दीवाली दिलवाली की / प्रमोद यादव
बहुत ही मशक्कत-भरा और खर्चीला त्यौहार है- दीवाली. अच्छे-अच्छे दिलवालों के भी छूट जाते हैं पशीने. तब दिलवाली (घरवाली, गृहस्वामिनी, घर की लक्ष्मी) ही इस त्यौहार से तालमेल बिठाने में होती हैं - कामयाब. अन्य महीनों के तीज- त्यौहार तो बड़े आराम से निपटा लेती हैं पर दीवाली वाला महीना....उफ़...जान ही निकल जाती है....हाडतोड मेहनत और अनाप-शनाप खर्च...और समय पर पतिदेव को वेतन-बोनस न मिले तो बेडा ही गर्क..फिर भी सारी परिस्तिथियों-विपत्तियों.को’एडजेस्ट’कर येन-केन-प्रकारेन हर साल दीवाली मना ही लेती हैं दिलवालियाँ. दिलवाले ( मर्द ) के भरोसे रहें तो दीवाली ही न मने.
मर्दों के तो दिल ही नहीं होते. केवल जवानी के दिनों में कुछेक लोगों को इसके होने का अहसास भर होता है, वह भी एक सीमित समय के लिए. उसके बाद तो उनके पास केवल’हार्ट’रह जाता है और रह जाता है उसके साथ समय-बेसमय अटकने वाला’अटैक’. लेकिन युवतियां बचपन से ही इस मामले में’इन-बिल्ट’दिलवाली होती हैं. जो भी काम करती हैं, दिल खोलकर करती हैं,पूरे दिल से करती हैं प्यार-मुहब्बत करेगी तो दिल खोलकर, चुगली-चारी करेगी तो दिल खोलकर, गाली-गलौज...मार-धाड़ भी करती हैं तो पूरे दिल से. सारा काम दिल से करने की आदत बन जाती है इसलिए भारी से भारी झटके भी दिल में जज्ब कर लेती हैं. इन्ही वीरांगनाओं के चलते परिवार दीवाली जैसे त्यौहार आराम से मना पाते हैं वरना मर्दों की चले तो दीवाली त्यौहार को भी वे पन्द्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी की तरह केवल’जन-गण-मन’में ही निपटा दें.
दीवाली त्यौहार में हर घर की गृहिणी ( चाहे नौकरीपेशा हो,व्यवसायी या मजदूर की पत्नी हो ) सबकी विचारधारा एक जैसी हो जाती है. सब एक जैसा सोचती हैं और एक जैसा करती भी हैं इसलिए किसी एक घर के दीवाली-दृश्य से पूरे शहर के दीपोत्सव का विहंगम दृश्य देख सकते हैं एक नौकरीपेशा परिवार के दीपोत्सव की एक-बानगी प्रस्तुत है-
‘इस बार कितना बोनस मिलेगा जी?.. दीवाली के पहले मिल जाएगा ना?..बगलवाली रीता बता रही थी ,सोने का भाव कुछ उतरा है..इस बार झुमके जरूर लूंगी’ड्यूटी से लौटा पति चुपचाप शर्ट-पैंट उतार केवल चड्डी में इधर-उधर टौवेल ढूढ रहा है.
‘अजी...मैं आपसे ही पूछ रही हूँ..’ पत्नी जरा जोर से चीखी.
‘हाँ...हाँ..सुन लिया..’ चड्डी पहना पति पत्नी की ओर मुखातिब हो बोला-’कारखाना इन दिनों मेरी तरह चड्डी में आ गया है....ख़ाक बोनस मिलेगा?...तनखा ही मिल जाए तो गनीमत समझो....और तुम अखबार नहीं पढ़ती क्या? दिन भर घर में बैठी करती क्या हो?’
‘ऐश करती हूँ..’ गुस्से से पत्नी बिफरी-’मुंह-अँधेरे उठकर झाड़ू-पोंछा, बर्तन साफ करती हूँ..नाश्ता बनाती हूँ..बच्चों को नहला-धुलाकर स्कूल भेजती हूँ...कपडे धोती हूँ...शाम को फिर वही चूल्हा-चौका...और आप कहते हैं – ऐश करती हूँ...’
