दुखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी / आचार्य चतुरसेन शास्त्री
गर्मी के दिन थे। बादशाह ने उसी फाल्गुन में सलीमा से नई शादी की थी। सल्तनत के सब झंझटों से दूर रहकर नई दुलहिन के साथ प्रेम और आनन्द की कलोलें करने, वह सलीमा को लेकर कश्मीर के दौलतखाने में चले आए थे।
रात दूध में नहा रही थी। दूर के पहाड़ों की चोटियाँ बर्फ से सफेद होकर चाँदनी में बहार दिखा रही थीं। आरामबाग के महलों के नीचे पहाड़ी नदी बल खाकर बह रही थी।
मोतीमहल के एक कमरे में शमादान जल रहा था, और उसकी खुली खिड़की के पास बैठी सलीमा रात का सौन्दर्य निहार रही थी। खुले हुए बाल उसकी फिरोजी रंग की ओढ़नी पर खेल रहे थे। चिकन के काम से सजी और मोतियों से गुँथी हुई उस फीरोजी रंग की ओढ़नी पर, कसी हुई कमखाब की कुरती और पन्नों की कमर-पेटी पर, अंगूर के बराबर बड़े मोतियों की माला झूम रही थी। सलीमा का रंग भी मोती के समान था। उसकी देह की गठन निराली थी। संगमरमर के समान पैरों में जरी के काम के जूते पड़े थे, जिन पर दो हीरे धक् -धक् चमक रहे थे।
कमरे में एक कीमती ईरानी कालीन का फर्श बिछा था, जो पैर लगते ही हाथ भर धँस जाता था। सुगन्धित मसालों से बने हुए शमादान जल रहे थे। कमरे में चार पूरे कद के आईने लगे थे। संगमरमर के आधारों पर सोने-चाँदी के फूलदानों में ताजे फूलों के गुलदस्ते रक्खे थे। दीवारों और दरवाजों पर चतुराई से गुँथी हुई नागकेसर और चम्पे की मालाएँ झूल रही थीं, जिनकी सुगन्ध से कमरा महक रहा था। कमरे में अनगिनत बहुमूल्य कारीगरों की देश-विदेश की वस्तुएँ करीने से सजी हुई थीं।
बादशाह दो दिन से शिकार को गए थे। आज इतनी रात हो गई, अभी तक नहीं आए। सलीमा चाँदनी में दूर तक आँखें बिछाए सवारों की गर्द देखती रही। आखिर उससे न रहा गया, वह खिड़की से उठकर, अनमनी-सी होकर मसनद पर आ बैठी। उम्र ओर चिन्ता की गर्मी जब उससे सहन न हुई, तब उसने अपनी चिकन की ओढ़नी भी उतार फेंकी और आप ही आप झुँझलाकर बोली - 'कुछ भी अच्छा नहीं लगता। अब क्या करूँ?' इसके बाद उसने पास रक्खी बीन उठा ली। दो-चार उँगली चलाई, मगर स्वर न मिला। भुनभुनाकर कहा - 'मर्दों की तरह यह भी मेरे वश में नहीं है।' सलीमा ने उकताकर उसे रखकर दस्तक दी। एक बाँदी दस्तबस्ता हाजिर हुई।
बाँदी अत्यन्त सुन्दरी और कमसिन थी। उसके सौन्दर्य में एक गहरे विषाद की रेखा और नेत्रों में नैराश्य-स्याही थी। उसे पास बैठने का हुक्म देकर सलीमा ने कहा - 'साकी, तुझे बीन अच्छी लगती है या बाँसुरी?'
बाँदी ने नम्रता से कहा - 'हुजूर जिसमें खुश हों।'
सलीमा ने कहा - 'पर तू किसमें खुश है?'
बाँदी ने कंपित स्वर में कहा - 'सरकार बाँदियों की खुशी ही क्या?'
क्षण भर सलीमा ने बाँदी के मुँह की तरफ देखा - वैसा ही विषाद, निराशा और व्याकुलता का मिश्रण हो रहा था।
सलीमा ने कहा - 'मैं क्या तुझे बाँदी की नजर से देखती हूँ?'
