दुनिया के पतियों एक हो जाओ / गोपालप्रसाद व्यास
आजकल सबकी सुनवाई है, पति गरीब की नहीं। यह हाल तो पुरुषों के तथाकथित राज में है। अगर स्त्रियों का राज आया, जो एक दिन अवश्य आएगा, और यही हाल रहा, तो उस दिन हम लोगों की दशा क्या होगी, इसे कोई नहीं कह सकता।
देखिए, मालिक के मुकाबले में आज मजदूर को शह दी जाती है, सवर्ण के मुकाबले में अवर्ण तरज़ीह पाता है और गोरों के मुकाबले दुनिया की सहानुभूति कालों के पक्ष में तो हो सकती है, लेकिन पत्नी के मुकाबले में कोई भी निष्पक्ष न्यायाधीश बेचारे पति की हालत पर विचार करने को तैयार नहीं है। गोया जन्म से ही पतियो को, आजकल की पढ़ी-लिखी व तरक्की-पसंद दुनिया जरायमपेशा मानकर चलती है।
यह मान लिया गया है कि स्त्रियां दबाई गई हैं, सताई हुई हैं और उन्हें उभरने का, आगे बढ़ने का पुरुष वर्ग यानी पति लोग, मौका नहीं देते। देना भी नहीं चाहते। यह भी कहा जाता है कि स्त्री करुणा, ममता और क्षमा की मूर्ति है। यह संतोष, समर्पण और स्नेह जैसे दैवी गुणों से ओतप्रोत है और पुरुष यानी पति के भाग्य में तो बस छल, अविश्वास और स्वार्थ जैसे शब्द पड़े हैं। इन नारों और निष्कर्षों में झूठ-सच किस मिकदार में है, यह आप स्वयं जानते होंगे। मैं इनकी तफ़तीश में नहीं जाना चाहता। दूसरों की आंखों के तिनकों को हटाने से भी क्या लाभ, मैं अपने शहतीर की ख़बर लेता हूं। सौभाग्य से मैं भी एक पति हूं। गृहस्थी की गाड़ी में जुते काफी दिन होगए। अगर मेरी आवाज़ में ज़रा भी दम है और अगर वह आपकी सहानुभूति के स्तर को तनिक भी छू सकती है,तो भाइयो और बहनो, पतियो और पत्नियो, पूरे जोर के साथ, भुजा उठाकर कहता हूं पत्नी नहीं, आज पति सताया हुआ है। शासित और शोषित आज पत्नी नहीं, पति है। पतियों के जुल्म के दिन तो हवा हुए। अगर हमें मानवता की रक्षा करनी है तो पहले सब काम छोड़कर पत्नियों के जुल्मों से असहाय पतियों की रक्षा करनी होगी।
घर में पत्नी के आते ही एक ओर माँ, बहन और भाभी ने मुझे खुलेआम जोरू का गुलाम कहना आरंभ कर दिया है। तो भी मुझे यह तसल्ली नहीं कि कम-से-कम घरवालों की इस घोषणा से श्रीमतीजी को तो प्रसन्नता होगी ही। उलटा उनका आरोप यह है कि मैं माँ, बहनों और भावजों के सामने भीगी बिल्ली बन जाता हूं और जैसा कि मुझे करना चाहिए, उनकी तरफदारी नहीं करता। माँ कहती है कि लड़का हाथ से निकल गया, बहन कहती है भाभी ने भाई की चोटी कतर ली। भाभी कहती है-देवरानी क्या आई, लाला तो बदल ही गए। लेकिन पत्नी का कहना है कि तुम दूध पीते बच्चे तो नहीं, जो अभी भी तुम्हें माँ के आंचल की ओट चाहिए। बताइए, मैं किसकी कहूं? किसका भला बनूं? किसका बुरा बनूं? वैसे तो सभी नारियां शास्त्रों की दृष्टि से पूजनीय हैं, मगर मेरा तो इस जाति ने नाक में दम कर रखा है।
अगर मेरे इस कथन में तनिक भी सच्चाई की कमी महसूस हो, तो मैं इस प्रश्न के फैसले के लिए किसी भी पंचायत में, किसी भी जांच अदालत में ही नहीं, यू.एन.ओ. तक में जाने को तैयार हूं कि वह अपने निष्पक्ष निर्णय के द्वारा संसार के पतियों में जनमत संग्रह कराकर इस बात को बताए कि पति-समाज की दशा संसार में कितनी दयनीय है? शायद, मेरे इस कथन में कुछ देवियों को अतिशयोक्ति दिखाई दे। कुछ हास्यरस का लेखक समझकर मेरे इस मार्मिक निबंध को भी हंसी में दरगुज़र करना चाहें,पर मैं एकदम गंभीर भाव से कहता हूं कि ऐसा करना मेरे साथ नहीं, मेरी महान पति-बिरादरी के साथ भी अन्याय का कारण होगा। आप न जाइए यू.एन.ओ., न बैठाइए जांच कमीशन, न कीजिए पंच फैसला, खुद ही अपनी-अपनी अक्ल पर थोड़ा ज़ोर डालकर सहानुभूति से इस मसले पर विचार कीजिए, तो मेरी बात को सच पाइएगा।
