दुआ / रमेश बतरा
वह दफ़्तर में था। शहर में दंगा हो गया है, यह ख़बर ढाई बजे मिली। वह भागा और ज़िन्दगी में पहली बार शाम का अख़बार ख़रीद लिया। दंगा उसी इलाके में हुआ था, जहाँ उसका घर था। यह जानते हुए भी कि उसके पास पैसे नहीं हैं, वह स्कूटर-रिक्शा में बैठ गया। पिछली बार वह स्कूटर में कब बैठा था, उसे याद नहीं। वह हमेशा बस में सफ़र करता है। दफ़्तर पहुँचने में देर हो रही हो या कोई कितना भी ज़रूरी काम हो, न तो उसे उस बस की प्रतीक्षा से ऊब ही होती है और न लाइन तोड़ने में ज़िन्दगी का कोई आदर्श टूटता नज़र आता है। यानी तब वह सोचता नहीं था और आज उसके पास सोचने की फुर्सत नहीं थी। वह घर पहुँचकर सबकी ख़ैर-कुशल पाने को चिन्तित हो रहा था। बीवी तो घर पर ही होगी, लेकिन बच्चे स्कूल जाते हैं और इसी वक़्त लौटते हैं। कहीं ...वह सोचता जा रहा था।
स्कूटरवाले ने दंगाग्रस्त इलाके से कुछ इधर ही ब्रेक लगा दी — बस, इससे आगे नहीं जाऊँगा।
—चलो, चलो यार, मैं ज़रा जल्दी में हूँ।
— मुझे अपनी जान से कोई बैर नहीं है जी ! — वह मीटर देखकर बोला — पाँच रुपए सत्तर पैसे।
— तुम्हें पैसों की पड़ी है और मेरी जान पर बनी हुई है। — वह जेब में हाथ डालकर बोला — सवारियों से बदतमीज़ी करते हो, तुम्हें शर्म आनी चाहिए ... यह तो कोई तरीका नहीं। — वह गुस्साता हुआ उतरा और उतरते ही जेब में हाथ डाले-डाले, स्कूटरवाले की तरफ से आँख मूंदकर भागने लगा।
— ओए, तेरी तो...बे। — स्कूटरवाला कुछ देर तक उसके पीछे भागा, मगर उसे गोली की तरह दंगाग्रस्त इलाके में पहुँचता पाकर हाँफता हुआ ख़ुद ही से बड़बड़ाने लगा — साला, हिन्दू है तो मुसलमानों के हाथ लगे और मुसलमान है तो हिन्दुओं में जा फँसे !