दीवार / लिअनीद अन्द्रयेइफ़ / प्रगति टिपणीस

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1.

मैं और दूसरा कोढ़ी बमुश्किल रेंगते हुए दीवार तक पहुँचे और ऊपर की ओर ताका। दीवार का ऊपरी हिस्सा इतना ऊँचा था कि हमें दिखाई नहीं दे रहा था। दीवार बिलकुल सीधी और सपाट थी और आसमान को दो हिस्सों में चीर रही थी। हमारे हिस्से का आसमान धूसर-सा था और दूसरी तरफ़ का गहरा नीला। इसलिए यह समझना बहुत मुश्किल था कि काली ज़मीन कहाँ ख़त्म हो रही है और आसमान कहाँ से शुरू। धरती और आसमान के बीच दबी हुई काली रात घुटन के कारण दर्दनाक कराहें भर रही थी।हर साँस के साथ वह अपने गर्भ से चुभनेवाली जलती रेत उगल रही थी जिनसे हमारे घावों को नाक़ाबिले बर्दाश्त जलन हो रही थी।

मेरे कोढ़ी साथी ने जो मेरी ही तरह भद्दी आवाज़ में नाक से बोलता था, कहा :

— चलो, ऊपर चढ़ने की कोशिश करते हैं।

वह घुटनों के बल खड़ा हो गया, मैं उसकी पीठ पर चढ़ा। लेकिन दीवार की ऊँचाई तनिक भी कम न हुई। दीवार आसमान की तरह धरती को भी चीर रही थी। ऐसा मालूम पड़ता था मानो वह एक मोटे-तगड़े साँप की तरह लेटी हुई है, जिसके धड़ का निचला हिस्सा नीचे खाइयों तक पहुँच रहा है और ऊपरी हिस्सा पहाड़ों को छू रहा है और उसका सिर तथा पूँछ दीवार के परे कहीं दूर थे।

मेरे कोढ़ी साथी ने सुझाव दिया।

— चलो, इसे तोड़ देते हैं !

मैंने हामी भरी।

— चलो, तोड़ते हैं !

हम अपनी छातियों को दीवार से टकराते रहे। हमारे घावों से रिसते ख़ून से दीवार रंग गई, लेकिन वह चुपचाप अडिग खड़ी रही। हम हताश हो गए।

— हमें मार दो ! हमें मार दो !

यह कहते, कराहते और रेंगते हुए हम आगे बढ़े। लेकिन सभी ने अपने चेहरे नफ़रत से दूसरी ओर मोड़ लिए। हमें सिर्फ़ और सिर्फ़ हिक़ारत से काँपती उनकी पीठें दिखाई दीं।

इस तरह रेंगते-रेंगते हम एक भूखे के पास पहुँचे। वह एक चट्टान से टिका हुआ बैठा था और ऐसा लग रहा था कि मानो उसके नुकीले और चुभते कन्धों से चट्टान के पत्थरों को दर्द हो रहा हो। उसके बदन पर गोश्त न के बराबर था। उसके हिलने पर उसकी हड्डियाँ चटकती थीं और सूखी चमड़ी आवाज़ करती थी। उसका नीचेवाला जबड़ा लटका हुआ था, उसके मुँह की गहराइयों से रूखी और खुरदरी-सी आवाज़ निकली :

— मैं भू-ऊ-ऊ- खा हूँ ।

हम हँस पड़े और तेज़ी से रेंगते हुए आगे बढ़ गए। हम थोड़ा ही आगे गए थे कि चार जन हमें नाचते हुए दिखाई पड़े। वे कभी एक-दूसरे के पास आते थे तो कभी दूर जाते थे; कभी वे चक्कर लगाते थे तो कभी एक-दूसरे को गले। उनके चेहरों पर मुस्कराहट ज़रा भी न थी। उनके चेहरे फीके थे और उनसे परेशानी झलक रही थी। उनमें से एक रोने लगा, वह इस अन्तहीन नाच से थक गया था और थमना चाहता था। लेकिन फ़ौरन ही उसके एक साथी ने उसके पास जाकर उसे चुपचाप गले लगाया और उसे फिर नचाना शुरू कर दिया। वह फिर दूसरों के पास जाने लगा, उनसे दूर होने लगा। उसके हर क़दम के साथ आँसू का एक क़तरा टपक जाता था ।

मेरे साथी ने धीरे से कहा :

— मैं नाचना चाहता हूँ ।

लेकिन मैंने उसे आगे घसीट लिया ।

फिर से दीवार हमारे सामने थी और उसके ठीक बगल में दो लोग उकड़ू बैठे थे । उनमें से एक थोड़ी-थोड़ी देर में दीवार से अपना माथा टकराता था और बेहोश होकर गिर जाता था। दूसरा उसे बड़ी संजीदगी से देख रहा था। उसके गिर जाने पर वह उसका सिर अपने हाथ से टटोलता, फिर दीवार को छूकर देखता और अपने साथी के होश में आने पर कहता :

— थोड़ी-सी कोशिश और करनी होगी; अब ज़्यादा काम नहीं बचा है ।

मेरा कोढ़ी-साथी हँस पड़ा ।

ख़ुशी से अपने गाल फुलाते हुए बोला :

— ये बौड़म हैं । ये बावरे हैं । इन्हें लगता है कि दीवार के दूसरी तरफ़ उजाला है। लेकिन वहाँ भी अंधेरा है, वहाँ भी कोढ़ी रेंगते हैं और मिन्नतें करते हैं कि हमें मार दो ।

— और बुढ़ऊ ? — मैंने पूछा ।

कोढ़ी बोला :

बुढ़ऊ के बारे में क्या कहूँ ? वह भी बेवक़ूफ़ है, अंधा है, बहरा है । क्या किसी ने दीवार में उस छोटे से छेद को देखा है, जो उसने बनाया है ? क्या तुमने देखा है ? क्या मैंने देखा है ?

मैं तैश में आ गया और उसकी खोपड़ी के घाव पर ज़ोर से मुक्का मारते हुए चिल्लाया :

— तो फिर तुम ख़ुद चढ़ने की कोशिश क्यों कर रहे थे ?

वह रोने लगा, हम दोनों रोने लगे । रोते और मिन्नतें माँगते हुए हम आगे बढ़ रहे थे :

— हमें मार दो ! हमें मार दो !

लोग हिक़ारत से अपने चेहरे दूसरी ओर कर लेते थे, लेकिन कोई भी हमें मारना नहीं चाहता था । ख़ूबसूरत और ताक़तवर लोगों को तो वे मारते थे, लेकिन हमें छूने से भी डरते थे । कितने नीच थे सब !

2.

हमारे पास वक़्त नहीं था । वह हमारे पास न तो कल था, न आज है, और न ही कल होगा। रात हमारा दामन कभी नहीं छोड़ती थी । वह कभी पहाड़ों के पीछे जाकर आराम नहीं करती थी, यहाँ तक कि अपने सन्नाटे और काले रंग को ताक़तवर बनाए रखने के लिए भी नहीं । और इसीलिए वह हमेशा थकी, बेदम और उदास रहती थी। वह ग़ुस्सैल भी थी। कई बार जब हमारी चीख़ें और कराहें सुनना, हमारे दुख, घावों और उनकी जलन को देखना उससे बर्दाश्त नहीं होता था तो उसकी काली और सुस्त रहने वाली छाती भयानक ग़ुस्से की चपेट में आ जाती थी। रात फिर कटघरे में बन्द किसी कम-अक़्ल जानवर की तरह हम पर ग़ुर्राने लगती थी । ग़ुस्से से आग उगलतीं उसकी भयानक आँखें झपकने लगती थीं । उसकी आँखों की लाली से अन्धेरी और अथाह खाई, शान से खड़ी शान्त दीवार और काँपते हुए लोगों की भीड़ रोशन हो जाती थी । हम दीवार को अपना हमदर्द मानकर, उससे अपनी हिफाज़त की गुज़ारिश करते हुए उससे सट कर बैठ जाते थे, लेकिन वह तो हमारी दुश्मन थी और दुश्मन ही बनी रही । हमारी कायरता और बुज़दिली पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए रात भद्दे तरीक़े से यों हँसती कि उसका काला और धब्बेदार पेट हिलने लगता । बूढ़े और गंजे पहाड़ यहाँ तक कि दीवार भी रात की तरह ही ख़ूँख़ार हँसी हँसने लगते । दीवार हँसती और लगातार हम पर पत्थर बरसाती रहती । उन पत्थरों तले हमारे शरीर कुचल जाते थे, हमारे बदन सपाट हो जाते थे । हमारे इर्द-गिर्द की सभी चीज़ें दानव-रूपी थीं और हमें सताकर अपना मनोरंजन करती थीं। वे आपस में बातें करती थीं ।

