दीवारों में चिनी चीखों का महाप्रयाण / सुधा अरोड़ा
मैं जब भी यहाँ, अपने मायके कलकत्ता आती हूँ, इस कमरे के बिस्तर के इस किनारे पर जरूर लेटती हूँ - जहाँ माँ लेटा करती थीं क्योंकि यहाँ से सामने दिखती रसोई है। रसोई में पकता खाना, वहाँ हो रहे सब क्रिया-कलाप यहाँ लेटकर दिखाई देते हैं... और बिस्तर के ठीक सामने लगे ड्रेसिंग टेबल के लंबे आईने में दाहिनी ओर का कमरे का डाइनिंग टेबल और वहाँ आते जाते लोगों को भी देखा जा सकता है। अब पलंग के इस किनारे पर माँ की जगह मैं हूँ और जब कभी आईने में अचानक अपने चेहरे पर निगाह चली जाती है तो चौंक जाती हूँ क्योंकि मुझे अपने चेहरे पर अपनी माँ का अक्स दिखाई देने लगता है। माँ अब खिड़की पर लगे परदे के ऊपर वाली दीवार पर लगी तस्वीर में रहती हैं और जब जब मैं यहाँ इस घर में आती हूँ तो वे मेरी आँखों में उतर कर अपने इस बहुत प्यारे घर-संसार को देखती हैं।
माँ की जान बसती थी इस घर में। घर के रख रखाव, साफ सफाई में - मजाल कि कहीं धूल का एक कण भी रह जाए। शरीर में ताकत दिन पर दिन कम होती जा रही थी पर सुबह उठकर माँ की कसरत यही थी - हाथ में झाड़न लिए जब तक थक कर निढाल न हो जाएँ, अपने घर की धूल झाड़ते रहना। माँ को देखकर काम करने वाले भी घर सफाई में मुस्तैदी दिखाते और घर हमेशा चमकता रहता।
...और माँ की जान बसती थी अपने बच्चों में। उन बच्चों में कम जो दुनियावी नजर में सफल हैं, उन बच्चों में ज्यादा, जो किसी वजह से जिंदगी की दौड़ में पीछे छूट गए और आगे बढ़ने वालों भाई-बहनों ने उन्हें रुक कर नहीं देखा। माँ वैसे बड़ी मजबूत कलेजे वाली थीं। किसी बच्चे की हड्डी टूट गई और हाथ कलाई से नीचे झूलने लगा या किसी बच्चे का खेलते खेलते घुटना लहूलुहान हो गया या सिर फट गया और टाँके लगवाने डॉक्टर के पास ले जाना पड़ा तो वे बगैर हिम्मत खोए फटे माथे से खून बहते बच्चे के सिर पर दुपट्टा बाँधकर गोद में उठाए रिक्शा लेकर अकेली अस्पताल के लिए चल पड़तीं। पर पिता या पाँच बेटों में से कोई बेरुखी से बात करता या डाँट फटकार देता तो उन्हें अपने आँखों से बहती गंगा जमुना को भीतर कस कर बाँध लेने में जो मशक्कत करनी पड़ती थी, वह अंततः उनके नाजुक से दिल को कमजोर करती चली गई क्योंकि उनके जिगर का वह हिस्सा बड़ा नाजुक था जो बार बार अपने पति और अपने बेटों से हलाल होता रहता था। इतना कि आखिर डॉक्टर ने कहा कि माँ की बाईपास सर्जरी नहीं हो सकती - नसें बहुत पतली हो गई हैं। बस, आप इन्हें कोई सदमा न दें वर्ना यह भुरभुरे कागज सी देह हैं, जरा सा झटका बर्दाश्त नहीं कर पाएँगी। पर इतने लंबे चौड़े परिवार में ऐसा एहतियात मेरे समेत किसी ने न बरता कि वह बेशकीमती भुरभुरा कागज सही सलामत रहे। मुझे तो उनके जाने के बाद पता चला कि डॉक्टर ने यह कहा था।
घर में अपने पति और पाँच बेटे यानी छह मर्दों के नाज-ओ-नखरे, अनुशासन झेलती और एक अर्द्धविक्षिप्त बेटी को बेबसी से निहारती, अकेली औरत माँ ने अपने को खुद ही इन भावनात्मक धक्कों से सहेज सँभाल कर रखने की भरपूर कोशिश की... पर एक दिन अपने दामाद के सांत्वना भरे दो शब्दों और कंधों पर हल्की सी छुअन से माँ ऐसे धाड़ें मार मार कर रोईं जैसे बरसों का दबा हुआ दुख उनकी छाती से फूट फूट कर बाहर आ रहा हो। माँ की उन चीखों में अचानक बिजली की कौंध सी शामिल हो गई थी - बरसों पहले सुनी मौसी की चीखें। ऐसे ही एक बार मेरी इकलौती तोश मौसी अपनी बड़ी बहनजी के कलेजे में दुबक कर चिंघाड़ कर रोई थीं जैसे घर में कोई मौत हो गई हो। उस दिन उन चीखों ने मुझे दहला दिया था। तब भी, और आज भी उन्हें याद करके, सीने में कुछ नसें सिकुड़ने सी लगती हैं।
उस दिन की चीखें इसी कमरे के, इसी बिस्तर के आस पास की दीवारों में भीतर तक समा गईं थीं - हमेशा हमेशा के लिए। कभी दीवारों से बाहर नहीं आई। आज भी वे चीखें दीवारों में चिनी हुई वहीं बैठी है। ...और मेरे बिस्तर पर लेटते ही वे दीवारों से निकल निकल कर मेरे सिरहाने आकर बैठ जाती हैं।
'भाबी जी, यह कोई बात है भला? आप जब आते हो, तो मुझे और इंदु को हाथ में रुपए पकड़ा कर जाते हो। अब तो हमलोग बड़े हो गए हैं। बीजी दे देती हैं न!' मैं अपनी नानी - जिन्हें माँ, मासी, मामा से लेकर हम सब बच्चे भाबी जी ही कहते थे - को वापस रुपए पकड़ा देती।
माँ इशारा करतीं - रख ले। हम फिर नानी से उलझते - 'भाबी जी, देने ही हैं तो फिर दिल खोलकर दो, इतने कम क्यों, थोड़े और दो ना' फिर हम दोनों बहनें नानी का पल्लू पकड़ लेते - 'आज का दिन और रुक जाओ ना भाबी जी।'
'मेरी सब सम्ज आता है कुड़ियों, छेड़ती हो मैनूँ। तेरी माँ बड़ी पैसे वाली है पर मैं धी के घर रोटी खाकर क्यों सिरे पाप चढ़ाऊँ। बस, इत्ते ई बथेरे। फड़ लै!' नानी अपनी मौलिक पंजाबी मिश्रित हिंदी भाषा में हम बच्चों से बात करतीं और हम दोनों बहनें शरीफ बच्चों की तरह नानी से नोट लेकर अपनी बीजी के हाथ पकड़ा देते।
नानी का यह बंदोबस्त नया था। पहले जब भी वह हमारे घर रहने आतीं तो अपनी रोटियाँ रूमाल में बाँधकर लातीं। ...और रात होने से पहले पहले अपने घर वापस लौट जातीं। बीजी उन्हें बहुत समझातीं - 'बेटी के घर रोटी खाने से बाबाजी के दुआरे हिसाब नहीं देना पड़ेगा, आप चुपचाप दो रोटियाँ खा लिया करो। अब जमाना बदल गया है।' पर नानी का जमाना बदलने में अभी देर थी। वे भड़क जातीं।
'अरे, मुझे किसी का डर पड़ा है। मैं तो अपने मारे नहीं खाती। मेरा दिल गवाही नहीं देता।' ...खैर, फिर उनके नाती नातिनें ज्यादा बीमार-शीमार पड़ने लगे तो उनके दिल ने गवाही देनी शुरू कर दी। रात को रुक जाने के लिए घर की पकी दाल रोटी उन्हें खानी ही पड़ती थी क्योंकि बाहर का खाना उन्हें हजम नहीं होता था। अपनी बेटी के साथ उन्होंने एक कॉन्ट्रैक्ट किया कि वे जितनी बेला खाना खाएँगी, उसके नगद पैसे हाथ में थमाकर जाएँगी, तभी बेटी के घर का रोटी का निवाला उनके पेट में जाएगा वर्ना पुराना सिलसिला बदस्तूर जारी रहेगा - रोटी के टेम वो घर लौट जाया करेगी। माँ को हाँ कहना ही पड़ा। कम से कम नानी टिककर एक दो रात रह तो सकती थीं। हम बच्चे थोड़े बड़े हो गए तो यही वो मासी के साथ करने लगीं। मासी के बच्चे - चार बेटियाँ और एक बेटा - छोटे थे और उन्हें भी नानी की जब तब जरूरत पड़ती रहती थी। नानी के हमारे घर रुकने से घर की रौनक बढ़ जाती थी। उनके साथ हम भी सिर हिला हिलाकर जपुजी साहब या सुखमनी साहिब का पाठ करते -
जह महा भइयान दूत जम दलै
तह केवल नाम संगि तेरे चलै
जह मुसकल होवै अति भारी
हरि को नाम खिन माँहि उबारी।
माँ, जिन्हें हम बीजी कहते थे, का जन्म लाहौर के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। मेरे नाना सरदार थे। माँ अपनी भाबो और बापू की खास लाड़ली बेटी थीं क्योंकि उनसे पहले नानी की तीन संतानें पैदा होने से पहले ही गुजर गई थीं। जब माँ पैदा हुईं तो परनानी ने नवजात बच्ची को माथे से छुआ कर कहा - तेरे ही नाँव वाहेगुरू! माँ का नाम ही वाहेगुरू पड़ गया। उसके बाद नानी के एक बेटा और एक बेटी और हुए। माँ से आठ साल छोटी बहन का नाम रखा गया - सतनाम। मेरी मौसी सतनाम कौर। माँ और मौसी के बीच मेरे मामा थे जो माँ से चार साल छोटे थे और मौसी माँ से आठ साल छोटी थी। मौसी अपनी बड़ी बहन को 'भैंजी' कहकर बुलाती थीं पर दर्जा माँ का ही देती थी। माँ की गोद में ही मौसी पली बढ़ी थीं।
नानी कभी कभी अपना पेट खोलकर दिखाती थीं - देख, कितने बड़े बड़े चीरे लगे थे - तीनों बच्चों के लिए। उस जमाने में सीजेरियन ऑपरेशन खासे प्रिमिटिव तरीके से किए जाते थे। नानी का पेट देखकर वाकई लगता था जैसे किसी नौसिखिए कसाई ने किसी भोथरे छुरे चाकू से नानी के पेट के मांस को बेरहमी से काट कूट कर, फिर बड़े सूए से गूँथ गाँथ कर सिल दिया है।
माँ के जमाने में पंद्रह सोलह साल में लड़कियों की शादी कर दी जाती थी। अपने तीन भाई बहनों में से सिर्फ मेरी माँ पढ़ाई में काफी जहीन थीं। लाहौर की वैदिक पुत्री पाठशाला से हिंदी में प्रभाकर (वही प्रभाकर की डिग्री जिसे हिंदी के अग्रज आदरणीय रचनाकार विष्णु प्रभाकर ने अपने नाम का हिस्सा बना लिया था) प्रथम श्रेणी में पास कर चुकी थीं और साहित्य रत्न (जो एम.ए. की कक्षा के बराबर था) कर रही थीं। पढ़ाई के दौरान वे कविताएँ लिखा करती थीं और किताबों के बीच छिपाकर रखती थीं।
माँ अपनी आठ साल छोटी बहन को बहुत लाड़ करती थीं। यह बहन थी ही इतनी खूबसूरत कि सभी उसे बहुत लड़ियाते थे। माँ को अपनी बहन से शिकायत थी तो यही कि जहाँ माँ समय मिलते ही किताबों में डूबी रहती थीं, बहन को पढ़ाई में कोई दिलचस्पी नहीं थी। जब तक माँ की शादी नहीं हुई, बहन को सातवीं तक माँ ने जोर जबरदस्ती पढ़ाया और वह कक्षा में पास भी हो गईं पर जैसे ही माँ की शादी हुई और माँ लाहौर से कलकत्ता आ गई, बहन ने पढ़ना-वढ़ना छोड़ कर सिलाई कढ़ाई शुरू कर दी।
अठारह साल पूरे होने पर माँ की शादी हिंदू पंजाबी घर में हुई जहाँ फेरों के वक्त ही दुल्हन का नाम बदल दिया जाता था। वाहेगुरू कौर नाम की ऊँची पेशानी वाली तेजस्वी कन्या का नाम उनके दूल्हे ने बड़े प्यार से रखा - वीणादेवी। पर नानी के मुँह पर यह नाम कभी नहीं चढ़ा। हमारी नानी माँ को अपने रहने तक वाहेगुरू ही बुलाती रही और गुरु ग्रंथ साहेब का पाठ करती रहीं। कहतीं कि तेरी माँ को पुकारने के बहाने उस दाता का नाम भी तो जबान पर आता है। अपनी बेटी को रब्ब की भेंट मानतीं। शायद इसीलिए उस दाता ने माँ में अपना एक छोटा सा प्रतिरूप रख छोड़ा था, जो हमें भी जब-तब दिखाई दे जाता था।
दूसरी बेटी यानी हमारी मौसी बला की खूबसूरत थी। तीखे नैन नक्श वाली गोरी चिट्टी लड़की। नाक की कोर और दोनों गालों पर ललाई लिए हुए वह किसी पहाड़न या कश्मीरन होने का धोखा देती थीं।
मौसी के पंद्रह साल की होते न होते उनके ब्याह के लिए रिश्ते आने शुरू हो गए। सभी रिश्ते नाना मामा के रुतबे से कहीं बहुत ऊपर के खानदानों के थे। उनमें से एक जो पुराने खानदानी रईस थे, के छह बेटों में से सबसे बड़े बेटे के रिश्ते के लिए हामी भर दी गई।
माँ ने अपनी माँ से सवालतलब किया - 'भाबी जी, आप तो कहते थे कि बेटी ब्याह कर लाओ, तो अपने से नीचे घर की और अपनी बेटी दूजे घर विदा करो, तो भी अपने से नीचे घर में (यानी दोनों ही ओर अपना पलड़ा भारी रहे) पर अब क्या हो गया?'