'नहीं, हजरत की तो लौंडी पर खास मेहरबानी है।'
'तब तू इतनी उदास, झिझकी हुई और एकान्त में क्यों रहती है? जब से तू नौकर हुई है, ऐसा ही देखती हूँ! अपनी तकलीफ मुझसे तो कह प्यारी साकी।'
इतना कहकर सलीमा ने उसके पास खिसक कर उसका हाथ पकड़ लिया।
बाँदी काँप गई, पर बोली नहीं।
सलीमा ने कहा - 'कसमिया! तू अपना दर्द मुझ से कह ! तू इतनी उदास क्यों रहती है?'
बाँदी ने कम्पित स्वर में कहा - 'हुजूर क्यों इतनी उदास रहती हैं?'
सलीमा ने कहा - 'इधर जहाँपनाह कुछ कम आने लगे हैं। इससे तबीयत जरा उदास रहती है।'
बाँदी - 'सरकार, प्यारी चाज न मिलने से इंसान को उदासी आ ही जाती है, अमीर और गरीब, सभी का दिल ही है।'
सलीमा हँसी। उसने कहा - 'समझी, अब तू किसी को चाहती है। मुझे उस का नाम बता, उसके साथ तेरी शादी करा दूँगी।'
साकी का सिर घूम गया। एकाएक उसने बेगम की आँखों मे आँख मिलाकर कहा - 'मैं आपको चाहती हूँ।'
सलीमा हँसते-हँसते लोट गई। उस मदमाती हँसी के वेग में उसने बाँदी का कम्पन नहीं देखा। बाँदी ने वंशी लेकर कहा - 'क्या सुनाऊँ?'
बेगम ने कहा - 'ठहर, कमरा बहुत गर्म मालूम होता है। इसके तमाम दरवाजे और खिड़कियाँ खोल दे। चिरागों को बुझा दे, चटखती चाँदनी का लुत्फ उठाने दे और फूल-मालाएँ मेरे पास रख दे।'
बाँदी उठी। सलीमा बोली - 'सुन, पहले एक गिलास शरबत दे, बहुत प्यासी हूँ।'
बाँदी ने सोने के गिलास में खुशबूदार शरबत बेगम के सामने ला धरा। बेगम ने कहा -'उफ! यह तो बहुत गर्म है। क्या इसमें गुलाब नहीं दिया?'
बाँदी ने नम्रता से कहा - 'दिया तो है सरकार?'
'अच्छा, इसमें थोड़ा-सा इस्तम्बोल और मिला।'
साकी गिलास लेकर दूसरे कमरे में चली गई। इस्तम्बोल मिलाया और भी एक चीज मिलाई। फिर वह सुवासित मदिरा का पात्र बेगम के सामने ला धरा।
एक ही साँस में उसे पीकर बेगम ने कहा - 'अच्छा, अब सुना। तूने कहा कि मुझे प्यार करती है, सुना कोई प्यार का गाना सुना।'
इतना कह और गिलास को गलीचे पर लुढ़काकर मदमाती मसनद पर खुद लुढ़क गई और रसभरे नेत्रों से साकी की ओर देखने लगी। साकी ने वंशी का सुर मिलाकर गाना शुरू किया -
दुखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी ...
