दुःख पास बैठाने की चीज़ नहीं है / सुषमा गुप्ता
दुःख को अपनी मर्जी से पास बैठाने का या दूर भेजने का विकल्प हमारे पास नहीं होता।
पर क्या वाकई!
दुःख जब-जब पास आकर बैठा मैं मौन उसको देखती रही। एक ही दुःख से घिरे जब ज़माने बीत जाते हैं, तब आँखों से आँसू आने बंद हो जाते हैं, वह दुःख हमारी साँस की आवाजाही का एक मौन हिस्सा बन जाता है।
मैं अक्सर चुपचाप दुःख को निहारती रहती हूँ। पास बैठे दुःख के अजीब-अजीब चेहरे देखती रहती हूँ।
कभी-कभी वह विकृत मानसिकता लेकर आता है, कभी-कभी वह छल भरे आवरण ओढ़कर आता है।
पर कभी-कभी दुख भी हद मासूम और निश्चल होता है।
इतने सालों के ज़िंदगी के अनुभव ने मुझे सिखाया कि दरअसल दुःख चुनना हमारे हाथ में न होकर भी होता है।
जो दुःख छल और फरेब से, विकृत मानसिकता से भरे हमारे पास आ बैठते हैं, उनसे पीठ फेरना कहीं ना कहीं हमारे ही अपने अंदर की बात होती है।
किसी और को बदलने की बजाय अगर हम अपने साथ थोड़ा-सा सख़्त बर्ताव करें, तो इन दुखों से इतना तो पीछा छुड़ा सकते हैं कि रोज़-रोज़ ये ज़हन पर हावी ना हों।
जो दुख किसी अपने के जीवन-त्याग जाने से होता है, जो दुख अपने माता-पिता, अपने परिवार, अपने बच्चों, अपने सच्चे दोस्तों के साथ हुए हादसों से दिल पर बीतता है, वह दुःख मन के अंदर हर हाल में जगह बनाता है।
उस दुःख को क्या भुलाओगे!
उस दुःख से दूर हो जाना दरअसल खुद के होने को नकार देना है।
यह बात भी उतनी ही सच्ची है कि चाहने से न माफ किया जा सकता है, न कुछ भी भुलाया जा सकता है पर कितना अपने अंदर बिठाना है और कितना झटक देना है इसकी समझ होनी चाहिए।
प्रिय लोगों के दुख भी प्रिय होते हैं।
उनसे पीठ नहीं फेरी जाती, उन्हें सीने से लगाया जाता है कि वह दुःख थोड़ा—सा हमारे अंदर ट्रांसफर हो जाए।
जो प्रिय हैं, दिल के करीब है उनको थोड़ी राहत जाए।
पर हर दुख को गले नहीं लगाया जाता दोस्त, जैसे हर दुःख से मुँह नहीं मोड़ा जाता।
तुम चुन लो, तुम्हें कौन-सा दुःख पास बैठाना है
मासूम वाला या छल वाला
और यकीन करो
यह इतनी भी नामुमकिन बात नहीं है।
हालाँकि हम शुरुआत से ही इसका बिल्कुल रिवर्स करते हैं। छल भरे सब दुखों को सीने पर चट्टान की तरह बिठाए रखते हैं और अपनों के मासूम दुःख हमें कभी-कभी याद आते हैं।
नहीं करना चाहिए यह।
यह गलत है।
बहुत गलत।