भाबी जी ने कहा - 'देख, तू पढ़ाई में 'हुशियार' थी, तुझे पंजाब नैशनल बैंक में चालीस रुपए महीने की नौकरी वाला, कलास में हमेशा अव्वल आने वाला मुंडा मिल गया। अपनी सतनाम के पास तो वो गुर नहीं, फिर भी रब्ब ने सोहणा मुहादरा देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी तो इसकी झोली में यह रिश्ता आया है तो उसी दाता की मेहर है।' मौसी के लिए यह रिश्ता स्वीकार करने की दलील यह दी गई कि इसकी किस्मत में ही बड़े ऊँचे खानदान में बसना लिखा है तो विधि के लेख को कौन टाल सकता है भला।
इन खानदानी रईसों का पीतल और लोहे का पुश्तैनी कारोबार था। शादी में सबने लड़के को देखा तो लड़का था भी उच्चा-लंबा, फौलादी। अखाड़े के पहलवान से कम नहीं। रंग भी थोड़ा सा साँवला। उधर मौसी बेहद नाजुक जान। रंग ऐसा कि गाल में उँगली रखो तो ललाई में उँगली के दबाने से सफेद निशान उभर आए।
माँ की शादी के सात साल बाद मौसी की शादी हुई। मौसी भी सरदारों के घर नहीं ब्याही और फेरों के वक्त उनका नाम बदलकर संतोष रख दिया गया। संतोष का संक्षिप्त संस्करण - तोष - नाम झट नानी के मुँह भी चढ़ गया। बल्कि सभी मौसी को तोष या तोषी ही बुलाते। हमें तो बहुत बाद में पता चला कि तोष मासी का पैदाइशी नाम सतनाम था। तो वाहेगुरु वीणादेवी बनी और सतनाम संतोष।
मौसी माँ की बड़ी लाड़ली थी। मुझे अपने होश सँभालने के बाद जो पहली शादी याद है, वह मौसी की शादी थी। विदाई की रस्म जेहन में क्यों दर्ज रह गई, क्या मालूम। शायद पापा की आवाज का असर था कि उन्होंने मौसी की शादी में जो शिक्षा - पंजाबी में जिसे 'सिखिया' कहा जाता था - रुँधे गले से पढ़ी, उसने सबको सिसकियाँ भरने पर मजबूर कर दिया। बीजी और भाबी जी यानी माँ और नानी तो जो रोए सो रोए, मैंने रो रो कर आसमान सिर पर उठा लिया। इतना कि मैं मौसी के लाल किनारी वाले दुपट्टे का पल्लू ही न छोड़ूँ। आखिर मौसी की सास ने बड़ी दयानतदारी दिखाते हुए कहा - 'ऐस कुड़ी नूँ ते सानूँ दाज चे दे द्यो (इस लड़की को तो हमें दहेज में दे दो)' और मेरी ओर मुखातिब हुई, 'चल कुड़िए, मोटर विच मासी दे नाल बै जा। कल छड्ड आवाँगे। कमलेश नाल खेड लईं।' मौसी की ननद कमलेश मेरी हमउम्र थी। तब जाकर मेरा रोना बंद हुआ।
सफेद मोगरा के फूलों की लड़ियों और गुलाब के फूलों से सजी धजी सुंदर सी गाड़ी में मैं मौसी का पल्लू पकड़ कर बैठ गई। राजाकटरा इलाके में गाड़ी जाकर जहाँ रुकी, वहाँ सामने चार मंजिला बिल्डिंग थी लेकिन उस लंबे से मकान की सीढ़ियों तक पहुँचने का रास्ता अजीब सा था - मिट्टी से भरी कच्ची पगडंडी पर ऊँची चढ़ाई। उस कच्चे रास्ते पर मैं मौसी के लाल दुपट्टे को पकड़े मौसी के पीछे पीछे चलती रही। रोना बंद होकर आक्रोश में बदल रहा था कि इतनी सुंदर गाड़ी से उतर कर ऐसी जानलेवा चढ़ाई क्या हर बार मौसी को चढ़नी पड़ेगी?
