दुःख / दीपक मशाल

Gadya Kosh से
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उतने लोग जुट चुके थे जितनों की इस बरसाती मौसम में उम्मीद की जा सकती थी। लाश दाहलान में ज़मीन पर बिछी चादर पर पड़ी थी। दिवंगत की पत्नी अभी तक अपनी साड़ी के सुर्ख से सफ़ेद हो जाने पर यकीं नहीं कर पा रही थी। अपने टूटे हाथ पर चढ़े प्लास्टर की परवाह किये बिना कभी वह सावित्री ना बन पाने की विवशता पर अपनी छाती कूटती तो कभी पिता का मतलब समझने से पहले ही अपने सर से पिता का साया खो चुके दोनों बच्चों को देख बिलकुल पत्थर की मूरत बन जाती। जो उस दृश्य को जितने करीब से देखता उसको अपना दिल उतनी ही बेदर्दी से चिरता महसूस होता।

बाहर चबूतरे पर दुखी मन से बैठे उपाध्याय मास्टर बड़े व्यथित लग रहे थे। दीक्षित जी उनके समीप आकर बैठने ने मास्टर साब की चुप्पी को विराम दिया

- बड़ा ही बुरा हुआ दीक्षित जी, अभी उम्र ही क्या थी बिचारे की।

- क्या कहा जाए मास्टर साब सब उसकी मर्जी है

प्रतिउत्तर में दीक्षित जी ने भी शोकाकुल होने का परिचय दिया

- अच्छा एक बात बताइयेगा, क्या आपने भी करा रखा था बीमा सुरेश से?

अपना मुँह दीक्षित जी के कानों के पास ले जाकर उपाध्याय मास्टर ने सवाल किया

- अब क्या कहें मास्टर साब!! इस इतवार को ही सुरेश आया था घर पर, मैं पूजा-पाठ में लगा था सो बाद में भरकर देने का कह के फॉर्म वहीं रखवा लिया था। बाद में दस्तखत-वस्तखत सब करके रख लिए कि अगले रोज आएगा तो ले जाएगा। लेकिन सीधे उसके एक्सीडेंट में गुजर जाने की खबर आई।। अब होनी को कौन टाल सकता है।

- हाँ भाई, उसके हाथों सब मजबूर है।

- लेकिन ऊपर वाले की बड़ी मेहरबानी रही कि मैं उससे बीमा ना करा पाया। मुझे तो मेरे पूजा-पाठ ने बचा लिया, वर्ना खाम्ख्व्वाह दस चक्कर लगाने पड़ते बीमा कार्यालय के। खैर मेरी छोड़िये आपके तो पैसे फंस गए होगे, कितनी किश्तें हो गई थीं?

- सात

उपाध्याय मास्टर ने मुँह दूसरी तरफ फेरते हुए जवाब दिया। अचानक उनका दुःख कई गुना हो गया था।