वक्त देर तक साकी की वंशी और कण्ठ-ध्वनि कमरे में घूम-घूमकर रोती रही। धीरे-धीरे साकी खुद रोने लगी। सलीमा मदिरा और यौवन के नशे में होकर झूमने लगी।
गीत खतम करके साकी ने देखा, सलीमा बेसुध पड़ी है। शराब की तेजी से उसके गाल एकदम सुर्ख हो गए हैं और ताम्बूल-राग-रंजित होंठ रह-रहकर फड़क रहे हैं। साँस की सुगन्ध से कमरा महक रहा है। जैसे मंद पवन से कोमल पत्ती काँपने लगती है, उसी प्रकार सलीमा का वक्षस्थल धीरे-धीरे काँप रहा है। प्रस्वेद की बूँदें ललाट पर दीपक के उज्ज्वल प्रकाश में मोतियों की तरह चमक रही हैं।
वंशी रखकर साकी क्षण भर बेगम के पास आकर खड़ी हुई। उनका शरीर काँपा, आँखें जलने लगीं, कण्ठ सूख गया। वह घुटने के बल बैठकर बहुत धीरे-धीरे अपने आँचल से बेगम के मुख का पसीना पोंछने लगी। इसके बाद उसने झुककर बेगम का मुँह चूम लिया।
इसके बाद ज्यों ही उसने अचानक आँख उठाकर देखा, खुद दीन-दुनिया के मालिक शाहजहाँ खड़े उसकी यह करतूत अचरज और क्रोध से देख रहे हैं।
साकी को साँप डँस गया। वह हतबुद्धि की तरह बादशाह का मुँह ताकने लगी। बादशाह ने कहा - 'तू कौन है, और यह क्या कर रही थी?'
साकी ने धीमे स्वर में कहा - 'जहाँपनाह! कनीज अगर कुछ जवाब न दे तो?'
बादशाह सन्नाटे में आ गए। बाँदी की इतनी स्पर्धा!
उन्होंने कहा - 'मेरी बात का जवाब नहीं? अच्छा, तुझे नंगी करके कोड़े लगाए जायँगे।'
साकी ने कम्पित स्वर में कहा - 'मैं मर्द हूँ!'
बादशाह की आँखों में सरसों फूल उठी, उन्होंने अग्निमय नेत्रों से सलीमा की ओर देखा। वह बेसुध पड़ी सो रही थी। उसी तरह उसका भरा यौवन खुला पड़ा था। उसके मुँह से निकला, 'उफ फाहशा।' और तत्काल उनका हाथ तलवार की मूठ पर गया। फिर नीचे को उन्होंने घूमकर कहा - 'दोजख के कुत्ते! तेरी यह मजाल!'
फिर कठोर स्वर से पुकारा - 'मादूम!'
क्षण भर में एक भयंकर रूपवाली तातारी औरत बादशाह के सामने अदब से आ खड़ी हुई। बादशाह ने हुक्म दिया - 'इस मरदूद को तहखाने में डाल दे, ताकि बिना खाए-पिए मर जाए।'
मादूम ने अपने कर्कश हाथों में युवक का हाथ पकड़ा और ले चली। थोड़ी देर में दोनों लोहे के एक मजबूत दरवाजे के पास आ खड़े हुए। तातारी बाँदी ने चाबी निकालकर दरवाजा खोला और कैदी को भीतर ढकेल दिया। कोठरी की गच कैदी का बोझा ऊपर पड़ते ही काँपती हुई नीचे को धसकने लगी।
प्रभात हुआ। सलीमा की बेहोशी दूर हुई। चौंककर उठ बैठी। बाल सँवारे, ओढ़नी ठीक की और चोली के बटन कसने को आईने के सामने जा खड़ी हुई। खिड़कियाँ बन्द थीं। सलीमा ने पुकारा - 'साकी! प्यारी साकी! बड़ी गर्मी है, जरा खिड़की तो खोल दे। निगोड़ी नींद ने तो आज गजब ढा दिया। शराब कुछ तेज थी।'
किसी ने सलीमा की बात न सुनी। सलीमा ने जरा जोर से पुकारा - 'साकी!'
जवाब न पाकर सलीमा हैरान हुई। वह खुद खिड़कियाँ खोलने लगी, मगर खिड़कियाँ बाहर से बन्द थीं। सलीमा ने विस्मय से मन ही मन कहा - 'क्या बात है? लौंडिया सब क्या हुईं?'
वह द्वार की तरफ चली। देखा, एक तातारी बाँदी नंगी तलवार लिए पहरे पर मुस्तैद खड़ी है। बेगम को देखते ही उसने सिर झुका लिया।
सलीमा ने क्रोध से कहा - 'तुम लोग यहाँ क्यों हो?'
