दीया और दीवट / राजेन्द्र वर्मा
दीया हमें प्रकाश देता है। दीवट प्रायः लकड़ी का बना स्टैंड होता है जो अपने सिर पर दीया रखता है।
जीवन-भर उजाला बाँटने में सहायक दीवट स्वयं अँधेरे में रहता है। वह प्रकाश से वंचित रहता है। इन वंचना के अतिरिक्त वह हेय दृष्टि से भी देखा जाता है। दीया, जो दीवट के सिर पर बैठता है, प्रकाश देने के कारण सम्मान पाता है। वह दीवट को दास बनाकर भी प्रतिष्ठा पाता है।
दीया और दीवट, दोनों यद्यपि प्रकाश देने का कार्य करते हैं, तथापि ये दो वर्गों में विभाजित हैं—ऊपर वाला और नीचे वाला! ऊपर वाला वह है जो अभिजात है, सम्मानित है और नीचे वाला वह जो जातीय अस्मिता से च्युत है, उपेक्षित है। संसार में हर कोई किसी-न-किसी वर्ग में विभाजित है—कोई दीया है तो कोई दीवट। सुख-समृधि का उजाला बाँटने में दोनों की अपनी-अपनी भूमिकाएँ हैं, पर किसी के हिस्से में उजाला है, तो किसी के हिस्से में अँधेरा। कोई संपन्न है तो कोई विपन्न, कोई स्वामी है तो कोई दास!
यह व्यवस्था प्राकृतिक है अथवा मानवजन्य, कहना कठिन है; पर दीवट चाहकर भी दीये की दासता नहीं त्याग सकता। वह प्रय्तेक परिस्थिति में, घर को दीप्त करने का कर्तव्य से बँधा है। दीया भी विवश है। वह अपने दास को मुक्त नहीं कर सकता। उसे कर्त्तव्य-पालन तथा प्रतिष्ठा, दोनों की रक्षा करनी है। वह घर के मालिक का चहेता है। घर के और लोग भी उसके साथ हैं। दीवट की तुलना में वह अति महत्त्वपूर्ण है। आधुनिक भाषा में वह वी.आई.पी. है। उसे प्रकाश देने का गर्व है। उसका अपना रुतबा है। दीवट उसका सहयोगी अवश्य है, पर उसका अधीनस्थ है। अधीनस्थ, अधीनस्थ होता है, वह सम्मानीय कैसे हो सकता है?
दीया स्वयं को न केवल कुलीन और उच्चवर्गीय मानता है, बल्कि व्यवस्था से मनवाता भी है। वह कुलीनता का मूल्य भी वसूलना जानता है। वह प्रचारित करवाता है कि वह हवा से साँठ-गाँठ कर बुझ सकता है; अँधेरे का राज करवा सकता है! ... हाहाकार मचा सकता है—यह उसकी बौद्धिक क्षमता है। उसकी क्षमता की चमक-धमक दूर-दूर तक है। वह 'आतंकवादी भयादोहन' दुर्गुण को अपने सद्गुणों में सम्मिलित करवा चुका है। किसी मज़ाल नहीं कि इसे चुनौती दे! वह गर्वोन्मत्त हँसी हँसता है, 'मुझे तो अँधेरा भगाने में मज़ा आता है।' वह अन्धकार दूर करना का मुहावरा बन चुका है। मीडिया तक उसके आगे नत मस्तक है। कवी-लेखक, सब उसके ही गुण गाते हैं। ... लेकिन दीया भूल रहा है कि उजाला करने की जो प्रतिष्ठा उसने अर्जित की है, उसमें दीवट का भी हाथ है। पर वह उसकी परवाह नहीं करता।
वास्तव में दीया वर्ग भेद का शिकार है। उसे डर है कि यदि उसने दीवट को उसका हक़ दिलाने में उसका साथ दिया तो वह उच्चवर्गीय नहीं रह जाएगा। उसकी अस्मिता, कुलीनता और प्रास्थिति ख़तरे में पड़ जाएगी। वह सत्ता-व्यवस्था की दृष्टि में गिर जाएगा और व्यवस्था में उसके उच्चवर्गीय होने का जो स्पेस सुरक्षित है, वह समाप्त हो जाएगा। वह चाहकर भी न्याय के पक्ष में नहीं खड़ा हो सकता। कुलीनों की यही विवशता है। उनके चमकदार व्यक्तित्त्वों में प्रायः बुझी हुई आत्माएँ रहा करती हैं।
