दीवार पर चढ़ी तस्वीरों का संवाद / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 15 नवम्बर 2018
कुमार अंबुज से ज्ञात हुआ कि ऑस्कर वाइल्ड की एक कथा का नाम था 'पिक्चर ऑफ डोरियन ग्रे', जिससे प्रेरित फिल्म भी बनी थी। कथासार इस तरह है कि एक व्यक्ति अपना चित्र बनवाता है। कलाकार ने जस का तस बनाया। छवि से अनुमान लगता है कि व्यक्ति भला मनुष्य है। कालांतर में उस व्यक्ति के स्वभाव में कमीनापन प्रवेश कर जाता है। वह दिन-ब-दिन संकीर्ण और स्वार्थी होने लगता है। उसे यह देखकर हैरानी होती है कि उसके बैठक कक्ष में लगे उसके पोर्ट्रेट में भी भाव परिवर्तन नज़र आता है। जैसे-जैसे वह बद से बदतर होता जाता है वैसे-वैसे उसके चित्र भी परिवर्तन होने लगते हैं। वह उस पेंटिंग को अपने बैठक कक्ष से हटाकर अपने बेसमेंट में रख देता है। कभी-कभी वहां जाकर देखता है कि उस चित्र में कमीनेपन का भाव मुखर होता जा रहा है। पटकथा लेखक सलीम खान का कहना है कि मनुष्य ईश्वर द्वारा दिए गए चेहरे के साथ चालीस की वय तक कायम रहता है और बाद में उसके अवचेतन में भी परिवर्तन आने लगते हैं गोयाकि चेहरा मनुष्य के अवचेतन में घूमते हुए विचारों का आईना होता है। सबसे अच्छे आईने बेल्जियम में बनते हैं। खेल-तमाशों, मेलों इत्यादि में एक कक्ष में विशेष प्रकार का आईना रखा होता है, जिसमें मनुष्य को विकृत छवि नज़र आती है। ज्ञातव्य है कि राज कपूर की फिल्म 'सत्यम् शिवम् सुंदरम्' में भी नायक अपनी विकृत छवि देखकर भय से चीख पड़ता है।
आईने अनेक आकार में उपलब्ध हैं। महिलाएं अपने पर्स में छोटा आईना रखती हैं। कुछ अमीरों के घरों में आदमकद आईने होते हैं। रंगमंच और सिनेमा के कलाकार आईने के सामने बैठकर मेक-अप करते हैं। शूटिंग के समय उनका एक सेवक उन्हें हर शॉट के लिए जाने के पहले आईना दिखाता है। उनका चेहरा उनकी पूंजी की तरह होता है। एक खूबसूरत नायिका जिस दिन आईने में एक सफेद बाल देखती है, वह महसूस करती है कि उसके कॅरिअर की उल्टी गिनती प्रारंभ हो चुकी है। प्राय: लोग डाई करते हैं परंतु डाई की एलर्जी भी हो सकती है। सभी सितारे अपने बालों को रंगते हैं। संजीव कुमार एकमात्र कलाकार थे, जिन्हें अपने हमउम्र सितारों के पिता की भूमिका अभिनीत करने के लिए बालों में सफेदा लगाना पड़ता था। संजीव कुमार और जया बच्चन ने विभिन्न रिश्ते अभिनीत किए हैं। एक फिल्म में वे रोमांटिक जोड़ी की तरह आए तो गुलजार की एक फिल्म में जया बच्चन के पिता की भूमिका में प्रस्तुत हुए और रमेश सिप्पी के 'शोले' में जया उनकी विधवा बहू की भूमिका में प्रस्तुत हुईं। कुछ फिल्मों में पात्र का पोर्ट्रेट अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। मसलन बिमल रॉय की मधुमति में नायक दिलीप कुमार खलनायक प्राण का चित्र बनाता है और एक शॉट में उस चित्र पर खून की लकीर उभर आती है। राज कपूर की ख्वाजा अहमद अब्बास लिखित फिल्म 'श्री 420' के एक दृश्य में हेरा-फेरी करके समृद्ध बना नायक आईने के सामने खड़ा है और उसमें उसकी वह छवि उभरती है जब वह काम की तलाश में मुंबई आया था। वह छवि उससे कहती है कि अब तो खुश हो अमीर हो गए हो, शानदार सूट पहने हो और नायक के चेहरे पर दर्द उभर आता है, क्योंकि वह अपने खोखलेपन को जानता है। दिलीप कुमार ने भी 'कोहिनूर' में एक दृश्य आईने के सामने अभिनीत किया है। अमिताभ बच्चन ने भी मनमोहन देसाई की 'अमर अकबर एंथोनी' में आईना दृश्य की रचना की है। उसके चेहरे पर चोट से रक्त बह रहा है और नशे में धुत्त वह आईने पर पट्टी लगाता है।
स्टीवन स्पिलबर्ग की फिल्म 'कलर पर्पल' में अफ्रीका से अश्वेत लोगों को गुलामी करने के लिए अमेरिका लाया जाता है। अपर्याप्त भोजन दिए जाने और कोड़ों से पीटे जाने के कारण वे विद्रोह करते हैं। कुछ दिन पश्चात अमेरिका के तीन जहाज उस जहाज को घेर लेते हैं और आत्म समर्पण के लिए बाध्य करते हैं। अमेरिका पहुंचकर उन 'विद्रोहियों' पर मुकदमा कायम किया जाता है। याद कीजिए कि 1857 में भारत में अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति हुई थी, जिसके असफल होने पर पकड़े गए लोगों पर देशद्रोह का मुकदमा कायम किया जाता है। अंग्रेजों के दृष्टिकोण से वह देशद्रोह का कार्य था परंतु भारतीय दृष्टिकोण से वह आज़ादी के लिए की गई क्रांति थी। एक ही घटना अनेक दृष्टिकोण से प्रस्तुत की जाती है और नायक या खलनायक कहकर लोगों पर मुकदमे कायम किेए जाते हैं। बहरहाल, इस केस पर बचाव पक्ष का वकील कहता है कि अदालत में अब्राहम लिंकन का चित्र लगा है। ज्ञातव्य है कि अमेरिका के तत्कालीन प्रेसीडेंट अब्राहम लिंकन ने समानता के लिए गृहयुद्ध लड़ा था। बचाव पक्ष का वकील कहता है कि आज अब्राहम लिंकन जीवित होते तो वह उन्हें बचाव पक्ष के गवाह के रूप में प्रस्तुत करता। इस तरह अदालत में लगा हुआ पोर्ट्रेट मुकदमे में महत्वपूर्ण हो जाता है। इस तरह पोर्ट्रेट भी जीवित मनुष्यों की तरह प्रतिपादित किए जाते हैं। 'पिक्चर ऑफ डोरियन ग्रे' कथा और उससे प्रेरित फिल्म हमें पोर्ट्रेट को देखने का नया नज़रिया देता है। सत्यजीत रॉय की 'जलसाघर' में दीवार पर लगे पोर्ट्रेट का उपयोग किया गया है।