दुक्खम‌ शरणम गच्छामि! / धीरेन्द्र अस्थाना

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अंधेरा पूरा था और सन्नाटा संगदिल। उस विशाल कैफे के ठंडे हॉल में मेरे कदम इस तरह पड़े जैसे आश्चर्य लोक में एलिस। हॉल सिरे से खाली था और मैं निपट अकेला। उढ़के हुए शानदार दरवाजे को खोल कर भीतर आने पर सबसे पहला सामना काउंटर के ऊपर वाली दीवार पर टंगी घड़ी से हुआ। सुबह के चार बजकर बीस मिनट हो रहे थे। घड़ी के ठीक ऊपर एक मर्करी बल्ब जल रहा था, सिर्फ घड़ी के लिए। लगभग बर्फ हो चुकी उंगलियों को एक दूसरे से लगातार भिड़ाकर उन्हें गर्म करने के निष्फल प्रयत्न के दौरान मैं एक विशाल दर्पण के सामने आ गया। वहां मैं था जैकेट और कनटोप के साथ अपनी उंगलियां रगड़ता। जैकेट के साथ लगे सिर के कनटोप को मैंने पीठ पर गिरा दिया और दोनों हथेलियों को कसकर रगड़ने के बाद चेहरे पर जोर-जोर से फिराने लगा। दर्पण में मेरा प्रतिरूप मेरे साथ-साथ था एक ठिठुरते और धुंधलाते अक्स की तरह।

तभी बाहर कहीं किसी निर्जन सड़क पर कोई ट्रक गुजरा। मैंने सुना एकदम साफ कि ट्रक की आवाज में एक कर्मठ व्यक्तित्व और मर्दाना लय जैसा कुछ था। किसी ट्रक के गुजरने को मैंने इससे पहले इस तरह नहीं सुना था। शहरों, खासकर बड़े शहरों में तो एक अराजक शोर भर होता है। और मुंबई में तो किसी वाहन की अपनी कोई निजी आवाज ही नहीं होती।

कैफे में जागरण का कोई चिह्न नजर नहीं आ रहा था। ऐसा लगता था मानो किसी भयावह आपदा की खबर पाकर लोग बाग बरसों पहले इस कैफे को छोड़कर जा चुके हों। भविष्य लोक से आती किसी भूली भटकी प्रार्थना की आहट तक वहां नहीं थी। हर कुर्सी और मेज पर एक अवाक निस्तब्धता सशरीर उपस्थित थी। लगभग चालीस-बयालीस मेजों और डेढ़ पौने दो सौ कुर्सियों वाले इतने बड़े तन्हा कैफै में उपस्थित रहने का यह मेरा पहला और मौलिक अनुभव था। मैं घूम-घमकर कैफे को टटोलने लगा तो लगा कि कहीं कोई आवाज है। मैं रूक गया। आवाज अनुपस्थित हो गई। मैं काउंटर की तरफ बढ़ा। आवाज फिर उभरी। ओहो! मैंने अपने अचरज को विश्राम दिया। यह मेरे अपने चलने की आवाज थी।

मैंने कैफे को उसके अभिशाप के हवाले छोड़ दिया। बाहर पार्क था। एकदम आक्रामक। वह दूर-दूर जलती उदास रोशनी के बीच ठंड के चाकू लेकर तना हुआ था। कनटोप को वापस कान पर साधते हुए मैंने सुना कहीं से टप-टप की आवाज आ रही थी। मैं आवाज का पीछा करता चला गया। एक नल था, जो थोड़ा खुला रह गया था। उस नल की गर्दन ऐंठ कर मुझे लगा जैसे बरसों-बरस बाद मैंने कोई काम संपन्न किया हो। मैं संभवतः समयातीत समय में चल रहा था। यह एलिस का आश्चर्य लोक नहीं मेरा वर्तमान था, मेरी स्मृतियों, मेरी आदतों और मेरे अभ्यासों के हाथ लगातार पिटता हुआ। मैंने सुना अब एक बड़े जेनरेटर की आवाज गूंज रही थी, किसी अग्रज की तरह आश्वस्त करती कि मैं हूं न! जेनरेटर की उपस्थिति को अनुभव करते हुए पार्क में रात भर बेखौफ टहला जा सकता था। मैं इस तरह टहल रहा था जैसे यह इतना बड़ा पार्क नितांत मेरा है। मैं सहसा गर्वोन्नत हो उठा। मुंबई का वह दुख यकायक जाता रहा जिससे मैं अपने घर की बाल्कनी में कुछ गमले, कुछ फूल, कुछ घास देखने की आस में सतत तड़पा करता था। वहां बाल्कनी ही नहीं थी। कहां से होते फूल, गमले, घास।

और फिर दो घोंसलों से टकरा गया मैं। वे एक पेड़ पर थे-कपड़े के घोंसले। यह आश्वस्ति देते हुए कि वे तोड़े नहीं जाएंगे। जिस भी पक्षी का मन चाहे वह इनमें अपना घर बसा ले। मुझे अचानक लगा कि हमारे शहर के तो पक्षी तक भी ‘स्ट्रगलर‘ होते हैं। पता है कि घोंसला टूटेगा फिर भी घर बनाते हैं।

घर बेतरह याद आया। घर में बीवी थी। चिड़चिड़ाती और पस्त होती हुई। दो बेटे थे-तेज-तेज कदमों से जवानी की तरफ जाते हुए-अपने -अपने सपनों और जिदों और सूचनाओं के साथ। उन सपनों और जिदों और सूचनाओं में मां के गठिया का दर्द और पिता की हताशा तथा वेदना और एकाकीपन के लिए कोई जगह नहीं थी। वहां लड़कियां थीं, फोन थे, कंप्यूटर था। फन था और गति थी।

मैं थके कदमों से फिर कैफे में लौट आया। मेरा दिमाग बहुत सारे आंय-बांय विचारों और न खत्म होने वाले हादसों की मर्मांतक चीखों से लदा-पदा था। कैफे की घड़ी पांच दस बजा रही थी। मुंबई में सुबह की लोकल ट्रनों में लोग लद चुके थे। दादर का फूल बाजार सज चुका था। रात एक पांच की आखिरी लोकल छोड़ चुके शराबी कवि-कथाकार-पत्रकार सुबह चार दस की पहली ट्रेन पकड़ अपने-अपने घर पहुंच चुके थे या पहुंचने की प्रक्रिया में थे। नीलम, मेरी बीवी जाग रही थी। अलार्म घड़ी की अलार्म को तेज गुस्से से बंद किया होगा उसने।

‘कोई है?‘ एक कुर्सी पर बैठकर मैं चिल्लाया। कैफे की छत बहुत ऊंची थी। मेरी ‘कोई है‘ की अनगिनत प्रतिध्वनियां विभिन्न कुर्सी-मेजों तक हो आईं। इसके बाद फिर वही ठंडा और सख्त सन्नाटा। मैं मुक्तिबोध की पानी और अंधकार में डूबी चक्करदार सीढ़ियां उतरने को था कि बदन पर नीली कमीज डाले एक जवान लड़के ने काउंटर के पीछे बने दरवाजे के उस पार से झांककर देखा और शालीनता से बुदबुदाया-‘पहला नींबू शर्बत सुबह छह बजे मिलेगा। तब तक आप पार्क में टहल लीजिए।‘

नींबू शर्बत? इस पत्थर तोड़ ठंड में? मैंने सोचा भर था और इस सोचने के अवकाश का लाभ उठाकर लड़का वापस किचन में गुम हो गया था-अगली सदी के आगमन तक! कम-से-कम मुझे ऐसा ही लगा था। एक पूरी सदी थी-ठंड-से-ठंड की तरफ जाती हुई। यहां के हर अनुभव का आरंभ उस भीषण ठंड की कंपकंपाहट से ही हो रहा था।

सुबह पौने तीन बजे इस गांव के एक डिग्री वाले टेंपरेचर में मैंने प्रवेश लिया था। रिसेप्शन पर इस अस्पताल की औपचारिकताएं पूरी करने के बाद मैं तीन बजे कमरे में घुसा था और हीटर आॅन करके रजाई में घुस गया था। काफी देर, शायद एकाध घंटे, करवटें बदलने के बाद मैं उठ खड़ा हुआ था और ठंड के साजो-सामान से लैस होकर इस कैफे में चला आया था-यह सोचकर कि यह भी मुंबई की तरह रात भर जागता होगा। पर मुंबई यहां इस तरह नदारद थी जैसे चोर के पांव।

मैं अत्यंत मायूस होकर उठा और चोर के पांवों की तरह चलता हुआ ‘योगा हाॅल‘ की तरफ बढ़ने लगा। हाॅल के बाहर कुछ जोड़ी जूते-चप्पल रखे हुए थे और भीतर से प्रार्थना के स्वर आ रहे थे-

आरोग्यम् शरणम गच्छामि! निसर्गम् शरणम् गच्छामि! कुछ देर मैं उन दिव्य से लगते प्रार्थना के स्वरों को सुनता रहा। वे सभी स्त्री-पुरुष प्रकृति और स्वास्थ्य की शरण में जाना चाहते थे। मैं पलट गया।

