दीवार वही रहती है, कैलेंडर नए लग जाते हैं / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :02 जनवरी 2016
नए वर्ष में घर की दीवार पर नया कैलेंडर लग जाता है, इसके अतिरिक्त कुछ नया आम आदमी के जीवन में घटित भी नहीं होता। थोड़े परिवर्तन के साथ निदा फाज़ली की पंक्तियां 'आजाद न तू, आजाद न मैं... जंजीर बदलती रहती है' हम यह कह सकते हैं कि घर की दीवार वही रहती है। एक हजारों करोड़ के कर्जदार, जो किंग शैली में जीवन जीते हैं, वर्षों तक अपने कैलेंडर के लिए खूबसूरत मॉडलों को कमतर कपड़ों में समुद्र तट ले जाते और उनकी सैकड़ों तस्वीरों में बारह तस्वीरें चुनी जाती थीं। इस स्वयंभू किंग के कैलेंडर शौकीन लोग हजार रुपए में खरीदते। 'किंग' स्वयं यह व्यवसाय नहीं करता था, परंतु उनके मित्रों के यहां से कैलेंडर बाजार में आ पहुंचते थे। महान पेंटर राजा रवि वर्मा की कृतियों का इस्तेमाल भी कैलेंडर में हुआ है। उनकी एक पेंटिंग का जस का तस फिल्मीकरण राजकपूर ने 'राम तेरी गंगा मैली' के जलप्रपात दृश्य में किया है। मेरी 'गांधी और सिनेमा' किताब में मूल पेंटिंग और फिल्म का स्थिर चित्र प्रकाशित किया है। अंग्रेजों के शासन काल में राजा रवि वर्मा की पेंटिंग्स पर अश्लीलता के आरोप का मुकदमा कायम किया गया था,परंतु राजा रवि वर्मा ही जीते। दरअसल साहित्य, कला और सिनेमा पर अश्लीलता के सभी मुकदमों में कलाकार ही जीते हैं। यह कितने आश्चर्य की बात है कि राजा रवि वर्मा की पेंटिंग्स पर मुकदमा चला और उनसे प्रेरित राजकपूर की 'सत्यम शिवम सुंदरम' पर भी मुकदमा चला था गोयाकि कलाकार बदलते रहे, परंतु कूपमंडूकता हर काल खंड में जस की तस रहती है गोयाकि दीवार वही रहती है, कैलेंडर बदल जाते हैं।
यह भी संयोग है कि केतन मेहता की राजा रवि वर्मा के जीवन पर रची फिल्म भी सेंसर ने लंबे समय से रोके रखी है। भारत में कैलेंडर कला के पुरोधा मुलगांवकर हुए हैं और मायथोलॉजी से प्रेरित पात्रों की पेंटिंग्स में कैलेंडर प्रयोग करते थे और उनके नायक पात्र नायिका से अधिक कमनीय और सुंदर होते थे। दरअसल, भारतीय समाज के जन-मानस के अवचेतन के बुझे हुए से लगने वाले तंदूर में लम्पटता के कुछ कोयले राख के नीचे दबे होने के बावजूद दहकते रहते हैं और इन्हीं दहकते कोयलों का व्यापारिक दोहन कई बार हुआ है और इनके खिलाफ हुड़दंग मचाने वाले लोग ही चोरी छुपे इसका आनंद सबसे अधिक लेते रहे हैं। दरअसल, काम भावना जीवन की प्रेरक शक्ति है, परंतु पवित्रतावादी लोगों के कारण इसे लम्पटता कहा जाता है। हम क्यों भूल जाते हैं कि वात्सायन की 'काम सूत्र' हमारे यहां ही लिखी गई है और अपने जीवन के अंतिम कुछ वर्ष वात्सायन ने उज्जैन में गुजारे हैं।
सिनेमा का कैलेंडर कला से गहरा संबंध रहा है। कथा फिल्म के जनक दादा फाल्के ने चार रंगों में कैलेंडर छापने की कला में बहुत काम किया है। उन्होंने कुछ समय रतलाम में चार रंगों की प्रिंटिंग का काम किया है और मुंबई के निकट पनवेल के उस छापेखाने में भी काम किया है, जहां राजा रवि वर्मा की कृतियों पर कैलेंडर छापे जाते थे। किसी जमाने में इसी कला से जुड़े आचरेकर राजकपूर की फिल्मों के सैट्स डिजाइन करते थे।
यह भी एक आश्चर्यजनक सत्य है कि 'दुनिया न माने', 'आदमी' और 'पड़ोसी' जैसी महान फिल्में बनाने वाले सामाजिक प्रतिबद्धता के सिनेमा के हिमायती शांतारामजी की आंखों की रोशनी कुछ समय के लिए चली गई थी और इलाज के दरमियान लगभग एक वर्ष उनकी आंखों पर काली पट्टी बंधी रही, क्योंकि उन्हें प्रकाश से बचना था। उस एक वर्ष में शांताराम ने रंगीन 'झनक झनक पायल बाजे' और 'नवरंग' की कल्पना की और तबीयत ठीक होते ही इन फिल्मों को कलर ऑरजी की तरह रचा। यह शब्द ऑरजी मैं कई बार इस्तेमाल कर चुका हूं। इसका अर्थ यह होता था कि रास रंग और स्वादिष्ट भोजन के प्रेमी पेट भरने के बाद गले में उंगली डाल कर उल्टी इसलिए कर देते थे कि दुबारा स्वादिष्ट भोजन कर सकें और रास रंग में डूब जाएं। जानवरों द्वारा की गई जुगाली अलग किस्म की होती है। भूख के आदी जानवरों को खाना मिलने के अवसर पर ढेर-सा भकोस लेने की मजबूरी होती है फिर फुर्सत के क्षणों में उसी भोजन को दूसरी बार अपने मुंह में लाकर चबाते हैं। यह जुगाली मनुष्य यादों की करा है और यह उसकी गिज़ा होती है। कभी कहीं पढ़ी पंक्तियां हैं, 'याद का क्लोरोफार्म लिए दर्द की सेज पर, प्यार के नगमें गुनगुनाते रहो।'
अगर किसी ने विविध वर्षों में जारी कैलेंडरों का संग्रह किया हो और किसी म्यूजियम की दीवारों पर लगा दें, तो उससे गुजरने का अर्थ होगा अलिखित इतिहास को बाचना या राजमार्ग छोड़कर वक्त की आंकी-बांकी गलियों से गुजरना।