'बादशाह के हुक्म से।'
'क्या बादशाह आ गए?'
'जी, हाँ।'
'मुझे इत्तला क्यों नहीं की?'
'हुक्म नहीं था।'
'बादशाह कहाँ हैं?'
'जीनतमहल के दौलतखाने पर।'
सलीमा के मन में अभिमान हुआ। उसने कहा - 'ठीक है, खूबसूरती की हाट में जिनका कारोबार है, मुहब्बत को क्या समझें? तो अब जीनतमहल की किस्मत खुली?'
तातारी स्त्री चुपचाप खड़ी रही। सलीमा फिर बोली -
'मेरी साकी कहाँ है?'
'कैद में।'
'क्यों?'
'जहाँपनाह का हुक्म था।'
'उसका कुसूर क्या था?'
'मैं अर्ज नहीं कर सकती।'
'कैदखाने की चाबी मुझे दे, मैं अभी उसे छुड़ाती हूँ।'
'आप को अपने कमरे से बाहर आने का हुक्म नहीं है।'
'तब क्या मैं भी कैद हूँ?'
'जी हाँ।'
सलीमा की आँखों में आँसू भर आए। वह लौटकर मसनद पर पड़ गई और फूट-फूटकर रोने लगी। कुछ ठहरकर उसने एक खत लिखा - 'हुजूर! मेरा कुसूर माफ फर्मावें। दिन भर की थकी होने से ऐसी बेसुध सो गई कि हुजूर के इस्तकबाल में हाजिर न रह सकी। और मेरी उस प्यारी लौंडी की भी जाँबख्शी की जाय। उसने हुजूर के दौलतखाने में लौट आने की इत्तला मुझे वाजबी तौर पर न देकर बेशक भारी कुसूर किया है, मगर वह नई, कमसिन गरीब और दुखिया है।
कनीज
सलीमा।'
चिठ्ठी बादशाह के पास भेज दी गई। बादशाह की तबीयत बहुत नासाज थी। तमाम हिन्दुस्तान के बादशाह की औरत फाहशा निकले। बादशाह अपनी आँखों से परपुरुष को उसका मुँह चूमते देख चुके थे। वह गुस्से से तलमला रहे थे और गम गलत करने को अन्धाधुन्ध शराब पी रहे थे। जीनतमहल मौका देखकर सौतिया डाह का बुखार निकाल रही थी। तातारी बाँदी को देखकर बादशाह ने आगबबूला होकर कहा - 'क्या लाई हो?'
बाँदी ने दस्तबस्ता अर्ज की - 'खुदाबन्द! सलीमा बीबी की अर्जी है।'
बादशाह ने गुस्से से होंठ चबाकर कहा - 'उससे कह दे कि मर जाय।'
इसके बाद खत में एक ठोकर मारकर उन्होंने उधर से मुँह फेर लिया। बाँदी लौट आई। बादशाह का जवाब सुनकर सलीमा धरती पर बैठ गई। उसने बाँदी को बाहर जाने का हुक्म दिया और दरवाजा बन्द करके फूट-फूटकर रोई। घण्टों बीत गए, दिन छिपने लगा, सलीमा ने कहा - 'हाय! बादशाहों की बेगम होना भी बदनसीबी है! इन्तजारी करते-करते आँख फूट जाय, मिन्नतें करते-करते जबान घिस जाय, अदब करते-करते जिस्म के टुकड़े-टुकड़े हो जायँ, फिर भी इतनी-सी बात पर कि मैं जरा सो गई, उनके आने पर जाग न सकी, इतनी सजा? इतनी बेइज्जती?'