उदाहरण के लिए, मैं कोई चार सौ रुपये महीने पगार पाता हूं। पहली तारीख़ को मुझे सीधा घर पहुंचने की हिदायत है। कह दिया गया है कि तनख्वाह लाकर सीधे पहले घर में देनी चाहिए, धोबी, कैंटीन और रेस्तरां के बिल सब वाहियात हैं। अगर न भी हों तो उनके बिल पहले होम-मिनिस्ट्री में मंजू़र होने चाहिए। साल में गिनकर दो बार मेरे कुर्ते-पायजामे सिलवाए जाते हैं और होली-दशहरे से पहले अगर वे जवाब भी दे जाएं तो उनके लिए अलग से रकम मंजू़र नहीं होती। दफ्तर जाते समय दोपहर बाद नाश्ते का सामान कैरियर में लटका दिया जाता है। गिनती के चार पान डिब्बी में रख दिए जाते हैं। छोटी-छोटी चार इकन्नियां जेब में डाल दी जाती हैं और शाम को लौटने पर पूछ लिया जाता है कि वह चार आने पैसे किसमें खर्च कर दिए?
रात को नौ बजे सोने और सुबह छः बजे उठने की मुझे सख्त ताकीद है। ज़ोर से हंसने, सिर उठाकर चलने, इधर-उधर बैठने और अंटसंट किताबें पढ़ने की मुझे मनाही है। ज्यादा चाय पीने, देर से घर लौटने और कभी सिनेमा-थियेटर का ज़िंक्र करने पर खास तौर की सजाएं निश्चित की हुई हैं। तय है कि महीने के पहले सप्ताह के प्रथम शनिवार को उनके साथ सिनेमा जाना है। खेल और क्लास का चुनाव वह स्वयं करती हैं। चलते वक्त उन्हें क्या पहनना है और मुझे क्या पहनना है, इसका फैसला उन्हीं के हाथ में है। यह आज सोलह वर्ष से मुझे निरंतर बताया जा रहा है। सख्त़ आदेश है कि खेल से पहले का समय उनसे बातें करने में और खेल के समय अपना ध्यान मुझे पर्दे पर ही लगाए रखना चाहिए।
मुझे किस-किस प्रकार के और किन-किन लोगों से दोस्ती रखनी है, कैसे-कैसे लोगों के घर जाना है और किन-किन को घर बुलाना है। उनकी सूचियों के विषय में मुझे बातें करने, देखने और सोचने तक की मनाही है। घर के मसाले तक मुझे ही लाने पड़ते हैं। मगर उनकी सूची और भाव मुझे पहले से लिखकर दे दिए जाते हैं और उनसे कम-बढ़ होने पर बड़ी कैफ़ियत ली जाती है। लेकिन, बाक़ी मार्केटिंग का काम वह स्वयं करना पसंद करती हैं। मुझे बार-बार हंसकर समझा दिया गया है कि उनकी पसंद की हुई, खरीदी हुई चीजों की सिर्फ तारीफ़ ही करूं। न उनके नाम पूछूं, न दाम ! मान लिया गया है कि मुझे लेटेस्ट फैशन का ज्ञान नहीं। यह भी तय होगया है कि मैं और पतियो की तरह अधिक नहीं कमा सकता और यह भी कि मेरे पल्ले पड़कर उनकी ज़िदगी तबाह होगई है। अब ज़िंदगी किसकी खराब हुई है, इसका फैसला आप खुद करें। खुदा के लिए इस प्रश्न को वर्ग-संघर्ष का, बिरादरी का या अपने मान-अपमान अथवा स्वार्थों और हितों का न बना दें। यह भी सोचें कि पति भी आख़िर मनुष्य है। भगवान ने उसे भी दिल और दिमाग दिया है। इस नई रोशनी ने उसमें भी तमन्नाएं भर दी हैं। वह भी दूसरों की तरह न्याय का हकदार है।
ज़रा खुद ही ठंडे मस्तिष्क से सोचिए कि अन्याय पति के साथ हो रहा है या पत्नी के साथ? खर्च पति पर ज्य़ादा हो रहा है या पत्नी पर? आराम से पति अधिक है या पत्नी? अगर आपने घर में ही इस मसले को हल नहीं किया तो वह दिन दूर नहीं जब पति लोग पत्नियों के दमन के विरुद्ध बगावत कर देंगे और पत्नियों की इस मीठी नादिरशाही को ख़त्म करने के लिए उनका नारा होगा, "दुनिया के पतियो, एक हो जाओ।"