हवा अपनी सरसराहट से उनकी बातों में जंगली संगीत घोला करती थी । हम डरे हुए-से और चारो ख़ाने चित पड़े धरती की गहराई में लोटती और बड़बड़ाती किसी भीमकाय चीज़ की दस्तक सुना करते थे । वह अपनी आज़ादी की माँग कर रही होती थी । हम सब तब फिर एक आवाज़ में याचना करने लगते :

— हमें मार दो !

लेकिन ऐसा लगता था कि हर पल मरने के बावजूद हम देवताओं की तरह अमर थे ।

ग़ुस्से और रंगरेलियों का ज्वार कुछ वक़्त बाद छँट जाता था और रात पश्चाताप के आँसू बहाने के साथ जोर-जोर से आहें भरती थी, और गला खखारते हुए हम पर गीली रेत यों उगलती थी मानो बीमार हो। हम ख़ुशी-ख़ुशी उसे माफ़ कर देते थे, उसकी कमज़ोरी और थकान पर हम खूब हँसते थे और बच्चों की मानिन्द ख़ुश हो जाते थे। हमें भूखे की चीत्कार भी मधुर गायन लगने लगती थी और बिना रुके नाच रहे चार लोगों के गुट को देखकर हमारा मन भी नाचने को ललक जाता था ।

कभी-कभी हम भी गोल-गोल घूमने लगते थे और मुझ जैसे कोढ़ी को भी मानो कुछ समय के लिए प्रेमिका मिल जाती थी । और ऐसा करने में बहुत मज़ा आता था। मैं उसको गले लगाता था और वह हँसने लगती थी । उसके दाँत सफ़ेद थे और गाल गुलाबी । इसमें बहुत मज़ा आता था ।

यह बात मेरी समझ से परे है कि ख़ुशी से चमक रहे हमारे दाँत यकायक किटकिटाने क्यों लगते थे और हम एक-दूसरे को चूमने की जगह एक दूसरे को काटने क्यों लगते थे । काटने के साथ-साथ हम मरने-मारने पर भी उतारू हो जाते थे, लेकिन ख़ुशी हमारी चीख़ों में अभी भी घुली होती थी । छोटे सफ़ेद दाँतों वाली वह प्रेमिका मेरे बीमार और कमज़ोर सिर पर वार करती थी और अपने पैने पंजों से छाती को चीरते हुए वह मेरे दिल तक पहुँच जाती थी — वह मुझ जैसे बेचारे और ग़रीब कोढ़ी को ख़ूब मारती थी । और उसका ऐसा करना रात के ग़ुस्से और दीवार की बेजान हँसी से भी कहीं ज़्यादा भयानक होता था । मैं बेचारा कोढ़ी बहुत रोता था, डर से काँपने लगता था और सबसे नज़रें चुराकर दीवार के नीच पैरों को चूमकर उससे इल्तिजा करने लगता था कि मुझ अकेले को वह उस दुनिया में चले जाने दे, जहाँ कोई वहशी नहीं है और लोग आपस में मार-काट नहीं करते हैं । लेकिन वह घिनौनी दीवार मुझे उस पार जाने नहीं देती थी। तब मैं उस पर थूकने लगता था, उस पर घूँसे मारते हुए चिल्लाता था :

— इस हत्यारिन दीवार को देखो जो हम सब पर हँसती है !

मेरी बात पर कोई ध्यान नहीं देता था क्योंकि मेरी आवाज़ नाक से निकलती थी और मेरी साँस से बदबू आती थी । वैसे भी मुझ जैसे कोढ़ी की बातों से किसी को क्या लेना-देना ।

3.