'तब मैं बेगम क्या हुई? जीनत और बाँदियाँ सुनेंगी तो क्या कहेंगी? इस बेइज्जती के बाद मुँह दिखाने लायक कहाँ रही? अब तो मरना ही ठीक है। अफसोस, मैं किसी गरीब की औरत क्यों न हुई।'
धीरे-धीरे स्त्रीत्व का तेज उसकी आत्मा में उदय हुआ। गर्व और दृढ़ प्रतिज्ञा के चिह्न उसके नेत्रों में छा गए। वह साँपनी की तरह चपेट खाकर उठ खड़ी हुई। उसने एक और खत लिखा -
'दुनिया के मालिक! आपकी बीवी और कनीज होने की वजह से आपके हुक्म को मानकर मरती हूँ, इतनी बेइज्जती पाकर एक मलिका का मरना ही मुनासिब है, मगर इतने बड़े बादशाह को औरतों को इस कदर नाचीज तो न समझना चाहिए कि अदना-सी बेवकूफी की इतनी बड़ी सजा दी जाय। मेरा कुसूर तो इतना ही था कि मैं बेखबर सो गई थी। खैर, फिर एक बार हुजूर को देखने की ख्वाहिश लेकर मरती हूँ। मैं उस पाक परवरदिगार के पास जाकर अर्ज करुँगी कि वह मेरे शौहर को सलामत रक्खें।
सलीमा'
खत को इत्र से सुवासित करके ताजे फूलों के एक गुलदस्ते में इस तरह रख दिया, जिससे किसी की उस पर नजर न पड़ जाय। इसके बाद उसने जवाहर की पेटी से एक बहुमूल्य अँगूठी निकाली और कुछ देर तक आँख गड़ा-गड़ाकर उसे देखती रही। फिर उसे चाट गई।
बादशाह शाम की हवाखोरी को नजर-बाग में टहल रहे थे। दो-तीन खोजे घबराए हुए आए और चिठ्ठी पेश करके अर्ज की - 'हुजूर, गजब हो गया। सलीमा बीबी ने जहर खा लिया और वह मर रही है।'
क्षण भर में बादशाह ने खत पढ़ लिया। झपटे हुए महल में पहुँचे। प्यारी दुलहिन सलीमा जमीन पर पड़ी है। आँखें ललाट पर चढ़ गई हैं। रंग कोयले के समान हो गया है। बादशाह से रहा न गया। उन्होंने घबराकर कहा - 'हकीम, हकीम को बुलाओ!' कई आदमी दौड़े।
बादशाह का शब्द सुनकर सलीमा ने उनकी तरफ देखा, और धीमे स्वर में कहा - 'जहे किस्मत।'
बादशाह ने नजदीक बैठकर कहा - 'सलीमा, बादशाह की बेगम होकर तुम्हें यही लाजिम था?'
सलीमा ने कष्ट से कहा - 'हुजूर, मेरा कुसूर मामूली था।'
बादशाह ने कड़े स्वर में कहा - 'बदनसीब! शाही जनानखाने में मर्द को भेष बदलकर रखना मामूली कुसूर समझती है? कानों पर यकीन कभी न करता, मगर आँखों देखी को झूठ मान लूँ?'
जैसे हजारों बिच्छुओं के एक साथ डंक मारने से आदमी तड़पता है, उसी तरह तड़पकर सलीमा ने कहा - 'क्या?'
बादशाह डरकर पीछे हट गए। उन्होंने कहा -'सच कहो, इस वक्त तुम खुदा की राह पर हो, यह जवान कौन था?'
सलीमा ने अचकचाकर पूछा, 'कौन जवान?'
बादशाह ने गुस्से से कहा - 'जिसे तुमने साकी बनाकर अपने पास रक्खा था?'
सलीमा ने घबराकर कहा - 'हैं! क्या वह मर्द है?'
बादशाह - 'तो क्या, तुम सचमुच यह बात नहीं जानतीं?'