एक लाइन में कई कमरों वाला वह तीसरा तल्ला रईसी की कहानी तो कह रहा था पर मेरा मन बुझ चुका था। यहाँ सारे चेहरे नए थे और किसी का मुझ पर ध्यान ही नहीं था। मौसी खुद ही घूँघट से लिथड़ी पड़ी थीं। दरवाजे पर तेल चुवाने और नए परिवार में प्रवेश करने की सारी रस्मों के बाद मौसी और उनके दूल्हे के तिल भल्ले और लस्सी में अँगूठी ढूँढ़ने की हर रस्म में मौसी हार गई थीं और जब वे कमरे में बंद होने चली गईं तो मैं बिल्कुल लावारिस सामान सी पीछे छूट गई। मौसी की ननद कमलेश भी दूसरे सब लोगों की तरह थक थका कर सो गई थी। अब मेरी आँखों में नींद कहाँ। मैं सारी रात बिसूरती रही और मौसी के सुबह कमरे से बाहर निकलते ही सिसकियों और हिचकियों के बीच बोली कि मुझे 'अपने' घर जाना है। बस, उसके बाद मैं कभी मौसी के सौहरे घर रहने नहीं गई। मौसी ने भी मुझे साथ ले जाने की जिद नहीं की।
इधर हर डेढ़-दो साल के अंतराल में एक नया बच्चा दोनों बहनों की कोख में आता रहा।
माँ और मौसी में जितना जुड़ाव था, उसके लिए अच्छा यह हुआ कि उम्र में दस साल का फर्क और कद - काठी में एक दूसरे का विलोम होने के बावजूद मौसा और पापा की बहुत गहरी छनती थी। दोनों को साथ चलते देख कई लोगों ने उन्हें लॉरेल एंड हार्डी की संज्ञा दे रखी थी। फौलादी जिस्म और देखने में ऊँचे लंबे होने के बावजूद मौसाजी दिल के बड़े नरम और स्नेहिल व्यक्ति थे और उनमें सेंस ऑफ ह्यूमर लाजवाब था। पापा के साथ मौसा बेहद बेतकल्लुफी से पेश आते, गाली गलौज, हँसी ठट्ठा करते, तू तड़ाक में बात करते।
दोनों साढ़ू भाइयों में एक समानता थी - अपनी अपनी बीवी के प्रति दोनों एक से तानाशाह थे। पापा कुछ कम। मौसा कुछ ज्यादा। दोनों बहनों को अपना दुख सुख रोने के लिए अकेले छोड़कर मौसा और पापा सिनेमा देखने चले जाते। पापा शुद्ध शाकाहारी थे और मौसा मुर्ग मुसल्लम खाने के बड़े शौकीन। अपर चितपुर रोड पर एक मुस्लिम शेख का रॉयल इंडियन कैफे था, जहाँ की बिरयानी, चॉप, तंदूरी मुर्ग और कबाब मशहूर थे। वहाँ से खुद खा पीकर हम सबके लिए फिरनी के कुल्हड़ पार्सल से आते। माँ तो उन्हें हाथ नहीं लगातीं, पर हम बच्चे बड़े शौक से खाते। आखिर माँ ने भी घर में फिरनी को वैसे ही कुल्हड़ों में जमाना शुरू कर दिया और ऊपर चाँदी का वर्क लगाकर इलायची, पिस्ते का बूरा और केसर छिड़क देतीं ताकि फिरनी मुसलमान के होटल से लाई गई फिरनी से बीस ही हो, उन्नीस नहीं। मौसा ने उस रॉयल इंडियन कैफे के मालिक का नाम रखा - पंडित इब्राहीम। धीरे धीरे यह नाम इतना मशहूर हुआ कि लोग उस कैफे को 'पंडित इब्राहिम का होटल' ही कहने लग गए। खैर, माँ और मौसी शुरू से ही शाकाहारी थीं और अंत तक रहीं बल्कि पापा और मौसा को भी बाद में अपनी अपनी बीवियों के नक्शे कदम पर चलकर कटहल मसाला को मटन शोरबा, अरबी फ्राइ को भेटकी माछ और मोचा यानी कच्चे केले के फूलों के कोफ्तों को मटन कबाब समझ कर चटखारे ले लेकर खाना सीखना ही पड़ा।
मौसी के ससुराल में मौसा की जारी की गई बड़ी सख्त हिदायतें थीं कि मौसी दिन में चाहे अपने भाई के घर जाएँ या बहन के, पर रात को उन्हें अपने घर लौटना ही है और इस हिदायत को मौसी ने ताजिंदगी निभाया। माँ पर पापा की ऐसी कोई पाबंदी नहीं थी। कई बार नानी के बाँसतल्ला वाले घर में हम बच्चे मामा के बच्चों के साथ और मौसेरी बहनों के साथ मस्ती कर रहे होते पर मौसी को मन मार कर उठना पड़ता क्योंकि उन्हें रात कहीं भी बिताने की इजाजत नहीं थी। यों मौसा दिखने में जितने लंबे ऊँचे पहलवान थे, दिल भी उनका उतना ही बड़ा, उदार और मुहब्बती था पर पैसे का रुआब तो था ही। उनकी टक्कर का रईस आसपास कोई और था नहीं। घर में हुक्मउदूली भी उन्हीं की होती थी, फरमान भी उनका चलता था। उनके सामने मौसी की आवाज कभी खुलकर नहीं निकलती थी। बहुत सालों बाद जब मैंने कहानी 'डेजर्ट फोबिया उर्फ समुद्र में रेगिस्तान' लिखी तो मेरे जेहन में छवि की जगह मौसी और साहब की जगह मौसा की ही तस्वीर थी। यों कहानी में और कोई समानता कहीं नहीं थी सिवाय इसके कि मौसा की दाएँ हाथ की तर्जनी मौसी की ओर उठने की देर और मौसी का हाथ जहाँ का तहाँ रुक जाता था। इस मौसी ने अपने कालरा खानदान में एक बेहद आज्ञाकारिणी और जिम्मेदार बहू और आँखें नीची कर चलने वाली बीवी का रोल ताउम्र बखूबी निभा का रोल अदा कर बिरादरी में कालरा परिवार का नाम ऊँचा किया। एक आदर्श बहू के रूप में मौसी की मिसाल हमेशा दी जाती। उनसे छोटी उनकी पाँच देवरानियाँ आईं। मैंने अगर अपना इनकार माँ के सामने जाहिर न किया होता और माँ पूरी तरह मेरी ढाल बनी न खड़ी होतीं तो मैं भी मौसी की पाँच देवरानियों में से एक होती और कान, गर्दन और उँगलियों पर चकाचौंध पैदा करने वाले हीरे जड़वा कर रसोइए को शाकाहारी कबाब बनवाने की हिदायतें दे रही होती। पर मेरी किस्मत में तो शादी का लाल सफेद चूड़ा पहने मुंबई के आय.आय.टी. के एच टू क्वॉर्टर के इकलौते छोटे से कमरे के झूलते हुए जाले साफ करना लिखा था जिसका मुझे कतई कोई मलाल नहीं था। लेकिन यह इनकार उस रईस खानदान के सीने में खुब कर रह गया।
मौसा के पाँच छोटे भाइयों की एक के बाद एक शादी शुरू हुई। पापा से चूँकि मौसा की रिश्तेदारी भी थी और वे सबसे अजीज दोस्त भी थे इसलिए उन्हें बहुत सी जिम्मेदारियाँ सौंप दी जाती थीं मसलन गुलाबी साफे रँगवा के अबरक और कलफ लगा कर तैयार करवाना, रहमत बैंड वाले और सलामती घोड़ी का बंदोबस्त करना, पंडित इब्राहिम से बरात की अगवानी में, गरमागरम कबाब और तंदूरी पेश करवाना वगैरह वगैरह... पर इसमें सबसे जरूरी था दूल्हे को घोड़ी पर बैठने के बाद उसका सेहरा गाकर पढ़ना। पापा गाते बहुत अच्छा थे और मासी की शादी में जब उन्होंने सिखिया पढ़ी थी तो सबको हिलका हिलका कर रुला दिया था...।
बहरहाल, हादसा यह हुआ कि मौसा के भाई नंबर तीन की बरात निकलनी थी और पापा ने कलकत्ता के जिस सबसे खास बैंड वाले और घोड़ी का बंदोबस्त किया था, वह समय से एक घंटा बाद भी न पहुँचा और मौसा के बाऊ जी का गुस्सा सातवें आसमान को छूने लगा। यों भी अपने बड़े बेटे की अपने साढ़ू भाई से ऐसी दाँत काटी रोटी सी गहरी दोस्ती उन्हें शुरू से ही अखर रही थी। पापा शादी में पहले ही पहुँच गए थे। आखिर गुस्से में आगबबूला होते हुए बाऊजी ने आदेश दिया कि बरात पैदल ही चले। बरात अभी दो कदम ही चली थी कि घोड़ी और बैंड बाजे का लश्कर आ पहुँचा पर पापा का तब तक बैंड बज चुका था। आखिर हरीसन रोड से लिलुआ - सड़कों की दुर्दशा देखते हुए पहुँचना, वह भी शादी ब्याह के सीजन में, सजी धजी घोड़ी और उसके साईस के लिए कोई आसान काम नहीं था। इस सारे केयॉस के बावजूद पापा ने सुर और लय में शिक्षा (सिखिया) पढ़ने की ज़िम्मेदारी भी निभाई।
लेकिन माँ के साथ हम सब बच्चे इतनी दूर, भवानीपुर से लिलुआ शादी में शामिल होने पहुँचे तो देखा - पापा की अच्छी खासी लानत सलामत हो चुकी थी। बड़े कालरा साहब का कहना था कि इतने ऊँचे खानदान की लड़की वे ला रहे हैं तो उनकी नाक नीची करवाने के लिए जान-बूझकर पापा ने घोड़ी और बैंड न पहुँचने देने की साजिश रची है। बात इतनी दूर तक पहुँच गई थी और पापा का मन इस कदर बुझ गया था कि हम दोनों बहनें और पाँच छोटे बाल गोपाल जिसमें से छोटे जुड़वाँ अभी गोद में ही थे, जैसे ही पहुँचे, हमें शादी छोड़कर लौटाने के लिए पापा टैक्सी ढूँढ़ने लगे। हमने शादी के लिए खास घाघरे बनवाए थे, दो घंटे का सफर कर भूख से हमारी अंतड़ियाँ कुलबुला रही थीं लेकिन हमें शरबत का एक गिलास भी उठाने नहीं दिया गया और हम रोते बिसूरते, बिना मुँह से पानी छुआए घर लौट आए। माँ लौटकर रोते रोते खाना बनाती रहीं, पर याद नहीं किसी ने खाना खाया भी या नहीं। माँ के साथ साथ पापा भी खूब रोए। हफ्तों घर में मातम का सा माहौल रहा। माँ हर वक्त रोती रहतीं कि इस घटना के बाद पता नहीं उनकी जान जहान बहन के साथ उसके रईस ससुराल वाले कैसा बर्ताव कर रहे हैं।
बस, उसके बाद दोनों बहनों के ससुराल के परिवारों में बड़ों की आपसी रंजिश ऐसी ठनी कि मौसी का घर से निकलना बंद हो गया। मौसी को हमारे घर आने की सख्त मनाही थी। जो बहनें महीने में एक दो बार तो मिल ही लेती थीं, एक दूसरे की सूरत देखने को तरस गईं। मौसी के ससुराल वालों को, मौसा को मनाने की सब कोशिशें कर करके हार गए पर नतीजा कुछ नहीं निकला। दोनों बहनें छिप छिप कर फोन पर बात करतीं और रोती जातीं।
कुछ महीनों बाद हमारे यहाँ दोनों जुड़वाँ भाइयों के मुंडन का आयोजन था। मौसी के ससुराल जाकर पापा और दादा ने मौसी के ससुर के सामने मत्था टेक दिया कि पुरानी रंजिशें भुलाकर फिर गले मिल लें पर मौसी के ससुर टस से मस न हुए। उन्होंने कह दिया - 'ठीक है, नूँ रानी (बहूरानी) की मर्जी होगी, भानजों के मुंडन पर आ जाएगी।'
अब मुंडन बाकायदा सारे रस्म रिवाज के साथ शुरू हुआ। पंडितों ने मंत्रोच्चार किया। अढ़ाई साल की उम्र के दोनों बच्चों के बालों पर उस्तरा फिरना शुरू हुआ। बड़े को अपने कंधों तक लटकते भूरे भूरे रेशमी बालों पर बड़ा नाज था। उसने जैसे ही नाई की कैंची लगते ही अपने खूबसूरत बालों को लकड़ी के पटरे पर गिरते देखा, चिंघाड़ना शुरू किया। छोटे ने भी बड़े के सुर में सुर मिलाया। सिर मुँड़वाते समय दोनों बुक्का फाड़कर रोए। अब माँ दोनों रुंड मुंड बच्चों को गोद में लिए बड़ी गर्वीली माँ दिख रही थीं। पर आँखें उनकी लगातार फूलों के बंदनवार से सजे प्रवेशद्वार पर लगी रहीं। मामा मामी, नाना नानी सबके चेहरे उतर जाते जब कोई रिश्तेदार पूछता - तोषी और उसके घरवाले नजर नहीं आ रहे। बस, आती होगी - कहकर सब टकटकी बाँधे दरवाजे पर देखते रहे। उधर मासी का बुरा हाल था। कहने को तो ससुर जी ने कह दिया - जाना हो तो चली जा, पर हमारे घर से तेरे उस जीजे के यहाँ और कोई नहीं जाएगा। जितनी देर मुंडन होता रहा, मौसी अपने कमरे में घुटी बैठी रोती रही और उनकी बड़ी बेटी रीता अपनी नन्हीं नन्हीं हथेलियों से उनके आँसू पोंछती रही।