हम, यानी मैं और दूसरा कोढ़ी फिर से रेंगने लगते । फिर चारों तरफ़ शोर-शराबा होने लगता और एक भीड़-सी इकट्ठी हो जाती । और उन चारों का गुट अपनी पोशाकों से धूल झाड़ता हुआ और अपने ख़ूनी घावों को चाटता हुआ चुपचाप नाचने लगता । लेकिन हम थक चुके थे, दर्द से परेशान थे और ज़िन्दगी हमारे लिए बोझ हो गई थी। मेरा साथी यकायक बैठ गया और अपने सूजे हुए हाथ से ज़मीन पर लगातार चोट-सी करते हुए जल्दी-जल्दी नाक से निकल रही नकुवा आवाज़ में बोला :

— हमें मार दो । हमें मार डालो ।

फिर एक झटके से हम अपने पैरों पर उठ खड़े हुए और भीड़ पर टूट पड़े, लेकिन भीड़ जल्दी ही नौ-दो ग्यारह हो गई। हमें सिर्फ़ भागती हुईं उनकी पीठें दिखाई दीं । उन पीठों से ही हम गुज़ारिश करते रहे :

— हमें मार दो ।

लेकिन उनकी पीठें भी दीवार की तरह थीं — न ही वे विचलित होती थीं और न ही हमारा कहा सुनती थीं । यह बहुत ही ख़ौफ़नाक मंज़र होता है, जब लोगों के चेहरे नहीं बल्कि सिर्फ पीठें दिखाई देती हैं और जो पूरी तरह से संगदिल और बहरी होती हैं ।

लेकिन तभी एक चेहरे को देखकर मेरे साथी ने मुझे छोड़ दिया । जिस चेहरे को देखते ही उसने मुझे छोड़ दिया था वह भी मेरे और उसके चेहरों की तरह घावों से भरा और डरावना था । फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि वह एक औरत का चेहरा था । वह उसे देखकर मुस्कुराने लगा, अपनी गर्दन झुकाए और बदबू को हवा देते हुए वह उसके चक्कर काटने लगा । वह भी अपने पोपले मुँह से उसे देखकर मुस्कुराई और बिन-पलकोंवाली अपनी आँखें झुका लीं ।

जल्दी ही उन दोनों ने शादी कर ली । कुछ पल के लिए सभी के चेहरे उनकी ओर मुड़े और उन दोनों की तेज़ हँसी ने तन्दुरुस्त बदनवाले सेहतमन्द लोगों को भी झकझोर दिया । एक-दूसरे के लिए मुहब्बत का इज़हार करते हुए वे दोनों बहुत ही अजीब और अटपटे लग रहे थे । मेरे जैसा कोढ़ी भी यह सोचकर हँसा कि क्या इतने बीमार और बदसूरत लोगों का शादी करना बेवक़ूफ़ी नहीं है । मैंने मज़ाक में उससे कहा —

— बेवक़ूफ़ हो तुम । क्या करोगे तुम दोनों साथ में ?

कोढ़ी ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया :

— हम दीवार से गिरने वाले पत्थरों का सौदा करेंगे ।

— और बच्चे ?

— और हम बच्चों को मार डाला करेंगे ।

मैं सोचने लगा कि यह तो सरासर बेवक़ूफ़ी हुई कि बच्चों को सिर्फ़ इसलिए जना जाए कि बाद में उन्हें मार डालना है । वह औरत वैसे भी जल्दी ही किसी और की हो जाएगी — उसकी आँखों से इतनी मक्कारी जो झलकती है !

4.

उन दोनों ने अपना काम पूरा कर लिया था — एक जो दीवार पर अपना सिर मार रहा था और दूसरा जो ऐसा करने में उसकी मदद कर रहा था । और मैं जब तक रेंगकर उन तक पहुँचा, उनमें से एक आदमी दीवार में लगे हुक पर लटक चुका था, लेकिन उसका बदन अब तक गरम था और दूसरा ख़ुशीभरा कोई गीत गा रहा था । मैंने उसे हुक्म दिया :

— जाओ, उस भूखे को बताओ ।

और वह एक हुक्म बजाने के लिए गुनगुनाते हुए चला गया ।

मैंने देखा कि वह भूखा आदमी कैसे अपनी चट्टान से दूर हुआ । वह कभी लड़खड़ाते तो कभी गिरते-पड़ते,कभी अपनी नुकीली कोहनियों से सभी को धकेलते तो कभी घुटनों के बल घिसटते तो कभी रेंगते हुए उस दीवार की ओर बढ़ने लगा, जहाँ फन्दे पर लटका हुआ आदमी झूल रहा था। पूरा समय वह अपने दाँत चटका-चटकाकर बच्चों की तरह ख़ुश होता हुआ हँस रहा था। उसकी ख़्वाहिश थी — पैर का सिर्फ़ एक टुकड़ा !

लेकिन बहुत देर हो चुकी थी, ताक़तवर लोग उससे पहले ही वहाँ पहुँच चुके थे । एक-दूसरे को धकेलते, खरोंचते और काटते हुए, वे सभी हुक पर लटकी हुई लाश को घेरे हुए थे । वे दाँतों से उसके पैर काटने लगे । हाथ में आई हड्डी को हर एक चाट-चाटकर खा और चबा रहा था । किसी ने भी उस भूखे आदमी को घेरे में घुसने नहीं दिया। वह वहीं उकड़ू बैठ गया और अपनी सूखी जीभ से अपने होंठ चाटने लगा । उसके बड़े और खोखले मुँह से एक लम्बी चीख़ निकली :

— मैं भू-ऊ-ऊ- खा हूँ।

यह बहुत अजीब बात है कि दीवार में लगे हुक पर लटका हुआ आदमी जिस भूखे आदमी के लिए मरा, उस भूखे को उसके पैर का एक टुकड़ा तक न मिला । मैं हँसने लगा, दूसरा कोढ़ी भी हँसा । उसकी पत्नी ने हँसते हुए अपनी चालाक आँखें खोली और बन्द कर लीं, पलकें न होने के कारण वह उन्हें मचका नहीं सकती थी ।

वह बहुत ज़ोर से ग़ुस्से में चिल्लाया :

— मैं भू-ऊ-ऊ- खा हूँ ।

उसकी आवाज़ की घरघराहट ग़ायब हो गई । उसकी चीख़ बिलकुल साफ़ और खनखनाती आवाज़ में अपनी पूरी कर्कशता के साथ ऊपर की और बढ़ गई । वह दीवार से टकराकर अँधेरी खाई और पहाड़ों की धूसर चोटियों की ओर उड़ गई ।

जल्दी ही दीवार के पास के सभी लोग चिल्लाने लगे । टिड्डियों के मानिन्द उनकी तादाद बहुत ज़्यादा थी, और वे टिड्डियों की तरह ही भूखे-प्यासे भी थे । ऐसा लग रहा था मानो धरती दहक रही हो और अपने पथरीले जबड़े खोलकर नाक़ाबिले-बर्दाश्त दर्द से कराह रही हो । सूखे पेड़ों के उस जंगल की तरह, जो तेज़ हवा में एक ओर को झुक जाते हैं । लोगों के पतले, याचना में गिड़गिड़ाते और बमुश्किल सीधे होते हाथ दीवार पर ऊपर बढ़ने की नाकामयाब कोशिश कर रहे थे । उनमें इतनी अधिक निराशा थी कि पत्थर भी हिल गए और भूरे-नीले बादल डरकर मुँह छिपाने लगे । लेकिन दीवार अचल थी, ऊँची थी और बड़ी उदासीनता से उसने भारी और बदबूदार हवा की परतों को भेदती-चीरती आ रही आवाज़ को अपने से परे कर दिया ।

सभी निगाहें दीवार पर टिकी हुई थीं और सबकी आँखों से आग बरस रही थी । उन्हें यह विश्वास था कि अब बहुत जल्दी वह गिर जाएगी और उनके लिए एक नई दुनिया खुल जाएगी । अपने इस अन्धविश्वास में उन्हें दीवार के पत्थर हिलते हुए दिख रहे थे । दीवार में नीचे से लेकर ऊपर तक पत्थर का एक साँप-सा उन्हें थरथराता हुआ दिखा जिसका पोषण ख़ून और इनसानी भेजों से हुआ था । हमारी आँखों में आँसू उमड़ आए थे और हो सकता है कि इसी वजह से दीवार हमें थरथराती हुई लग रही थी । हमारी चीख़ें अब और ज़्यादा तेज़ हो गई थीं । जीत के पास तक पहुँच जाने की ख़ुशी और जोश उनमें गूँज रहा था ।

5.

और तभी यह घटना घटी । धँसे और सूखे गालोंवाली एक बूढ़ी औरत एक चट्टान की बुलन्दी पर चढ़ी, जिसके बाल किसी बूढ़े और भूखे भेड़िये की तरह थे । उसके फटे कपड़ों से उसके बदन का रूखा-सूखा कंकाल झाँक रहा था, उसके सूखे और लटके स्तन दिखाई दे रहे थे, वही स्तन जिन्होंने कई लोगों को जीवन दिया था, लेकिन अब जिनमें माँ की ममता ज़रा भी नहीं बची थी । उसने अपने हाथ दीवार की ओर फैलाए और हम सभी की निगाहें भी उस तरफ़ मुड़ गईं । वह अपनी फटी हुई आवाज़ में बुदबुदा रही थी । लेकिन उसकी बात इतनी दर्दनाक थी कि भूखे की हताशा भरी चीख़ भी शरम से मर गई । वह कह रही थी :

— मेरा बच्चा मुझे लौटा दे !

हम सब चुप रहे और अपने ग़ुस्से को छिपाते हुए दीवार के जवाब का इन्तज़ार करने लगे । वह औरत जिसे ‘मेरा बच्चा’ कह रही थी, उसका भेजा दीवार पर ख़ूनी-भूरे धब्बों की तरह दिख रहा था । हम बड़ी बेकसी से और अंगारे बरसाती नज़रों से उस क़ातिल दीवार के जवाब का इन्तज़ार कर रहे थे। सब तरफ़ ऐसी ख़ामोशी छाई थी कि हमें अपने सिर के ऊपर मण्डराते बादलों की सरसराहट तक सुनाई दे रही थी। काली रात ने भी अपनी कराहों को अपने सीने में दबा लिया था। वह मानो धीमे से सीटी बजा रही थी और अपनी जलती महीन रेत उगल रही थी, जिससे हमारे घाव छरछरा रहे थे। और सख़्त आवाज़ में फिर से वही कड़वी माँग गूँज उठी :

— ऐ ज़ालिम, मेरा बच्चा मुझे लौटा दे !

हमारे चेहरे अब पहले से ज़्यादा ख़ौफ़नाक हो गए थे, लेकिन वो नीच दीवार चुप ही रही। तभी सख़्त-सा दिखनेवाला एक बूढ़ा शख़्स ख़ामोश भीड़ से बाहर आकर औरत के बग़ल में खड़ा हो गया । और बोला —

— मुझे भी मेरा बेटा लौटा दे !

यह नज़ारा ख़ौफ़नाक तो था ही साथ ही जूनून भरा था ! मेरी पीठ ठंड से सिकुड़ गई थी, मेरी मशक़ें भी किसी अनजान और ख़तरनाक ग़ुस्से के चलते सिकुड़ गई थीं। मेरे साथी ने अपने दाँत पीसते हुए मुझे धक्का मारा। उसके मुँह से बदबूदार साँस फुसफुसाहट की एक लहर की तरह बाहर आयी।

तभी भीड़ में से एक और आदमी निकला और बोला :

— मुझे भी मेरा भाई लौटा दे !

एक और आदमी भी बाहर आया और बोला :

— और मुझे मेरी बेटी लौटा दे !

आदमी और औरतें, बूढ़े और जवान सभी भीड़ से बाहर आ-आकर अपने हाथ फैला-फैलाकर ऊँची आवाज़ों में यही माँग करने लगे :

— हमें हमारे बच्चे लौटा दे !

अब मुझ जैसे कोढ़ी को भी अपने अंदर ताक़त और हिम्मत का एहसास हुआ, मैंने भी ऊँची आवाज़ और धमकीभरे अंदाज़ में कहा :

— ऐ क़ातिल, मुझे मेरा वजूद लौटा दे !

वह बस चुप रही। वह ऐसी धोखेबाज़ और नीच थी कि नाटक करती रही मानो उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा हो। तभी एक डाहभरी हंसी से मेरे ज़ख़्मी गाल काँपने लगे और ग़ुस्से के उन्माद से दर्दभरे हमारे दुखते दिल भर गए। लेकिन वह अभी भी उदासीन और चुप थी। उस औरत ने फ़ितूरी ढंग से अपने पतले और बेरंग हाथ हिलाते हुए सख़्ती से कहा :

— लानत है तुझ पर, मेरे बच्चे की हत्यारिन !

सख़्त दिखनेवाले उस बूढ़े ने भी दोहराया :

— लानत है तुझ पर !

