित्व को आप किस तरह व्याख्यायित करेगे ?
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२) दीप्ति गुप्ता - क्या आपकी नज़र में फिल्मों का सामाजिक दायित्व है?
दीप्ति नवल - फ़िल्में समाज को ‘रिफ्लेक्ट’ करती हैं। जो भी समाज में घट रहा है, वही सब फिल्म निर्माता फिल्मों में दिखाते हैं। फिल्म को निश्चित रूप से कुछ ‘सब्सटेंस’ दर्शकों को देना चाहिए। मनॉरंजन के लिए अधिक लोग फिल्म बनाते है और देखने वाले अधिक दर्शक भी इसी दृष्टि से फ़िल्में देखने जाते हैं। मनॉरंजन के साथ निर्माता निर्देशक को चाहिए कि कुछ ‘सब्सटेंस’ भी दें और समाज की जो सोच है, उसमे फिल्म के द्वारा कुछ विचार जोड़ें।
फ़िल्में सामाजिक जिम्मेदारी इस तरह निभाती हैं कि समाज जो बुराईयाँ व समस्याएँ है जैसे विडो प्राब्लम, चाइल्ड मैरिज, चाइल्ड एब्यूज, करप्शन, उन्हें दिखा कर, उनके प्रति समाज को ‘अवेयर’ यानी जागरूक बनाती हैं। इन बुराईयों और समस्याओं के बारे में गंभीरता से सोचने के लिए प्रेरणा देंती हैं।
३) दीप्ति गुप्ता - क्या फिल्म निर्माता और निर्देशक सच्चाई और इमानदारी के साथ अपने ‘सामाजिक दायित्व’ का निर्वाह कर रहें हैं?
दीप्ति नवल - जो भी समाज में घट रहा है, फिल्म निर्माता फिल्मों में वही सब दिखा कर, सामाजिक दायित्व’ का निर्वाह कर रहें हैं।
४) दीप्ति गुप्ता - यदि कर रहे हैं तो उन फिल्मों के बारे बताइए, जिन्होंने समाज को सही दिशा देने में अपना दायित्व बखूबी निभाया है।
दीप्ति नवल - कमला, बवंडर, दामुल।
५) दीप्ति गुप्ता - पिछले कुछ वर्षों से निर्माता और निर्देशक सामाजिक सन्देश से रहित, उद्देश्यविहीन व ‘यथार्थ के घिसे-पिटे सांचे में ढली’ फ़िल्में दर्शकों को दे रहें हैं तो इसका कारण और निदान – दोंनो के बारे में आपका क्या कहना है ?
दीप्ति नवल - जैसा कि फ़िल्में समाज को ‘रिफ्लेक्ट’ करती हैं, जो भी समाज में घट रहा है, वही सब फिल्म निर्माता फिल्मों में दिखाते हैं। इनसैसट (घरेलू व्यभिचार), एक्सट्रामैरिटल रिलेशन, चाइल्ड मैरिज, चाइल्ड एब्यूज समाज में पहले से होता आया है। पहले ये घटनाएं सिर्फ अखबारों या रेडियो आदि से समाज वालों को पता चलती थी, आज फिल्में इन सब वारदातों को खुल कर दिखाने लगी हैं, इसलिए आज लोंगो को लगता है कि उद्देश्यविहीन व ‘यथार्थ के घिसे-पिटे सांचे में ढली’ फ़िल्में बन रही हैं। समाज इस तरह जो सैक्सुअल अपराध छिपाता आया है, उसे फिल्म निर्माता परदे पर एक्स्पोज़ कर रहें हैं तो दर्शकों को लगता है कि आज फिल्मों में सैक्स, हिंसा के सिवाय कुछ दिखाया ही नहीं जाता।
4) दीप्ति गुप्ता - क्या निदेशन-कला कि यह खूबी नहीं होनी चाहिए कि यथार्थ जैसा कि हम सब जानते हैं – हमेशा से नंगा, कलुष और निकृष्ट होता है, - उसके कुपरिणामों को दर्शित कर, आदर्श रूप – जो हमेशा से उदात्त, स्वच्छ और उजला होता है – उसका सन्देश दर्शकों को, समाज को दे ?
दीप्ति नवल - रिएलिटी तो निर्माता- निदेशक दिखा ही रहे हैं, उसके साथ जैसा कि मैंने कहा - कुछ ‘सब्सटेंस’ भी समाज को मिलना चाहिए, जिससे दर्शकों की सोच में कुछ नया जुड़े।