हमारे परिवार में, मेरी शादी से पहले का, वही आखिरी आयोजन था, सो पापा ने जी खोलकर खर्च किया - चाँदी का वर्क लगी खालिस पिस्ते की हरी हरी बर्फियाँ। दही बड़ों और समोसों में भी जमकर काजू किशमिश डाले गए। मौसा की पसंद के शाकाहारी कबाब बने। पर मौसी के परिवार से किसी को न आया देख हमारे घर से भी किसी ने नमकीन या मिठाई का एक टुकड़ा मुँह में नहीं डाला।
उन दिनों नूँ रानियाँ (बहूरानियाँ) सिर्फ कहने को रानियाँ थीं, औकात दासियों से बदतर थी। अपनी मर्जी से कोई फैसला लेने की इजाजत उन्हें नहीं थी। घर में टाइम बेटाइम कितने भी मेहमान आ जाएँ, खाना एक डेढ़ घंटे में तैयार करना पड़ता था। तब आज की तरह होटलों से पका पकाया खाना मँगवाने का रिवाज नहीं था। आखिर घर में औरत होती किसलिए है, बाहर जाकर मर्द कमाकर लाता है तो इसीलिए न कि खाना समय पर मिले, ढंग का मिले और जितने बंदे नजर आएँ, सबको मिले। क्या मजाल कि खाने के वक्त कोई आ जाए और रसोई से थाल सज कर न आए। घर में औरत होने का मतलब ही था - रसोई के अक्षय पात्र का कभी खाली न होना। माँ, जो शादी से पहले अपनी सधी हुई खूबसूरत हस्तलिपि में कविताएँ लिखती थीं, अपनी सारी रचनात्मकता या तो हम बहनों के लिए बचे खुचे डिजाइनदार कपड़ों की फ्रिल वाली फ्रॉक सिलने में या सोया आलू, गोभी और मूली के पराँठे और तंदूरी लच्छेदार रोटी को उँगलियाँ चाट चाट कर खाने लायक बनाने में तलाश रही थीं। ये लजीज पराँठे उन दिनों यानी 1956-57 में पापा के मित्र राजेंद्र यादव ने भी हर रविवार की दुपहर खाए थे। एक गृहिणी की तृप्ति माँ के चेहरे से झलकती थी। साड़ियों के बॉर्डर पर खुद आँककर या कई बार बगैर डिजाइन बनाए भी माँ ने ऐसी खूबसूरत कशीदाकारी की थी कि एहतियात से रखी हुई उन साड़ियों को आज भी जब मैं पहनती हूँ, सब पूछते हैं कि ऐसी ऑरगैंडी पर ऐसी कढ़ाई तो कभी देखी नहीं। ...वे क्रोशिए की झालरें बनाने का काम भी ऐसे डूबकर करती थीं जैसे कोई इबारत लिख रही हों।
धीरे धीरे मौसा और पापा के बीच की बर्फ पिघली और उन्होंने पहले की तरह पंडित इब्राहिम के कबाब खाकर अंग्रेजी सिनेमा देखने जाना शुरू कर दिया। मौसा घर की सीढ़ियाँ नहीं चढ़ते, नीचे से ही पापा को छोड़ गाड़ी घुमाकर चले जाते। आखिर एक दिन माँ ने मौसा को घेरघार कर बुलवाया और पूछा - हम दोनों बहनों को आपस में न मिलने देने की क्या कौल उठा रखी है। तोष को बच्चों के पास आने दो, जिंदगी भर आपका एहसान मेरे सिर रहेगा।
अगली बार मौसा आए तो पापा को लेकर चले गए और मौसी को माँ के पास छोड़ गए।
एक डेढ़ साल बाद दोनों बहनें मिल रही थीं। मौसी जिस तरह आकर माँ के कलेजे में दुबक कर पूरा गला खोलकर जैसे चिंघाड़कर रोईं, उन चीखों ने घर की दीवारों को भी हिला दिया था। शादी के बाद वह रईस घर की बहूरानी पहली बार अपने भीतर का सब कुछ बाहर निकालकर रख रही थी। मैं उन चीखों को कभी नहीं भूली। वे चीखें दिमाग के एक कोने में जड़ें जमाकर बैठ गई थीं जिनका मतलब आज समझ पा रही हूँ। ...और यह भी नहीं भूली कि जब मैंने माँ से पूछा कि तोष मासी को क्या हुआ है, माँ ने कहा - उसे अपनी बेटी याद आ गई है। उस चार तल्ले के चढ़ाई वाले मकान में, जहाँ तीसरे तल्ले पर मौसी का परिवार रहता था, मौसी की दूसरी बेटी डेढ़ दो साल की ही थी जब बाल्कनी की दीवार पर फलाँग कर नीचे देखने की कोशिश में तीसरे तल्ले से गिर कर गुजर गई थी।
बगैर कुछ समझे बूझे भी मैने मौसी के गाल पोंछे और उन्हें पुचकारा तो वे मुझसे लिपट कर भी खूब रोईं और बोलती रहीं - 'सुधे, मैंनू ना रोक। मैंनू जी भर के रो लैन दे!' मौसी ने मुझे कभी सुधा नहीं कहा। हमेशा सुधे या सुधी कहती थीं। ऐसा रोना और ऐसी चीखें तब समझ में नहीं आई थीं, आज समझ में आती हैं कि इस तरह से एक औरत तभी रोती है, जब वह अपने सामने अपने सारे सपनों को मरते हुए देख रही होती है और कुछ कर नहीं पाती। ऐसी चीखें एक औरत की लाचारी और बेबसी के मुहाने से अपने आप फूट निकलती हैं।
कुछ देर बाद जब मौसा उन्हें घर लिवा जाने के लिए आए तो उनके पूछने पर कि हमारी बेगम की आँखें क्यों सूजी हुई हैं, माँ ने कहा - ' इसके पेट में बड़ा सख्त दर्द हो गया था।'
मौसा ने व्यंग्य से मासी से कहा - 'क्यों तेरी भैणजी ने अज्ज कुछ ज्यादा ही खातिरदारी कर दी...?'