सलीमा के मुँह से निकला - 'या खुदा।'
फिर उसके नेत्रों से आँसू बहने लगे। वह सब मामला समझ गई। कुछ देर बाद बोली - 'खाविन्द! तब तो कुछ शिकायत ही नहीं; इस कुसूर की तो यही सजा मुनासिब थी। मेरी बदगुमानी माफ फरमाई जाए। मैं अल्लाह के नाम पर पड़ी कहती हूँ, मुझे इस बात का कुछ भी पता नहीं है।'
बादशाह का गला भर आया। उन्होंने कहा - 'तो प्यारी सलीमा, तुम बेकुसूर ही चलीं?' बादशाह रोने लगे।
सलीमा ने उनका हाथ पकड़कर अपनी छाती पर रखकर कहा - 'मालिक मेरे! जिसकी उम्मीद न थी, मरते वक्त वह मजा मिल गया। कहा-सुना माफ हो, एक अर्ज लौंडी की मंजूर हो।'
बादशाह ने कहा - 'जल्दी कहो, सलीमा?'
सलीमा ने साहस से कहा - 'उस जवान को माफ कर देना।'
इसके बाद सलीमा की आँखों से आँसू बह चले और थोड़ी ही देर में ठण्डी हो गई।
बादशाह ने घुटनों के बल बैठकर उसका ललाट चूमा और फिर बालक की तरह रोने लगा।
गजब के अँधेरे और सर्दी में युवक भूखा-प्यासा पड़ा था। एकाएक घोर चीत्कार करके किवाड़ खुले। प्रकाश के साथ ही एक गम्भीर शब्द तहखाने में भर गया - 'बदनसीब नौजवान क्या होश-हवास में है?'
युवक ने तीव्र स्वर से पूछा - 'कौन?'
जवाब मिला - 'बादशाह।'
युवक ने कुछ भी अदब किए बिना कहा - 'यह जगह बादशाहों के लायक नहीं है - क्यों तशरीफ लाए हैं?'
'तुम्हारी कैफियत नहीं सुनी थी, उसे सुनने आया हूँ।'
कुछ देर चुप रहकर युवक ने कहा - 'सिर्फ सलीमा को झूठी बदनामी से बचाने के लिए कैफियत देता हूँ, सुनिए। सलीमा जब बच्ची थी, मैं उसके बाप का नौकर था। तभी से मैं उसे प्यार करता था। सलीमा भी प्यार करती थी; पर वह बचपन का प्यार था। उम्र होने पर सलीमा परदे में रहने लगी और फिर वह शाहंशाह की बेगम हुई, मगर मैं उसे भूल न सका। पाँच साल तक पागल की तरह भटकता रहा। अन्त में भेष बदलकर बाँदी की नौकरी कर ली। सिर्फ उसे देखते रहने और खिदमत करके दिन गुजार देने का इरादा था। उस दिन उज्ज्वल चाँदनी, सुगन्धित पुष्प-राशि, शराब की उत्तेजना और एकान्त ने मुझे बेबस कर दिया। उसके बाद मैंने आँचल से उसके मुख का पसीना पोंछा और मुँह चूम लिया। मैं इतना ही खतावार हूँ। सलीमा इसकी बाबत कुछ भी नहीं जानती।'
बादशाह कुछ देर चुपचाप खड़े रहे। उसके बाद वह दरवाजे बन्द किए बिना ही धीरे-धीरे चले गए।
सलीमा की मृत्यु को दस दिन बीत गए। बादशाह सलीमा के कमरे में ही दिन-रात रहते हैं। सामने नदी के उस पार, पेड़ों के झुरमुट में सलीमा की सफेद कब्र बनी है। जिस खिड़की के पास सलीमा बैठी उस दिन, रात को बादशाह की प्रतीक्षा कर रही थी, उसी खिड़की में, उसी चौकी पर बैठे हुए बादशाह उसी तरह सलीमा की कब्र दिन-रात देखा करते है। किसी को पास आने का हुक्म नहीं। जब आधी रात हो जाती है, तो उस गंभीर रात्रि के सन्नाटे में एक मर्म-भेदिनी गीत-ध्वनि उठ खड़ी होती है। बादशाह साफ-साफ सुनते हैं, कोई करुण-कोमल स्वर में गा रहा है -
दुखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी !