दीवाली पर लाठियों की भेंट / गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'
उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान के प्रवासी मजदूर महाराष्ट्र, गुजरात और पंजाब में तो केवल धक्के खा रहे हैं। लेकिन देश के दिल दिल्ली में तो लाठियाँ भी खा रहे हैं।
दिवाली के पावन पर्व पर देश की रेलवे का अपने देशी मजदूरों के लिए ऐसे नायाब गिफ्ट का इंतजाम देखकर ‘गिरगिट‘ स्टेशन से सीधे घर वापस आकर बोला, ‘भाईजी! तुम्हीं जाओ गांव मैं तो दिल्ली में ही पड़ा रहूँगा।‘ यह कहते-कहते उसने अपने पिछवाड़े के श्याह निशानों की झाँकी दिखा दी। मुझे लगा कि इन निशानों को सेंकने के लिए इसका वापस आ जाना वाजिब ही है।
गिरगिट के दुःख-दर्द सुनकर मैं स्टेशन पहुँचा तो वहाँ क्या देखता हूँ कि ढाई-ढाई सौ लोगों की लंबी कतारें और उस पर भी जोरों की धक्कामुक्की। ऐसे में मुझे काशी विश्वनाथ सहित सभी बड़े-बड़े मंदिरों की लंबी-लंबी कतारें याद आ गईं। कभी-कभार की भगदड़ और उसमें जाने वाली सैकड़ों जानें हमारी आँखों में तैरने लगीं। मुझे लगा, अगर यही दशा रही तो वह दिन दूर नहीं जब यहाँ भी पुलिस की मार से डरी जनता भगदड़ का शिकार होगी।
रेलवे विभाग बड़ा सहिष्णु विभाग है। कितनी भी जानें जाएँ पर वह अपनी छाती पर पत्थर रखकर सारे दुःख सह लेता है। मैं तो यही मानता हूँ कि हमारा रेलवे डिपार्टमेन्ट धन्य है जो हर साल करोड़ों की क्षतिपूर्ति देकर भी अपनी ट्रेनें बराबर दौड़ा रहा है।
हमारा देश जेम्स वाट का सम्मान करता है, इसीलिए उनके बनाए कोयले के इंजनों को मॉडिफाई करके अब भी चला रहा है। इतना ही नहीं वह अंग्रेजों का सम्मान करने के लिए खुद नई गाड़ने के बजाय उनकी गाड़ी पटरियों पर ही रेलगाड़ियाँ दौड़ा रहा है।
लोग रेलवे को दोष देते हैं कि वह न तो गाड़ियाँ बढ़ा रहा है न ही गाड़ियों की बारंबारता लेकिन वे अपने जनसंख्या वृ़द्धि के कार्यक्रम पर बिल्कुल विचार नहीं करते। यहाँ तक कि इन टेªनों में एक पूर्व रेल मंत्री भी अपने नौ-नौ और दस-दस बच्चों की फुलवारी लेकर चलते पाए गए हैं। इस दिवाली में यदि वे भी लाइन में खड़े होते तो आर.पी.एफ. वाले उनका भी अगवाड़ा पिछवाड़ा गरम कर देते। पुलिस और उसकी लाठी दोनों की आँखें नहीं होतीं। उनके सिर्फ और सिर्फ कान होते हैं। जैसे ही आदेश मिलता है वे पिल पड़ते हैं। उन्हें मारने में बड़ा मजा आता है, फिर चाहे सामने बच्चा हो, जर्जर बूढ़ा या अबला नारी। बिहार और उत्तर प्रदेश के पुलिस बल के पराक्रम के किस्से हम आए दिन सुनते ही रहते हैं। हो न हो उन्हीं से प्ररित होकर रेलवे पुलिस अपना पराक्रम दिखा रही हो।
घर लौटकर गिरगिट को जनरल डिब्बे में यात्रा करने की सलाह क्या दे दी, वह आग-बबूला हो उठा। बोला कि मुझे अभी अपनी जिंदगी भार नहीं लगती है। अभी दस-बीस साल और जीना है। जनरल डिब्बे के यात्रियों को बहादुरी के पुरस्कार देने चाहिए।
उसके अनुसार हिंदुस्तान में नियमित रूप में जनरल में चलने वाला यह प्राणी राजस्थान के बीहड़ रेगिस्तान से लेकर ध्रुवों तक पर आसानी से जी सकता है, क्योंकि उसे दो-दो, तीन-तीन दिन तक एक ही ठौर पर और कभी-कभी एक ही पैर पर खड़े होकर बिना कुछ खाए-पिए यात्रा करने का सघन अभ्यास हो जाता है।
डिब्बों के ऊपरी डंडों से बँधी लुंगियों में चमगादड़ से झूला झूलते। नींद में बेबस किसी की नाक-सिर भिड़ाकर उसे आहत करते और फिर गिड़गिड़ाते लोगों को देखकर दया ही आती है क्रोध नहीं। इस दृष्टि से शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए भी इन यात्रियों में से किसी को नामित किया जा सकता है।
यहाँ कभी-कभी गृहयुद्ध की स्थितियाँ बनते भी देर नहीं लगती। यह गृहयुद्ध बढ़ते-बढ़ते कई डिब्बों तक फैलकर विश्वयुद्ध का भी रूप ले सकता है। जिस रेलवे का ऐसा इतना विराट स्वरूप हो, उसमें ऐसी छिट-पुट घटनाएँ तो उसके इतिहास में स्थान भी नहीं पाएँगी।