खैर, इसके बाद सब सामान्य हो गया। पहले की तरह आना-जाना, मिलना-बैठना। शादी ब्याह में एक जैसे जड़ाऊ गहने बनवाना। सारे बच्चों की शादियाँ हो गईं। पोते पोतियों, दोहते दोहतियों से घर भर गया। पर दोनों बहनों को दिल का रोग लग गया। माँ को कुछ ज्यादा, मौसी को कुछ कम। दोनों के नाजुक दिलों ने अपने अपने पतियों और बच्चों से कुछ कम झटके नहीं खाए थे।
दोनों परिवारों ने अपने अपने हिस्से के दुख झेले जिसके चलते पापा अपने गुरु गंगेष्वरानंद जी की बताई लीक पर चलकर अपने घर की छत पर बने मंदिर में चारों वेद की प्रतिष्ठा कर रोज सुबह शाम वेदपाठ करने लगे और पूरी तरह शाकाहारी हो गए और मौसा भी कलकत्ता की अपनी सारी जमीन जायदाद बेचकर राधास्वामी की संगत में व्यास जाकर बस गए। उनका पूरी तरह शाकाहारी हो जाना हमारे लिए एक धक्के से कम नहीं था। माँ व्यास जा नहीं सकती थीं। कलकत्ता से बाहर जाने के नाम पर वह सिर्फ मेरे पास बंबई आती थीं। मौसी की दो बेटियाँ कलकत्ता में थीं, एक अमेरिका में। कलकत्ता की अपनी दोनों बेटियों से मिलने जब भी मौसी मौसा व्यास से कलकत्ता आते, माँ पापा उछाह से भर जाते।
11 दिसंबर 1999 - माँ अपने दामाद के साथ कलकत्ता से आ रही हैं, सुनकर मैं चौंकी थी। कोई तैयारी नहीं थी माँ की। बस, 10 दिसंबर की रात यूँ ही मैंने माँ से कहा - हम पवई में अपना नया घर देखने जा रहे हैं, आप भी इनके साथ क्यों नहीं आ जाती? माँ आ नहीं सकती थीं, मुझे मालूम था। दो महीने पहले ही माँ अस्पताल से लौटी थीं और सबको मना कर दिया था कि सुधा को मेरी बीमारी के बारे में मत बताना, बेकार परेशान होगी। अस्पताल से लौटकर मुझे बताया तो मैंने डाँटा था कि मुझे बताया क्यों नहीं। माँ की एक ही बात - तू इतनी दूर बैठे कुछ कर तो सकती नहीं, फिर बताना क्या। अब आ गई हूँ न। और ठीक हूँ। माँ ने कहा और मैंने मान लिया। यही कहतीं - बस, ईश्वर से यही मनाती हूँ कि मुझे किसी का मोहताज न बनाए, अपने हाथ पैर चलते फिरते मुझे उठा ले, जैसे तेरी नानी गई। मुझे किसी से सेवा नहीं करवानी।
12 दिसंबर को हमने नए घर में छोटा सा हवन करवाया। माँ साथ बैठीं। पर इस बार माँ बहुत चुप चुप थीं। तीन दिन तक लगातार वह जनसत्ता में लिखे मेरे कॉलम 'वामा' की कतरनें पढ़ती रहीं। 'हेल्प' में आए कई केसेज के बारे में सुनती रहीं। मेरे लिखे हुए को सराहती रही। मेरे हाथ पकड़ कर कहा - अब लिखना कभी मत छोड़ना जैसे पहले इतने साल छोड़ दिया था। माँ ने संकेतों में कुछ बातें कीं - कभी अपने बारे में बताऊँगी तुझे, मैंने क्या कुछ नहीं झेला। माँ की आँखें लगातार पनियाती रहीं। मैंने एक बार डाँट भी दिया - अब अतीत में जीना छोड़ो, बच्चों को लेकर जो गलतियाँ हो गईं, उन्हें अनहुआ नहीं किया जा सकता, आगे की सोचो। माँ कैसे भूल सकती थीं। बच्चे ही तो उनकी जान थे। उन्हें बरबादी की कगार पर खुली आँखों से देख नहीं पा रही थीं। मैंने भी उन्हें ज्यादा कुरेदा नहीं।
13, 14 और 15 को वह धीरे धीरे घिसटती सी मेरे साथ साथ हर उस जगह जाती रहीं, जहाँ जहाँ मैं उन्हें ले गई - नए घर के लिए माहिम में किचन का फर्नीचर पसंद करने, परदे के कपड़े देखने...। 15 की रात हमलोगों ने आठ बजे खाना खाया और बाकी खाना ढक कर रख दिया। माँ ने दस बजे के करीब खाना खोलकर देखा और मुझे कहा -'ये तूने क्या घास फूस जैसा खाना रख दिया है, गुंजन टमाटर नहीं खाती तो क्या जरूरी है कि घर के सारे बंदे टमाटर खाना छोड़ दे। खाने का कोई रूप रंग तो हो।'
फूलगोभी आलू की सब्जी और चावल का डोंगा उन्होंने उठाया और बड़े प्यार से चावलों के लिए कढ़ाही में एक चम्मच देसी घी में अतिरिक्त जीरे हींग का बघार देकर बारीक बारीक टमाटर काट कर भूने। गोभी आलू की सब्जी में भी ऐसा ही छौंक लगाया और अपने लाड़ले दामाद के लिए सब्जी और चावलों की रंगत बदल दी। कमरा मसालों की महक से गमकने लगा। उनका लाड़ला दामाद रात देर से लौटा और प्रेम से खाना खाकर टी.वी. देखने बैठ गया।
तभी कलकत्ता से फोन आया कि मेरी छोटी बहन आई.सी.यू. में दाखिल है। उसे एस्थमा का अटैक आया है। सर्दियों में बहन को दमे का एकाध अटैक आता ही था। कोई नई बात नहीं थी। हम अपने अपने काम में लगे रहे। माँ थोड़ी देर बाल्कनी से बाहर देखती रहीं, फिर बेचैन सी टहलने लगीं। उनके दामाद ने उन्हें अपने पास टी.वी. देखने के लिए बिठा लिया। माँ कुछ देर बैठीं, किसी से कुछ बोलीं नहीं। उन्हें बार बार बाथरूम जाना पड़ रहा था और अचानक उल्टियाँ शुरू हो गईं। माँ सीना दबाकर बैठी रहीं, बोलीं - ऐसा दर्द तो मुझे कभी नहीं हुआ। काफी देर ऐसे ही आँखें मीचे सीना थामे बैठी रहीं, अचानक तीन बार स्पष्ट उच्चारते हुए बोलीं - ओम् नमो भगवते वासुदेवा! ओम् नमो भगवते वासुदेवा! ओम् नमो भगवते वासुदेवा! ...इसके साथ ही उनके दात भिंच गए और मुँह एक ओर को टेढ़ा होने लगा। माँ को डायबटीज थी और यह सायलेंट अटैक था, साथ ही पैरालिटिक स्ट्रोक भी।