अस्पताल का लंबा कारीडोर सूना पड़ा था और उस कारीडोर में प्रार्थना के समवेत स्वर अपनी पूरी तन्मयता और लय के साथ तैर रहे थे। मुझे लगा वे परलोक से आती प्रार्थनाओं की तरह हैं जो इहलोक में आते ही दुर्घटनाओं में बदल जाते रहे हैं। अपनी सपाट हथेली को मैंने सूनी और सिकुड़ती आंखों से देखा, वहां बहत्तर साल तक जीते चले जाने की बद्दुआ दर्ज थी। मैं बीते समय के पायदान उतरने लगा। वहां एक अंधा भविष्य वक्ता था-मेरा दोस्त! शहर के बड़े-बड़े आंख, कान और दिमाग वाले लोग उससे एपाइंटमेंट लेकर मिला करते थे। मेरा रेखाओं और अंक शास्त्र में बिल्कुल भी यकीन नहीं था लेकिन मेरे उस अंधे भविष्यवक्ता दोस्त ने मेरी हथेलियों को छू-छूकर यह बता दिया था कि बहत्तर साल से पहले मुझे कोई छू भी नहीं सकता है। बहुत बरस पहले जब मैं अपने पुराने शहर में एक प्रतिष्ठित नौकरी खोकर दूसरी प्रतिष्ठित नौकरी पाने के प्रयत्नों में अपमानित और उदास होता जा रहा था उस दोस्त ने भविष्यवाणी की थी: समुद्र वाले एक सबसे बड़े शहर में, जहां लोग अंधों की तरह दौड़ते भागते हैं, एक सम्मानित नौकरी मेरा इंतजार कर रही है। इस भविष्यवाणी के चंद रोज बाद मैं मुंबई आ गया था और भविष्यवक्ता पुराने शहर में छूटा रह गया था।

तो, अगर बहत्तर साल की उम्र तक मुझे कोई छू नहीं सकता है...मैंने सोचा तो इस वीराने में मुझे कौन से डर खींच लाए हैं? सहसा कहीं एक बांसुरी बजी। मैं कैफे से बाहर आ गया-तीखी ठंड और मुसलसल टपकती ओस के बीचों-बीच। सुबह-साढ़े पांच बजे वह जनवरी के जयपुर का एक गांव था जहां अपनी अदम्य जिजीविषा से कोई बांसुरी पर अपनी अद्वितीयता सिद्ध कर रहा था। योगा हाॅल के भीतर से अब भी वे मंत्र निरंतर बाहर निकल रहे थे जिनका अर्थ था-हमें प्रकृति की शरण में जाना है...हमें रोगों से दूर ले चलो। मैं फिर पार्क में उतर गया। वहां कुछ मोर चले आए थे। मैं उनके निकट चला गया। मुझे देखकर वे भागे नहीं। दुनिया देख चुके बूढ़ों की तरह वे पूरी शांति से मेरे साथ-साथ टहलते रहे। उनमें शहर के मनुष्य का भय नहीं था।

भय मुझमें भी नहीं था। मरने से नहीं डरता था मैं। मेरी निर्भयता को देख मुंबई का मेरा एक डाॅक्टर दोस्त वाघमारे मेरा इलाज छोड़कर भाग गया था। हुआ यूं कि एक शाम वह बिना पूर्व सूचना के मेरे दफ्तर चला आया। मैं उस वक्त सिगरेट पी रहा था। डाॅक्टर नाराज हो गया। गुस्से से बोला -‘डाॅक्टर से झूठ बोलते हो। तुम्हें शर्म आनी चाहिए। तुम तो फोन पर हमेशा कहते हो कि सिगरेट छोड़ दी है। तो यह सब क्या है?‘

'डॉ० वाघमारे।‘ मैंने गंभीरता से कहा -‘आपने आज के अखबार पढ़े हैं?‘

‘नहीं।‘ डॉक्टर अपने ज्ञान को लेकर चिंतित हो गया। उसे लगा अमेरिका में किसी ने सिगरेट समर्थक कोई खोज तो नहीं कर ली है।

‘यह लीजिए।‘ मैंने अखबार उसके सामने रख दिया। डाॅक्टर ने बोल-बोलकर पढ़ा-चीन में भूकंप से चार हजारे मारे गए।

‘तो?‘ डॉक्टर ने अपनी उत्सुक आँखें मुझसे मिलाईं।

'तो यह डॉक्टर, कि इन चार हजार मरने वालों में से आधे से ज्यादा लोग सिगरेट नहीं पीते होंगे, यह मैं शर्त लगा सकता हूं।‘ मैंने कहा।

‘तुम...‘ डॉक्टर गुस्से से कांपने लगा... ‘तुम एक नंबर के हरामी हो...तुम्हारा इलाज बंद।‘ डॉक्टर उठा और गुड बाय बोलकर चला गया। शहर के एक योग्य डॉक्टर और बेहतरीन दोस्त को मैंने इस तरह अकारण खो दिया था।

तो यहां क्या पाने आया था मैं? मैंने सोचा- मिस्टर देव सिन्हा, आपका दिमाग क्या उस वक्त जलावतन पर था जब आप मुम्बई से हजारों किलोमीटर दूर राजस्थान के इस निर्जन गांव में आकर इलाज कराने का निर्णय ले रहे थे? मेरी घड़ी में पौने छह हो गए थे। मैं पार्क से निकलकर रिसेप्शन की तरफ चला आया। रिसेप्शन के दरवाजे के पास पहुंच कर एक पल के लिए मैं रुका। दरवाजे के शीशे के पीछे झांकने पर मैंने पाया-रात की ड्यूटी वाले शर्मा जी काउंटर पर सिर रखे सो रहे थे। ऐसी एक बेफिक्र और बेझिझक नींद के लिए कितने बरसों से तड़प रहा था मैं। थके और उदास कदमों से मैं अपने कमरे का ताला खोलकर भीतर घुसा और लिहाफ के भीतर दुबक कर सिगरेट पीने लगा। मुझे छह बजने का इंतजार था।


कैफे जीवित हो रहा था।

छह बजकर दस मिनट पर जब मैं जैकेट उतार, शाल ओढ़कर वापस कैफे में घुसा तो तीन-चार मेजों पर बैठे कुछ लोग नींबू-शहद का शर्बत पीने में व्यस्त थे। मुझे सहसा यकीन नहीं हुआ कि नींबू के पानी को भी इतने उत्साह और तन्मयता के साथ पिया जा सकता है। उनमें से कुछ ने मुझे एक उड़ती नजर से देखा और फिर से नींबू पानी में व्यस्त हो गए। एक-दो लोगों के गिलासों को भेदिए की दृष्टि से देखता हुआ मैं काउंटर पर चला गया।

मेरे कुछ मांगने से पहले ही नीली कमीज वाले लड़के ने मेरे सामने नींबू पानी का गिलास रख दिया। मैंने गिलास को देर तक घूरा फिर लड़के की आंखों में देखते हुए बोला-‘मुझे एक कप चाय की जरूरत है।‘

लड़का हो-हो करके हंसा फिर शालीनता से बोला-‘यहां चाय किसी को नहीं मिलती।‘

नींबू पानी के गिलास को ठुकरा कर मैं वापस मुड़ा। दरवाजा खोलकर मैं बाहर आया और रिसेप्शन वाले कमरे में घुसा। पौन घंटा पहले काउंटर पर सिर झुका कर सो रहे शर्मा जी चाक चैबंद खड़े थे।

‘यस सर!‘ उन्होंने अतिशय विनम्रता से पूछा।

‘आज के अखबार आ गए क्या?‘ मैंने पूछा फिर घड़ी देखी और तत्काल लग गया कि सवाल गलत वक्त पर पूछा है। केवल साढ़े छह बजे थे। इस समय तक तो मुंबई में भी अखबार नहीं मिलते। यहां कैसे मिलेंगे?

आश्चर्य हर कदम पर मेरे पीछे लगा हुआ था। लग रहा था कि मुझे नींद से जागे हुए एक युग बीत गया है जबकि घड़ी की सुइयां केवल साढ़े छह बजा रही थीं।

मैंने अपनी गलती दुरूस्त की और पुनः पूछा-‘मेरा मतलब है, अखबार कितने बजे आते हैं?‘

‘अखबार तो यहां नहीं आते सर!‘ शर्मा जी ने माफी-सी मांगते हुए कहा, ‘अखबारों में कितनी तो मारकाट, चोरी चकारी, बलात्कार, हत्या होती है। यहां के पवित्र वातावरण पर दूषित प्रभाव न पड़े इसलिए यहां अखबार नहीं आते।‘

‘मतलब?‘ मेरी आंखें शायद फटने जा रही थीं। मैंने उन्हें मसल कर वापस उनकी जगह किया, ‘मिस्टर शर्मा, आपका मतलब यह है कि देश और दुनिया में क्या हो रहा है, इससे यहां के लोगों को कोई वास्ता नहीं है?‘

‘देश और दुनिया से थक जाने के बाद ही लोग यहां आते हैं सर।‘

‘लेकिन बिना अखबार का जीवन?‘ मैं किसी दुखी बूढ़े की तरह गर्दन हिलाता हुआ अपने कमरे की तरफ बढ़ा, श्रीकांत वर्मा की पंक्तियां मेरे पीछे लग गई थीं-‘बंद करो अखबारों के दफ्तर और रुपयों की टकसाल। मैंने बिताए हैं खबरों और पैसों के बिना कई साल।‘

