दीये की लौ की कंपन और विज्ञान / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 20 अक्टूबर 2014
कुछ विदेशी फिल्म पर्यवेक्षकों का कहना है कि कथा फिल्म अपनी दूसरी सदी में मर जाएगी। सिनेमा के आगमन से रंगमंच, सर्कस, नौटंकी, जात्रा इत्यादि के प्रशंसक कम हो गए। सिनेमा में उपरोक्त विधाओं के प्रभाव मौजूद हैं। रितुपर्णो घोष की अमिताभ बच्चन अभिनीत "द लास्ट लियर' में रंगमंच बनाम सिनेमा तथा सर्कस की समाप्ति के स्पष्ट संकेत हैं। अब प्रश्न यह है कि सिनेमा का विकल्प क्या होगा। सिनेमा मौजूद होगा परंतु दर्शकों तक सिनेमाघर के अतिरिक्त अन्य माध्यमों से पहुंचेगा। दरअसल सिनेमा से सितारों की रुखसती का भय ही उसके समाप्त होने की शंका का कारण है। सितारों के लिए उन्माद ही सिनेमा के अर्थशास्त्र की रीढ़ की हड्डी है। सितारों का आकर्षण पश्चिम में खत्म हो सकता है। यूरोप में खत्म हो चुका है परंतु भारत में यह कभी भी समाप्त नहीं होगा, क्योंकि सिनेमा की तरह राजनीति और अन्य क्षेत्रों में भी सफलता सितारे के गिर्द रची जाती है।
भारत की राजनीति सितारा आधारित रही है। आज कांग्रेस एक सिताराहीन दल है और भाजपा ने अपना सितारा गढ़ लिया है। सारी लोकप्रियता सच्ची-झूठी अफवाहों पर आधारित होती है और इसका विज्ञान भी है। हमारी अवतारवादी अवधारणा इसकी जड़ में फैली है। भारत जैसे कथा वाचकों और श्रोताओं के देश में सिनेमा समाप्त नहीं होगा। सिनेमाघर आधुनिक चौपाल है जहां कथाएं चलती रहेंगी। दूसरी बात यह कि भारत में कोई चीज वह चाहे अच्छी हो या बुरी, कभी खत्म नहीं होती, इसीलिए वह चिरंतन देश है। इसी देश में वर्तमान क्षण में विगत सारी सदियां मौजूद होती हैं। बहरहाल कम्प्यूटर ग्राफिक्स एनीमेशन से सितारे की शक्ल का पात्र गढ़ा जा सकता है और ऐसी फिल्म भी रची जा सकती हैं, जिसमें सितारे ने एक दिन भी शूटिंग नहीं की है। इस तरह की फिल्म में बाधा यह है कि मनुष्य के चेहरे के बदलते भाव यह विधा पकड़ नहीं पाती। इस बाधा काे पार करने के लिए नई विधा "परफॉर्मिंग कैप्चरिंग टेक्नोलॉजी' का उदय हुआ है।
एक सितारे के शरीर की हर मांसपेशी, नजर का उठना-गिरना इत्यादि कंप्यूटर पर पकड़ने के लिए अनेक तार उसके शरीर से जोड़े जाते हैं और विभिन्न भाव एवं रस की अभिव्यक्ति के निर्देश दिए जाते हैं। इस प्रक्रिया की रिकार्डिंग को अपनी लायब्रेरी में संकलित किया जाएगा और मशीनों से जन्मी फिल्म में इसका प्रयोग किया जाएगा ताकि सितारा भाव अभिव्यक्त करता हुआ असली मनुष्य लगे गाेयाकि सितारा-रोबो- छवि, भाव भी अभिव्यक्त करेगी। मेरी शंका यह है कि सितारे के शरीर से चिपके या भीतर छुपे हुए यंत्रों के कारण उसकी भावाभिव्यक्ति स्वाभाविक नहीं हो सकती और सामने मौजूद कलाकार की प्रतिक्रिया का अभाव भी उसे अस्वाभाविक बना देगा। अत: बैंक में संचित भाव अस्वाभाविक लगेंगे। टेक्नोलाॅजी से रचे रोबो कार्यकुशल होते हैं परंतु वे मनुष्य नहीं है, यह बात हमेशा याद रहती है। पत्नी चाय बनाती हैं, हर बार दूध, पत्ती का मिश्रण समान नहीं होता परंतु रोबो नापतौल कर सही मिश्रण बना भी ले तो उस चाय और पत्नी द्वारा बनाई निरंतर बदलते स्वाद वाली चाय में अंतर होता है। रोबो के पीठ खुजाने और पत्नी के सहलाने का अंतर कोई विज्ञान पाट नहीं सकता। मनुष्य के मन की चपलता भला रोबो कैसे प्रस्तुत कर सकता है। मनुष्य के शारीरिक स्पर्श में भी अंतर होता है, कौन सा स्पर्श मशीनवत है यह समझा जा सकता है। मनुष्य की अपनी स्वतंत्र निजता कभी रोबो में आरोपित नहीं की जा सकती। विज्ञान फंतासी में जरूर इस तरह की फिल्में बनी हैं कि मनुष्य की निरंतर संगत रोबो का मानवीकरण करती है। परंतु चिंता का विषय है रोबो उपलब्ध नहीं होने पर भी मनुष्य का मशीनीकरण होता जा रहा है, संवेदनविहीन मनुष्य बनता जा रहा है।
फिल्म में नायिका के हाथ का दिया बैटरी से संचालित बल्ब होता है, परंतु इस मशीनी दिये की लौ स्थिर रहने के कारण मृतप्राय लगती है, जबकि असली दिये की लौ हवा के कारण कांपती है और यह कंपन ही उसे जीवित होने का भाव देता है। आप दीवाली पर बिजली की कमी के बावजूद इलेक्ट्रिक लड़ियों से घर सजाते हैं परंतु माटी के दिये की थरथराती लौ में जो दिव्यता है वह उन बेजान मशीनी लड़ियों में कहां से आएगी। सिनेमा के जन्म के समय दार्शनिक बर्गसन की टिप्पणी कि मशीनी कैमरा मानव मस्तिष्क के कैमरे के सामंजस्य से फिल्में बनेंगी उनके लिए अनगिनत दर्शक उपलब्ध होंगे, अत: सिनेमा की मृत्यु की शंका निराधार है, परफॉर्मिंग कैप्चरिंग टेक्नोलॉजी से भावों का भंडार बनाना भी असली भाव नहीं दे सकता।