प्रकाश-वितरण के मामले में लोकतंत्र उलट गया है। वह 'तंत्रलोक' बन गया है—तंत्र पहले, लोक बाद में। दूसरे शब्दों में हम इसे तंत्र का लोक भी कह सकते हैं। पर, इस उलटबासी से किसी को कोई शिकायत नहीं है; क्षुब्धता तो कदापि नहीं। दीये ने अपना नाता सूर्य से जोड़ रखा है और शायद सूर्य ने भी दीये को अपना प्रतिनिधि मान लिया है। इसीलिए 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' में संसार ने यह मान लिया है कि उसे दीये ही से काम है, दीवट से नहीं।
छोटे किसान, श्रमिक, मिलों के कामगार, रिक्शेवाले, ठेलेवाले, खोमचेवाले, फेरीवाले, कुली-पोर्टर्स, ढाबों-होटलों में जूठी प्लेटें धूने वाले—ये सब दीवट ही तो हैं जो महाजनी दीये के अधीन देश को विकास का उजाला बाँटते हैं, पर स्वयं अँधेरे में रहते हैं। उन्हें दीये के नीचे ही रहना है, वे उसके सिर पर नहीं बैठ सकते। सिर पर बैठना तो छोड़िए, वे उनके बराबर नहीं बैठ सकते। और-तो-और, वे ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकते। ...यही प्राकृतिक नियम है और ईश्वरीय विधान है। तभी तो यह सभ्यता का प्रतीक है, संस्कृति का आधार है और सदियों पुरानी परंपरा है।
हाँ, ठीक है। पर परम्परा का निर्वाह करते हुए दीवट अपना हक़ तो माँग ही सकता है। दीये के नीचे रहते हुए उसे कम-से-कम इतनी सुविधा तो मिलनी ही चाहिए कि उसकी नियमित झाड़-पोंछ हो, कभी-कभार रंग-रोगन हो। सिर पर दीये की गर्मी से बचने का टोप हो। पैरों को सीलन से बचाने के लिए पक्की ईंटों का चबूतरा हो। ... इन आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ती से वह 'वंचित' की श्रेणी में नहीं रहेगा। उपेक्षा का दंश नहीं सहेगा। अपनी अस्मिता की रक्षा कर सकेगा। उसकी संतानें हीनता के कूप में नहीं गिरेंगी। वे अपने पूर्वजों पर गर्व कर सकेंगी।
लेकिन सुविधाएँ माँगने से नहीं मिलतीं, साधिकार प्राप्त की जाती हैं। वैसे भी सुविधाएँ दासों को नहीं दी जातीं। उन्हें यदि सुविधाएँ चाहिए, तो वे दासता से छुटकारा पाएँ! पर, दासता से छुटकारा पाना आसान है क्या? इसके लिए आंदोलन की आवश्यकता है; क्रांति की आवश्यकता है। क्रांति के लिए जन-बल और धन-बल की आवश्यकता है। ऊपर वाले और नीचे वाले वर्गों के मध्य में जो वर्ग है, उसके समर्थन और सहयोग की आवश्यकता है। परन्तु मध्यवर्ग दीवट की मदद क्यों करेगा? उसे तो व्यवस्था से कोई शिकायत नहीं। उलटे, व्यवस्था द्वारा बाँटी जाने वाली रेवड़ी में उसका हिस्सा बँधा हुआ है। वह दीवट के साथ क्यों जाने लगा? उसे इसमें घाटा-ही-घाटा है—उपेक्षा की आशंका, विपन्नता की आशंका! चिकनी-चुपड़ी छोड़ सूखी रोटी पर कोई जीवन-मूल्यों का चरखा क्यों काते? उसे तो दीये के साथ ही सुभीता है, निश्चिन्तता है।
मूलभूत सुविधाएँ न मिलने से असंतोष जन्मता है और जब वह गहराता है तो क्रान्ति होती है। कम-से-कम इतिहास तो यही बताता है। दीवट यदि क्रान्तिकारी हो गया तो व्यवस्था चरमरा जाएगी; अँधेरे के पौ बारह हो जाएंगे और चारों ओर कुव्यवस्था फैल जाएगी। तब दीये की कुलीनता भी संकटग्रस्त हो जाएगी और सभी का जीना दूभर हो जाएगा। ... बेहतर यही है कि ऐसी स्थिति नहीं आने पाए, लेकिन उसके लिए सत्ता को यह सुनिश्चित करना होगा कि दीवट को उसका हक़ मिले।
कुछ लोग दीवट के मिलने वाले हक़ पर सवाल उठाते हैं। वे ईश्वरीय विधान की दुहाई देते हैं, भाग्य और परंपरा की बात करते हैं। लेकिन सवाल अपनी जगह है: क्या दीवट को उसका हक़ नहीं मिलना चाहिए?