मैंने दो काम एक साथ किए। अपनी कनपटी पर चांटा मारा। क्या मुझे यहां आए हुए कई साल बीत गए हैं। उसके बाद कमरे का दरवाजा खोल दिया। फोन की घंटी बज रही थी। भीतर कहीं बहुत दूर उल्लास और हर्ष का सोता-सा फूट पड़ा। फोन! मेरे लिए फोन! इस जंगल में। जंगल के बावजूद।

‘गुड मार्निंग मिस्टर देव!‘ उधर कोई स्त्री स्वर था।

‘कौन?‘ मैं अचकचा गया।

'सॉरी मिस्टर देव! पूरन की तरफ से मैं माफी चाहती हूं। आपका ‘डाइट चार्ट‘ आ गया है। आप दिन में दो बार हर्बल टी ले सकते हैं। प्लीज कम।‘ स्त्री स्वर कमनीय था। उसमें लोच और नजाकत थी, नफासत भी।

‘लेकिन आप अपना परिचय तो दीजिए।‘ मैंने हिचकते हुए कहा। शायद मेरे मन के कुछ उजाड़ कोने यह आत्मीय स्वर सुनकर सिंच रहे थे।

‘आप आइए तो।‘ स्त्री स्वर ने आग्रह किया, ‘पहले ही दिन रूठ जाएंगे तो कैसे चलेगा। पूरन बच्चा है। अस्पताल के नियमों से बंधा है। लेकिन मैं किचन की मैनेजर हूं। कुछ नियम तोड़ सकती हूं।‘ स्त्री स्वर खिलखिलाने लगा। ‘बहुत जमाने के बाद इस अस्पताल में कोई राइटर आया है... हम भी तो देखें, राइटर कैसे होते हैं?‘

‘आता हूं।‘ मैंने फोन रख दिया। होठों को गोल कर एक सीटी बजाई। जेब से कंधी निकाल कर बाल ठीक किए। शाॅल को कायदे से लपेटा और कमरे से बाहर निकल कर ताला बंद करने लगा। मुझसे पहले मेरी जानकारियां उड़ रही हैं। मैंने सोचा, थोड़ा आश्वस्त भी हुआ कि कोई तो मिलने वाला है जो अपने को लेखक की हैसियत से जानता है या जानना चाहता है।

स्त्री स्वर कैफे के दरवाजे पर ही खड़ा था। जींस की पेंट शर्ट, जींस की टोपी, स्पोर्ट्स शूज, गोरा रक्तिम-सा चेहरा, टोपी के बाहर निकलकर सीने पर लटक गई लंबी चोटी। मासूम आंखें। यह स्त्री नहीं, बमुश्किल 23-24 वर्ष की एकदम युवा, तरोताजा लड़की थी। पुरुषों की हिंसा से गाफिल, पुरुषों के प्रेम में पड़ने को आतुर।

इस वीराने में, जीवन से थके-टूटे मरीजों के बीच यौवन और उमंग से लबरेज यह लड़की यहां क्या कर रही है? मैंने सोचा और पूछा-‘आप?‘

‘आइए।‘ उसने दरवाजे पर जगह बनाते हुए कहा-‘मेरा नाम सोनल है। सोनल खुल्लर! मैं किचन की इंचार्ज हूं।ं‘

मैंने देखा-यह विशाल कैफे पुनः खाली था, खाली और प्रतीक्षारत।

‘पूरन!‘ लड़की ने आवाज लगाई, ‘दो हर्बल टी। गुड़ वाली।‘ लड़की ने मेज पर बैठने का इशारा किया।

‘गुड़ क्यों? मुझे चीनी चाहिए।‘ मैंने हल्का-सा प्रतिवाद किया।

‘क्योंकि शुगर को हम लोग ‘व्हाइट पाॅइजन‘ मानते हैं।‘ लड़की खिलखिलाने लगी। ‘मैंने फोन पर डाॅक्टर से आपके लिए स्पेशल परमिशन ली है, हर्बल टी के लिए।‘

वही नीली कमीज वाला लड़का मेज पर दो कप चाय रखकर चला गया। तो, यह महाशय पूरन हैं। मैं मुस्कराया। काउंटर पर खड़ा पूरन भी मुस्कराया।

‘सारे मरीज कहां गए?‘ मैंने कैफे में नजरें दौड़ाते हुए पूछा।

'इलाज कराने।‘ लड़की फिर हंसी।

‘आपको तुम बोल सकता हूं?‘ मैंने लड़की की आंखों में देखा।

‘मुझे अच्छा लगेगा।‘ लड़की मुस्कराने लगी, ‘आपके ‘डाइट चार्ट‘ से पता चलता है कि आप मुझसे दुगनी उम्र के हैं।‘

‘और क्या-क्या पता चलता है ‘डाइट चार्ट‘ से?‘ मैंने क्षुब्ध स्वर में कहा।

‘पूरा इंटरव्यू आज ही कर लेंगे। अभी तो पहला ही दिन है। आपको दस दिन हमारे साथ रहना है।‘ लड़की फिर खिलखिलाने लगी। लड़की को खिलखिलाता देख मुझे याद आया कि मैं कितने सारे फूलों के नाम भी नहीं जानता हूं।

‘तुम्हारे साथ रहना है?‘ मैं रोमांचित था।

‘मेरा मतलब हम सब लोगों के साथ।‘ लड़की का चेहरा रक्तिम हो आया, ‘एक हर्बल टी और लेंगे?‘

‘क्या यह संभव है?‘

‘क्यों नहीं?‘ वह ताजे उत्साह से दमादम थी, ‘आफ्टरआॅल आयम मैनेजर! इतना राइट तो है मेरा।‘ फिर वह रुकी। शरारत से मुस्कराई और बोली, ‘अगर आप मैनेजमेंट से चुगली न करें तो?‘

‘निश्चिंत रहें। इस उजाड़ की एकमात्र खुशी का वध नहीं करने वाला मैं।‘ मैं मुस्कराया।

‘थैंक्यू।‘ वह फिर खिलखिलाने लगी, ‘आप लेखक लोग लोगों का दिल रखना खूब जानते हैं।‘ जुमला बोलकर वह लपकती हुई किचन के भीतर चली गई। मेज पर उसकी हंसी बिखरी रह गई थी। मैं उस हंसी की पंखुड़ियों को चुनते हुए सोच रहा था कि इतनी ढेर सारी हंसी वह कहां से बटोर लाई है। रास्तों, प्लेटफार्मों, सीढ़ियों, पुलों और ट्रेनों में लदकर जाती मुंबई की लड़कियां आगे-पीछे से उत्तेजक जरूर लगती हैं लेकिन उनकी हंसी कोई छीनकर ले गया रहता है। इस सुनसान गांव के निविड़ एकांत में बैठी सोनल खुल्लर की मासूम मादकता को ऐश्वर्या राय देख कर भर ले तो विश्व सुंदरी का ताज उतार फेंके। सोनल के गालों की तुलना गुलाब से करने के छायावादी उपक्रम में था मैं कि वह लौट आई। उसके हाथ में दो कप चाय थी।

‘पूरन और महेश मरीजों का नाश्ता तैयार कर रहे हैं। मैंने सोचा खुद ही बना लेती हूं। चख कर देखिए, ठीक तो है।‘

‘तुमने बनाई है तो उम्दा ही होगी।‘ मैंने जवाब दिया। यह जवाब देते हुए मैं शोख और चंचल बनना चाहता था लेकिन मैंने पाया कि मैं उदास हूं। बहुत-बहुत उदास। पता नहीं क्यों?

‘इतनी खूबसूरत जगह में भी आप दुखी हैं?‘ सोनल की नुकीली नाक की कोर से बूंद-बूंद अचरज टपक रहा था। ‘अच्छा यह बताइए कि आप लेखक लोग कहीं भी सुखी नहीं रह पाते क्या?‘

जिस समय उसने यह प्रश्न किया, मैं अपना प्याला उठा रहा था। उसका प्रश्न शायद सीधे प्याले पर जाकर लगा था या फिर मेरे अतीत के किसी हरे जख्म को उसने छू लिया था। मैंने आश्चर्यों के बोझ से गिरी जा रही पलकों को बमुश्किल ऊपर उठाकर उसे देखा और उसकी आंखों के तेइस-चैबीस वर्षीय अबोध कौतूहल से टकरा गया।

मेरे हाथ का प्याला मेज पर गिर पड़ा था।

लड़की चैंक कर खड़ी हो गई थी।

मरीजों ने आना शुरू कर दिया था।


×××


उस पाला मारती ठंड में शाम होते-होते मेरे दुुख गर्म हो गए। डाॅ. नीरज ने मेरे बदन में उच्च रक्तचाप, लीवर की सूजन और कोलेस्ट्राॅल की बढ़ी हुई मात्रा को खोज लिया था। रक्त में हीमोग्लोबिन की कमी थी और सिगरेट का धुआं पेप्टिक अल्सर का निर्माण करने में व्यस्त था।

वह एक युवा डॉक्टर था। इतने युवा व्यक्ति को प्रकृति की शरण में जाते हुए मैं पहली बार देख रहा था। प्रकृति, अध्यात्म और मुक्ति वगैरह के पचड़ों में अपने देश के लोग अमूमन पैंतालिस-पचास के बाद पड़ते हैं और यह तो मुश्किल से चालीस का भी नहीं था। अगर मेरा अनुमान सही है तो डाॅक्टर उम्र में मुझसे तीन-चार साल छोटा था। ताजा, कटे अनान्नास जैसा चेहरा था उसका। मेरी मेडिकल रिपोर्टों के बीच वह तनकर बैठा हुआ था। मर्माहत कर देने वाली सर्द आवाज में उसने अपना निर्णय सुनाया-आकाश, जल, वायु, मिट्टी और अग्नि इन पांच तत्वों से यह शरीर बना है। इन्हीं में विलीन भी हो जाने वाला है। अंत तो सबका सुनिश्चत है लेकिन समय से पहले क्यों? मुंबई के मेरे दोस्त ने बताया कि आप लेखक हैं। मैं भी पढ़ूंगा आपकी किताबें, तो लेखक होने के कारण आपके जीवन पर केवल आपका अधिकार नहीं है। उस पर समाज का हक है...