मेरी छोटी बेटी गुंजन ने और मैंने उनके ठंडे पड़ते हाथों और तलवों को गर्म करने की कोशिश की। हमने अपने फैमिली डॉक्टर को बुलाया और उसने फौरन एंबुलेन्स बुलवाई और होली फैमिली नर्सिंग होम, जो हमारे घर के नजदीक था और नामी अस्पताल था, में माँ को न डालकर उन्हें किसी हार्ट स्पेशल आराधना नर्सिंग होम में डाल दिया जहाँ सभवतः उसे मरीज भेजने का ज्यादा प्रतिशत कट मिलता था। माँ ने एंबुलेंस में लगातार मेरा एक हाथ कस कर पकड़ रखा था और दूसरे हाथ से ना ना का इशारा कर रही थीं। साफ था कि वह अस्पताल ले जाने से मना कर रही थीं। माँ समझ रही थीं कि वे जा रही हैं। अस्पताल में डॉक्टरों के असंवेदनशील हाथों से होकर जाना नहीं चाहती थीं पर उनकी शायद यही नियति थी। जिन बच्चों के लिए सारा जीवन हलकान होती रहीं, उन्हें अपनी तबीयत से जरा भी परेशान करना नहीं चाहती थीं। आधी रात को कलकत्ता खबर की। वे 16 दिसंबर की सुबह 5.45 पर आराधना नर्सिंग होम से चुपचाप लंबी यात्रा पर चली गईं। वह एक अलग त्रासद कथा है। फिर कभी। पापा ने सुबह छह बजे की फ्लाइट ले ली थी पर जब तक वे बंबई पहुँचे, माँ जा चुकी थीं।
माँ का पार्थिव शरीर लेकर 16 दिसंबर 1999 की शाम की फ्लाइट से हम कलकत्ता रवाना हुए। मौसी मौसा को व्यास फोन करके खबर दी जा चुकी थी। रात को अंत्येष्टि के बाद जैसे ही पापा घर पहुँचे, व्यास से मौसी का फोन था। काफी देर तक मौसी फूट फूट कर रोती रहीं, फिर बोलीं - जीजाजी, भैणजी नू टोर आए? (बहनजी को विदा कर आए) मेरी माँ फेर चली गई... मौसी ने कहा - जीजाजी, मैं आवाँगी...।
दूसरी सुबह फिर मौसी का फोन आया - 'जीजाजी, मैं आना चाहती हूँ पर... ये नहीं मान रहे...।'
फोन मौसा जी के हाथ में था - 'देख लुभाया, इसे समझा। कड़ाके की ठंड है यहाँ। इस कड़कती ठंड में पहले दिल्ली जाना... फिर फ्लाइट लेकर कलकत्ते पहुँचना... इसके जाने से भैणजी तो लौटने वाले नहीं...'
पापा ने मौसी को समझाया - ' देख तोष, जिसने जाना था, वो चली गई, तू अपने को परेशान मत कर।'
मौसी से कुछ बोला नहीं गया। बस, वे फोन पर रोती रहीं। फोन रखते हुए बोलीं - 'पर मेरा आने का मन था जीजाजी, ये नहीं मान रहे...।'
व्यास। रविवार, 19 दिसंबर 1999, जिस दिन माँ का चौथा था, तोष मौसी सुबह उठीं। नहा धो लिया। रसोई में जाकर चाय बनाई। कलकत्ता से उनकी बड़ी बेटी रीता और दामाद व्यास आए हुए थे और उन्हें सुबह दिल्ली के लिए निकलना था जिनके साथ मौसी भी कलकत्ता आना चाहती थीं अपने भैणजी के चौथे में। चाय बनाकर बेटी दामाद को उठाया - उठो, निकलने का टाइम हो रहा है, चाय पी लो। सबके हाथ में चाय का कप थमाया। अपना कप साथ की तिपाई पर रखा। एक घूँट भरा। तभी अरदास की आवाज कानों में पडी। बेटी दामाद ने देखा - पूरब दिशा की ओर सिर झुकाए माँ बैठी है। शायद अरदास कर रही है। चाय का कप बगल में पड़ा है। कुछ देर वैसे ही रहीं तो बेटी ने हिलाया - 'बीजी, सो गए क्या?' मौसी हिली नहीं। सिर एक ओर को लुढ़क गया। सब ताकते रह गये।
बीजी गहरी नींद सो गई थीं। सारी जिंदगी मौसा जी के कहने पर चलती रही थीं। उनकी तर्जनी का इशारा समझती थीं। मौसा जी की तर्जनी उठी और मौसी की आँखें नीची। उनका कहा सिर माथे लेती रहीं। अब बगावत पर उतर आई थीं। उनकी शांत मुख मुद्रा कह रही थी - अपने भैणजी - अपनी माँ - से मिलने से अब नहीं रोक पाओगे मुझे। मैं कलकत्ता नहीं जा रही। उनसे वहीं मिलूँगी जाकर जहाँ वे गई हैं। जहाँ से मुझे चाय बनाने के लिए आवाज नहीं दे पाओगे...।
मृत्यु ही दोनों बहनों के लिए मोक्ष थी। मोक्ष में ही उनका त्राण था। माँ जाना नहीं चाहती थीं। या जाने से पहले कम से कम मुझे बहुत कुछ बताना चाहती थीं। वह मुँह बंद रख कर ही चली गईं। छोटी बहन चुपचाप अपनी बड़ी बहन के पीछे पीछे साथ हो लीं। इस बार - शायद जिंदगी में पहली बार उसने अपने पति से इजाजत नहीं ली। पूछा तक नहीं कि मैं चली जाऊँ क्या?
सुबह आठ बजे फोन आया - मौसी नहीं रहीं। सुबह कब कैसे अटैक आया। पता ही नहीं चला। 5.45 पर चली गईं। ठीक वही समय जब चार दिन पहले माँ चली गई थीं।
माँ के चौथे पर गुरुद्वारे से रागी बुलाए गए थे जिन्होंने ऐसी बानियाँ सुनाई कि सबके रोंगटे खड़े हो गए। ऐसी रस पगी बानियाँ मैंने पहले कभी नहीं सुनी थीं। वे वाहेगुरु और सतनाम के एक होने को श्रद्धांजलि दे रही थीं। जब जब सतनाम श्री वाहेगुरु कहा जाता, मेरी आँखों के सामने दोनों बहनें आकर खड़ी हो जातीं।
दस साल बाद आज भी माँ और मौसी - दोनों मेरी आँखों के सामने हैं जब मैं ये पंक्तियाँ लिख रही हूँ। दस साल लग गए मुझे इसे लिखने में। मैं जानती हूँ, इस घर की दीवारों में चिनी हुई चीखें अब मेरे सिरहाने आकर नहीं बैठेंगी। मैंने इसे लिखकर उनका तर्पण जो कर दिया है।