‘अरे बाबा..मेरा ये मतलब नहीं था..
मैंने तो यही पूछा था कि अखबार क्यूं नहीं पढ़ती...सब काम के लिए समय निकाल लेती हो तो अखबार के लिए भी क्यूं नहीं .. अखबार पढ़ती तो न बोनस के बारे में पूछती ,ना ही सोने के भाव के लिए तुम्हे रीता से पूछने की जरुरत पड़ती...’पति ने शांत भाव से समझाया.
‘तो फिर दीवाली हम कैसे मनाएंगे जी?’पत्नी घबराहट भरे स्वर में बोली-’कोई लोन-वोन ड्यू हो तो ले लो..साल भर में कटवा देना...केवल तनखा से कैसे काम चलेगा?.. दीवाली में तो खर्चे-ही खर्चे हैं...घर की सफाई कराना है, रंग-रोगन कराना है..झालर लगवाना है..रिंकी-पिंकी के लिए नए कपडे , पटाखे खरीदने हैं...पूजा-पाठ की सामग्री...मिठाई वगैरह भी खरीदने हैं...मैं पिछले साल वाली बनारसी साडी से काम चला लूंगी, पर आप इस बार एक नई सफारी-सूट ले लेना..कई सालों से पुराने कपड़ों में ही मना रहें हैं..अच्छा नहीं लगता..झुमके मैं अगले साल ले लूंगी..’
‘इस साल क्वार्टर न पुतायें तो क्या होगा?’, पति ने सवाल दागा.
‘कैसी बातें करते हो जी...साफ-सफाई, रंग-रोगन सर्वथा जरूरी है...साफ-सुथरे घर में ही लक्ष्मी पधारती है..’ पत्नी ने सफाई दी.
‘पिछले कई सालों से तुम यही कहती आ रही हो.. हर साल सब कुछ होता है पर लक्ष्मीजी हर बार ये क्वार्टर ही भूल जाती है...पड़ोस के क्वार्टर को जरा देखो, बरसों से सामने कूड़ा-करकट पड़ा है...रंग-रोगन तो कंपनी फौंडेशन के जमाने का लगता है...फिर भी लक्ष्मी वहीँ घुसी जाती है...कभी ए.सी. बनकर तो कभी कार बनकर , कभी फ्रिज बनकर तो कभी टी.वी. बनकर..हमारे क्वार्टर से उन्हें क्या एलर्जी है, समझ नहीं आता..’ पति हताशा से हांफ गया.
‘देवी-देवताओं के बारे में ऐसा नहीं कहते जी...जब-जब जो-जो होना है, तब-तब सो-सो होता है...आप जी छोटा ना करें धीरज रखें...मेरा मन कहता है.. लक्ष्मीजी इस बार जरूर पधारेंगी...आप फिलहाल पता करें- कितना लोन मिलेगा...ताकि उस हिसाब से बजट बनाएँ...’
पत्नी की समझाईश से पति शांत हो गया दीवाली आते-आते तनखा भी मिल गया
और पर्याप्त लोन भी. श्रमिक आंदोलन के चलते बोनस अटक गया. पर इस बात से वे तनिक भी दुखी नहीं थे...लोन जो मिल गया था. साफ-सफाई हुई.. रंग-रोगन हुआ..बिजली का झालर भी पूरे क्वार्टर में झूलने लगा...बच्चों के लिए नए कपडे , फुलझड़ी-पटाखे खरीदे गये..पत्नी के लिए सोने के झुमके..खुद के लिए.सफारी सूट..ना-ना
कहने पर भी पत्नी के लिए दो हजार की कांजीवरम की नई साडी...पूजा-पाठ.की ढेरों सामग्री और लजीज मिठाईयों के कई डिब्बे. दीवाली की पूर्व संध्या सब कुछ संपन्न हो गया. अब कल दीवाली है.