डॉक्टर बोलता जा रहा था और मैं कहना चाह रहा था कि कौन से समाज की बात कर रहे हो डाॅक्टर? उस समाज की जो मुझे आप तक पहुंचने के लिए अपने उद्योगपति मित्र की सहायता प्राप्त करने को मजबूर करता है। मैं तो फिर भी भाग्यशाली हूं कि चार मित्र ऐसे हैं लेकिन पूरे दिन में दो बड़ा पाव खाकर जीवन गुजारने वाले कैसे पहुंचेंगे आप तक? उनको तो बिना इलाज के ही पांच तत्वों में विलीन होना है।

कुछ नहीं कह सका मैं। क्या कह सकता था? दोपहर तक पता चल गया था कि जहां मैं हूं, वह एक पांच सितारा चिकित्सालय है। एक हजार रोज वहां का खर्च था। मेरे दस दिन का मतलब था दस हजार इलाज के और दस हजार बजरिए विमान यहां आने-जाने के यानी पूरे बीस हजार का अहसान लेकर मैं यहां आ पाया था।

अचानक मैंने खुद को बहुत फंसा हुआ अनुभव किया, दरअसल मैं एक गंदी और शर्मनाक बीमारी की चपेट में आ गया था। मुझे बवासीर हो गई थी और सभी तरह के इलाज कराने के बावजूद डटी हुई थी। बदहवासी के उसी दौर में मुंबई के एक उद्योगपति दोस्त ने मुझे यहां का पता और आने-जाने का टिकट पकड़ा दिया और मैं मूर्खों की तरह यहां आकर डाॅ. नीरज के सामने बैठ गया था। जिन्होंने बवासीर के अलावा भी पता नहीं क्या-क्या खोज लिया था।

‘कल सुबह से आपका इलाज शुरू होगा।‘ डॉक्टर नीरज ने मुस्कराते हुए कहा, ‘कहिए, ओराग्यम् शरणम् गच्छामि।‘

‘क्या आप कभी अखबार नहीं पढ़ते डॉक्टर?‘ मैंने एक बेतुका-सा सवाल किया।

‘कभी-कभी देख लेता हूं, जब बाहर जाता हूं।‘

‘और टीवी?‘

‘टीवी नहीं है मेरे पास। कई साल पहले अपनी पत्नी के साथ ‘मेरा नाम जोकर‘ देखी थी। डाॅक्टर उत्साह-उत्साह में मित्रता जैसी नर्म और आत्मीय सीढ़ियां उतरने लगा। ‘बहुत अच्छी फिल्म थी। अब शायद अच्छी फिल्में बनने का चलन नहीं रहा। क्यों आप बहुत फिल्में देखते हैं क्या?‘

‘नहीं, फिल्में तो मैं भी कभी-कभार ही देखता हूं मगर एक अखबार तो आपको मंगाना ही चाहिए। नहीं?‘

‘मिस्टर देव‘ डॉक्टर की आवाज सहसा बहुत खुश्क हो गई। ‘लोग यहां पर अपना इलाज कराने आते हैं। यहां की जो दिनचर्या है उसमें अखबार के लिए न तो समय है, न ही जरूरत। आप खुद देखिएगा। अब आप जा सकते हैं। मुझे राउंड पर जाना है।‘ डॉक्टर उठ खड़ा हुआ। मैं भी।

डॉक्टर के चेंबर से निकल कर मैं सिगरेट लेने के लिए परिसर से बाहर निकला। गेट पर सुरक्षा अधिकारी अड़ गए। ‘यहां सब बड़े लोग ही आते हैं। बड़प्पन का रौब तो मारिए मत। हमारे लिए सब मरीज हैं। बाहर जाकर आपने चाय सिगरेट पी ली तो हमारी तो नौकरी गई न! अपराध करें बड़े लोग, दंड भरें छोटे लोग। यह तो न्याय नहीं हुआ न? आप डाॅ. नीरज से लिखवा लाइए, हम आपको जाने देंगे।‘

मेरा मूड उखड़ गया। मेरे पैकेट में केवल तीन सिगरेट बाकी थीं। सुरक्षा अधिकारियों से झिड़की खाकर मैं कमरे में आ गया। मैंने तय किया कि अपनी यह दस दिवसीय यात्रा ठीक इसी बिंदु पर पहुंच कर समाप्त कर देना ज्यादा उचित होगा। इतनी सारी वर्जनाओं, इतने घनघोर अकेलेपन, इस कदर दुनिया से कटे रह कर केवल कुछ मरीजों और एक डेढ़ दर्जन स्टाफ के बीच तो मेरा दम ही घुट जाएगा।

क्या नीलम को याद नहीं रहा, मैंने बची हुई तीन सिगरेटों में से एक को बड़ी शिद्दत से सुलगाते हुए सोचा, कि भीड़ और शोर और निरंतर साथ मेरे जीवन में आरंभ से ही अनिवार्यता की तरह लगे हुए हैं तो फिर नीलम ने सोचा भी कैसे कि मैं उसके बिना पूरे दस दिन ऐसी जगह रहूंगा जहां जीवन से हताश कुछेक मरीजों के सिवा कोई नहीं होगा। आखिर क्या सोचकर उसने मुझे ठेल-ठाल कर इस यात्रा के प्रस्ताव को स्वीकार करने पर मजबूर किया था।

यहां यह मेरी पहली शाम थी और दूसरी शाम यहां करने का मेरा कोई इरादा नहीं था। न मिले मुंबई की फ्लाइट। मैं घोड़ा, तांगा, टैक्सी, ट्रेन कुछ भी लेकर यहां से निकलने का मन बना चुका था।

ठीक ऐसे त्रस्त मन के बीच मुझे गुटरगूं गुटरगूं सुनाई दी। कमरे की छत पर शायद ढेर सारे कबूतर चले आए थे।

आह! मैंने सिगरेट फेंकते हुए सोचा-कितने बरस के बाद मैं कबूतरों को सुन रहा था। बची हुई दो सिगरेटों को बड़े प्यार और जतन से छूते हुए मैंने घड़़ी देखी। शाम के साढ़े सात बजे थे। मुंबई में इस समय मैं अपने दफ्तर में होता था। लेकिन यहां रात के खाने का समय आधा घंटा पार कर चुका था।

उसी वक्त किसी भूली बिसरी याद की तरह फोन की घंटी बजने लगी।

उस तरफ सोनल थी।


×××


सात चालीस पर मैंने कैफे में प्रवेश लिया तो सोनल दरवाजे पर ही खड़ी थी।

‘खाने का समय छह से सात के बीच का है राइटर।‘ सोनल एअर इंडिया के महाराज की तरह अदब से झुकते हुए बोली। मैंने क्षण के दसवें हिस्से में ताड़ लिया कि ‘राइटर‘ कहते समय उसकी मंशा उपहास उड़ाने की नहीं है। मैं सहज हो गया। मुस्कराया और बोला, ‘मैं जैन साधु नहीं हूं मैडम कि सूर्यास्त से पहले ही खाना खा लूं।‘

‘सूर्यास्त से पहले खाना खा लेने के पीछे धर्म नहीं विज्ञान है। खाने की भी एक वैज्ञानिक थ्योरी है।‘ सोनल गंभीर हो गई।

‘वैज्ञानिक थ्योरी तुम अपने पास रखो।‘ मैंने लापरवाही से कहा, ‘तुमने खाना खा लिया?‘

‘मैंने?‘ सोनल पानी में डूबी चक्करदार अंधेरी सीढ़ियां उतरने लगी, ‘मैं तो जयपुर के फार्म हाउस में रहती थी। वहां कोई पूछता ही नहीं था। पापा फौज में थे। मम्मी सोशल वर्कर। अकेले रहते-रहते बड़ी हो गई तो पेशे के लिए एक ‘रिमोट एरिया‘ चुन लिया। यहां भी कोई नहीं पूछता मेरे खाने के बारे में। आपके मन में मेरे खाने की याद कहां से चली आई?‘ सोनल की आंखें पानी-पानी थीं। उस पानी पर रपटते हुए मैं अपने शायर दोस्त निदा फाजली के घर चला गया, जहां टेप पर उनकी गजल बज रही थी -

दिया तो बहुत

जिंदगी ने मुझे

मगर जो दिया वो दिया देर से...

