दीवार के इधर-उधर / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल
पागलखाने के बगीचे की बात है। वहाँ मैं पीले चेहरे वाले एक नौजवान से मिला। वह प्यारा-सा अचरजभरा इन्सान था।
मैं उसके निकट बैंच पर बैठ गया। पूछा, "तुम यहाँ क्यों हो?"
उसने अचरजभरी नजर से मुझे देखा। बोला, "यह एकदम वाहियात सवाल है लेकिन मैं इसका उत्तर जरूर दूँगा : पिताजी मुझे एकदम अपने-जैसा बनाना चाहते हैं और चाचा अपने-जैसा। माँ मुझमें नानाजी-जैसी सुप्रसिद्ध छवि देखती है। बहन को जीजाजी-जैसा समुद्री यात्राओं का शौकीन आदमी ही अनुसरण करने लायक दिखता है। मेरा भाई सोचता है कि मुझे उसके-जैसा बेहतरीन एथलीट बनना चाहिए। मेरे अध्यापक भी डॉक्टर ऑफ फिलोसफी, संगीतज्ञ, तर्कशास्त्री यानी जो वे थे मुझे बनाना चाहते थे। वे चाहते थे कि मैं मैं न रहूँ, दर्पण में नजर आता उनका बिम्ब बन जाऊँ। इसीलिए मैं यहाँ चला आया। यह जगह मुझे सुरक्षित लगती है। यहाँ मैं मैं बनकर रह सकता हूँ।" फिर एकाएक वह मेरी ओर घूमा और बोला, "अच्छा बताओ, क्या तुम्हें भी शिक्षा-व्यवस्था और सलाह-मशविरों ने यहाँ धकेला है?"
"नहीं, मैं तो बस घूमने आया हूँ।" मैंने कहा।
"तो तुम इस दीवार के उस पार वाले पागलखाने में रहने वालों में से एक हो!" वह बोला।