शाम का समय. पति-पत्नी साफ-सुथरे,सजे-धजे घर और खरीदारी के सामानों को निहारते-बतियाते बैठे हैं. पति ने मजाक किया-’लो भई...जैसा कुछ चाहती थी,सब हो गया...अब बताओ लक्ष्मीजी कब पधारेंगी?’
पत्नी कुछ जवाब देती कि एकाएक दरवाजे की घंटी बजी. पति उठकर दरवाजे की ओर लपका. खोला तो अवाक् रह गया.. बड़ी मुश्किल से होंठों से शब्द फूटे-’अरे...आप...’
‘अरे बिटवा..अब का बताएं...गांव में डेंगू की बीमारी से आठ लोग मर गए...तुम्हारे कक्काजी बोले- .गांव छोडो...अब की दीवाली शहर में बिटवा के इंहा मना आओ..सो हम चले आये...ताला-वाला मारके वो भी कल दोपहर तक इंहा पहुँच जावेंगे..’ दो नंग-धडंग बच्चों के साथ पोटली लिए खड़ी गांव की पडोसवाली लक्ष्मी काकी एक साँस में बोल गयी.
पति ने’अच्छा... अच्छा,....हाँ....हाँ’कहते उन्हें अंदर लिवा लाये. दूर से ही पत्नी को इशारा किया-’पांव छुओ.’ पत्नी दौडकर पांव छुई...फिर इशारे से पूछी-’कौन हैं?’
पति ने दीवार में टंगे लक्ष्मीजी की फोटो की ओर इशारा कर धीरे से बुदबुदाया-’लक्ष्मी’हाथ-मुंह धोने काकी जब बाथरूम घुसी तो पत्नी ने चिकोटी काटी-’अरे बताईये भी...कौन हैं ये?’
पति ने जवाब दिया-’गांववाली पड़ोस की लक्ष्मी काकी’फिर मजाक के मूड में कहा-’तुम कहती थी ना...इस बार लक्ष्मी जरूर हमारे घर आएगी....लो...आ गयी..और वो भी एक दिन एडवांस में...अब उसकी सेवा करो, खातिरदारी करो..मैं तो चला...अपने दोस्तों के यहाँ ताश खेलने..’
पत्नी के चहरे का रंग जो कुछ समय पहले दमदमा रहा था, एकाएक बगलवाले क्वार्टर की तरह फीका पड़ गया.पर थोड़ी ही देर में उसने स्वयं को संयत कर लिया. लक्ष्मीजी की फोटो के सामने हाथ जोड़,आँखें मूंद प्रार्थना की-’हे माँ...मेरी लाज रखो...हर दीवाली से यह बेहतर दीवाली हो, ऐसी कृपा करो..’फिर सब कुछ भूलकर काकी और उसके बच्चों को खिलाने-पिलाने में व्यस्त हो गयी. देर रात तक गांव का हालचाल पूछती रही.
दूसरे दिन , दीवाली की सुबह अखबार पढते ही पतिदेव खुशी से उछल पड़े, जोर से चीखे-’अरे सुनती हो....जल्दी आओ... अखबार में तुम्हारा नाम छपा है...झुमके के साथ जो इनामी कूपन मिला था ना...उसका पहला इनाम- एक लाख रूपये, तुम्हारे नाम निकला है....तुम ठीक कहती थी.. लक्ष्मी जरूर आएगी...देखो, सचमुच आ गयी...हम लखपति हो गए..’ पत्नी खुशी से दौडती-हांफती आई, बोली-’लक्ष्मीजी तो कल से आई है जी..आपने पहचाना नहीं...जाईये उनके बच्चों के लिए नए कपडे और काकी के लिए नई साडी ले आओ...खूब धूमधाम से मनाएंगे दीवाली..’ फिर पति के गले में बांहें डाल बोली-’एक बात जान लो जी...दिल में संतोष हो तो हर दिन दीवाली है....पर संतोषी होने के लिए एक अदद दिल की दरकार होती है जो सिर्फ हम वीरांगनाओं की थाती है..’ पति ने पत्नी को भींचते हुए कहा-’ठीक कहती हो...तुम दिलवालियों से ही है दीवाली...वरना सब खाली..खाली...’