‘अंतिम पेशेंट को खिला देने के बाद ही मुझे खाना चाहिए, नहीं?‘ सोनल पूछ रही थी।

‘क्या खिला रही हो?‘ मैं हंसा। हंसने के पीछे कोई तर्क होता है क्या? मैंने सोचा।

‘आज छूट है, कुछ भी खाइए। कल सुबह से आपका इलाज चलेगा। रोज का जो ‘डाइट चार्ट‘ डाॅ. नीरज की तरफ से आएगा, वही खाना होगा।‘

‘क्या-क्या है तुम्हारे किचन में?‘ मैंने पूछा, ‘तुम भी मेरे साथ क्यों नहीं खाती हो? अकेले खाना मुझे भाता नहीं है।‘ मैं सफेद झूठ बोल गया। मुंबई में मैं दोनों वक्त अकेला ही खाता था। दोपहर को दफ्तर में, रात को बारह-एक बजे, सबके खा-पी लेने के बाद। बच्चों को काॅलेज भेजने के लिए नीलम को सुबह पांच बजे उठना पड़ता था इसलिए वह रात को बच्चों के साथ नौ-दस बजे तक खा लेती थी।

‘अरे बाप रे! आप तो मरवा देंगे।‘ सोनल चैंक गई, ‘एक मरीज में इतनी दिलचस्पी लूंगी तो मैनेजमेंट तो मेरी छुट्टी ही कर देगा। चलिए टेबल पर बैठिए, मैं आपके सामने खड़ी रहूंगी।‘ सोनल बोली और किचन की तरफ मुंह करके चिल्लाई-‘पूरन, पालक सूप ले आओ।‘

खाली कैफे की उस रात होती शाम में सोनल की आवाज मधुर तरीके से गूंज उठी। मुझे लगा इस आवाज के सहारे रहा जा सकता है दस दिन।

‘तुम्हारे पेशेंट कहां गए?‘ मैंने यूं ही पूछा।

‘सब गए। पार्क में टहल रहे होंगे या अपने-अपने कमरों में होंगे।‘ सोनल ने जानकारी दी। पूरन पालक सूप रख गया। सूप का पहला चम्मच पीते ही मुझे कुछ खाली-खाली सा, कुछ छूट गया सा लगा। याद आया मुंबई में यह समय शराब पीने का होता था या होनेवाला होता था।

सूप समाप्त होते ही मेज पर सलाद की प्लेट, छोटी-सी मक्के की रोटी, सरसों का साग, गुड़ और दही आ गया। पत्ता गोभी और करेले की भाजी भी थी।

‘अरे वाह।‘ मैं सचमुच प्रसन्न हो गया। ‘तुमको कैसे पता चला कि मुझे मक्के की रोटी, सरसों का साग और करेले की सब्जी पसंद है?‘ मैंने आश्चर्य से पूछा।

‘डाइट चार्ट के साथ लगी आपकी मेडिकल और फिजीकल रिपोर्ट से।‘ सोनल सहज थी लेकिन मैं असहज और लज्जित सा हो गया। इसका मतलब यह जान चुकी है कि मुझे बवासीर है, मैंने सोचा और तत्काल ही मेरा चेहरा लाल हो गया।

‘सहज हो जाइए।‘ सोनल खिलखिलाई, ‘यहां स्वस्थ लोग नहीं आते। हर पेशेंट की हर तकलीफ के बारे में जानना ही होता है वरना देखभाल कैसे कर पाएंगे?‘

लेकिन बवासीर? एक अनजान जवान लड़की की जानकारी में। मेरी चेतना में एक नामालूम-सी शर्म दिप-दिप करने लगी।

मैं चुप खाना खाता रहा। रोटी खत्म करके मैंने सोनल की तरफ देखा। वह शायद मुझे चाव से खाना खाते ही देख रही थी। उसकी आंखों से मेरी आंखें टकरा गईं। वह शरारात से मुस्कराई, ‘बस, और खाना नहीं मिलेगा।‘

'केवल एक रोटी?‘ मैं चकित रह गया।

‘यह भी बहुत हैवी हो गया है।‘ सोनल ने हिदायत दी, ‘अब आप एक घंटा टहल लें। चाबी यहां छोड़ जाएं। पूरन सोते समय खाने के लिए आपके कमरे में खजूर रख आएगा।‘

‘लेकिन मैं खजूर नहीं खाता।‘ मैंने प्रतिवाद किया।

‘क्यों? जितनी भी अच्छी चीजें हैं, उन सबसे बैर है क्या?‘

‘तुमसे कहां बैर है?‘ मैं पता नहीं क्यों और कैसे बोल गया। आम तौर पर ऐसे नायाब जुमले मुझे शराब पीने के बाद ही सूझते थे।

‘अब जाइए। टहल कर आइए और सो जाइए। मैं भी खाना खाकर सोने जाऊंगी। सुबह चार बजे उठना होता है।‘

‘लेकिन!‘ मैंने घड़ी देखी, आठ बजकर पांच मिनट हुए थे, ‘इतनी जल्दी कैसे सो जाऊं?‘

‘साढ़े नौ बजे लाइटें बंद हो जाएंगी।‘ सोनल ने नयी जानकारी दी। मुझे याद आया, सुबह पौने तीन बजे जब मैं इस अस्पताल में आया था, तो कमरे में लाइट नहीं थी। मुझे कमरे में रखी मोमबत्ती जलानी पड़ी थी।

‘यह तो ज्यादती है।‘ मैं बुझे मन से उठा, ‘पानी तो पिलवाओ।‘

‘पानी खाना खाने के एक घंटे बाद अपने कमरे में पीजिएगा।‘

'इसमें भी कोई विज्ञान है?‘ मैं चिढ़ सा गया।

'हां,‘ सोनल खिलखिलाने लगी, ‘आएगा, बहुत मजा आएगा। आपके साथ बड़ा मजा आएगा।‘

‘गुड नाइट।‘ मैं चिढ़ा-चिढ़ा मुड़ गया।

‘कमरे की चाबी?‘ सोनल हंस कर बोली।

‘मुझे नहीं चाहिए तुम्हारे खजूर।‘ मैंने चिढ़े-चिढ़े ही जवाब दिया और अपने कमरे की तरफ मुड़ गया। कमरे में जाकर पहले एक सिगरेट पीनी थी।

कमरे में आकर सिगरेट पीते हुए मैंने सोचा, नीलम को फोन करूं क्या? उसे बताऊं कि मैंने खाना खा लिया है और सोने जा रहा हूं। घर में किसी को भी यकीन नहीं होगा। छोटा बेटा पढ़ रहा होगा। बड़ा बेटा कॉलेज से लौटा नहीं होगा। इस वक्त ट्रेन या बस में होगा। नीलम खाना बना रही होगी। निशा मेरे लिए शामी कबाब लेकर आई होगी और यह सुनकर सिर धुन रही होगी कि उसके अंकल मुंबई में नहीं हैं...

निशा मेरे एक मुसलिम दोस्त की बेटी थी। उसका पिता शराब नहीं पीता था इसलिए वह अक्सर मेरे लिए शामी कबाब तलकर ले आती थी। ठीक शराब पीने के समय या खाना खाने के चंद क्षणों पहले। निशा बी०कॉम० में पढ़ती थी, इसके बावजूद उसके हाथों के बने शामी कबाब अविस्मरणीय ढंग से लजीज होते थे। उन कबाबों के कुरकुरेपन में एक बेटी के अप्रतिम प्यार की सोंधी खुशबू घुली-मिली होती थी।

रिसेप्शन पर आकर मैंने फोन किया। फोन छोटे बेटे राहुल ने उठाया और आवाज पहचान कर जोर से बोला, ‘पापा ऽऽऽ मेरे लिए राजस्थान की कठपुतली लाना।‘

‘मम्मी को दे।‘ मैंने अधीरता से कहा।

‘मम्मी सब्जी लेने मार्केट गई है।‘

‘खाना खाया?‘

‘अभी नहीं।‘

‘लो कर लो बात।‘ मैंने सोचा और बोला, ‘अच्छा मम्मी को बोलना पापा ठीक से हैं।‘

‘ओ०के० पापा, आपने टी०वी० देखा?‘

‘टी०वी० यहां नहीं है बेटा।‘ मैं दुखी-सा हो गया।

‘ओह शिट। पापा, पाकिस्तान के आतंकवादियों ने हमारा प्लेन हाईजैक कर लिया।‘

'अरे?‘ मैं चौंक उठा।

‘हां, पापा।‘ राहुल उत्तेजित था। ‘उन्होंने हमारे एक यात्री... को तो मार भी दिया। जहाज में डेढ़ सौ इंडियन हैं।‘

'क्या बोल रहा है?‘

‘हां पापा। आप अखबार तो पढ़ो?‘

‘ओके बेटा बाय! मैं सुबह फोन करूंगा?‘ मैंने कहा और फोन रख दिया। मेरी बेचैनी मेरे सिर चढ़कर बोल रही थी। मैं पार्क में घूमने निकल पड़ा।

पार्क एकदम खाली था। खाली और निस्तब्ध। अचानक ऐसा लगा मानो इतनी बड़ी पृथ्वी पर मैं अकेला ही बचा रह गया हूं। एक राउंड भी पूरा नहीं कर पाया था कि ठंड के कारण बदन कंपकंपाने लगा। प्यास भी खूब तेज लगने लगने लगी थी। मैं तेज कदमों से पार्क का चक्कर लगा कर वापस कमरे पर आ गया। घड़ी में पौने नौ बजे थे।

बत्तियां गुल होने में पूरे पैंतालिस मिनट बाकी थे।

मुझे याद आया। मुंबई में जब किसी कारणवश जल्दी घर आना होता था तो मैं नौ अट्ठावन की ट्रेन पकड़ा करता था। यूं आमतौर पर मैं रात ग्यारह उनतालिस की आखिरी फास्ट ट्रेन पकड़ कर जाया करता था।