और पूरी दुनिया की हज़ारों आवाज़ों ने गरजती कराह में दोहराया :

— लानत है तुझ पर ! लानत है ! लानत है !

6.

काली रात ने गहरी आह भरी जिससे पूरी दुनिया उन चट्टानों की मानिंद हिल गई जिनपर तूफ़ानी समंदर अपने भरपूर जोश और शोर के साथ गिरता है। हज़ारों परेशान और बेचैन छातियाँ दीवार से टकराने लगीं। ख़ूनी झाग का उछाल ऊपर मंडराते बादलों तक पहुँच गया और उसने उन्हें अपने रंग में रँग दिया। बादल मशाल की तरह लाल और भयानक हो गए। उनकी ख़ूनी लाल छाया नीचे पड़ने लगी, जहाँ उपेक्षित लोगों का मटमैला-सा ख़ूँख़ार झुण्ड जो तादाद में बहुत ही बड़ा था गड़गड़ा रहा था, गरज रहा था और चीत्कार कर रहा था। उस जमावड़े ने दर्दनाक और मरती हुई एक ऐसी कराह भरी जो नाक़ाबिले-बयान थी। लेकिन दीवार वैसे ही अडिग और चुप खड़ी रही। उसकी उस चुप्पी में डर और शर्मिंदगी नहीं थे क्योंकि उसकी आकारविहीन आँखें उदास और डरावने रूप से शांत दिख रही थीं। उस दीवार ने बड़े ग़ुरूर के साथ एक महारानी की मानिंद अपने कन्धों से ख़ून से लथपथ चोग़ा उतारा। उस चोग़े के किनारे क्षत-विक्षत लाशों के बीच कहीं गुम थे।

और हम पल-पल मरने के बावजूद देवताओं की तरह अमर थे। इनसानी उन्माद का एक तूफ़ान फिर उमड़ा और अपनी पूरी ताक़त के साथ दीवार से टकराया। थोड़ा सुस्ताने के बाद वह तूफ़ान बार-बार तबतक उठता रहा, जबतक वहाँ थकान, मुर्दा नींद और सन्नाटे का साम्राज्य नहीं छा गया। मैं दीवार से सटा बैठा था और मैंने देखा कि वह दम्भी महारानी-दीवार डगमगाने ​​लगी है और अचानक गिर जाने के डर से उसके पत्थर काँपने लगे हैं। मैं चिल्लाया :

— वो गिर रही है। भाइयो, वो गिर रही है !

मुझे जवाब मिला :

— तू ग़लत कह रहा है, कोढ़ी !

फिर मैं उन सब से मिन्नतें करने लगा :

— ठीक है, दीवार भले खड़ी रहे। लेकिन क्या हमारी हर लाश हमारे ऊपर की तरफ़ बढ़ने और दीवार के ऊपरी छोर तक पहुँचने की सीढ़ी नहीं है? हम तादाद में बहुत ज़्यादा है और हमारी ज़िदगी एक बोझ है। हम ज़मीन को लाशों से ढक देंगे, लाशों के ऊपर नई लाशें डालते जाएँगे और ऐसे हम ऊपर तक पहुँच जाएँगे। अगर हममें से कोई एक भी बच गया तो कम से कम वह तो नई दुनिया देख लेगा।

एक पुरउम्मीद ख़ुशी के साथ मैंने मुड़कर देखा। मुझे केवल पीठें दिखाई दीं — उदासीन, मोटी और थकी पीठें। चार लोगों की टोली अपने अनंत नाच में व्यस्त थी, कभी वे पास आते थे, कभी दूर जाते थे। काली रात एक बीमार शख़्स की तरह गीली रेत उगल रही थी और दीवार एक अभेद्य दानव की तरह खड़ी थी।

मैंने पुकारा :

— भाइयो !, भाइयो !

मेरी आवाज़ नकुवा थी और साँसें बदबूदार। कोई भी मुझ जैसे कोढ़ी की बात सुनना नहीं चाहता था।

दुख…! दुख…! दुख…!

दुख ही जीवन की कथा रही…!


मूल रूसी भाषा से अनुवाद : प्रगति टिपणीस

भाषा एवं पाठ सम्पादन : अनिल जनविजय

मूल रूसी भाषा में इस कहानी का नाम है — स्तिना (Леонид Андреев — Стена)