स्मृतियों पर अवसाद झर रहा था। न सिर्फ स्मृतियों पर वरन् पूरी चेतना ही पक्षाघात के जबड़े में जाने को आतुर थी। अपने देश का एक पूरा विमान हाईजैक हो गया था और यहां एक पांच सितारा चिकित्सालय में खा-खाकर बीमार हुए लोग अपने-अपने कमरों में सो रहे थे।

‘मैं उल्लू का पट्ठा हूं क्या?‘ मैं जोर से चिल्लाया।

पट्ठा, पट्ठा पट्ठा...शब्द मुझ तक लौट आए।

अस्पताल की बत्तियां बुझ गईं। मतलब साढ़े नौ बज चुके थे।

मेरे पास सिर्फ एक सिगरेट बची थी। मुंबई में बच्चे विमान अपहरण का लाइव टेलीकास्ट देख रहे होंगे। मैंने सोचा और बिस्तर में घुस कर लिहाफ ओढ़ लिया जैसे शुतुरमुर्ग रेत में मुंह गड़ा कर सो जाता है।


×××


सुबह पांच बजने में पांच मिनट पर फोन आ गया। वह तब तक बजता रहा जब तक मैंने फोन को उठा नहीं लिया।

‘जय श्री राम।‘ उधर से आवाज आई। ‘सुबह हो गई है। उठिए, फ्रेश होकर आधा घंटा पार्क में टहलने जाइए। उसके बाद योगा हाॅल में आइए, प्रार्थना करेंगे। नमस्कार।‘ और फोन कट गया।

बिस्तर में घुसने से पहले मैंने बाथरूम की लाइट बंद नहीं की थी और दरवाजे को भी खुला छोड़ रखा था। फोन बजने पर मैंने रजाई से मुंह निकाला तो बाथरूम में उजाला था और उसकी लाइट से कमरा भी थोड़ा-थोड़ा रोशन था।

बहुत चिढ़कर मैं उठा। बिना शराब पिए पूरी रात नींद नहीं आई थी। शायद सुबह के चार सवा चार पर पलकें झपकी थीं। मैं उठा। अंतिम सिगरेट जलाकर बाथरूम में घुस गया। फ्रेश होकर वापस बिस्तर पर आया। बगल की तिपाही पर रखे कागज को देखा-वह दिनचर्या चार्ट था। यह चार्ट कल दिन में नहीं था। शायद शाम को कोई रख गया होगा।

चार्ट में दर्ज था-‘सुबह पांच बजे उठना। साढ़े पांच बजे तक पार्क में टहलना। छह बजे तक योगा हाॅल में प्रार्थना, पौने सात तक हेल्थ क्लब में जाकर नेति, कुंजल और एनिमा का इलाज लेना, सात बजे कैफे में जाकर नींबू-पानी-शहद पीना। आठ बजे तक वापस योगा हाॅल में जाकर योगासन करना। वहीं पर नौ बजे तक डाॅ. नीरज का प्रवचन। नौ से साढ़े ग्यारह तक हेल्थ क्लब में जाकर मिट्टी पट्टी, मालिश, ठंडा-गर्म स्नान, भाप स्नान, पिरामिड चिकित्सा, चुंबक चिकित्सा आदि लेना। साढ़े बारह तक कैफे में आकर खा लेना। दो बजे तक पार्क में घूमना। आराम करना या पुस्तकालय में बैठकर स्वास्थय संबंधी किताबें पढ़ना। ढ़ाई बजे वापस कैफे में जाकर जूस पीना और पुनः हेल्थ कल्ब में चल देना। साढ़े पांच बजे इलाज से लौटकर कैफे में फल खाना। साढ़े छह तक पार्क में टहलना। साढ़े सात तक हर हाल में खाना खा लेना। साढ़े आठ तक पुनः इलाज लेना। नौ बजे कमरे में आना और साढ़े नौ तक सो जाना।‘

अचरज की चक्करघिन्नी में गोल-गोल घूमकर मेरे दिमाग की नसें तड़कने लगीं। इस दिनचर्या में रोटी की मशक्कत, भाग-दौड़, हत्या, बलात्कार, डकैती, अपहरण की बुरी सूचनाएं, माधुरी दीक्षित की धक-धक, बिजली गुल होने की समस्या, ट्रैफिक जाम में फंस जाने की पीड़ा, बेटे के देर रात तक घर न लौटने पर नीलम का चिड़चिड़ापन और चिंता कुछ नहीं था, कहीं नहीं था। यहां सिर्फ डाॅ. नीरज थे और था उनका प्राकृतिक इलाज।

मैं कमरे से बाहर आ गया-गर्म कपड़ों से लदा हुआ। बाहर, परिसर में इस सिरे से उस सिरे तक एक पागल ठंड हा हा हू हू करती दौड़ रही थी। ठंड के कारण मेरे दांत बजने लगे थे।


पार्क में परिचित सन्नाटा था। परिसर के विशाल गेट पर सुरक्षा अधिकारी तक नहीं थे। मैंने गेट की छोटी खिड़की से मुंह बाहर निकाल कर देखा-ठीक सामने एक छोटी-सी गुमटी जैसी बंद दुकान थी। एक टूटी-फूटी कच्ची सड़क दाएं-बाएं दूर तक चली गई थी। पता नहीं सामने वाली दुकान में सिगरेट मिलती है या नहीं? बाहर जाने की स्पेशल परमिशन तो डाॅ. नीरज से लेनी ही होगी।

मैं पलट कर पार्क में आ गया। पार्क के बीचों-बीच सोफे के आकार के जो छह सात झूले खड़े थे, वे संभवतः दोपहर की धूप में आराम करने के लिए रहे होंगे। तभी एक हल्का-सा झोंका आया और मुझे लगा पार्क में पत्तों की पाजेब बजी है।

अब तक मैं आधे पार्क का चक्कर लगा चुका था। थोड़ा-थोड़ा उजास झरने लगा था। पार्क की बत्तियां क्रमशः बुझ रही थीं। हेल्थ क्लब की बत्तियां एकाएक जलने लगीं। मैं एक छोटे से बांस के घर के सामने रुक गया। उसके भीतर प्यारे-प्यारे खरगोश टहल रहे थे। जीवन में पहली बार मैंने खरगोशों से बातें कीं और उस दिन को नफरत की तरह याद किया जब मैंने पहली बार खरगोश का मांस खाया था।

उसी समय कबूतरों का एक झुंड वहां पर उतरा और पार्क की ओस में भीगी, मखमली घास पर बिखर गया। मैंने तत्काल चप्पलें उतारीं और कबूतरों की तरह उस गीली घास पर देर तक चलता रहा। शुरूआती ठंड के बाद हरी-गीली-नरम घास पर नंगे पांव चलना एक सुखद आश्चर्य जैसा लगा, मैं देर तक नंगे पांव टहलता रहा और सोचता रहा कि मुंबई-दिल्ली-कलकत्ता के मेरे तमाम दोस्त इस समय निश्चित रूप से सो रहे होंगे। जबकि उनसे अधिक देर तक सोने वाला मैं यहां, नंगे पांव सूर्य के स्वागत में खड़ा था।

मेरी चिढ़ का क्या हुआ। क्या सचमुच मेरा भी कायाकल्प हो रहा है। मैं सृष्टि और उसके चमत्कार से मित्रता करने की दिशा में फिसल रहा था क्या? यह एक अपूर्व अनुभव था-ठीक वैसा, जैसा निर्मल वर्मा की कहानियों और उपन्यासों में मिलता है-धुंध, धुएं, आलोक में तिरता रहस्यमय मगर चमकीला-सा, वर्षों के कठोर दुखों को अनवरत सहते रहने के बाद सहसा सामने आ खड़े मायावी सुख-सा, एक चिड़चिड़ी, थका देनेवाली जद्दोजहद के बाद की उनींदी नींद के बाद अर्जित हुआ विरल अनुभव। घड़ी देखी-साढ़े पांच बज गए थे। अब आधे घंटे की प्रार्थना में जाना था। मैं योगा हाॅल में जाने के बजाय रिसेप्शन पर चला गया। मुझे मालूम था कि मुंबई में नीलम उठ चुकी होगी।

फोन मिलाया। नीलम ही थी।

‘मुझे यकीन नहीं हो रहा है कि यह तुम हो?‘ नीलम ने खुशी से लगभग चीखते हुए कहा, ‘इतनी सुबह।‘

‘मार्निंग वॉक से लौट रहा हूं।‘ मैंने रौब मार दिया।

‘देव, मैं रियली बहुत खुश हूं...तुम खुश हो न?‘ नीलम ने आशंकित होकर पूछा।

‘मैं अपनी अंतिम सिगरेट पी चुका हूं और कल रात शराब भी नहीं मिली।‘

नीलम को खुश होना चाहिए था लेकिन उसके मुंह से अफसोस में डूबा ‘बेचारे‘ शब्द निकल गया। मुझे खुशी हुई कि वह मेरी यातना को समझ पा रही है।

‘और क्या समाचार है?‘ मैंने पूछा।

‘सबसे बड़ा समाचार विमान अपहरण का ही है। तुमने नहीं पढ़ा?‘ नीलम चकित थी।

‘यहां टीवी और अखबार कुछ नहीं है।‘ मैंने कुढ़कर कहा।

‘ओह!‘ नीलम बोली, ‘मैं तुम्हें फोन करती रहूंगी।‘

‘नहीं! तुम फोन मत करना। आज से मैं पेशेंट हूं। पता नहीं कब कहां रहूंगा। मैं ही तुम्हें फोन करूंगा। बाय!‘ मैंने फोन काट दिया। फोन का बिल अपने खाते में जमा करने का निर्देश शर्मा जी को देकर मैं बाहर निकला तो थोड़ा प्रफुल्लित था। यह नीलम से बात हो जाने की प्रसन्नता थी शायद। हालांकि मन में कहीं यह कसक भी थी कि विमान में बंधक यात्रियों का थोड़ा विस्तृत समाचार मिल जाता तो अच्छा था। योगा हॉल में जाकर प्रार्थना में शामिल होने का मन नहीं बन रहा था इसलिए छह बजे तक मैं रिसेप्शन के बाहर बने लंबे कारीडोर में टहलता रहा।

ठीक छह बजे मैं इलाज के लिए ‘हेल्थ क्लब‘ की दिशा में निकल पड़ा।

शायद प्रार्थना ठीक छह बजे समाप्त नहीं हुई थी। इलाज के लिए पहुंचने वालों में मैं सबसे पहला शख्स था।

एक दाढ़ी वाले वर्मा जी ने मुझे एक जग गुनगुना पानी दिया और बोले, ‘पूरा पानी पी जाएं और उसके बाद मुंह में उंगली डालकर उल्टी कर दें।‘

उल्टी के साथ पीला-पीला पित्त और बलगम भी बाहर आ गया। मुझे अच्छा लगा। इसे ‘कुंजल‘ कहते थे। इसके बाद वर्मा जी ने स्टील के एक नली वाले लोटे को पकड़ा कर बताया, ‘दाईं नाक से पानी लेकर बाईं नाक से निकालें, फिर बाईं नाक से पानी लेकर दाईं नाक से निकाल दें।‘ यह ‘नेति‘ थी। फिर वर्मा जी ने मुझे ‘एनिमा‘ वाले कमरे में पहुंचा दिया। नीम के पानी का ‘एनिमा‘ लेकर मैं ‘कमोड‘ पर बैठा तो लगा पूरा पेट एक बार में ही खाली हो गया है।

बाथरूम से निकला तो देखा बाकी मरीज आने शुरू हो गए थे। स्त्रियों और पुरुषों की अलग-अलग व्यवस्था थी। स्त्रियों के लिए स्त्री परिचारिकाएं थीं।

ठंड से कुड़कुड़ाते हुए मैं कैफे में पहुंचा और पूरन से ‘हर्बल‘ टी की मांग की।

‘नहीं साब!‘ पूरन मेरा डाइट चार्ट देखकर बोला, ‘आज से नींबू-पानी-शहद ही मिलेगा।‘

मैं नींबू-शहद का गिलास लेकर एक कोने में बैठ गया और कैफे में क्रमशः प्रवेश करते मरीजों को देखने लगा। कोई बहुत मोटा था, कोई बहुत पतला। कोई लंगड़ा कर चल रहा था, किसी की कमर झुकी हुई थी। ज्यादातर अधेड़ स्त्री-पुरुष थे, लेकिन सबके सब निश्चित रूप से संपन्न रहे होंगे।

सात से आठ वाली योगासन की कक्षा मैंने छोड़ दी लेकिन आठ बजने में पांच मिनट पर मैं ‘योगा हाॅल‘ के भीतर था - डाॅ. नीरज के प्रवचन के लिए। चिकित्सालय के ‘योगा हाॅल‘ के भीतर था-डाॅ. नीरज के प्रवचन के लिए। चिकित्सालय के ‘योगा हाॅल‘ से यह मेरा पहला साक्षात्कार था।

वह एक विशाल हॉल था। जिसमें सामने की दीवार पर बहुत बड़े आकार का तांबे का ‘ऊँ‘ लगा हुआ था। उसके सामने डाॅ. नीरज का सफेद आसन था और आसन के सामने पूरे हाॅल में कीमती दरियां बिछी हुई थीं। योगासन की कक्षा समाप्त हो गई थी और सभी मरीज डाॅ. नीरज के इंतजार में थे।

ठीक आठ बजे चीते जैसी फुर्ती के साथ डाॅ. नीरज ने प्रवेश लिया और मुझे गेट पर खड़ा देख प्रसन्न हो गए।

'आइए।‘ डाॅ. नीरज ने कहा और अपने आसन पर जाकर बैठ गए। बाकी मरीजों से थोड़ा हट कर मैं भी एक तरफ बैठ गया।

‘पहले आप सबका अपने नये सदस्य से परिचय कराते हैं।‘ डाॅ. नीरज ने मेरी तरफ इशारा कर सभा को संबोधित किया। मैंने खड़े होकर सबको नमस्कार कर दिया। प्रत्युत्तर में बाकी लोगों ने भी हाथ जोड़ दिए।

‘यह श्री देव सिन्हा हैं। लेखक और पत्रकार। मुंबई से आए हैं। मेरा श्री देव से आग्रह है कि जब उनके जैसा व्यक्ति यहां आ ही गया है तो हमारे इस चेतना के जागरण के विज्ञान का खुद भी लाभ ले और यहां से जाकर दूसरे लोगों को भी जागृत करे। मैं फिर कहता हूं कि लिखने-पढ़ने वालों का जीवन केवल उनका अपना नहीं होता। आप यहां से एक बड़े समाज के लिए जनहित का संदेश लेकर जाएंगे तो हमारे यह प्रयत्न सार्थक होंगे। चलिए अब मेरे पीछे-पीछे बोलिए-

निसर्गम् शरणम् गच्छामि

योगम् शरणम् गच्छामि

आरोग्यम् शरणम् गच्छामि!!

‘हां तो मित्रो!‘ डाॅ. नीरज शुरू हो गए, ‘जैसा कि आप जानते हैं कि दवा से रोग दबा दिया जाता है। दबा हुआ रोग बार-बार उभरता है। हम रोग को दबाने में नहीं जड़ से मिटाने में यकीन रखते हैं। हमारे केंद्र की एक बड़ी विशेषता यही है कि यहां रोगी न केवल स्वस्थ होता है वरन खुद एक चिकित्सक बन कर जीवन में लौटता है। हम मानते हैं कि सारे रोग एक हैं और रोग की दवा भी एक ही है। आहार को लेकर हमारा अज्ञान ही समस्त रोगों की जड़ है इसलिए दूषित, जहरीले भोजन से ‘कचराघर‘ बन चुका पेट यहां सबसे पहले स्वच्छ किया जाता है। आज हमारी इंदौरवासी महिला मरीज श्रमती कुसुम व्यास हमसे विदा ले रही हैं, हमारे केंद्र में आईं तो इनका वजन पिच्चासी किलो था। अब यह बासठ किलो की हैं। क्यों बहन जी, कोई संदेश?‘

श्रीमती व्यास उठकर खड़ी हो गईं और लजाते हुए बोलीं -‘मुझे तो इतना ही कहना है जी कि मैं यहां स्ट्रेचर पर लाई गई थी और अपने पांवों से चलकर जा रही हूं।‘

सभागार तालियों से गूंज उठा।

‘कोई प्रश्न?‘ डॉक्टर ने पूछा।

मेरा मन नहीं माना। मैंने हाथ उठा दिया।

'पूछिए!‘ डॉ० नीरज बोले।

'बाहर जो दुख है, शोक है, दैन्य है, रोजी-रोटी की मशक्कत है, भूख है, संताप है, अपहरण, बलात्कार, हत्याएं, तालाबंदी, हड़तालें और लाठीचार्ज हैं, चैबीस घंटों की भागदौड़ और तनाव है, झुग्गी-झोपड़ियों का नरक और जीवन का विराट तथा अनवरत संग्राम है और जिसके कारण ही बड़े-बड़े रोग हैं, निधन है, लाचारियां हैं, आत्महत्याएं है...‘

‘बस बस! मिस्टर देव! मैं आपका प्रश्न समझ गया!‘ डाॅ. नीरज ने मुझे टोक दिया, ‘लेकिन इस शाश्वत प्रश्न का जवाब मुंबई हाॅस्पिटल, अपोलो हाॅस्पिटल या ‘एम्स‘ का कोई डाॅक्टर दे सकता है?‘ अंत तक आते-आते डाॅ. नीरज का चेहरा तमतमाने लगा था। ‘आप चाहें तो इस विषय पर हम अलग से बैठक कर सकते हैं मिस्टर देव वैसे आपकी सूचना के लिए बता दूं कि चिकित्सक होने से पहले मैं कवि और उससे भी पहले माक्र्सवाद का विद्यार्थी था। और इन दोनों कारणों से ही मैं प्राकृतिक चिकित्सा की तरफ आया। जिस बाईपास सर्जरी का खर्च मुंबई अस्पताल में डेढ़ दो लाख रुपये आता है उसी रोगी हृदय को हमारे यहां बीस दिन और बीस हजार रुपये में ठीक कर देते हैं।‘

'थैंक्यू डाॅक्टर। मेरी मंशा आपको चोट पहुंचाने की नहीं थी। एक लेखक होने के कारण मेरी जिज्ञासाएं जरा दूसरी तरह की हैं।‘ मैंने जवाब दिया और उठ खड़ा हुआ क्योंकि स्वयं डाॅ. नीरज भी खड़े हो चुके थे। घड़ी में ठीक नौ बज रहे थे। मरीजों को इलाज के लिए हेल्थ क्लब जाना था।


×××


रात बारह बजे आने वाले फोन ने जगा दिया।

इस समय? मैंने लिहाफ में से मुंह निकालकर सोचा और टेबल लैंप जलाकर घड़ी देखी-सचमुच बारह ही बजे थे। असल में दिन भर के इलाज ने शरीर को भरपूर राहत देने के साथ-साथ बेतरह थका भी दिया था। आखिरी, गर्म पानी में पैरों का स्नान और नाभि में गाय के दूध से बना शुद्ध घी लगवा कर जब मैं कमरे पर लौटा तो रात ग्यारह बजते-बजते ही बड़ी सुहानी नींद में चला गया था।

फोन पर शर्मा जी थे।

‘कीचड़ स्नान के लिए जाना है क्या?‘ मैं चिढ़कर पूछा।

‘नहीं सर!‘ डायरेक्ट लाइन पर आपका फोन है मुंबई से।‘ शर्मा जी संयत थे।

‘आया।‘ मैंने कहा और बिस्तर से निकल कर शाॅल ढूंढने लगा। इस समय फोन क्यों किया होगा नीलम ने? मैंने सोचा। हालांकि मुंबई के लिहाज से यह कोई ज्यादा समय नहीं था। इस समय तक तो मैंने रात का खाना भी नहीं खाया होता था।

‘देव बुरी खबर है।‘ नीलम हांफ-सी रही थी। ‘आज दोपहर निशा ने ‘रैटौल‘ खाकर आत्महत्या कर ली। अभी-अभी अस्पताल से उसकी बाॅडी लेकर आए हैं। बाहर पूरी काॅलोनी जमा है। मैं उसे देखने अस्पताल गई थी। वह अंत समय तक बड़बड़ा रही थी कि देव अंकल होते तो मैं बताती मेरे साथ क्या हुआ?‘

‘ओह!‘ मेरे मुंह से निकला। फिर मैंने फोन रख दिया। शरीर का एक-एक रोम खड़ा हो गया था।

फिर रात भर नींद नहीं आई। ऐसा क्या हुआ होगा कि चार्टर्ड एकांउटेंट बनने का स्वप्न देखने वाली एक युवा लड़की को आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा?

सिगरेट होती तो मैं शायद रात भर चहलकदमी करता। बिस्तर में पड़े-पड़े सुबह पांच बजे आने वाले फोन का इंतजार करता रहा। भूख भी बहुत कस कर लग रही थी क्योंकि डाॅ. नीरज ने मुझे तीन दिन के उपवास पर रख दिया था-सिर्फ नींबू-पानी-शहद पीने की छूट थी।


×××


मैंने तुम्हें एक नया नाम दिया है। सुबह सात बजे मैं सोनल को बता रहा था। सात से आठ वाली ‘योगा क्लास‘ से डाॅ. नीरज ने मुझे मुक्ति दिला दी थी। इसलिए यह पूरा एक घंटा मेरा स्थायी रूप से कैफे में बीतता था-सोनल के साथ। यह मेरी पांचवीं सुबह थी।

‘क्या नाम दिया है सुनें तों!‘ सोनल किचन के उस पार से मेरे लिए खुद नींबू-पानी-शहद लेकर आ गई थी।

‘रिमोट एरिया की महारानी।‘ मैं बुदबुदाया।

सोनल ने सुना और खिलखिलाने लगी लेकिन खिलखिलाते खिलखिलाते वह दूर चली गई। काउंटर के उस पार जाकर वह चीखी, ‘तुम्हारा आज का चार्ट आ गया है राइटर! आज तुमको दोपहर के खाने में एक प्लेट सलाद, सोयाबीन का दही और आधा प्लेट उबला हुआ पालक मिलने वाला है।‘

मैं विस्मित रह गया। उसी विस्मय में थरथराता मैं काउंटर तक गया और बोला -‘तुमको मालूम है, तुम मुझे तुम कह रही हो।‘

'क्या? नहीं!!‘ काउंटर के उस पार सोनल थिर थी।

फिर वह धीरे-धीरे पीछे हटी, एकाएक झटके से घूमी और भीतर किचन में कहीं गायब हो गई।

कुछ देर इंतजार करने के बाद मैंने काउंटर पर ठक-ठक की तो पूरन बाहर निकला।

'सोनल कहां है?‘ मैंने पूछा।

‘मेम साब अपने कमरे पर चली गई हैं।‘ पूरन ने बताया और मुझे अवाक छोड़ किचन के भीतर चला गया।

कैफे की एक मेज पर मेरा नींबू-पानी-शहद लावारिस पड़ा था।


×××


दोपहर का भोजन वही था जो सोनल ने बताया था लेकिन खुद सोनल वहां नहीं थी। वह रात के खाने पर भी नहीं दिखी। पूरन ने बताया उनकी तबीयत ठीक नहीं है। वह कमरे पर हैं। बहुत डरते-डरते पूरन ने सोनल के कमरे का फोन नंबर दिया।

रात नौ बजे मैंने सोनल का फोन नंबर घुमा दिया। सोनल ही थी।

‘सोनल मैं देव!‘

‘जी।‘ उधर से दबा भिंचा स्वर आया।

‘बीमार हो?‘

‘हां।‘

‘तुम लोग भी बीमार पड़ते हो?‘ मैंने परिहास किया, ‘खाना खाया?‘

‘नहीं।‘

‘क्यों?‘

‘क्यों इतना पूछते हैं?‘ सोनल बिदक गई।

‘आखिर तुम्हें हुआ क्या है?‘ मैं झल्ला ही तो पड़ा।

‘मैं कमजोर पड़ गई हूं राइटर। मुझे बख्श दो प्लीज।‘ सोनल बाकायदा सिसक रही थी, ‘जैसा भी था मेरा एक जीवन था, जो सिर्फ मेरा अपना था, उसमें किसी की पूछताछ नहीं थी, उपेक्षा नहीं थी, अपेक्षा भी नहीं थी। तुमने ये सब चीजें मुझमें जगा दीं राइटर। और मैं नहीं चाहती कि ये सब चीजें मुझमें जाग जाएं। प्लीज...गुड नाइट।‘ सोनल ने फोन काट दिया, एकाएक।

मैं सन्न रह गया। अनजाने ही मैंने एक क्रूर काम कर दिया था। हम लेखक लोग अंततः क्रूर ही होते हैं। उम्मीदें जगाकर फिर उन्हें नष्ट कर देते हैं।

सचमुच सोनल को मेरे बीत चुके और आनेवाले जीवन के बारे में क्या पता था? यह सच है कि चार-पांच रोज बाद मैं यहां से चला जाऊंगा। मेरे चले जाने के बाद सोनल का जो जीवन होगा उसमें क्या कोई उससे पूछने वाला होगा कि तू इतनी उदास क्यों है सोनल।

मैंने फिर फोन नंबर घुमाया। फोन एंगेज था। शायद सोनल ने फोन उठाकर रख दिया था।

तभी कमरे की बत्ती चली गई।

अरे? साढ़े नौ बज गए? मैंने सोचा और दोनों हाथों से माथा पकड़ कर बिस्तर पर बैठ गया।

अगले रोज दोपहर मेरे जीवन में एक नया दुख लग गया। पूरन ने मुझे एक नीले रंग का खूबसूरत कागज दिया। उस पर लिखा था -‘राइटर! मैं यह चिकित्सालय छोड़कर जा रही हूं। हममें से किसी एक को इस तरह जाना ही था। तुम तो संवेदनशील हो। सहृदय हो। हो सके तो, इस तरह छोड़कर जाने के लिए, माफ कर देना। तुम्हारी-रिमोट एरिया की महारानी।‘

'पूरन। मुझे एक हर्बल टी पिला सकते हो?‘ मैंने पूछा

‘नहीं साब।‘ पूरन ने सपाट-सा जवाब दिया।

‘शटअप।‘ मैं बड़बड़ाया और पार्क में जाकर एक झूले पर लेट गया।

उसी समय मुझे ढूंढते हुए रिसेप्शन वाले शर्मा जी आ गए। ‘देव साब, अपने घर पर फोन करें। भाभी जी का फोन था। जरूरी बात करनी है।‘

नीलम ने जो बताया उससे मेरे रहे सहे होश भी जाते रहे।

मालिकों ने हमारी पत्रिका अपने फर्नीचर और कर्मचारियों सहित दिल्ली के किसी सेठ को बेच दी थी। कर्मचारी संगठित होकर लेबर कोर्ट में जा रहे थे और चाहते थे कि इस लड़ाई में मैं उनके साथ खड़ा नजर आऊं। मुझे तत्काल बुलाया गया था।


×××


शाम को मैं डाॅक्टर से विदा ले रहा था। डाॅक्टर ने जयपुर तक के लिए अपनी गाड़ी का इंतजाम कर दिया था। जयपुर में मेरा एक दोस्त रात की किसी फ्लाइट का टिकट लेकर प्रतीक्षारत था।

‘मैं तो जा ही रहा था सोनल।‘ मैंने सोचा, ‘तुम क्यों चली र्गइं?‘

‘सचमुच बहुत सुख मिला यहां।‘ मैंने डाॅक्टर से हाथ मिलाया और कार में बैठ गया। सुरक्षा अधिकारियों ने चिकित्सालय का विशाल द्वार खोल दिया।

बाहर दुख था।


रचनाकाल: मार्च 2000 </Poem>